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महिला दिवस पर आयोजित काव्य प्रतियोगिता हेतु

सबसे बड़ी भूल
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जिस कलम से मुझे इंकलाब लिखना था
उसी कलम से मैंने इश्क़ लिखा
जिस रात मुझे हक़ की ज़रूरी लड़ाई लड़नीं थी
उसी रात मैंने प्रेम में कई समझौते किये
उस शाम जब मुझे धरने पर होना चाहिए था
मैंने महबूब के कांधो पर सिर धर दिया
आज जब मुझसे रोटी, समय और ज़िल्लत काटे से भी नहीं कट रही
मेरे कानों में हर पल गूंज रहे हैं पूरब और प्रेमचंद
हँसिया और हथौड़ा
मिट्टी और मुल्क़ जैसे शब्द
ठीक उसी वक़्त मैंने तोड़ दी है इश्क़ वाली कलमें
फाड़ दी हैं मुहब्बत की नज़्मे सुपुर्द ए खाक़ कर दिया महबूब की याद को
मैं माफ़ी चाहती हूं
मेरे मुल्क मेरी मिट्टी से
मैं तुम्हारे हक़ में कुछ ना लिख सकी
हिंद की बेटी हिंदी में हिंदुस्तान के साथ खड़ी ना हो सकी !!

 




महिला दिवस काव्य प्रतियोगिता हेतु कविता – दबे रंग की स्त्री

 

प्रेम रखती हैं
सुझाव देने वाली
स्त्रियाँ सभी
एक अरसे से
अनुभव पिया है सबने।

गर्भवतियों को
दी जाने वाली सलाह में
सबसे पहले आता है
समाधान रंगभेद का।

सुनो बहन
ज़रूरी है गौरवर्ण
कैसे देगी जन्म
एक गोरी संतान को
दबे रंग की स्त्री।

डरती हाँ हाँ करती है
चाहे जो भी हो
ज़रूर देगी जन्म
गौर वर्ण की संतान
दबे रंग की स्त्री।

पड़ता नहीं खाना पूरा
जिसकी थल पर
पिलाते रोज़ अब नारियल पानी
ज़रूर देगी जन्म
गौर वर्ण की संतान
दबे रंग की स्त्री।

लाते हैं खरीद कर
महंगी केसर की डिबिया
देते घूँट घूँट रखवारी में
ज़रूर देगी जन्म
गौर वर्ण की संतान
दबे रंग की स्त्री।

हावी  विषमताओं को
सन्तुलित करने का ज़िम्मा
उठाना है स्त्री के गर्भ  को,
समय साक्षी है कि
क्या होगा अगर
नहीं दे पाई जन्म
गोरी संतान को
एक दबे रंग की स्त्री।