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लोहड़ी का त्यौहार

लोहड़ी का त्यौहार

आया आज लोहड़ी का त्यौहार है
सबके दिलों में खिली कैसी बहार है
ढोल नगाड़े पर थिरक रहा है कोई
कोई गा रहा मधुर गीतों के गान है

तिल में मिले गुड़ की फैली महक है
उड़ती पतंगों से खिल गया दिल है
रेवड़ी खील का प्रसाद बट रहा कहीं
कहीं सुन्दरी-मुन्दरी की गूंज है

मस्ती भरी देखो कैसी सुहानी शाम है
आग के चारों ओर हो रही धूमधाम है
भांगड़ा कर रहे है मुंडे कहीं
कहीं गिद्दा कर रहीं कुड़ियां है

घर घर में बन रहे पकवान है
सरसों दा साग मक्के दी रोटी है
संदेशों की हो रही दस्तक कहीं
कहीं लोहड़ी दी बधाइयां है

मौलिक एवम् स्वरचित

जगदीश गोकलानी “जग ग्वालियरी”

लोहड़ी की लख लख शुभकामनाएं

 

 




त्योहार परम्परा

त्योहार परम्परा…
“अरे! यहाँ तो आज सुबह से बच्चे लोहड़ी मांगने ही नहीं आए| मैं तो बच्चों को पंजाब में लोहड़ी कैसे मनाते हैं, दिखाने लाई थी” सिमरन बोली| “इंग्लैंड में अपने बचपन के कईं किस्से इन बच्चों को सुनाए थे तो इन्होंने पंजाब में लोहड़ी मनाने की जिद्द की| मैं तो बच्चों के सामने झूठी पड़ जाऊँगी”, उसने अपनी भाभी से कहा|
भाभी ने कहा अब तो शहरों के ही नहीं, गाँव में भी बच्चे लोहड़ी मांगने को भीख मांगने जैसा समझ शर्म महसूस करते हैं| परंतु चिंता मत करो| हमारी सोसाइटी में लोहड़ी मनाने का कार्यक्रम रखा गया है, बच्चों को वही दिखा देना|
तभी दरवाजे पर सोसाइटी के गार्ड ने घंटी बजाई| उसने दरवाजा खोला गार्ड ने एक छपा हुआ निमंत्रण उसके हाथ में पकड़ा दिया साथ ही दो हज़ार रुपये लोहड़ी मनाने के लिए ले गया| बच्चों ने पूछा तो उस ने उन्हें बताया कि सोसाइटी में नये तरीके से लोहड़ी मनाते हैं इसलिए अभी तो यही देखो|
अगले दिन अपनी भाभी से कहा कि कल शाम को भांगड़ा , गाना -बजाना सब हुआ| पंजाबी भोजन भी स्वादिष्ट था, परंतु कहीं कुछ कमी थी तो पुराने विरसे की कमी थी| यहाँ तो न लोहड़ी में सुंदर- मुंदरिये गाती टोलियाँ दिखाई दी, न ही गली -गली बजते ढ़ोल और जलती होलिका दिखाई दी| लोग एक दूसरे को घर- घर बधाइयाँ देने जाते या लोहड़ी बांटते भी नहीं नज़र आए|
भाभी बोली सही कहती हो, यहाँ कुछ क्लब, सोसाइटी वाले अपने -अपने क्षेत्रों में मिल कर त्योहार मना लेते हैं, घरों में कुछ लोग ज़रूर अपनी परम्परा निभाते हैं, कुछ लोग तो मूंगफली -रेवड़ियाँ खरीद कर खाकर फेसबुक, इंस्टाग्राम और वाट्सऐप पर डाल कर लोहड़ी की शुभकामनाओं का आदान- प्रदान करके त्योहार मना लिया करते हैं|
सिमरन सोच में पड़ गई….”प्राचीन परम्पराओं को आधुनिकता का आवरण धीरे -धीरे एक नया रूप दे रहा है डर है कि हमारे बचपन की यादें भी इसमें कहीं खो न जाएं|”
… प्रेम लता कोहली




महिला दिवस काव्य प्रतियोगिता हेतु कविता – निर्भया भविष्य की

कविता – 1

सास-ससुर-माँ-बाप रखने की चीज हैं?

एक दिन मेरी शादी शुदा सहेली ने

बातों-बातों में मुझसे कहा कि

मैं अपने सास-ससुर को रखे हूँ

इतनी बड़ी जिम्मेदारी उठा रखी है

चुपचाप उन लोगों को

जो मिल जाय उसे खा लेना चाहिए

जो मिल जाये उसे पहन लेना चाहिए

अब इस उम्र में पूजा-पाठ

करनी चाहिए लेकिन नहीं

हर वक्त कुछ-न-कुछ

नुक्श निकालते रहते हैं।

मैं सुन रहा, गुन रहा था।

कुछ मन-ही-मन बुन रहा था।

मुझे एक बात अपनी सहेली की

कुछ ज्यादा चुभ गई

सास-ससुर को

‘‘हम रखे हुए हैं‘‘

मैं बोला क्या जमाना

आ गया है,

अब सास-ससुर-माँ-बाप

घर में रखने की वस्तु हो गए

अगर मेरी सहेली यह कहती कि

हम अपने सास-ससुर के

साथ रहते हैं

शायद यह बात सुकून देती

सनातन संस्कारों की अमित छाप लगती

लेकिन नये जमाने की शायद नई तस्वीर है

माँ-बाप-सास-ससुर रखने की चीज हो गए

हम किधर जा रहे हैं

मुझे अब लगने लगा है कि हम

अपने संस्कारों से कितने दूर हो रहे हैं?

अब इन्हीं नये गढ़े संस्कारों के

साथ-ही अब हमें जीना है

या यूँ कहें कि जीने को मजबूर होना है।

यह दिन आज नहीं तो कल

सभी के साथ आयेगा।

आधुनिक माँ-बाप ही तो बेटे-बेटियों को

ये नये संस्कार दे रहे हैं कि

सास-ससुर-माँ-बाप रखने

की चीज हैं?

 

 

 

कविता – २

हुस्न और इश्क का मेल

हुस्न जब-तब आवारा हुआ

इश्क तब-तब बदनाम हुआ

यह देख एक दिन

लज्जा ने हुस्न से पूछा कि

मेरी बहन रह-रह कर तुम मुझसे

खफा क्यों हो जाती हो

मुझसे रूठ क्यों जाती हो

जब-जब तुम मुझसे रूठी हो

तब-तब इश्क के दामन पर

कोई ना कोई दाग लगा है।

इसलिए मेरी बहन

मुझसे खफा न हुआ करो

मुझसे दूर न जाया करो

न ही मुझसे रूठा करो

न ही मुझसे मुंह छिपाया करो

मैं ही हूँ जो इश्क को

इबादत के योग्य बनाती हूँ

इश्क को गौरवमयी बनाती हूँ

इसलिए मेरी बहन

तुम मेरा दामन मत छोड़ो

जब मैं तुम्हारे साथ होती हूँ

तुम अपने को

ज्यादा सुरक्षित, समर्पित और खुशहाल

नजर आती हो

इतना अपनापन देख

हुस्न ने लज्जा को गले लगाया

और कहा मैं भटक गयी थी बहना

देख लिया संसार मैंने तुम बिन

कोई मुझे आवारा कहता है

कोई बदचलन कहता है,

कोई वेश्या कहता है,

कोई बेलगाम कहता है

मैंने यह समझ लिया अब

कि मैं तुमसे अभिन्न हूँ

तुम बिन मेरी कोई बिसात नहीं,

न ही मेरी अकेले, कोई हैसियत

लज्जा ने मुस्कुरा कर हुस्न को गले लगाया।

दोनों ने एक दूसरे का दामन

न छोड़ने का संकल्प दोहराया,

यह देख इश्क मुस्कुराया और अपने आप पर इतराया।

कि अब न होंगे हम बदनाम कभी भी।

 

 

 

 

कविता – 3

रात की तितलियाँ

रात की तितलियां

उजालों से नफरत करती है

यह बात मैंने जब

रात की तितलियों से पूछा

तो वो हँस कर बोली। साहब

दिन के उजालों में जगमगाने वालों ने

हमें अंधेरी गलियों का रास्ता दिखाया है

अंधेंरों में रहना अब हमें भाने लगा है

जिन्दगी की सुबह से

अब डर सा लगने लगा है

अंधेरों ने ही अपने आंचल

में जगह दी है

हमारे आंसू छिपाये हैं,

खुशियों से तो हमारा।

दूर-दूर तक नाता ही न है,

उजाले में हम त्याज्य हैं,

अग्रहणीय हैं, परित्यक्त है,

अजीब जिन्दगी है हमारी साहब

रातों में हमारी पूजा करने वाले

दिन के उजालों में

पहचानने से भी इंकार करते हैं,

जबकि इनकी रातें

हमसे ही आबाद होती है,

अपने दिन के उजालों

की काली कमाई

रातों में हमारे चरणों में

बिछाते हैं खुशी-खुशी

बड़े-बड़े कस्में-वादे खाते हैं

हम जानते हैं साहब

सफेद झूठ बोल रहे हैं

क्या करें हम

पापी पेट का सवाल है,

उजालों से हमें नफरत है

अंधेरा ही हमारी नियति है

कम-से-कम छिपने-छिपाने

को तो कुछ नहीं है

हम रात की तितलियों

इस कारण उजालों से नफरत करती है,

हमें अपने अंधेरे से प्यार है

यही हमारी जिन्दगी का अब आधार है।

 

 

 

कविता – ४

निर्भया भविष्य की

मेरा शरीर ही मेरी सम्पत्ति है

इसको मेरी आज्ञा के बिना छूना मना है

यह सिर्फ मेरा अस्तित्व है

मेरी शारीरिक सीमा रेखा में

प्रवेश का हक किसी को नहीं है।

वरना भोगना ही पडेगा मेरा आक्रोश

मैं इसे अपना कर्त्तव्य ही नहीं

अपना धर्म समझती हूँ

मेरा शरीर कोई सामान नहीं है

जिसे राह चलते कोई

भी देख ले, छू ले

चूम ले, गले लगा ले

मैं अपने इस तन मंदिर

की अकेली स्वामिनी हूँ

इस पर नहीं है, हक किसी का

हाँ यह अलग बात है

कि मैं अपने इस तन को

अपने मन को

किसी और के हवाले

अपनी स्व-मर्जी से कर दूं

जिसे मैं अपना समझूं

उसे सौंप दूं।

यह मेरा प्राकृतिक एवं नैसर्गिक अधिकार है।

क्योंकि मेरा शरीर ही मेरी सम्पत्ति है

इसको मेरी आज्ञा के बिना

छूना मना है, मना है, मना है।

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रचनाकार का नाम – डॉ. पंकज सिंह

पदनाम- अध्यक्ष, हिंदी विभाग

संगठन- कालीचरण पी. जी. कॉलेज, चौक, लखनऊ

पूरा डाक पता- ६४५ए/४७८ जानकीविहार कॉलोनी, जानकीपुरम, लखनऊ २२६६३१

ईमेल पता – [email protected]

मोबाईल नंबर- 9453323784

वट्स्ऐप नंबर – 9453323784

 




जीवन और मौत में अंतर

         जीवन और मौत का अंतर 

मैंने मौत को बहुत पास देखा, 

हिल गई मेरे जीवन की रेखा, 

वह अद्भुत विलक्षण क्षण ,

सचमुच प्रलयंकारी था,

मुझे आभास करा देता है वह क्षण, 

जीवन की लघुता का,

नश्वरता का, अक्षुण्ण क्षणभंगुरता का,

और प्रणय पाथेय से बिछोह होने का।

 

रूक गयी थी साँसे एक क्षण के लिए,

टूट गए थे सपने भविष्य के लिए,

क्षितिज का धुँधला किनारा ,

बिल्कुल दूर हो चुका था,

जीवन की नाव का किनारा ,

हाथ से निकल चुका था,

कि अचानक सभी प्रश्नों के उत्तर 

मिल गए,

जीवन के अवशेष मौत ने उगल दिए, 

 

अब निश्चित था, 

आज का बीता हुआ क्षण,

प्रभुता की शरण पर अवलंबित था, 

अच्छे कर्मों के बीज का अंकुरण, 

प्रस्फुटित था, 

आस्था, श्रद्धा, भक्ति का गृहीत कवच, 

मानो मेरे नेपथ्य में था।।

 

स्मरण हो आयी पुनः वह, 

स्नेहमयी गोद, 

और वट वृक्ष के समान पितृसाया,

स्मरण हो आयी वह पुनीत सिन्दूर की रेखा,

स्मरित  हो आयीं वह पल्लवित टहनियाँ, 

विस्तृत फल-फूल उस वृक्ष  के,

जिसने मरुभूमि में भी,

अतल गहराई का 

रस सिंचित कराया था।

 

सभी कुछ  अब अनुकूल था, 

प्रतिकूल थी तो केवल स्मृतियों की, 

काली छाया, 

जिसने पुनः एक बार झकझोर दिया, 

अंतस्तल को,

एहसास करा दिया जीवन और मौत के,

असहनीय अंतर को।।

 

_____________________

 

 

 

 

 

 

 

 




भाषा

भाषा
जब से मानव तब से मैं
वन आदिवास में थी मैं

गुफाओं के चित्र की रेखा
हर देश विविध रुप मेरा

मन बुद्धि सिंचित करती
विचारों को मैं जन्म देती

मुल में शुद्ध प्रकृति में थी
स्वार्थि हाथ अशुद्ध बनी

मानवी प्रगति विज्ञान गति
सत्य वाणी की अनुगामी

झूठ के पिछे पड़े मतलबी
संबंध मेरा कथनी करनी

मुझ से सारे धर्म निर्मित
मेरे कारण विश्व शान्ति

क्यूं अस्त्र शस्त्र रणभूमि
मैं मानवी सभ्यता प्रगति

विनाश की क्यूं बनें भूमि
मैं व्यक्त अव्यक्त ध्वनि

मानव विचार के आंतरी
सभी शास्त्र की निर्मिती

मेरे राजा और रंक साथी
मेरा स्वर हैं समतावादी

सुमधूर गीत और नीति
मनुष्य से गाली अनीति

मैं कलम अखबार में बॅंधी
आज संप्रेषण में पाई गति

मेरे बगैर यह जीवन अधूरा
स्थापित आदर्शवत सभ्यता

मैं प्रगति की आधारभूमि
क्यूं करें अनीति अधोगति

मैं प्रश्न और उत्तर में भी
आधुनिक साधन निर्मिति

यंत्र तंत्र को आदेश करती
शून्य से अनगिनत गिनती

मानव की सोच बदल गई
विवेकवान कभी अविवेकी

मेरे बगैर मनुष्य आधार हीन
मनुष्य बगैर मैं भी अर्थ हीन

निर्गुण सगुण रूप मेरा ही
आकाश धरती में समा गई

विश्व कल्याण में उपयोगी
मैं मानवता की अनुगामी

मैं अज्ञान को मिटाती रही
मैं हीं ईश्वर और कोई नही

ज्ञान की किरण मेरी ध्वनि
मैं स्वर तुम्हारी वाणी बनी

मैं भाषा मानव हृदय बसी
विश्व परिवार को जोड़ती

प्र.प्राचार्य डॉ.प्रदीप शिंदे,
यशवंतराव चव्हाण महाविद्यालय,पाचवड
वाई, जिला- सातारा
7385635505




अन्तर्राष्ट्रीय कवि सम्मेलन

  1. “हे नारी! हे सदा सबल!” (शीर्षक)

    हे नारी!
    अब रूप धरो
    दुर्गा, काली, शतचंडी का,
    जग के असुरों का नाश करो
    संहार करो पाखंडी का।
    तुम बन महिषासुरमर्दिनी,
    विनाशिनी हे कपिर्दिनी।
    जग में असंख्य हैं रक्तबीज
    व शुम्भ निशुंभ के प्राण हरो,
    कलुषित विचार को हर लेना
    जन जन के हिय में प्रणय भरो।

    हे नारी!
    हे जगजननी!
    तुम सृजनकार हो सर्वश्रेष्ठ,
    तुम जन्मदात्री मातेश्वरी
    चर अचर जीव में परम ज्येष्ठ।
    नारी महान हर रूपों में
    भगिनी, भार्या, तनया, माता,
    बिन नारी के सृष्टि शून्य
    और कोई नहीं जीवन पाता।
    तुममें राधा सा प्रीत भी है,
    परित्यक्ति, विरह का रीत भी है।
    तुम सहिष्णुता की मूर्ति सी हो,
    हर क्षेत्र कर्म की पूर्ति सी हो।

    हे नारी!
    हे सदा सबल!
    तुम हो विनम्र
    तुम हो प्रबल,
    सृष्टि के काज और कर्म
    होते हैं तुमसे ही सफल।
    तुम हो असीम तुम ही अनंत,
    तुमसे ही सृजन तुममें ही अंत।

    © दीपक चौरसिया

  2. “मैं विहग बनूँ”

    आजाद परिंदों के जैसे,
    मैं भी चाहूँ नभ में उड़ना।
    इतना ऊँचा मैं उड़ जाऊँ,
    जैसे गिरि चोटी पर चढ़ना।
    कर्तव्यों पर नित डटा रहूँ,
    जीवन पथ पर आगे बढ़ना।
    मुश्किलों से मैं संघर्ष करूँ,
    जैसे पाषाणों को गढ़ना।
    पर उतना ऊँचा मैं नहीं उडूँ,
    रवि ऊष्मा से जल जाए पर।
    अहं गगन की ऊँचाई से,
    नीचे गिर जाऊँ धरा पर।
    है चाह मेरी कि ऊँचाई छू लूँ,
    पर धरा प्रीति ना छोड़ूंगा मैं।
    है चाह मेरी कि विहग बनूँ,
    पर श्येन नहीं बनूँगा मैं।
    खगराजा का अहं लिए,
    बेघर कर दे गौरैया को।
    भय से सुनी कर दे जो,
    इस उपवन को अमरैया को।
    पर कौआ नहीं बनूँगा मैं,
    जिनकी बातें धमकाती है।
    उनके आदेशों पर केवल,
    कोयल गीतों को गाती हैं।
    है चाह मेरी कि विहग बनूँ,
    पर ऐसा नहीं बनूँगा मैं।

     

  3. “आह्वान”

    स्वतंत्र भयी भारत भूमि उन वीरों की बलिदानों से,
    राष्ट्रप्रेम में कर अर्पित कतरा कतरा लहुदानों से।
    फांसी का फंदा चूम लिया मां के उन वीर सपूतों ने,
    विद्रोही बिगुल बजा शत्रु का प्राण हरा यम दूतों ने।
    मिटने ना पाए कभी शहादत बलिदानों का सम्मान करें,
    सोयी शक्ति को करे जागृत आओ मिल आह्वान करें।

    उठो, जाग अब कमर कसो फिर से तलवार उठानी है,
    कबसे प्यासी इस धरती की रिपुलहू से प्यास बुझानी है।
    है परम शत्रु इस भारत का छल -दंभ द्वेष और भ्रष्टाचार,
    जाति धर्म का भेद- भाव फैली समाज में अनाचार।
    अरि छाती पर लहराएं तिरंगा भारत का जयगान करें,
    सोयी शक्ति को करे जागृत आओ मिल आह्वान करें।

    यह जन्मभूमि श्री राम की है गोवर्धनधारी श्याम की है,
    ये बुद्ध- विवेकानन्द की है गांधी, आजाद, कलाम की है।
    ये लक्ष्मीबाई, सुभाष की है राणा प्रताप के शान की है,
    चाणक्य, सूर, तुलसी की है ये वाल्मीकि, रसखान की है।
    मिला जन्म इस पुण्य धरा पर हम इसका अभिमान करें,
    सोयी शक्ति को करे जागृत आओ मिल आह्वान करें।

  4. “स्त्री की सहिष्णुता”

    स्त्रियां,
    होती है धरती के समान
    जो थामे रहती हैं बोझ
    उस समाज का,
    जिस समाज में
    उनकी इजाज़त के बगैर
    स्पर्श की जाती है
    उनकी देह।
    जहां दहेज़ के खातिर
    उन्हें जला दिया जाता है,
    और मंदिरों- मस्जिदों का दरवाज़ा
    बन्द कर दिया जाता है।
    जहां उनकी शिक्षा पर
    अंकुश लगाकर
    बांध दिया जाता है,
    परिणय सूत्र में।
    और सन्तान न होने का दोषी
    ठहराया जाता है सिर्फ स्त्री को।
    ऐसी अनंत वेदनाओं को
    सहती है स्त्री।
    और उन्माद में पुरुष
    खुद को समझता है श्रेष्ठ।
    उस दिन होगी भीषण त्रासदी
    जिस दिन समाप्त हो जाएगी,
    स्त्री की सहिष्णुता।
    तब फट जाएगी धरती
    जिसमें समा जाएगा,
    सारा का सारा समाज।

     

  5. “सावन सुरम्य”

    नीम डार पर पड़ गए झूले
    शीतल पछुवा पवन से डोले
    काली घटा मनोरम छायी
    जब आयी सबके उर भायी
    बादल गरजे चमकी चपला
    रिमझिम रिमझिम बारिश आयी।

    खेतों में हो गई रोपनी
    जगह जगह हरियाली छायी
    रक्तिम पुष्प खिले वृंतों पर
    वायु में खुशबू महकायी
    प्रातः किरण जब धरती चूमे
    धवल हरित मानो मुस्कायी।

    यह सावन मन के भाव जगाती
    विस्मित स्मृतियां याद दिलाती
    कुछ बिछड़े भूले भटके अपने
    है सावन उनकी कमी बताती
    बिछड़े प्रेमी को प्रेमी की
    है प्रेम विछोह सताती।

    सावन है शिव भक्ति भरा
    शिव से हर्षित यह पुण्य धरा
    कण कण में शिव छवि समायी
    सावन है शिव को अति भायी
    शिव उपस्थिति महसूस हो रही
    ओमकार ध्वनि गूंज रही।

  6. “मुलाक़ातों की यादें”

    मिलते हैं अजनबी की तरह दोनों
    देखते हैं अजनबी की तरह एक दूसरे को दोनों
    व्यक्त करना चाहते खुद की भावनाएं दोनों
    पर यह संसार रूपी कटु वृक्ष रोक देती है,
    तब तक समय समाप्त हो जाता है।
    और फिर सताती है –
    मुलाक़ातों की यादें।
    पुनः वहीं चक्र आरंभ हो जाता है
    पर इस बार इस चक्र में कुछ और जुड़ जाता है
    नज़रें मिलाना चाह रहे हैं दोनों
    नया क़दम जीवन का उठना चाह रहे हैं दोनों,
    पर फिर सामाजिक भय, भेद, रीतियां रोक देती हैं।
    और फिर सताती है –
    मुलाक़ातों की यादें।
    अगली बार फिर यहीं से शुरू हो जाता है
    इस बार कहानी का सही अर्थ समझ में आता है
    जैसे दोनों आगे बढ़ते चले जाते हैं
    उन्हें कोई रोक नहीं पाता है,
    अंततः दोनों के साहस को सफलता प्राप्त हो जाता है।
    फिर याद आता है और प्रसन्न कर जाता है –
    मुलाक़ातों की यादें।

  7. “मां मेरी दुनिया तेरी आंचल में”

    जब जब मैं रोता था तू दौड़ी दौड़ी आती थी
    भूखा होता जब भी मैं तू खाना मुझे खिलाती थी
    मेरे सोने के लिए तू लोरी मुझे सुनाती थी
    कभी कभी कहानियां सुनाते आधी रात बीत जाती थी
    फिर भी मैं बसता था तेरी आंखों की काजल में
    मां मेरी दुनिया तेरी आंचल में।

    होते थे सपने तेरी आंखों में ऐसे
    आगे बढ़ेगा बेटा समय के जैसे
    कभी कभी जब कोई गलती कर जाता था
    पिता जी के डर से दौड़ा तेरे पास आता था
    छिपा लेती थी तू मुझे अपने आंचल में
    मां मेरी दुनिया तेरी आंचल में।

    मेरी मां तू प्यार का समंदर है
    माता पिता गुरु सभी के गुण तेरे अंदर है
    एक पल भी तुझसे दूर रह नहीं पाऊंगा
    जुदा होके भी जुदा हो नहीं पाऊंगा
    मन करता है अब भी सो जाऊं तेरे आंचल में
    मां मेरी दुनिया तेरी आंचल में।

  8. “मरीचिका”

    इस मरुस्थलीय संसार में
    मीलों तक बस रेत ही रेत;
    जिसने नहीं भरा घड़े में जल
    इस सफर के लिए,
    जब छल्ली होगी उनकी देह
    नागफनी के कांँटों से
    तब उन्हें सताएगी तृष्णा।
    और अनवरत बनती रहेंगी
    मरीचिकाएंँ।
    वह तृष्णा है- जल की
    लोभ-लिप्सा और आकांक्षाओं की,
    वे मरीचिकाएँ जो बनाती हैं
    नए- नए स्रोत।
    उन स्रोतों की तलाश में
    भटकते- भटकते जब;
    बूंँद- बूंँद करके बह जाएगा
    शरीर का सारा रक्त,
    उन रक्तबिंदुओं के साथ ही
    बह जायेंगी सारी इच्छाएँ।
    और विशाल मरु क्षेत्र में
    धराशायी हो जाएगा यह देह
    जैसे कोई पुरानी इमारत की भीत;
    और उस पर उग जाएंगे
    नागफनी और बबूल के पौधे,
    जिनके काँटों से पुनः छल्ली होगा
    एक लोभी मदांध शरीर।

 

 




भारत

जो जन्म लिया इस धरती पर तो प्राण यहीं न्योछावर हो
सीचकर धरती लहु से अपना हर वीर यहाँ बख्तावर हो ।

गंगा जमुना तहजीब धरे,स्वर्णिम भारत ललकार रहा
संस्कृतियों का मिश्रण थामे, पूरे विश्व को यह तार रहा ।
गौरवान्वित इतिहास संग चरम शिखर पर स्थित है जो
जन जन का उद्धार करने फिर से देखो जाग रहा।

रणक्षेत्र में युद्ध का किया तुमने ऐलान है
राख करने अस्तित्व तुम्हारा तत्पर वीर जवान है
लहू के बदले लहु मिलेगा भांप सको तो भांप लो
नत मस्तक करने धङ तुम्हारा हुंकार रहा हिन्दुस्तान है ।




“महिला दिवस काव्य प्रतियोगिता हेतु कविता

“महिला दिवस काव्य प्रतियोगिता हेतु कविता

 

मुझे नहीं बनना है अब देवी कोई

 

मुझे नहीं बनना है अब देवी कोई,  मुझे तुम साधारण ही रहने दो,

तुम तो यार मेरे बस इतना करो,  मेरे भी ख्वाबों का दरिया बहने दो।

 

तुम्हारा घर, तुम्हारे बच्चे, तुम्हारी नौकरी, तुम्हारी चाकरी,

यह रखती हूं मैं सदैव अपने सर-माथे पे,

पर जो मेरी ये दबी, संकुचाई-सी ख्वाईशें हैं,

धीरे ही सही मगर अब मुझको कहने दो।

 

तुमने तो हमेशा से ही जब भी, कुछ भी, जीवन में करना था,

किया नहीं कभी भी अनुरोध कभी, बस इक आदेश-सा जारी करना था,

ये जो मेरा दिल, मेरी धड़कन मुझसे जो हरदम कहती है,

फिर मेरे सपनों की दुनिया क्यों आखिर युं छिपी-छिपी सी रहती है,

पहचान बनानी है मुझको अपनी, तुम अब यह एहसान जताने रहने दो।

 

मुझसे तो बेहतर लागे पवन मुझे, जो निश्चित होकर तो बहती है,

क्यों व्यर्थ ख्वाब सजाती हो, पलकें आंखों से शिकायत करती हैं,

तुम में, मुझ में तो कोई फर्क नहीं इक जैसा रक्त, इक जैसा दिल

जो तुम्हें सहज मैं देती हूं मुझको देने में क्यों हो तुमको मुश्किल,

साथ निभाउगीं तुम्हारा हरदम, बस बेधड़क मेरे दिल को धड़कने दो,

मीनाक्षी भसीन ©

 

 

 

ये कमबख्त जुबान चलाने वाली शिक्षित स्त्रियां

 

मां बहुत ज़ोर देती थी पढ़ाने में मुझे,

पढ़ना जरुरी है, मेरे लिए नहीं,

मेरे भविष्य के लिए,

यदि शादी के बाद कुछ जम नहीं पाया

तो,

कुछ तो होना चाहिए न हाथ में मेरे,

वो क्या है न प्रोफेशनल डिग्री,

ताकि इतना की अच्छा लड़का मिल जाए,

पर थोड़ा कम क्योंकि फिर तुझसे बेहतर

खोजने में होगी मुश्किल,

पर —आज सोचती हूं कि शिक्षा ने तो

ऐसे किवाड़ खोले मेरे मन के,

स्पष्टता से महसूस करने लगती हूं,

मैं वो असमानताएं,

वो सीमाएं,

वो भेद, वो मनभेद

जो हर पग में झेलने पड़ते हैं मुझको,

पर शिक्षित हूं,

अनपढ़ होती तो हर बार मेरी कुंठाओं पर विवेक हावी न होता

क्योंकि शिक्षित स्त्रियों से कुछ ज्यादा ही बढ़िया आचरण की

अपेक्षाएं लगा बैठते हैं लोग,

आप चिल्ला कैसे सकती हैं,

शिक्षित हैं तो घर भी ज्यादा अच्छी तरह संभालना चाहिए न,

  जो हो रहा है, सभी कर रहे हैं, तुम कुछ एहसान नहीं कर रही हो,

सदियों से होता रहा है, होता रहेगा,

 अनपढ़ औरतें ज्यादा समझदार होती हैं,

वे अनुकूल हो जाती हैं इस भेदभाव के परिवेश में रहने के लिए,

पर ये सिरचढ़ी शिक्षित स्त्रियां,

हर समय सिर पर सवार रहती हैं,

जुबान बहुत चलती है कैंची की तरह,

वो क्या है न तिमिर से ग्रसित मन को

जिसमें थोप दिया जाता है कि खाना खिलाना,

कपड़े धोना, बर्तन साफ करना, साफ-सफाई से लेकर

सारी बिखरी हुई चीज़ों को समेटना,

और तुम्हें खुश रखना ही धर्म होता है,

एक स्त्री का,

तो इन ठूसी हुई दकियानुसी धारणाओं से अभिशप्त

मन से सहन नहीं हो पाती,

अचानक प्रकट हुई

शिक्षित स्त्री के मन से, प्रस्फुटित होती

चमकदार किरणें,

जो हर क्षण भेदना चाहती हें,

इस अंधेरे को,

पूरी शिद्दत के साथ,

कोई हो जाता है प्रकाशित,

तो कोई होने लगता खंडित,

और चीखता रहता, कोसता रहता, सिर पकड़कर

हाय कहां से आ गई यह जुबान लड़ाने वाली,

गलत को सही न कहने वाली,

घर को तोड़ने वाली,

खुदगर्ज, तेज़, चालाक स्त्रियां

ये बदतमीज, सिरचिढ़ी शिक्षित स्त्रियां——-

 

मीनाक्षी भसीन, सर्वाधिकार सुरक्षित  

 

 

कुछ गहरी, कुछ ढीठ, कुछ जिद्दी, कुछ सरसों-सी पीली, कुछ शैतान लहरों-सी मैं—-इक स्त्री

अक्सर भागते-दौड़ते हुए रह जाता है,
कुछ-कुछ आटा मेरी अंगूठी के बीचोबीच,
जो मुस्कराता रहता है और याद दिलाता रहता है,
घर की मुझको,
जो कई बार तो हो जाता है इतना सख्त कि उतरना ही
नहीं चाहता, जिद्दी बच्चे जैसे अड़ जाते हैं अपनी कोई
बात मनवाने को,
कुछ-कुछ हल्दी का रंग भी जैसे मिल गया है मेरी हथेलियों से
इस शिद्दत से ,
अब पता चला कि हाथ पीले होने का वास्तविक अर्थ क्या है,
मन भी समुंद्र सा रहता है आजकल,
खामोश तो रहता है पर भीतर ही भीतर,
उठती, बैठती, मचलती, कूदती, सुबकती, कोसती
रहती हैं लहरों पे लहरें,
शांत ही नहीं होता कई बार दिखाई आंखें मैने
कि बस हो गया अब कितना सोचोगी तुम,
पर मानता ही नहीं है यह ढीठ-सा हो गया है,
भारी-भारी सा लगता रहता है मन,
अरे– गंभीर कुछ भी नहीं,
बस घर को उठा कर चलना पड़ता है,
घर से बाहर भी,
कोई एक कोना नहीं,
पूरा का पूरा घर, हरेक कमरा, हरेक कोना,
सोच कर मकान नहीं जब घर को उठा कर
चलना पड़ता है घर से बाहर, और करना पड़ता है काम,
तो होता नहीं आसान,
तो जब इतना मुश्किल काम कर लेती हैं हम इतनी सहजता
से, सरलता से, कुशलता से,
वक्त बना ही देता हैं हमें सख्त,
तो कुछ गहरी, कुछ ढीठ, कुछ जिद्दी,
कुछ भारी, कुछ सरसों-सी पीली, कुछ शैतान लहरों-सी
कुछ सख्त-सी होकर मैं आजकल चले जा रही हूं,
इतने मुश्किल काम को मुस्कराते हुए,
जो मैं किए जा रही हूं,
तभी तो दो नावों पे सवार हो अठखेलियां भी संग-संग
किए जा रही हूं,
शायद सशक्त होने की जरुरत मुझे नहीं है,
परिवेश को है, समाज को है——
थाम सकते हो मुझको,
धिक्कारने के लिए नहीं किसी को थामने के लिए
ही चाहिए न मजबूती, है यह शक्ति तुम्हारे पास,
नहीं है तो लाओ, चूंकि मैं तो अब रुकने वाली नहीं हूं,
किसी भी स्थिति में अब मैं सिमटने वाली नहीं हूं——–

मीनाक्षी भसीन, सर्वाधिकार सुरक्षित

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रचनाकार का नाम-मीनाक्षी भसीन

पदनाम– कनिष्ठ हिंदी अनुवादक

संगठन-आईसीएमआ-राष्ट्रीय मलेरिया अनुसंधान संस्थान

सैक्टर-8, द्वारका, नई दिल्ली-110 075

 

पूरा डाक पता– ग्रीन वैली अपार्टमैंट, सैक्टर-22, जी-403 द्वारका, नई दिल्ली-110 077

 ईमेल पता[email protected]

 मोबाईल नंबर-9891570067

 

 




आखिरी मुहब्बत

मेरे नसीब के हर एक पन्ने पर
मेरे जीते जी या मेरे मरने के बाद
मेरे हर इक पल हर इक लम्हे में
तू लिख दे मेरा उसे बस,
हर कहानी में सारे क़िस्सों में
दिल की दुनिया के सच्चे रिश्तों में
ज़िंदगानी के सारे हिस्सो में
तू लिख दे मेरा उसे बस,

ऐ खुदा ऐ खुदा
जब बनूँ उसका ही बनूँ
उसका हूँ उसमें हूँ उससे हूँ
उसी का रहने दे मुझें हमेसा,

मैं प्यासा हूँ वो है दरिया
वो ज़रिया हैं जीने का मेरे
मुझे घर दे गली दे शहर दे
उसी के नाम का हर डगर दे,

कदम चले या रुके उसी के वास्ते
दिल में उठें बस दर्द ही उसका
उसकी ही हँसी गूँजे मेरें कानों में
ओ ही हावी रहें मेरें दिलोदिमाग पर,

मेरे हिस्से की खुशी को हँसी को
तू चाहे आधा कर दे
चाहे ले ले तू मेरी ज़िंदगी
पर मुझसे ये वादा कर
उसके अश्क़ों पे ग़मों पे दुखों पे
उसके हर ज़ख्मों पर
बस मेरा ही हक़ रहे
हर जगह हर घड़ी उम्र भर
अब फ़क़त हो यही वो रहे मुझमें ही
और ज़ुदा कहने को बिछड़े ना
मुझसें क़भी भी कहीं भी किसी मोड़ पर ।।
©बिमल तिवारी “आत्मबोध”
   देवरिया उत्तर प्रदेश




नन्हीं का प्रश्न।

   

महिला दिवस काव्य प्रतियोगिता हेतु प्रस्तुति-
 

नन्हीं का प्रश्न।   

 

मैं तेरी नन्हीं सी गुड़िया

मैं झप्पी जादू की पुड़िया
कोख तिहारे मैं आई हूँ
लाखों सपने बन आयी हूँ।
 
चंदा सी शीतलता मुझमें
औ प्रभात की आभा मुझमें
तारों की छाँवों से चलकर
तेरी बनकर आयी हूँ।
 
तुमने मुझको शरण दिया है
कोख में अपने वरण किया है
रक्त कणों से सींचा है जब
खुशियां बन कर छाई हूँ।
 
अपने आने की खुशियां
जीवन में तेरे देखी है
मैंने सपनों की दुनिया
माँ नैनों में तेरे देखी है।
 
पर जाने क्यूँ मन डरता है
जब जग की बातें सुनती हूँ
कुछ शंकाएं मन में मेरे
माँ तुझसे मैं अब कहती हूँ।
 
कहते तो सब लोग यहां हैं
बेटा-बेटी एक यहां हैं
पर कुछ आंखों में मैंने
शंका के डोरे देखे हैं।
 
कुछ ऐसी खबरें हैं जिनको
सुनसुन कर मैं डरती हूँ
क्या दुनिया में आ पाऊंगी
यही सोच में रहती हूँ।
 
माँ तुम पापा से कहना
उनकी खुशियाँ बन जाऊंगी
जो भी बेटों से मिलता है
ज्यादा सम्मान दिलाऊंगी।
 
जीने का अधिकार मुझे है
मुझसे इसको मत छीनो
कुछ लोगों की बातों में पड़
मेरा जीवन मत छीनो।
 
माँ तेरे घर के कोने में
मैं कोयल बनकर कुहकुंगी
उपवन की खुशबू बनकर के
मैं कोने कोने महकुंगी।
 
वेद पुराण सभी ग्रन्थों ने
जब बेटी को सम्मान दिया
फिर कैसे इस दुनिया ने
ग्रन्थों का अपमान किया।
 
दुनिया में आने दो मुझको
इक बार जहाँ मैं देखूंगी
बेटी का कुसूर क्या आखिर
मैं सारे जग से पूछूँगी।
 
✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद