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अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस प्रतियोगिता

संवेदनाओं के सभ्य समाज का
आधार अभिमान मै हूँ नारी।।
बहन बेटी माँ हूँ नरोत्तम पुरुषोत्तम की हूँ निमात्री।।
ऐसा भी हो जाता है अक्सर
नारी ही नारी की दुश्मन
नारी पर भारी।।
सदमार्ग पर संग संग चलने
के वजाय अँधेरी गलियो के
दल दल में धकेलती नारी को
नारी,नारी ही नारी को बना देती
समाज की बिमारी।।
नहीं करेगी जब तक नारी
नारी का सम्मान खुद की पीड़ा
दर्द घाब भाव भावना को लेती
जब तक नारी -नारी आपस में
मील बांट पुरूष प्रधान समाज
नारी पर होगा भारी कैसे हो सकती बराबरी।।
नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश




अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस प्रतियोगिता

बेटी बेटों में ना हो फर्क
शिक्षा दीक्षा प्यार परिवरिश
में ना हो अंतर।।
बेटी ही कल की माँ बहन
रिश्तों की अवतारी नव दुर्गा
की नौ रूपों की बेटी ही
लक्ष्मी शिवा सरस्वती देवो
की शक्ति नारी।।
साहस शक्ति की बेटी निर्भय
निर्भीक निडर शिक्षित बेटी
राष्ट्र समाज युग की निर्माणी नारी।।
बहू बेटी में ना फर्क दहेज़
दानव का बंद हो प्रचलन
अस्तित्व अस्मत की बेटी
मजबूत राष्ट्र समाज की
बैभव नारी।।
नारी जत्र पुज्जयते रमन्ते तंत्र
देवता यथार्थ सत्य सत्यार्थ हो
देवो की संस्कार की नारी।।

नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश




प्रेम काव्य लेखन प्रतियोगिता हेतु रचनाएं

बात होती है जो प्यार में 

 

बात होती है जो प्यार में,

वो नहीं होती तकरार में ।

हो रहा दो दिलों का मिलन ,

  आ रहा लुत्फ़ इस बार में ।

फूल-सा है मुलायम बदन ,

तिल भी चुभता है रुखसार में।

जब सरकती है चिलमन कोई ,

लुत्फ़ आता है दीदार में ।

“दीप “मेरा वो महबूब है ,

छोड़ सकता न मझधार में ।

हवायें गुनगुनाती हैं

                                      

हवायें गुनगुनाती हैं बहारें मुस्कुराती हैं l

कोई आया है परदेशी खबर सखियां सुनाती हैं l

 

नज़र भर देखने की धुन में पागल हो गई आंखें,

मेरे पैरों की पायल भी मिलन के गीत गाती है l

 

पपीहा बोलता है बरगदों की डाल पर बैठा,

गुलाबी चूड़ियां सुन कर खुशी से खनखनाती है l

 

किसी का नाम लिख रखा है मेहंदी से हथेली पर,

जिसे पढ़कर सभी सखियां हकीकत जान जाती हैं l

 

लगा दीवार पे दर्पण दिखाता रूप यौवन का,

हुई मैं ‘दीप’ दीवानी मुझे यादें सताती हैं  l

 

  

                  

     दिल आशिकाना बन जाएगा

दिल मेरा है तन्हा तन्हा, 

कोई फ़साना बन जाएगा l

उनसे नजरें मिलती रहीं तो, 

दिल आशिकाना बन जाएगा l

मेरे अल्फाज़ो में कोई, 

बहर बिठा दो प्यारी-सी,

छेड़ दो दिल से कोई तरन्नुम 

एक तराना बन जाएगा l

 

सारा कुसूर जमाने का था 

  ना थी मेरी कोई खता,

बन जाओ तुम मेरे हमदम 

इक आशियाना बन जाएगा l

 

लब मेरे खामोश है लेकिन

 निकलेगी जिस रोज़ दुआ,

राह के कोई फ़क़ीरों जैसा, 

इक नजराना बन जाएगा  l

 

 फसले-गुल में हमने बुलाया , 

है दीदार की हमको तलब,

गजलों की महफिल है शहर में, 

यही बहाना बन जाएगा l

 

दिल के नशेमन में ये सोचकर 

जगह बनाई थी हमने ,

‘दीप’ किसी दिन अपना भी तो 

हक मालिक़।ना बन जाएगा l

 

दिल निशाना हो गया 

 

आपको देखे बिना हमको ज़माना हो गया ।

छा गई खामोशियां गुमसुम तराना हो गया ।

 

ग़ैर से इम्दाद की उम्मीद कर बैठे हैं हम ,

क्या करें जब कोई अपना ही बेगाना हो गया l

 

इन निगाहों से कोई शिकवा शिकायत क्या करें,

तीर फेंका था कहीं पर दिल निशाना हो गया l

 

उनके आंगन में चमेली खिल उठी है प्यार की ,

खुशबुओं का मेरे घर में आना जाना हो गया l

 

कल ही तो अखबार में निकली मुहब्बत की खबर,

कौन कहता है अभी किस्सा पुराना हो गया l

 

आ गया है ‘दीप’ की राहों में कोई अजनबी,

जब नज़र टकराई तो ये दिल दीवाना हो गया l

 

इज़हार करते रहे 

 हम मुहब्बत का इज़हार करते रहे ।

वो किनारा हर इक बार करते रहे ।

दिल हमारा तड़पता रहा इश्क में ,

वो जमाने से इकरार करते रहे 

वो चले थे किनारे-किनारे मगर,

मेरी कश्ती को मंझधार करते रहे ।

मेरा काँटों से दामन लिपटता रहा,

फूल कलियों से वो प्यार करते रहे ।

रूबरू आने पर था तकल्लुफ उन्हें

मेरा छुप-छुप के दीदार करते रहे ।

दिल दुखाया करते हैं l

 

जिंदगी में ऐसे भी मोड़ आया करते हैं l

दिल लगाने वाले ही दिल दुखाया करते हैं l

 

गर्दिशों के मारों से कौन बात करता है l

दोस्त भी मुसीबत में मुस्कुराया करते हैं l

 

मशविरा तो दे देना पर मदद मती करना l

लोग एहसानों को भूल जाया करते हैं l

 

हम किसी से दुनिया में दुश्मनी नहीं रखते l

लोग जाने क्यों हमको आज़माया करते हैं l

 

‘दीप’ कौन समझाए बेशऊर लोगों को l

 बेवजह की बातों में वक्त जाया करते हैं l

दिल मचलने लगा है 

आँखों में कोई ख्वाब नया पलने लगा है ।

ये दिल मेरा न जाने क्यूँ मचलने लगा है ।

मौसम दरो-दीवार पे लहराता खुशनुमा, 

सावन सुहाना घर में अब ठहरने लगा है ।

बिखरे पड़े थे कांच के टुकडे इधर-उधर, 

ये टूटा आईना भी अब संवरने लगा है।

खामोश कब से झील के पानी में था कंवल,

भँवरे का साथ पाते ही महकने लगा है।

परछाइयाँ मिटने लगीं रंजो-मलाल की, 

अब चाँद ख़यालों में भी चमकने लगा है। 

जज़्बात महकते हैं बहकता है हर कदम,

अफसाना “दीप” कोई नया बनने लगा है ।

वो हमसे मिलता नहीं है 

वो हमसे अब मिलता नहीं है । 

दिल उसके बिन लगता नहीं है ।

एक ग़लतफ़हमी की ज़द में 

प्यार का दिया जलता नहीं है ।

ये पतझड़ की रुत है कैसी, 

गुंचा कोई खिलता नहीं है l

हो जाती है दिल की चोरी ,

कोई शिकायत करता नहीं है l

खेल अजूबे हैं क़िस्मत के ,

ज़ोर किसी का चलता नहीं है ।

उल्फ़त के कंदील में रक्खा,

दीप सुबह तक बुझता नहीं है

हालात क्या कहें 

अंगूर सी आंखों के तिलिस्मात क्या कहें ।

हम इनमें डूब जाने के हालात क्या कहें।

 पल-पल हमारे दिल को सताया है आपने, 

अपनी ज़ुबाँ से इश्क के ज़ज़्बात क्या कहें । 

तारे भी झिलमिलाते रहे, देखते रहे ।

 आंखों ही आंखों में कटी वो रात क्या कहें ।

ज़ुल्फ़ों की अदाओं पे मचलने लगा है दिल, 

दिल की दीवानगी के ख्यालात क्या कहें ।

यादों की क़सक बन गई है दिल का आईना,

हम दीप से उल्फ़त की करामात क्या कहें ।

                                    © रचनाकार 

डॉ. दीप्ति गौड़ “दीप”

ग्वालियर, मध्यप्रदेश

सर्वांगीण दक्षता हेतु  राष्ट्रपति भवन नई दिल्ली की ओर से भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति महामहिम स्व. डॉ. शंकर दयाल शर्मा स्मृति स्वर्ण पदक,विशिष्ट प्रतिभा सम्पन्न शिक्षक के रूप में राज्यपाल अवार्ड से सम्मानित

 

घोषणा पत्र

मै डॉ. दीप्ति गौड़ दीप घोषित करती हूं कि उपर्युक्त समस्त रचनाएं मेरी मौलिक रचनाएं है ।

धन्यवाद्

 




प्रेम काव्य लेखन प्रतियोगिता हेतु ‘प्रेम आहुति”

प्रेम आहुति

एक दिवस मानस पटल पर,

हर निश्चित रंग अटल पर ।

एक नवीन चित्र उभर कर आया,

जो विस्मित उर को कर लाया ॥

                नदिया के उस ओर किनारे,

                घने पेड़ों की छांव सहारे ।

                गाँव दिखा विस्मित और अद्भुत,

                बिसरा दे जो सुध-बुध ॥

पगडंडी से किया गमन,

देखा अद्भुत एक भवन ।

भव्य दिखे पर पड़ा विरान,

नीरव जैसे हो शमशान ॥

                भवन मध्य में एक साध्वी,

                अलक बिखेरे लगे बावरी ॥

                बैठी तुलस्य पात्र सहारे,

                कुम्लाही सी हाथ पसारे ॥

वहाँ होकर भी वहाँ न होकर,

दूर क्षीतिज भावों में खोकर ।

एक ओर एक टक निहारती,

बैठी है समय बिसारती ॥

                कब प्रातः हुई कब सूर्य उगा,

                कब साझं ढली कब चन्द्र चला ।

                इसे ज्ञात नहीं ये जीवित होकर,

                अनन्त हुई ये सीमित होकर ॥

पवन चले इस भवन मध्य,

चलती है इसकी श्वास भी ।

एक चित्र मानस पर अंकित,

एक इसे विश्वास भी ॥

                एक नाम के पीछे देखो,

                सारा विश्व भुलाया इसने ।

                इससे भी अनजान बेचारी,

                क्या खोया क्या पाया इसने ॥

हुआ परम् सौभाग्य सभी का,

एक सुबह फिर ऐसी आई ।

समस्त प्राणी हर्षित से देखे,

एक अजब हलचल सी छायी॥

                एक सिद्ध योगी महान्,

                उस गाँव के मध्य पधारे ।

                हर प्राणी ने किया वन्दन,

                हर प्राणी ने पैर पखारे ॥

आशीष अनेकों दिए उन्होंने,

समस्त ग्राम का किया भ्रमण ।

सबसे सबकी दुविधा जानी,

सुना सभी से सबका विवरण ॥

                जब गुजरे वो योगी बाबा,

                उस साध्वी के भव्य भवन से ।

                कुछ संदेश पहुँचे बाबा तक,

                उस भवन की दुःखी पवन से ॥

चरण थम गए वही अचानक,

देखा भवन व्याकुल से मन से ।

जोड़ लिए कर दोनों अपने,

श्रद्धा छलकी वहाँ नमन से ॥

                दृष्टि सबकी उठी भवन पर,  

                जागी शंका सबके मन में ।

                बोले बाबा एक बावरी,

                रहती है इस विरह भवन में ॥

यादों में डूबी बेसुध सी,

बैठी रहती है आंगन में ।

आपने किया नमन यहाँ पर,

रहा छिपा क्या श्रद्धेय नमन में ॥

                बाबा रहे मौन मगर,

                मौन भवन में किया प्रवेश ।

                संग चले वो प्राणी सारे,

                जो थे उनके अनुचर विशेष ॥

बाबा बोले अरे साध्वी !

नमन तुझे शतबार मेरा ।

अभी अंकुरित मेरे मन में,

आदर और सम्मान तेरा ॥

                स्वार्थ से अन्धा विश्व सकल ये,

                स्वार्थ से अर्चन करता है ।

हर पल फल की इच्छा लेकर,

देव का पूजन करता है ॥

तू मानव को देव बनाकर,

ध्यान उसी का धरती है ।

प्रेम पुष्प ऐसे अर्पित कर,

हर पल पूजा करती है ॥

तूने जग बिसराया सारा,

तुझे याद वो एक रहा ।

तेरे अन्दर भक्ति का सागर,

आज यहाँ मैं देख रहा ॥

छल और कपट से मुक्ति,

सदा से तूने पाई है ।

तेरी ये अनन्य भक्ति,

तुझे कहाँ ले आई है ॥

निःस्वार्थ ये श्रुद्धा तेरी,

जिसे नमन मैं करता हूँ ।

प्राणियों में जो शंका जागी,

उसे शमन मैं करता हूँ ॥

आराध्य मगर वो तुझको भूला,

जाने क्या वो तेरा त्याग ।

वो लिप्त अपने भोगों में,

तूने वरण किया वैराग ॥

वो आराध्य आराध्य नहीं,

एक मानव साधारण है ।

तेरी ये अन्धी भक्ति ही,

तेरे दुःख का कारण है ॥

वो वह नहीं जो तू समझे,

सकल विश्व ये कहता है ।

तेरी ये भक्ति का सागर,

व्यर्थ उधर को बहता है ॥

चेतन्य हो गई वही साध्वी,

जो अब तक जड़भूत बनी ।

  और उसकी निर्बल वाणी,

उसके भावों की दूत बनी ॥

बोली बाबा मैं निर्बल हूँ,

विवाद नहीं मैं कर सकती ।

आप जैसे विद्वान पुरूष से,

शास्त्रार्थ नहीं मैं कर सकती ॥

पर मेरा प्रश्न एक है,

उत्तर अवश्य देते जाना ।

वरन् मैं श्वासों को त्यागूँ,

पवन सकल लेते जाना ॥

जिस पर मेरा जन्म हुआ,

भारत भूमि कहलाती है ।

यहाँ भक्ति सच्ची हो तो,

अन्धी ही हो जाती है ॥

यहाँ पर पत्थर पूज-पूज कर,

हमने देव बनाए है ।

यहीं पर पत्थर कभी गणेश,

कभी महादेव कहलाए है ॥

मैंने क्या गलत किया गर,

मनु पुत्र को पूजा है ।

मेरा अटल विश्वास वही है,

और नहीं कोई दूजा है ॥

यदि वो आराध्य नहीं बन पाया,

दोष नहीं उसका होगा ।

अवश्य मेरी भक्ति गागर का,

कोण कोई रिसता होगा ॥

अवश्य मेरी पूजा में कोई,

त्रुटी शेष रही होगी ।

सर्वस्य किया अर्पण फिर भी,

कमी विशेष रही होगी ॥

यदि ये मेरा भाव सत्य है,

अवश्य बने वो मेरा देव ।

सिद्ध हो जाएगा स्वतः ही,

मिथ्या कहते थे लोग सदैव ॥

मेरी भक्ति की ये शक्ति,

श्रेष्ठ उसे बना डाले ।

आंधी आये वो भावों की,

पृथ्वी समस्त हिला डाले ॥

पर बाबा में इस जड़ता से,

थकती थकती जाती हूँ ।

पर पथराई आँखो से फिर भी,

रस्ता तकती जाती हूँ ॥

अब वो मानव पुत्र मेरा,

वो देव मेरा उद्धार करे ।

आज अन्तिम आहुति प्राणों की,

मेरी वो स्वीकार करें ॥

निढ़ाल हो गई उसकी काया,

प्राण नहीं अब शेष रहें ।

पलकों पर पुष्प् रूप कुछ,

अश्रु ही अवशेष रहे ॥

छोड़ गई पिंजरे को अपने,

दिव्य प्रकाश में लीन हुई ।

श्रेष्ठतम साधक के पद पर,

पल भर में आसीन हुई ॥

प्रश्न अधूरा छोड़ गई वो,

उत्तर उसे अब देगा कौन ।

हाथ जोड़कर, शीष झुकाकर,

खड़े हुए सब प्राणी मौन ॥

बाबा बोले धन्य साध्वी,

धन्य तेरा वो देव है ।

विश्व की हर पूजा से बढ़कर,

मानव प्रेम सदैव है ॥




महिला दिवस काव्य प्रतियोगिता हेतु कविता। ‘हे नारी’

हे नारी
हे नारी आपकी जिम्मेदारी, कब तक कौन निभाएगा|
ले लो हाथ में खंजर अपने, अब कोई बचाने नहीं आएगा|
लूटने से पहले तो कम से कम, दे दो जख्म इतने सारे|
कुकर्म के बाद कोई कुकर्मी, अपनों के पीछे चुप ना पाएगा|
बहुत हुआ हड्डी तुड़वाना, बहुत हुआ टेस्ट का बहाना|
न्याय वहीं पर कर लो तुम, जहां कुकर्मी की आंख उठे|
भोग दो इतने सारे खंजर, की सबूत की जरूरत ना पड़े|
जो हमारी कोख का है मोहताज, वह हम पर हाथ उठाएगा|
दिखा दो अपनी ताकत को दुर्गा फूलन बनके, अब तो जागो अब कोई बचाने नहीं आएगा|
हे नारी आपकी जिम्मेदारी, कब तक कौन उठाएगा|




महिला दिवस काव्य प्रतियोगिता हेतु कविता। ‘हे नारी’

हे नारी
हे नारी आपकी जिम्मेदारी, कब तक कौन निभाएगा|
ले लो हाथ में खंजर अपने, अब कोई बचाने नहीं आएगा|
लूटने से पहले तो कम से कम, दे दो जख्म इतने सारे|
कुकर्म के बाद कोई कुकर्मी, अपनों के पीछे चुप ना पाएगा|
बहुत हुआ हड्डी तुड़वाना, बहुत हुआ टेस्ट का बहाना|
न्याय वहीं पर कर लो तुम, जहां कुकर्मी की आंख उठे|
भोग दो इतने सारे खंजर, की सबूत की जरूरत ना पड़े|
जो हमारी कोख का है मोहताज, वह हम पर हाथ उठाएगा|
दिखा दो अपनी ताकत को दुर्गा फूलन बनके, अब तो जागो अब कोई बचाने नहीं आएगा|
हे नारी आपकी जिम्मेदारी, कब तक कौन उठाएगा|




प्रेम काव्य लेखन प्रतियोगिता

प्रेम काव्य लेखन प्रतियोगिता हेतु कविता- तुम्ही से है 

 

शिकायत भी तुम्हीं से है,
शरारत भी तुम्हीं से है।
मेरी आँखों में दिखती जो,
नज़ाकत भी तुम्हीं से है।
दीवानगी का आलम है,
मोहब्बत तो तुम्हीं से है।

मेरा श्रृंगार, मेरे सपने,
मेरी उम्मीद, मेरे अपने।
मेरे बालों के गजरे में,
महकती वो जो खुशबू है।
मेरी हर सांस सांसों में,
धड़कती वो जो आहट है।
वो आहट भी तुम्हीं से है,
मोहब्बत भी तुम्हीं से है।

तेरा गुस्सा, तेरे नख़रे,
हैं खटके और हमें अखरें।

मेरा दिल पढ़ ही लेता है,
तेरे दिल का जो किस्सा है।
मैं तेरा हिस्सा हूं,
तू मेरा हिस्सा है।

हर एक सावन में,
झूमूं मैं उड़ जाऊं।
ये मेरे ख्वाब सब सपने,
ये मेरे रात मेरे दिन।
मेरे ख्यालात तुम्हीं से हैं,
मेरे जज़्बात तुम्हीं से हैं।
मेरे जज़्बात तुम्हीं से हैं,
मेरे ख्यालात तुम्ही से हैं।

✍जूही खन्ना कश्यप

     नई दिल्ली 

 

 

 

 

 

प्रेम काव्य लेखन प्रतियोगिता हेतु कविता- शादी की सालगिरह 

 

जीवन के हसीन
सफर के अध्यायों के शुरुआत की,
याद है सालगिरह।
साइकिल के दो पहियों सी,
बात है सालगिरह।
एक पंचर हो,
तो दूसरा पहिया साइकिल,
ज्यादा खींच नहीं पाता।
जीवन भी यह अध्याय,
दोबारा नहीं दोहराता।
तनहा अकेले सफर में,
हमराही ने जो पकड़ा,
वो हाथ है सालगिरह।
तन से लेकर मन,
मिलने की बात है सालगिरह।
चूड़ियों की खनखन,
इत्र की महक है सालगिरह।
हर वर्ष के संघर्षों,
खुशियों के साथ का,
प्रमाण है सालगिरह।
काले बालों से,
सफेद तक का साथ है सालगिरह।
अपने छोटे स्वरूप,
अपने बच्चों में,
खुद को फिर से जीने,
अपने परिवार के शुरुआत की,
याद है सालगिरह।
एक दूसरे के हौसलों की,
बात है सालगिरह।
हर साल दूल्हे-दुल्हन सा,
एहसास है सालगिरह।
एक दूसरे के चेहरे की,
मुस्कान है सालगिरह।
प्रेम का साक्ष्य,
सुहागन के सिंदूर का,
मान है सालगिरह।
आधे-आधे से पूर्ण हुए,
एहसास है सालगिरह।

✍जूही खन्ना कश्यप

     नई दिल्ली 




महिला दिवस काव्य प्रतियोगिता हेतु कवितायें

महिला दिवस काव्य प्रतियोगिता हेतु कविता- बलात्कार एक कुकृत्य 

मन कुंठित हो जाता है,
जब छपती है तस्वीर कोई।
सिसकियों में भी चीखती है,
दर्द की खिंची लकीर कोई।

दरिंदगी की हदें पार करने वाले,
ओ दरिंदों!
क्या होगा जब तुम्हारी,
बहनों माओं को हैवान मिले।
खून तो नहीं खोलेगा ना!!!
चूड़ियों से हाथ सजा लोगे।
मौत पर अपनी बहनों की,
होठों पर मुस्कान सजा लोगे।

खाली घर, खाली कमरों में,
सिसकियां भर भर रोती हैं।
कोई अस्पतालों में जूझती मौत से,
और उनकी मां दहाड़ कर रोती है।

जो जिंदा सी बच जाती हैं,
बिना जान की लाश कोई।
नींदों में भी चिल्लाती है,
दर्द भरी आवाज़ कोई।

खुद के ही तन को,
देख-देख वो नोचा करती हैं।
उनकी मांओं से पूछो,
कैसे वो रातों में जाग कर सोती हैं???

कोई निर्भया, कोई राखी,
कोई आसिफा मरती है।
थोडे दिन मार्च हैं चलते,
और मोमबतियां जलती हैं।

आत्माएं भी चीख चीख जब,
दर्द में आहें भरतीं हैं।
तब लाखों में कोई निड़र,
एक निर्भया की मां निकलती है ।
एडियां भी छिल छिल जाती मां की,
तब बरसों में इन्साफ मिला करते। 
हजारों मांए तो यूं ही,
समाज के ड़र में पलती हैं।

बनो कालका खुद ही,
और अपनी सुरक्षा साथ रखो।
जहाँ दिखे हैवान कोई,
गर्दन पर तलवार रखो।

✍जूही खन्ना कश्यप

 

 

 

 

महिला दिवस काव्य प्रतियोगिता हेतु कविता- हर महिला एक योद्धा है

 

प्रेम की मूरत कभी,
त्याग की सूरत रही है।
कभी उतर मैदां में,
शत्रुओं को खदेड़ती सी ड़टी है।
कभी स्वर्णिम इतिहास रचा है,
कभी वर्तमान में ड़टकर लड़ी है।
जीवन के हर इक दिन में,
हर महिला योद्धा बनकर लड़ी है।

मायके के आंगन की लाड़ली,
छोटी सी खरोंच पर,
पूरा घर सर पर उठाए,
उह-ऊई करते हुई बड़ी है।
रसोई संभालनी हो,
या जंग कोई।
हंसकर वो आगे बढ़ी है।

हाँ लड़ी है,
हर मोड़ पर लड़ती रही है।
संकुचित सोच से ग्रस्त लोगों,
द्वारा मिली मानसिक पीड़ा से।
कोई बलात्कार, कोई मार पीट,
कोई दहेज की बली चढ़ी है।
कहीं नुक्कड़ चौराहों पर,
खुद को बचाती,
घूरती गंदी निगाहों से।
और कोई अपने ही घर में,
बेटा बेटी वाले भेदभावों में पली है।

जीवन का हर युद्ध चाहे,
छोटा या बड़ा रहा है।
फिर भी हर कल्पना ने,
कल्पनाओं की ऊंची उड़ान भरी है।
हर एक युद्ध को जीतती,
बंधनमुक्त पांवों पर खड़ी है।

मेरे देश की हर एक योद्धा बेटी,
विजय पताका थामें,
मर्दों से भी आगे खड़ी है।

हाँ आगे हो आगे ही रहना,
भावुक सी होकर,
किसी भावना में ना बहना।
तोड़ देना हर वो बंधन,
जो सपने तुम्हारे बांधता हो।
ढूंढो उस इंसान को भीतर,
जो बेहतर तुमको जानता हो।

व्यर्थ की बातों से खुद को,
टूटने देना नहीं।
जीवन एक युद्ध क्षेत्र है,
कई बार गिरोगी हारोगी,
पर दौड़ना भूलना नहीं।

अपने लिए आवाज़ उठाना,
मगर सह-सहकर, घुंट-घुंटकर,
अंदर ही अंदर,
अरमानों की सूली पर झूलना नहीं।

तुमने इतिहास रचे हैं,
वर्तमान को फिर से स्वर्णिम इतिहास,
बनाना भूलना नहीं।
क्योंकि
मेरे देश की हर एक योद्धा बेटी,
जीवन के हर युद्ध क्षेत्र में,
विजय पताका थामें,
मर्दों से भी आगे खड़ी है।

✍जूही खन्ना कश्यप

 

 

 

 

 

 

महिला दिवस काव्य प्रतियोगिता हेतु कविता-गर्व है मुझे मैं नारी हूँ 

 

कोई एक दिन नहीं हमारा,
हम हर दिन पर भारी है।
गर्व है हमें खुद पर,
हम मर्द नहीं हम नारी हैं।

जीवन भीतर जीवन पलता,
यौवन भीतर बचपन पलता।
ममता पलती कण-कण में।
उम्र के हर इक पड़ाव में,
भीतर मैं छोटी गुड़िया हूं।

हाँ मर्द सी ताकतवर तो नहीं,
ना ही किसी पर भारी हूं।
पर जब खुद पर आ जाऊं,
तब एक-एक पर भारी हूं।
गर्व है मुझे खुद पर,
मैं मर्द नहीं,
मैं नारी हूँ।

कभी प्रेम दीवानी मीरा हूं,
कभी कृष्ण दीवानी राधा हूं।
कभी अंतरिक्ष की उड़ान भरती,
कल्पना चावला हूं,
तो कभी हौसलों की रानी,
लक्ष्मीबाई हूं।
मुझको कम ना आंकना,
मैं मर्द नहीं मैं नारी हूँ।

✍जूही खन्ना कश्यप




अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस काव्य प्रतियोगिता/बेटियां नहीं होती पराया धन

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस काव्य प्रतियोगिता 

कविता-बेटियां कभी नहीं होती पराया धन

बेटियां कभी नहीं होती पराया धन

ये सोचकर न कर दो कोख से ही अंत,

बेटी बनकर लक्ष्मी आई

कर दिया उसने अंग्रेजों का संहार,

नेहरू बेटी इंदिरा आई

देश में गरीबी हटाओ का नारा लाई,

सुषमा बेटी विदेश गई

भारतीय सभ्यता संस्कृति का सुंदर पाठ पढ़ाई,

कल्पना बेटी अंतरिक्ष गई

नये शोध का रास्ता लाई,

सुष्मिता बेटी मिस यूनिवर्स का ताज पहनकर

भारतीय नारी की सुंदरता का

सारी दुनिया में परचम फहराई,

प्रतिभा बेटी राष्ट्रपति  बन

सारे देश में ममता का माहौल बनाई,

बेटियां कभी नहीं होती पराया धन

ये सोचकर न कर दो कोख से ही अंत।

स्वरचित मौलिक रचना

श्रीमती मार्गरेट कुजूर

सीएमपीडीआई कॉलोनी धर्मजयगढ़ जिला- रायगढ़ छत्तीसगढ़

[email protected]

 




अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस काव्य प्रतियोगिता/बेटियां नहीं होती पराया धन

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस काव्य प्रतियोगिता 

कविता-बेटियां कभी नहीं होती पराया धन

बेटियां कभी नहीं होती पराया धन

ये सोचकर न कर दो कोख से ही अंत,

बेटी बनकर लक्ष्मी आई

कर दिया उसने अंग्रेजों का संहार,

नेहरू बेटी इंदिरा आई

देश में गरीबी हटाओ का नारा लाई,

सुषमा बेटी विदेश गई

भारतीय सभ्यता संस्कृति का सुंदर पाठ पढ़ाई,

कल्पना बेटी अंतरिक्ष गई

नये शोध का रास्ता लाई,

सुष्मिता बेटी मिस यूनिवर्स का ताज पहनकर

भारतीय नारी की सुंदरता का

सारी दुनिया में परचम फहराई,

प्रतिभा बेटी राष्ट्रपति  बन

सारे देश में ममता का माहौल बनाई,

बेटियां कभी नहीं होती पराया धन

ये सोचकर न कर दो कोख से ही अंत।

स्वरचित मौलिक रचना

श्रीमती मार्गरेट कुजूर

सीएमपीडीआई कॉलोनी धर्मजयगढ़ जिला- रायगढ़ छत्तीसगढ़

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