घर
डॉ. नानासाहेब जावळे
घर प्रिय नहीं होता, केवल मनुष्य को ही
होता है, पशु-पंछियों को भी अपना घर प्यारा
हड़कंप मचने के बावजूद, दुनिया में
होती है कामना, बसेरा बना रहे हमारा।
केवल घर बनाए रखने के लिए
घर छोड़कर दौड़ते हैं, मनुष्य दिन-रात
उनकी जद्दोजहद देखकर
समझ में आती है, महत्ता घर की आज।
घर होता है, आदमी के लिए
और आदमी होता है, घर के लिए
घर के प्रति यह असीम लगाव
अटूट होता है उससे नाता।
घर के होते हैं, दो अंग
बाह्य रूप और अंतरंग
दीवारें और साज-सज्जा उसका बाह्य अंग
विचार, आचार, व्यवहार घर के अंतरंग।
दुनिया वालों की दृष्टि में, घर के होंगे अनेक नाम
हाऊस, फॉर्महाऊस, ओपेरा हाऊस, हॉलिडे होम,
नाम के ही अनुसार होता है लगाव
उसके साथ जुड़ा, अपनत्व भाव।
जहां आश्रय मिलता है
आवश्यकताएं पूर्ण होती है, वह हाउस
खेत खलिहान पर जो होता है
वह फार्म हाउस।
जहां कलाओं का स्वाद लिया जाता है
वह ओपेरा हाऊस
और जहां छुट्टियां मनाई जाती है
वह हॉलिडे होम।
लेकिन भारतीयों के लिए
घर माने केवल चार दीवारें नहीं
वह मात्र मौज मस्ती
मनाने की जगह नहीं।
घर परिवार जनों का विकल्प है
घर का संबंध आप्त जनों से हैं
जहां सुख-दुख बांटे जाते हैं
जहां जीवन अर्थ धारण करता है।
मकान किराए का हो सकता है
उसे कभी भी छोड़ा जा सकता है
लेकिन जिन्हें कभी छोड़ा नहीं जा सकता
ऐसे स्वजनों का निवासस्थान माने घर।
जहां माता-पिता, पति-पत्नी, बाल-बच्चे
इनमें केवल होते नहीं रिश्ते-नाते
वहां होता है, परस्पर आदर और स्नेह
होती है परस्पर आत्मीयता और विश्वास।
होता है प्रत्येक भारतीय को घर प्रिय यहां
समझता है वह, घर की जिम्मेवारियां
देख भारतीयों का परिवार प्रेम यहां
आज भी दुनियां है, अचंभित वहां।
भारतीय परिवार व्यवस्था में
मन होते हैं, परस्पर अटके हुए
चाहे सुख हो, चाहे दुःख हो
सभी होते हैं, एक-दूजे के लिए।
होता है प्रत्येक घर
जीवन शिक्षा का केंद्र यहां
स्कूल में जाने के पुर्व ही
घर में मिलते हैं, संस्कार यहां।
मां होती है, पहला गुरु
जिससे होती है, जीवन शिक्षा शुरू
दादा-दादी के विचार, गीत
घर होता है, ज्ञानपीठ।
घर माने संस्कार धन
घर करता है, परंपरा का वहन
दुनिया में परिवर्तन होता रहेगा
फिर भी घर बना रहेगा।
घर वह भावनिक मसला है
जिसपर राजनीति चलती है
सपनों के घर बांटकर
चुनाव जीते जाते हैं।
बढ़ती आबादी के कारण
बढ़ती बेरोजगारी के कारण
जगह की कमी के कारण
घर विभाजित हो जाते हैं।
आज वैश्वीकरण, बाजारीकरण के कारण
घर-घर में स्पर्धा सी लग गई
कई जगहों पर झोपड़पट्टी
तो कहीं विशाल अट्टालिकाएं बन गई।
जब हम होते हैं मजबूर
तभी जाते हैं घर से दूर
फिर भी घर की याद सताती है
हमें वापस बुलाती है।
अनेक बार मनुष्य सुख में
भूल जाता है, घर को अक्सर
दुख, संकट, भयभीत होने पर
चल पड़ता है, घर की ओर।
आज दुनिया में करोड़ों हैं बेघर
हो चुके हैं, ध्वस्त लाखों के घर
भले ही दुनिया हसीनों का मेला है
फिर भी घर के बिना जीवन अधूरा है।
डॉ. नानासाहेब जावळे
सहयोगी प्राध्यापक,
सुभाष बाबुराव कुल कला, वाणिज्य व विज्ञान महाविद्यालय केडगांव, तहसील – दौंड, जिला – पुणे, महाराष्ट्र, भारत।
E-mail- [email protected]
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