तुरुक डायरी (इस्तानबुल से होते हुए)
देश कोई अपनी बोली तो नहीं कि सोते में भी
समझ आ जायें
उनकी जीभ से निकलने वाली ध्वनियाँ तालू से टटकारती हुई
होंठों के बीच से सीटी निकालती हुई
छोड़ देती हैं निपट अकेला,
और देखते ही देखते एक शहर जंगल बान जाता है
और लोग दरख्तों से पत्तियाँ झाड़ने लगते हैं
बोली कोई दासी तो नहीं कि तुम्हारे कानों में
मछली सी तैरने लगे
इतिहास है सदियों का, जो सिलबट्टे पर घिसा गया
चटनी सा महीन, रोटी के साथ चटपटाते हुए
कई महिनों से मैं अपनी बोली के बिना भी
रहती हुई डरती हूँ कि मेरे शब्द कहीं
कफन ओढ़ कर सो जायें
मैं रह जाऊं एक अदद भाषा के बिना
Oct 14, 2014 10 am
इस शहर के नाखून बेहद लम्बे हैं
जो शायद खुदा के दरवाजे पर भी कील ठोंक देते हैं
मैं इसकी गलियों से डरती हुई
काँच के शीशे के पार मछली खाती हुई
सीने पर गड़े नाखूनों को देखती हूँ
मेरी तश्तरि पर रखी मछली
जिन्दा होकर बगल की मेज पर बैठ
शोरबा पीने लगती है
मैं उस कुत्ते को खोजने के लिये
सड़क पे निकल पड़ती हूँ जो मुर्दो की
कहानियाँ सुनायेगा
ये शहर बड़ी आंत सा शहर कभी नीचे उतरता है
यो कभी ऊपर चढ़ता है
तो कभी सीधा आसमान में पटक देता है
इस शहर के दाँत भी कुछ कम नहीं
सब कुछ चबा कर उगल देते हैं
मेरी बन्द खिड़की के पीछे
अनजान शहर खुल रहा है
(असंख्य मीनारों और मस्जिदों को देखते हुए)
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Oct 14, 2014 12:07am
इस्तानबुल दुनिया का सबसे पुराना शहर है, करीब तीन सौ ए डी में बसा माना जाता है, रोमन से लेकर ओट्टमन साम्राज्य का आधिपत्य रहा, इसलिये अगल बगल अनेक खण्डहर अनेक इमारते हैं, आज इस्तानबुल पहुंचते ही यही आने का कार्यक्रम बनाया। कभी कभी तो लगता है कि इस शहर का कोई भी इंसान अंग्रेजी नहीं बोलता संभलता है, सारे रास्ते टैक्सी ड्राइवर ना जाने क्या बड़बड़ाता रहा, जब उस पुरातन प्रदेश में पहुँचे तो म्यूजियम बन्द हो चुका था, बस महल खुला था, महल का टिकिट लेकर अन्दर पहुँची तो पुराना खण्डहर इलाका बन्द था, बाकी कमरों में १७ वी अट्ठारहवी शताब्दी के राजाओं का सामान सजा रखा था, कहीं खाना पकाना तो कहीं हीरे जवाहर तो कहीं तीर तलवार,,, मैं यही सोच रही थी कि रोमनों से पहले का इतिहास कहाँ गया? चलों उस वक्त का नहीं तो इस्लाम से पहले और रोमनों के बाद का?
म्यूजियमों में मेरा विश्वास नहीं है, खासतौर से राजशाही से जुड़े. क्यों कि राजा की तलवार तो दिखाई देती है, उसमें लगा खूण नहीं. तीर भाले तो होते हैं, लेकिन उनको चलाने वालों के भूखे पेट नहीं। बस एक चक्र लगा लो और बाहर निकल कर यूँ ही भटक लो तो बेहतर है।
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क्या हुआ जो तुमने मेरी
आस्था की दीवार पर
अपनी दीवार चढ़ा ली,
क्या हुआ जो तुमने मेरी तस्वीर पर
अपनी लकीरे खींच दी
अच्छा ही हुआ कि
मेरा और तु्म्हारे आका को
गुफ्तगू करने का
बहाना ही मिलेगा
मिलेंगे दो आका तो
शहर का तनाव कुछ कम होगा
(Hagia Sophia देखते हुए)
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आखिर में इस शहर के दाँत
मुझे छोड़ कर बढ़ गये आगे
अल्लाह, ये कोई शहर हुआ
गलियों से सूरज सफा हुआ
बुलन्दियों को ढ़हा कर
जमाना जी भी लिया तो क्या
अपना सा कोई यहाँ हुआ?
शहर तो बस इस्कीशेर
जहाँ प्यार घुलता है हवा में
और चाँद टंगता है पुल के ऊपर
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उन्होंने एक कील उगाई सिर पर
अपने को गुलाम मानते हुए
दूसरी कील उनके विश्वास को मजबूत बनाती है
चार कीलों से वे नगर सेठ
बन गये
गाढ़ी छह कीले तो बैठ ये खुदा के करीब
क्या खूब , अल्लाह, तेरी नीली छतरी
ब इनके सिरों पर तनी हुई
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इस शहर की आँतों में
काफी कुछ अब भी बाकी है
पचने पचाने को
अजगर की तरह लीलता रहे जो
आदमीयत और आदम को
इन्होंने उनकी इमारत की खौंह पर
बीज बो दिया, उगा दरख्त
तो अपना कह दिया
ये तेरा और उसका साझा
आसमान जो ठहरा
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एक शहर छोड़ने के साथ
कुछ खोने का अहसास जरूरी है
और मैं खो बैठी हूँ कागजी लकीरे
तुम्हारे केनवास की
अब मैं तुम्हे याद करूंगी
कुछ खोने के अहसास के साथ
तुर्क की अब तक दो और यात्राएं हो चुकी है, लेकिन उनके बारे में फिर कभी..