अरुण कमल
वरिष्ठ अनुवाद अधिकारी
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देश भक्ति काव्य प्रतियोगिता के लिए दो कविताएँ
जुड़े मेरे संग, देश के धागे!
घाव उभर आता है दिल में
दर्द छलक आता आँखों में
टीस उठे तो संभले मन ना
कसक उठे हर पल बाहों में !
बावरे नैंनों से बहता जल
बिछी रही राहों पर हर पल
दो दिन को बस गले लगाया
और हुए आँखों से ओझल !
धर्म निभाया राष्ट्र पुत्र का
गौरव बने तुम माँ के गोद का
आलिंगन कर लिया मृत्यु को
मैं बस बनी शहीद की विधवा!
तेरी श्रद्धा ही, मेरी श्रद्धा
साथ में तेरी माँ है वृद्धा
गर्भ में मेरे अंकुर तेरा
तड़प रहा देने को कंधा !
इतनी भी तो क्या जल्दी थी
उतरी नहीं मेरी मेहंदी थी
माथे की बिंदिया पूछ रही है
क्या मेरी भी कोई गलती थी !
जीवन को मिथ्या, न बनने दूँ मैं
आँखों के आँसू, को भी पी लूँ मैं
जो छोड़ गए तुम, काम अधूरा
उस काम को आगे पूर्ण करूँ मैं !
जिस धरती पर,प्राण हैं त्यागे
अब मेरे लिए क्या, उसके आगे
तेरे दिल के धागों से अब तो
जुड़े मेरे संग, देश के धागे!
करूँ नमन मैं राष्ट्र प्रहरी को
लांघूँ अब मैं घर की देहरी को
करूँ समर्पित स्वयं को पहले
फिर करूँ तैयार नयी कड़ी को !
क्या फ़ौज में भर्ती हो सकती हूँ मैं ?
कोई बात सकता है क्या,
क्या फ़ौज में भर्ती हो सकती हूँ मैं ?
उम्र सैंतालिस की हो चुकी
लेकिन धमनियों में बढ़ रही है रक्त गति
अब सारा धीरज खो चुकी मैं
अपने कितने जवानों को खो कर रो चुकी मैं
क्या अब भी साँसे रोक कर, चैन से सो सकती हूँ मैं?
क्या फ़ौज में भर्ती हो सकती हूँ मैं ?
हर एक जान का बदला पड़ोसियों से लूँगी
एक भी जान को व्यर्थ नहीं जाने दूँगी
हमारे बच्चे अनाथ बनकर क्यों घूमें
क्यों हर बार कोई बच्चा अपने खून से लथपथ पिता का माथा चूमे
इंसान के जान की क़ीमत देश की राजनीति से ऊपर है
हर विधवा , हर बच्चे के आँसू,
दो देशों के बीच अनखिंची सीमा रेखाओं से बढ़कर है
इस तरह ज़ख्मों को दिल में कब तलक ढो सकती हूँ मैं?
क्या फ़ौज में भर्ती हो सकती हूँ मैं ?
एक कदम भी आगे बढ़ाने से पहले पड़ोसियों को
सौ बार सोचना होगा,
जान के बदले उनका जहान लेकर
उनको रोकना ही होगा
आज उम्र की सीमाएँ हटाएँ
हम भी अपने जवानों के साथ हाथ बटाएँ
बच्चा-बच्चा तैयार है, बड़े बूढ़ों का अंबार है
हर भारतीय के सिर पर आज, एक जुनून सवार है
रक्त में घुले काँटे को, क्या उनको चुभो सकती हूँ मैं?
क्या मैं फ़ौज में भर्ती हो सकती हूँ मैं ?
देश से बढ़कर कुछ भी नहीं
धीरज की पोटली संभालकर अलग रख दी
जज़्बातों में तूफ़ान भर आया है
हर चमड़ी आज वर्दी में उतर आया है
बेवर्दी ही वर्दी में हम राष्ट्र सेवा को उतरे हैं
गिनते जाना हमने कितनों के कैसे सब पर कतरे हैं
बस फूंक मार हम उड़ा ही देंगे, जो भी मंडराते ख़तरे हैं
लक्ष्मी बाई की वंशज होकर, कब तक आँचल भिगो सकती हूँ मैं?
क्या फ़ौज में भर्ती हो सकती हूँ मैं ?