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अंतरराष्ट्रीय “प्रेम-काव्य लेखन प्रतियोगिता” “प्रेम का आधार”

प्रेम का आधार

मेरे प्यार के सपनों की दुनिया में, तुम आकर तो देखो ।
ना जाने क्यों इतने दूर हो, मेरी बाहों में समाकर तो देखो ।
बहुत सहली दूरियाँ, मुलाकातों का सिलसिला चलाकर तो देखो ।
कभी पास अपने बुलाकर, कभी पास हमारे आकर तो देखो ।
कभी प्रेम को, अपना आधार बनाकर तो देखो ।

कभी मुझे अपने दर्द का, हमदर्द बनाकर तो देखो ।
फूल बन जाओ कभी, भंवरा मुझे बनाकर तो देखो ।
कभी अपने हर राज़ का राज़दार बनाकर तो देखो ।
कभी चाँद तुम बन जाओ, चाँदनी हमें बनाकर तो देखो ।
कभी प्रेम को, अपना आधार बनाकर तो देखो ।

सर्वस्व माना तुम्हें, कभी अपना तुम भी बनाकर तो देखो ।
कभी राधा के कृष्ण, कभी मीरा के घनश्याम बनाकर तो देखो ।
दूरियाँ मिटाकर, कभी तुम भी पास आकर तो देखो ।
कभी मैं तुममे, कभी तुम मुझमे समाकर तो देखो ।
कभी प्रेम को, अपना आधार बना कर तो देखो ।

कभी हाँथ थामकर, सपनो को हक़ीकत बनाकर तो देखो ।
जीवन भर के लिए, अपना हमसफ़र बना कर तो देखो ।
प्यार है अगर हमसे, तो ज़माने को झुकाकर तो देखो ।
प्रेम का अनोखा एहसास, मन का अन्धकार मिटाकर तो देखो ।
कभी प्रेम को, अपना आधार बना कर तो देखो ।

कभी इस दिल पर, अपना अधिकार जताकर तो देखो ।
अपने प्यार पर, रिश्ते की बुनियाद बना कर तो देखो ।
अपनी चाहत की खुशबू से, साँसों को महकाकर तो देखो ।
इस अंधेरे दिल में कभी प्रेम का दीपक जलाकर तो देखो ।
कभी प्रेम को, अपना आधार बना कर तो देखो ।

                                                                                  ***

PRERANA ARIANAICK

ADDRESS: ROYAL ROAD LA ROSA, NEW-GROVE, MAURITIUS

18 YEARS/ COLLEGE: MGI MOKA, MAURITIUS

CLASS: 12/ EMAIL: [email protected]

+23059238444/ +23059119263




” अंतराष्ट्रीय महिला दिवस प्रतियोगिता”

सबसे सुन्दर सर्वोपरि हो,सकल गुणों की खान हो।
सबसे ऊंचा कद तुम्हारा,तीन लोक में महान हो।।
धैर्य तो है धरती के जैसा, क्षमाशील हो नामी।
सर्व गुण सम्पन्न हो नारी, कछु नहीं है खामी ।।
दादी माता बुआ बहिन हो,पुत्री प्यारी-प्यारी ।
पत्नी बन परिवार बढाती,धन्य हो तुम नारी।।
सुख-दुःख सारे सह कर भी,विचलित नही होती।
ध्यान सभी का रखती पूरा,सुला के सबको सोती।।
दादी लडती कभी अकडती,तुम कैसे सह लेती हो।
बडी ही सहनशील हो माता, धैर्य न डिगने देती हो।।
बहिन ऐसी भाई-बहिन हित,जान छिडकती रहती हो।
सदा भला सभी का चाहती,निर्मल जल-सी बहती हो।।
पुत्री बन कर मां-बाप को,इतना खुश कर लेती हो।
दुखः सह कर भी मायकै पै,आंच न आने देती हो।।
सुख-दुख की सहभागी बन,जीवन बाग खिलाती हो।
खुशियों को संभव कर देती, प्यार का रस पिलाती हो।।
गुरू बन कर निज बच्चो में,भर देती संस्कार सभी।
जब तक वो सफल न होते,जरा न पाती चैन कभी।।
नारी बहुत बढ़ गई आगे,बदल गयी सब झाकी है।
हर क्षैत्र में पदासीन हुई ,बचा नहीं कोई बाकी है।।
लक्ष्मी रूपा गौरी रूपा , और शारदा की छवि हो।
लेखक साहित्यकार निराली,वाक्ई सक्षम कवि हो।।
नेता-अभिनेता भी तुम हो,विश्व पटल पर छा गयी हो।
बन वैज्ञानिक चंद्र लोक पर,घुम-घुमा कर आ गयी हो।।
नारी तुम देवी रूपा हो, आन-बान और शान हो।
तुम दर्शनीय तुम वंदनीय,तुम प्रशंशनीय महान हो।।
तुम सम्मानित हम सम्मानित,ऐसै ही मन भाव संवारै।
नारी का अपमान नहीं हो, ऐसा ही सब सोच -विचारै।।
आदर और सम्मान योग्य ये,हम युग-युग आभारी है।
कोटि-कोटि वंदन है तुमको,तुम जग की महतारी है।।
महिला का सम्मान करै सब यही, हमारा कहना है।
सारे जग की शोभा नारी ,नर का अनुपम गहना है।।
महिला दिवस की तरह सदा,महिला का हो सम्मान ।
संस्कारों की दाता सक्षम, है ये तो दो घरों की शान।।
नर बडा तबही बनता है, जब महिला आगे आती है।
नारी के बिन सब जग सूना ,सृष्टि नहीं चल पाती है।।
महिलाओ का सच्चे दिल से, करै सब मान-सम्मान।
हर क्षेत्र में आगे होगी,सच में होगा ये भारत महान।।

*** जबरा राम कण्डारा ***




प्रेम काव्य प्रतियोगिता हेतु रचना “दिल पर रंग”

 

दिल पर रंग चढ़ा कर देखो,
गीत लबों पर ला कर देखो।
दुनियां दारी यूँ ही चलेगी,
दिल अपना बहला कर देखो।

पशोपेस में उम्र गुज़री,
दिल तो ज़रा लगा कर देखो।
मीत मिला जो मन का यारों ,
उस पर प्यार लुटा कर देखो।

मौसम इतना हँसी हो गया है,
पलकें ज़रा उठा कर देखो ।
कभी हो नग़मा कभी हो आँसू,
धड़कन आग बना कर देखो।

मंज़िल को पाना है राही,
एक- एक कदम बढ़ा कर देखो।
जाति वर्ग की जगह न कोई ,
हर दीवार हटा कर देखो ।

( शिक्षिका )
फ़तेहपुर उत्तर प्रदेश




अन्तर्राष्ट्रीय प्रेम-काव्य-लेखन प्रतियोगिता

*अंतरराष्ट्रीय “प्रेम-काव्य लेखन प्रतियोगिता”*

   शीर्षक :     ” बसन्त “

होने लगा है जिस पल से मुझको
खुद में तेरे होने का एहसास।
मैं खो सी गई । मैं,मैं न रही ,
बस तू ही मुझमें ,बस तू ही ख़ास।

मेरे अन्तर्मन की गहराई में कभी
बहती नदिया की अविरल धारा।
और कभी लहरों का तूफाँ लेकर
सागर  समा जाता सारा।

जैसे बसन्त के आने पर
धरती करती अपना श्रंगार।
तेरे एहसास की आहट से ,
बज उठता मन का तार-तार।

बार-बार ये करता प्रश्न
मेरा एकाकी और शंकित मन
कौन हो तुम? कहाँ से आए ?
बसन्त हो तुम या हो सावन ?

निरंतर समाते जा रहे हो
मेरे हृदय के धरातल में
मैं सकुचाई सी, मौन सी
सिमट रही बस आँचल में ।

यूँ ही सदा छाए रहना तुम
जीवन में मेरे ऋतुराज बसन्त।
मदमस्त ,बेफिक्र, अल्हड़ सी
तितली सी उडूँ जीवन-पर्यन्त।

यूँ ही सदा छाए रहना तुम
जीवन में मेरे ऋतुराज बसन्त.

(स्वरचित )

…समिधा नवीन वर्मा
लेखक/ब्लॉगर/अनुवादक/यूट्यूबर
पता: लवली लॉज, गिल कालोनी,
सहारनपुर (उत्तर प्रदेश )
भारत ।
Ph. 9456027187




विषय:- प्रेम-काव्य लेखन प्रतियोगिता हेतु कविता:- बात उन दिनों की थी

विषय:- प्रेम-काव्य लेखन प्रतियोगिता हेतु
कविता:- बात उन दिनों की थी

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बात उन दिनों की थी
जब मैं पहेली बार तुझसे मिलने को आया
थोड़ा सरमाया थोड़ा घबराया
तू थोड़ा सा बेताब सी थी
मुझसे मिलने को उत्सुक सी थी
तुझसे मिले अरसा सा हो गया था
तुझ तक पहुचने में खर्चा सा हो गया था
तुझे उठाया
गले से लगाया
तुझसे मिलने की बड़ी आरजू थी बड़ी बेताबी थी
तुझे देख कर
तेरे चहेरे पर हर शब्द पढ़ लिया मैंने
तुझमे लिखा हर छण जी लिया मैंने
ये बात उन दिनों की थी

जब तुझे पढ़ कर हर इम्तेहान दे दिया करता था
तुझे सीने से लगा कर पूरी रात सो लिया करता था
कभी तुझे उठाने में मेरी कमर नहीं झुकी
कभी तुझे भुजता देख मेरी सांसें नहीं रुकी
तुझमे लिखा हर शब्द मुझे भाता था
तुझे पढ़ कर मेरा रोम रोम खिल जाता था
ये बात उन दिनों की थी

जब तू ही तो थी
जो मेरे साथ उठती बैठती थी
मेरे लाख कोशिशों बाद भी मैं तुझे मना न सका
तुझे अपने इम्तेहान के वक़्त लेजा न सका
मुझे पता था तू मुझसे नाराज थी
पर क्या करता मुझे भी खुद से आस थी
ये बात उन दिनों की थी

जब मैं तुझसे दूर जा रहा था
किसी और के करीब आ रहा था
अब वो बात नहीं थी
तुझसे बिछड़ कर मेरी कोई रात नहीं थी
वो चहरे पर शब्द पढ़ लेना
वो तुझमे लिखा हर छण जी लेना
तू थी तो हर इम्तेहान पास हो जाता था
तुझे पाकर ये जीवन आम से खास हो जाता था
तू गई तो ये जीवन वीराना सा हो गया है
सब कुछ अब अनजाना सा हो गया है
ये बात एक दिन की नहीं कई दिनों की थी
ये कोई और नहीं
ये मेरी किताब थी
ये बात उन दिनों की थी
ये बात उन दिनों की थी……….||

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रचनाकार का नाम:- रितेश जिंदल
पदनाम:- अधिवक्ता
डाक पता:- पुरानी मंडी, वार्ड न.08, सितारगंज, उधम
सिंह नगर, उत्तराखंड, पिन कोड- 262405
ईमेल पता:- [email protected]
मोबाइल/ व्हाट्सएप्प नंबर:- 8433193713




‘तेरे बिना’ प्रेम काव्य प्रतियोगिता हेतु

मुझे याद आता है-

                      गुजरा हुआ

                      हर एक पल

                      जो

                      तेरे बिना

                      तनहाई में

                      गुजारे मैने

मुझे याद आते हैं-

                       वो लम्हे

                       जो

                       तेरे साथ

                       चोरी-चोरी

                       जी लिए मैंने

                       तन्हाइयों को

                      अंगूठा दिखा कर

मुझे याद आता है-

                       वो स्पर्श

                       जो

                       तेरे होंठ से लेकर अंतर्मन तक

                       जिला गया मुझको

                       तुच्छ से कुछ तक का

                       सफर करा गया

                       मुझको

मुझे याद आता है-

                      वो मेरा हाथ थामना

                      वो मेरे आँसू पोंछना

                      यकीन दिलाना मुझको

                      कि

                      तुम मेरी हो

                      हमेशा – हमेशा

                      रहोगी मेरे सीने में

                      मेरे प्राण बनकर

मुझे याद आता है-

                       मुझे

                       करीब आते देखकर

                       वो तेरा मुस्करा देना

                       लब खोलकर

                       मुझको

                      आमंत्रित करना

                       कि देखो

                      लाली भले खराब हो

                      कोई देख न ले

                      प्रमाण

                      अपने प्रेम का

मुझे याद आता है-

                      वो फट से अपने गालों को

                      मेरी ओर फेरना

                      कि देखो

                      कोई देख न ले

                      हमको

                      हमारे प्यार को

                      नज़र न लगे

                      किसी अपने – पराये की

मुझे याद आता है-

                       वो तेरा आखिरी धक्का

                       या कहूँ ‘धोखा’

                       कि तुमने

                       क्यूँ किया ऐसा

                       अपनों की भीड़ में खोकर

                        मुझे

                       फिर छोड़ दिया तन्हा

                       घुट-घुट कर मरने को

                       मजबूरन जीने को

मुझे याद आता है-

                       मेरा भगवान आज फिर

                       कुछ ऐसा हो जाए

                       इक बार के लिए

                       तू फिर से आ जाए

                       मुझको सिखा जाए

                       कैसे जीऊँगा मैं

                       तन्हा तेरे बिना

                                                             -‘चाँद दईजरी’




महिला- दिवस काव्य प्रतियोगिता हेतु कविता – ” बेटी “

                        बेटी

                   पढ़ें बेटियाँ, बढ़ें बेटियाँँ                                                     उच्च शिखर पर चढ़ें बेटियाँ                                                सदाचार की भट्ठी मे तप                                                    अपना जीवन गढ़ें बेटियाँ ।

   चूल्हे चौके तक ही सीमित                                      नहीं रही अब तो यह बेटी ।

    पढ़ लिखकर घर का,स्वदेश का                               मान बढ़ाती है यह बेटी ।

     बनती है शिक्षिका, चिकित्सक                               निज कर्त्तव्य निभाती बेटी ।

     करती नव पीढ़ी को शिक्षित                                    स्वस्थ समाज बनाती बेटी ।

      मातृभूमि की रक्षा हित अब                                    सेना मे भी जाती बेटी ।

       सरहद पर दुश्मन को भी अब                                  डटकर सबक सिखाती बेटी ।

        पर्वत की ऊँची से ऊँची                                           चोटी पर चढ़ जाती बेटी ।

        और तिरंगा गाड़ वहाँ                                             भारत का मान बढ़ाती बेटी ।

         राजनीति मे जब जाती है                                        ऊँची कुर्सी पाती बेटी ।

          राह समर्पण-सेवा का                                             अपनाती,नाम कमाती बेटी ।

          पत्रकार बनकर समाज को                                    सच्ची राह दिखाती बेटी ।

           माँ-पत्नी-बेटी-बहना का                                        भी है फर्ज निभाती बेटी ।

            घर बाहर के सब कामों मे                                      सामंजस्य बिठाती बेटी ।

            समय पड़े होती कठोर पर                                      यूँ होती अति कोमल बेटी ।

            अपना भारत धन्य जहाँ                                         घर-घर मे पूजी जाती बेटी ।

 

   उपर्युक्त कविता मेरी मौलिक और स्वरचित है।इस पर किसी तरह का कापीराइट विवाद नहीं है ।                          अनन्तप्रसाद ‘रामभरोसे’                                         ग्राम पोस्ट-सागरपाली ,      जिला-बलिया।                  पिन कोड-277506    (उ.प्र.)   भारत                    मो. न.-9838408017




बसंत (प्रेम गीत प्रतियोगिता)

प्रीत की प्यारी बनके,
सबकी दुलारी बन के,
मंह-मंह करती,
बसंत त्रृतु आ गई।
धानी चुनर पहने,
उससे मिलन करने,
सपने सुहाने ले के,
मधुमास को रिझा गई।
मंह-मंह करती,
बसंत त्रृतु आ गई।
कलियों ने राग छेड़,
भौरों के साथ खेले,
चूस के पराग रस,
देखो बलखा गई।
मंह-मंह करती,
बसंत ऋतु आ गई।
ताल तलैया देखो,
मन की गौरैया देखो,
फूल बन सरसो,
खेती में लहरा गई।
मंह-मंह करती,
बसंत ऋतु आ गई।
यौवन में निखार भर के,
फूलों से ऋंगार कर के,
देखते ही देखते,
धरती इठला गई।
मंह-मंह करती,
बसंत ऋतु आ गई।
मांग में सिंदूर भर के,
ऑंखों में नूर भर के,
चार दिन की चाँदनी,
धरती नहा गई।
मंह-मंह करती,
बसंत ऋत आ गई। -@अजय कुमार मिश्र “अजयश्री “




प्रो नीलू गुप्ता की अध्यक्षता में अंतरराष्ट्रीय कवि सम्मेलन सम्पन्न

विश्व हिंदी सचिवालय, मॉरीशस  न्यू मीडिया सृजन संसार ग्लोबल फाउंडेशन एवं सृजन ऑस्ट्रेलिया अंतरराष्ट्रीय ई- पत्रिका के संयुक्त  तत्वावधान में एक  अंतरराष्ट्रीय कवि सम्मेलन का आयोजन 17 जनवरी 2021 को सफलता पूर्वक संपन्न हुआ। कैलिफोर्निया, अमेरिका से प्रो नीलू गुप्ता जी के अध्यक्षता में आयोजित हुए इस कवि सम्मेलन में दुनियाभर से हिन्दी रचनाकार सम्मिलित हुए। मुख्य अतिथि के रूप में प्रो. हितेंद्र मिश्रा, पू. प. विश्वविद्यालय, शिलांग, मेघालय, भारत उपस्थित रहे। यह कवि सम्मेलन विश्व हिंदी सचिवालय, मॉरीशस के महासचिव प्रो. विनोद कुमार मिश्र जी के सान्निध्य संपन्न हुआ जिसमें सृजन ऑस्ट्रेलिया अंतरराष्ट्रीय ई- पत्रिका के प्रधान संपादक श्री शैलेश शुक्ला ने आयोजक और संचालक की भूमिका निभाई।

विशिष्ट अतिथि के रूप में श्री हरिहर झा, मेलबोर्न, ऑस्ट्रेलिया से एवं डॉ. नूतन पांडेय, दिल्ली, भारत से सम्मिलित हुए । यह कवि सम्मलेन गूगल मीट के माध्यम से ऑनलाइन आयोजित किया गया से फेसबुक लाइव के द्वारा एक हजार से अधिक श्रोताओं ने कार्यक्रम को देखा और सुना । मॉरीशस, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, पपुआ न्यु गिनी और सिंगापुर से कविगण उपस्थित हुआ और अपनी कविताओं के सुमधुर पाठ से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया । सभी प्रमुख वक्ताओं ने वैश्विक स्तर पर हिंदी के प्रसार- प्रसार में सृजन ऑस्ट्रेलिया अंतरराष्ट्रीय ई- पत्रिका द्वारा निभाए जा रहे इस महत्वपूर्ण भुमिका की सराहना की और विश्वास जताया कि आने वाले समय में सृजन ऑस्ट्रेलिया अंतरराष्ट्रीय ई- पत्रिका वैश्विक स्तर पर हिंदी को विश्व की भाषा बनाने में सफलता अपना बहुमूल्य योगदान देगा ।

सृजन ऑस्ट्रेलिया अंतरराष्ट्रीय ई- पत्रिका की मुख्य संपादक श्रीमती पूनम चतुर्वेदी शुक्ला ने जानकारी देते हुए बताया कि सृजन ऑस्ट्रेलिया अंतरराष्ट्रीय ई पत्रिका एवं न्यू मीडिया सृजन संसार ग्लोबल फाउंडेशन, विश्व हिन्दी सचिवालय, मॉरिशस के साथ मिल कर इस तरह का आयोजन लगातार कर रहा है जिसमें दुनिया भर से हिन्दी प्रेमी शामिल होते है। इसके साथ ही उन्होंने बताया कि हम विभिन्न अवसरों पर अंतरराष्ट्रीय काव्य लेखन प्रतियोगिता का आयोजन करते है। प्रतियोगिता में शामिल हुए श्रेष्ठ कवियों को चुन कर अंतरराष्ट्रीय कवि सम्मेलन में काव्य पाठ के लिए आमंत्रित किया जाता है।

रविवार को आयोजित हुए इस अंतरराष्ट्रीय कवि सम्मेलन में सिंगापुर से शीतल जैन, मॉरीशस से कविराज बाबू, झमन वशिष्ट, अंजलि हजगैबि, राज हीरामन, कैलाश और शिक्षा गजाधार, पापुआ न्यू गिनी से संदीप सिंधवाल ने काव्य-पाठ किया। मॉरिशस से सृजन ऑस्ट्रेलिया की राष्ट्रीय संयोजन डॉ. कल्पना लाल जी और मॉरीशस में भारत की हिंदी एवं संस्कृति के लिए द्वितीय सचिव सुश्री सुनीता पाहुजा की गरिमामय उपस्थिति रही, दोनों ने अपनी रचनाओं का काव्य पाठ भी किया और सुन्दर आयोजन के लिए सभी कविगण एवं आयोजकों की सराहना की।




प्रेम अध्याय

अकेला विसरा अपनी राहों में चला था,
किसी की जरूरत सता रही थी,
जिनसे दिल की बातें करूँ,
दिल के दर्द बयां करूँ,
फिर वो दिन आया जब सब बदल गया,
उसकी आहट से जिंदगी में रंग से भर गए ।

उसकी हंसी जीने की उम्मीद जगाते,
उसकी पर्शायी मुश्किलो से भरी जिंदगी को,
नयी दिशा दे जाती,
सुखी हवा भी ठंडक दे जाती,
उसके साथ चलने से जीवन धन्य हो जाता ।

फिर एक दिन उसने धीमे आवाज़ में पूछा,
मुस्कुराते हुए,
तुम हो तो हमारी जाति के न,
तुम बिन अब गुज़ारा नही हमारा,
उसने (लड़का) थोड़ी ऊँची आवाज़ में बोला,
तुमसे छोटी जाति का हूँ,
पर कमी कोई नहीं आने दूँगा,
पलकों पे बिठाकर,
खुद धुप में जलकर, छाया दूँगा,
उसने (लड़की ) कहा मेरे घर वाले नहीं मानेंगे ।

और फिर,
घर वालों को पता चलते ही,
लड़की की शादी कहीं और करदी,
रोती बिलखती ससुराल जो गयी वो,
उसे यह सुनकर खुदा याद आया और कहा,
क्यों किया ऐसा, बिगाड़ा क्या है मैंने किसी का,
दो पल की ख़ुशी दी थी छीन ली वो भी । 

खुदा ने चुपके से कहा,
मैंने तो इंसान है बनाया, यह तो तूने बनाया,
इसी आग से खेलते जो आये हो,
इसी अहंकार में जीवन बिता रहे,
तुम्हें इसी में जीवन बिताना है, पर हाँ,
इसे बदलने की कोशिश जरूर करना,
एक नया अध्याय मानवता को समर्पित जरूर करना,
ताकि आने वाली पीढ़ी सबक ले,
और तुम्हारी तरह किसी और को तकलीफ न हो ।