1

चलो मिलते हैं

चलो कहीं मिलते हैं,

पल दो पल की ज़िन्दगी जीते हैं ।

 कुछ तुम कहो , कुछ हम कहें , 

ज़माने की अनसुनी करते हैं । 

हाथों में हाथ लिए बैठते हैं, 

ना कस्मे ना वादे , 

रस्मो- रिवाज़ो को तोड़ते हैं । 

चल ना यार ,

कहीं दू….. र ..चले जाते हैं

– रोशनी                     




ग़ज़ल,,,,, जीवन के संदर्भ,,,,,

ग़ज़ल,,,,,

जीवन के संदर्भ बड़े गंभीर हुए।।

हम कमान पर चढ़े हुए बिष तीर हुए।।

 

मृगतृष्णा केभ्रम में उलझे मृग मानव।

विधवा की सूनी आंखों का नीर हुए।।

 

मिट्टी मोल भी कर्म नहीं बिकता अब तो।

क्रेताओं के इतने तुच्छ ज़मीर हुए।।

 

गीली आंखों से जब बिदा किया उसने।

आंसू उसके पैरों की ज़न्जीर हुए।।

 

मोह प्रभावित तुम्हें देख है मन इतना।

हम योगी‌ के जप तप की जागीर हुए।।

 

 अंतस में तुम जबसे सरल के आ बैठे।

भाव हृदय के तुलसी सूर कबीर हुए।।

 

बृंदावन राय सरल सागर एमपी भारत

मोबाइल 7869218525

18/1/2021




प्रेम-काव्य प्रतियोगिता

तुमने ही हृदय बिछाया….

तुम धूप हो, तुम छाँव हो
पसरी हुई निस्तब्धता में
जीवंत हुआ-सा ठाँव हो ।
घिर-घिरकर जब आया तम
तुमने ही दीया जलाया
जब-जब हाथों से छूटे हाथ
तुमने ही हृदय बिछाया ।
अभिलाषा को प्राण दिए
मन को फिर आकाश दिया
विकल हुई बुझती लौ को
अपना स्नेह प्रकाश दिया ।
संसृति की साध मिटी जब-जब
तुमने ही नवसंचार किया
खिलते-हँसते मधुमास दिए
अपना सारा अभिसार दिया ।
मृतप्राय हुए चिंतन को
स्पंदन का अधिकार दिया
शीतल, संसिक्त स्नेह दिए
प्रतिक्षण नूतन संसार दिया ।
(बीना अजय मिश्रा)




पर्व

पर्व… अखंड भारत वर्ष को हमारा कोटि- कोटि नमन, जहाँ कई प्रकार के रंग- बिरंगे मौसम आते- जाते हैं| गरमी, सरदी या बरसात, पतझड़ हो या बसंत- बहार, हर मौसम में हर धर्म के हम सब पर्व- त्योहार मनाते हैं|| इठलाता आता सावन मन-भावन धरती होती जब गुलज़ार, मेले लगते, झूले पड़ते, लोग नाचते -गाते हर्षित हो जाते हैं| कभी सुहानी हवाओं में,कभी झुलसती गर्मी में,वर्षा की बूंदों से, कभी सर्द-बर्फ़ीली फ़िज़ाओं में,लोग हंसते- खाते खो जाते हैं|| कभी शहीदों के नाम, देश को सलाम,राष्ट्र- गर्व,आज़ादी- पर्व, धर्म- निरपेक्ष भारत को अपनी एक अहम् पहचान दिलाते हैं| गुरु-पर्व, क्रिसमस, ईद, दीवाली, पोंगल, लोहड़ी और होली, त्योहारों की बेला में सब कुछ पल आनंद विभोर हो जाते हैं|| भारत की समृद्ध संस्कृति के संवाहक ये हमारे पर्व- त्योहार, हर्ष और उल्लास सहित परस्पर मेल और भाईचारा बढ़ाते हैं| सर्व-धर्म साम्प्रदाय में एकता एवं अखंडता की जलाकर मशाल, भारतीयता एवं मानवता का सबके हृदयों में उजाला फैलाते हैं|| … प्रेम लता कोहली




तुमने ही हृदय बिछाया…

प्रेम-काव्य प्रतियोगिता हेतु रचना

 

तुमने ही हृदय बिछाया….

तुम धूप हो, तुम छाँव हो
पसरी हुई निस्तब्धता में
जीवंत हुआ-सा ठाँव हो ।
घिर-घिरकर जब आया तम
तुमने ही दीया जलाया
जब-जब हाथों से छूटे हाथ
तुमने ही हृदय बिछाया ।
अभिलाषा को प्राण दिए
मन को फिर आकाश दिया
विकल हुई बुझती लौ को
अपना स्नेह प्रकाश दिया ।
संसृति की साध मिटी जब-जब
तुमने ही नवसंचार किया
खिलते-हँसते मधुमास दिए
अपना सारा अभिसार दिया ।
मृतप्राय हुए चिंतन को
स्पंदन का अधिकार दिया
शीतल, संसिक्त स्नेह दिए
प्रतिक्षण नूतन संसार दिया ।

(बीना अजय मिश्रा)




उड़ान…

उड़ान…

सुनो! भारी हो गए हैं तुम्हारे पंख
झटक दो इन्हें एक बार
उड़ान से पहले इनका हल्का होना
बहुत आवश्यक है
इन पर अटके हैं कुछ पूर्वाग्रह
कुछ कुंठाएँ जिन्हें तुमने सहेजा है
और सहेजे जा रही हो
उड़ान की यदि है कामना
नन्हे कोंपलों की भांति
चीर दो ज़मीन का सीना
यदि है तुम्हें उड़ना
पंखों को झटक डालो
न सोचो कि वह क्या सोचेगा
उसकी सोच का एक भी हिसाब
तुम अपने पास मत रखो
बहुत कष्टप्रद होता है
किसी हिसाब का पाई-पाई तय करना
पहली बरसात और धरती के..
हरे होने के बीच जो संबंध है
वह स्वयं में नैसर्गिक है
इनके लिए किसी प्रकार के ऋण को
उंगलियों पर गिनना
तुम्हें सीमाओं में बाँट देता है
और तुम अपने पंखों पर फिर से
टाँक लेती हो कई सवाल
और उनके उत्तर ढूँढती धीरे-धीरे
इन पंखों को स्वयं में समेट लेती हो
और….
थोप देती हो अपनी उड़ान को
आने वाली किसी पीढ़ी पर…

(बीना अजय मिश्रा)




महामारी का समय…

महामारी का समय ….

यह महामारी का
अपना समय है
समय सबका होता है
सबका ‘नितांत ‘अपना
कभी पूर्ण पाश्विकता का
कभी अदेखी मानवता का
और कभी..दोनों ही में
एक ही अनुपात में उलझा
यहाँ ‘नितांत अपना होना’
हर पंक्ति में अर्थ बदलता है
इसके समस्त ‘मापदंड’
इसकी क्रीड़ा में लीन
अपना ‘मैं ‘ खो बैठते हैं
यहाँ रात और दिन की
गिनती अपने कर्मों-सी
लेन और देन की तख़्ती
सबकी अपनी परिभाषा है
और सब अक्षरशः सत्य हैं
सुनना है सुनने की भाँति
लंबे होते चीत्कार को
थोड़ा-बहुत सहेज पाना
है अपने भीतर बहुत भीतर
यह एक संघर्ष है
शायद संघर्ष से अधिक
यह एक महायुद्ध है
और स्वयं को इस रच गए
चक्रव्यूह का अभिमन्यु बना
महाभारत के अक्षर पुनः गढ़ने हैं
समय का अंत है, भय निराधार है
एक सामंजस्य बना है
निस्तब्धता से कहकहों का
अब यही संपूर्णता का
न मिटने वाला आधार है
आओ! इस आधार को फिर समेट लें
हर कण में श्वास भर दें
और कण-कण लपेट लें….

(बीना अजय मिश्रा)




होली उसे कहो….

होली उसे कहो….!

जब रंग रमे रस अंग-अंग भींगे
तब होली उसे कहो
जब हृदय हरित-हरित हो फिर
तब होली उसे कहो
जब फागुन वही बयार बहे
तब होली उसे कहो
जब प्रिय का फिर अभिसार मिले
तब होली उसे कहो
जब नैन,अधर कंपित हों फिर
तब होली उसे कहो
जब मौन, मूक को शब्द मिलें
तब होली उसे कहो
जब वाद्य ध्वनित हों गात-गात
तब होली उसे कहो
जब विरह-मिलन हों आत्मसात
तब होली उसे कहो
जब तृषा तृप्त हर हो जाए
तब होली उसे कहो
जब व्यथा विकल हो मुस्काए
तब होली उसे कहो
जब बन-बन दहक उठे पलाश
तब होली उसे कहो
जब गुँथ जाए पत्तों में श्वास
तब होली उसे कहो
जब लाल भरम में पड़ जाए
तब होली उसे कहो
जब गाल-गाल चढ़ इतराए
तब होली उसे कहो
जब काला कुलिश प्रहार करे
तब होली उसे कहो
जब घृणा, द्वेष संहार करे
तब होली उसे कहो
जब रंग वैजयंती अमलतास
तब होली उसे कहो
जब हर मन की पूरी हो आस
तब होली उसे कहो
जब दुखिया के घर रोटी हो
तब होली उसे कहो
जब मुनिया नींद भर सोती हो
तब होली उसे कहो
जब रंग वही रंग बन जाएँ
तब होली उसे कहो
जब ऐसी होली फिर आए
तब होली उसे कहो ।

(बीना अजय मिश्रा)




रफ़ीक ऐसा नहीं था…

लगभग तीन वर्षों के बाद मैं रीवगंज गई थी। रीवगंज से मेरा परिचय हमारे विवाहोपरांत पतिदेव ने ही करवाया था। प्रकृति का समूचा आशीर्वाद मानो इस नन्हे से आँगन में बरबस ही समाया हुआ था लेकिन मुझे यहाँ कुछ ऐसा नहीं दिखता था जो स्मृति बन जाने योग्य रहा हो। सच कहूँ तो यह जगह मुझे कभी पसंद आई ही नहीं थी। शायद भीड़ से लगाव इस तरह हावी था कि सौंदर्य की परख करने वाली आँखों की क्षमता क्षीण हो चुकी थी। हाँ ! एक बात थी जो भुलाए न भूलती थी वह थी रफ़ीक की बिना सिर पैर की गोलमोल बातें। मेरी आश्चर्य से विस्तृत हुई आँखों को उसके तटस्थ उत्तर थोड़ा और विस्तार दे देते-” मैडम ऐसा ही है। किसी भी गिरते हुए को यूँ थाम लो तो वह ऊपर उठ जाता है” और अपने हाथ आसमान की ओर उठाए वह जाने किसे थाम लिया करता??? मैं अचंभित सी रह जाती। रफ़ीक का व्यक्तित्व मेरी समझ से परे था। न व शिक्षा का धनी था, न ही उसके पास सामाजिक सलीके थे। फिर ऐसी बड़ी-बड़ी बातें वह कैसे कर लेता था? मैं सोच में थी कि उसके शब्दों ने मुझे पुनः एक बार झंझोड़ दिया ” कॉफ़ी और जूस की दुनिया से बाहर निकलिए मैडम जी। आसमान से गिरती बूँदों में रूह तक पहुँचने का जज़्बा होता है।” वह शुरू हो जाए तो चुप नहीं होता था। मैं ही चुप रह गई और हल्की सी मुस्कुराहट फेर कर बाहर निकल लाॅन में टहलने लगी। पति हर वर्ष दफ़्तर के काम से यहाँ आते और उनके कमरे की देखरेख रफ़ीक के ही ज़िम्मे आती। मानो ईश्वर ने जिन कुछ बातों को क्रमवार सजा रखा था उनमें एक था रफ़ीक का इन से मिलना तभी तो शायद मैं भी उससे मिल पाई थी। गज़ब का व्यक्तित्व था उसका, दौड़-दौड़ कर सारा काम कर आता था। अपने भी दूसरों के भी। मजाल है थक जाए। उसके थकने का तो भ्रम भी मुश्किल ही था। उसके विषय में जानने की इच्छा जाग्रत हुई जो निराधार नहीं थी। शायद उससे मिलने वाला हर व्यक्ति उसे जानना चाहता। लेकिन इतना ही जान पाई कि भरा पूरा परिवार है, कहाँ है? कौन है? यह जानना शायद शीघ्रता करना था। रफ़ीक मुसलमान था, अल्लाह का नेक बंदा। इतना जान लेना ही बनता था। धर्म की दीवारें इतनी नीची न थी कि उस और झाँक पाना सहज हो पाता। पिछली बार उससे मिली तो कुछ क्लांत दिखा था। हँसी वही थी, स्वर बदल गए थे। कारण मेरी समझ में नहीं आया, न मैंने समझना ही चाहा। आज पूरे 3 वर्षों बाद रीवगंज पहुँचकर निगाहें रफ़ीक को ढूँढ रही थीं। उसकी बातों के लिए कान ठहर-से गए थे, मगर वह कहीं न था। मोहन चाय की ट्रे लेकर आया तो रहा न गया और रफ़ीक के विषय में उससे पूछ लिया। क्षण मात्र को उसके चेहरे पर घृणा और तिरस्कार की कालिमा फैल गई। जिह्वा तिक्त हो गई मानो कुछ कड़वा निगल लिया हो? जाते-जाते कहता गया-” मर गया मैडम जी! मर गया साला। पिछले साल हुए आतंकवादी हमले में उसका बड़ा हाथ था। पुलिस ने उसे पकड़ लिया था। पुलिस चाहती थी अपना अपराध वह मान ले। खूब मारा-पीटा गया लेकिन ऐसी कठिन जान कि टस से मस न हुआ। बस फिर तो कोई रास्ता ही न बचा उसे मार देने के सिवाय।” एक ज़ोर की आवाज़ हुई और दूर कहीं बादल ज़मीन पर आ गिरे थे। उन्हें थामने वाले हाथ जो अब नहीं थे। सच की तस्वीर बदल गई थी। अनगिनत सच काले रंगों में रंग दिए गए थे। होठ इतना ही कह पाए- रफ़ीक ऐसा नहीं था।

बीना अजय मिश्रा




डिवाइडर

कहानी- डिवाइडर
रात के अंधकार में रिमझिम बारिश की फुहार पड़ रही थी। एक वृद्धा अपने आप को समेटे डिवाइडर पर विराजमान थी।

कहा गया है ,कि, जीवन का आवागमन मोक्ष प्राप्त होने तक जारी रहता है ।पाप पुण्य का हिसाब बराबर होते ही सांसारिक कर्मों से मुक्ति मिल जाती है ।
डिवाइडर पर बैठी वृद्ध महिला न जाने कौन से पाप का फल भुगत रही थी , कि, रात में अकेली अपने परिवार से दूर क्लेश में बैठी है।

वृद्धा संपन्न परिवार की महिला थी, उसका पति ग्राम का प्रधान था ।उसकी समाज में अच्छी प्रतिष्ठा थी। चुनावी रंजिश में चुनाव के समय कुछ विपक्षी सिरफिरे लोगों ने ,प्रधान की हत्या कर दी ।चुनावी सरगर्मी के मध्य पुलिस ने कुछ अभियुक्तों को गिरफ्तार किया, किंतु ,वृद्धा का तो सुहाग उजड़ गया था। उसका एक मात्र बारह वर्ष का बालक था। अबोध बचपन अपनी मां के सहारे जीवन के पायदान पर कदम रख रहा था ।उसे राजनीति की समझ बिल्कुल ना थी। मां ही उसका सबसे बड़ा सहारा थी।

बालक का नाम चेतन था ।चेतन का पालन पोषण उसकी मां ने किया। उसे डिग्री कॉलेज भेज कर उसकी अच्छी शिक्षा का प्रबंध किया ।चेतन ग्रेजुएट होकर अपने गांव वापस आया। गांव में उसके पास कई एकड़ खेत , बाग बगीचे थे, जिन की देखभाल वह करने लगा ।मां निश्चिंत होकर अब बहू के सपने देख सकती थी। उसने निकट के ग्राम में अपनी बिरादरी में सुंदर सी कन्या पसंद की ।चेतन को भी कन्या सरिता की मोहक मुस्कान घर कर गई। दोनों में कुछ वार्तालाप हुआ, और ,दोनों एक दूसरे को अपना दिल दे बैठे। सरिता अधिक पढ़ी-लिखी ना थी ।उसने मिडिल स्कूल तक पढ़ाई की थी। उसके परिवार वाले कन्याओं को अधिक शिक्षित करने की अपेक्षा घर गृहस्ती में दक्ष करना अधिक पसंद करते थे ।सरिता व्यवहार कुशल थी। बड़ों का मान सम्मान करना ,उसे आता था ।

ग्रामीण समाज में पुरुष वर्ग की श्रेष्ठता निर्विवाद रूप से देखी जा सकती है ।आधुनिक समय में ,जब हमारा संविधान लैंगिक समानता एवं बराबरी के अवसर प्रदान करने की बात करता है ,तब,उस काल में ग्रामीण महिलाओं की उपेक्षा दुखद है।

चेतन और सरिता का विवाह धूमधाम से संपन्न हुआ ।सरिता के मायके वालों ने दहेज में खूब धनराशि ,गहने व उपहार देकर अपनी बेटी विदा की ।वह इस आशय से कि उसकी बेटी को ससुराल में कोई कमी नहीं होगी। ससुराल में उसका सिर नीचा नहीं होगा।

शिक्षित समाज में शिक्षा के साथ-साथ दहेज प्रथा एक अभिशाप है ।शिक्षित कन्या घर के लिए एक वरदान साबित होती है। वह न केवल अपने पति का सहारा बन सकती है किंतु, संकट के समय खड़े होकर ,उसे संकट से मुक्त करने की क्षमता भी रखी है ।शिक्षित कन्या हेतु दहेज का कोई अर्थ नहीं रह जाता है ।वह स्वयं अर्थोपार्जन कर सकती है ।

शनै:शनै: गृहस्थी की गाड़ी चलने लगी ।चेतन की मां सुंदर कुशल बहु पाकर अत्यंत खुश थी। बहू घर का सारा काम काज करती ।चेतन की मां पलंग पर बैठे बैठे उसे निर्देश देती थी।

सरिता अब गर्भवती थी ।अब उसे घर का कामकाज करने में परेशानी हो रही थी ।उसकी सास काम ना पूरा होने पर, भाँति -भाँति के ताने देती। उससे सरिता मन ही मन क्षुब्ध रहने लगी।

सरिता ने चेतन के कान भरने शुरू किये। सुबक सुबक कर उसने अपने हालात का वर्णन किया। उसने कहा कि ,उसे सहारे की आवश्यकता है। अब तुम्हारी मां के ताने बर्दाश्त से बाहर हैं। मुझे मायके भेज दो ।
चेतन ने सरिताके हित में निर्णय लेकर, अपनी मां को बहू के निर्णय से अवगत कराया ।चेतन की मां ,इस परिस्थिति के लिए कतई तैयार नहीं थी। बहू की अनुपस्थिति में उसके सिर पर घर की पूरी जिम्मेदारी आने वाली थी ।उसने अपने स्वास्थ्य का हवाला देकर बहू को भेजने में असमर्थता जाहिर की। बहू ने खत लिख कर अपने हालात से मायके वालों को सूचित कर दिया। सरिता के पिता अपनी बेटी को लेने अकस्मात आ पहुंचे ।यह देखकर चेतन की मां नाराज हो गई। उसने खाना पीना छोड़ दिया और अनशन पर बैठ गयी।

चेतन ने ,मां का यह रूप प्रथम बार देखा था। उधर सरिता का रो-रोकर बुरा हाल था। चेतन के एक तरफ पत्नी का आग्रह तो दूसरी तरफ मां का पूर्वाग्रह था। सास और पत्नी के पाटों के बीच बेचारा चेतन हतप्रभ था। आखिर में, पत्नी का पक्ष लेते हुए उसने मां को समझाने की बहुत कोशिश की ,किंतु ,मां अपने निर्णय से टस से मस ना हुई। उसे चेतन का बहू का पक्ष लेना तनिक भी ना भाया। उसने उसी रात घर छोड़ने का निर्णय किया कर लिया ।घर में सरिता, उसके पिता और चेतन को अकेला छोड़ कर चेतन की मां रात्रि के अंधकार में एकमात्र चादर साथ लेकर घर से निकल गयी। उसने हाईवे के डिवाइडर पर अपना बसेरा बनाया बना लिया।

जीवन का मार्ग भी एकल मार्ग तरह होता है ।डिवाइडर के एक तरफ आगमन होता है तो दूसरी तरफ गमन होता है ।जिंदगी के प्रारंभ में जब परिवार का निर्माण होता है ,तो, युवा वर्ग में खुशियों का आगमन होता है। यह युवा वर्ग आगमन पथ का पथिक होता है। जीवन के उत्तरार्ध में वयस्क का गमन होता है। उम्र के इस पड़ाव को पीढ़ियों का अंतराल कहते हैं। बीच में उम्र का डिवाइडर दोनों पीढ़ियों में अंतर स्पष्ट करता है ।

आज चेतन और उसकी मां के मध्य यही डिवाइडर खड़ा है। जिसने दोनों पीढ़ियों में मतभेद जाहिर कर दिया है।

प्रातः चेतन अपनी मां को ना पाकर उसे खोजने निकला ।हाईवे के डिवाइडर पर एक वृद्धा को भीगे बदन ठिठुरते देखा ।उत्सुकता वश उसने बुद्धा का मलिन चेहरा गौर से देखा। उसने पहचाना ,वह उसकी मां थी।वह अपनी मां के पास पहुंचा ,और, क्षमा मांगते हुए उससे घर चलने का आग्रह किया। काफी मान -मनोव्वल के पश्चात उसने घर चलना स्वीकार किया। दोनों मां-बेटे घर लौट आये।उसने अपनी मां की देखभाल की पूरी जिम्मेदारी ली । बहू सरिता अपने पिता के साथ मायके चली गई थी। मां को बहू की खिलखिलाती हंसी, उसका चहचहाना याद आ रहा था। सूने घर के साथ उसके हृदय का एक कोना भी सूना हो गया था।

डॉ प्रवीण कुमार श्रीवास्तव, प्रेम
वरिष्ठ परामर्श दाता, प्रभारी रक्त कोष
जिला चिकित्सालय, सीतापुर।
9450022526