महिला दिवस काव्य प्रतियोगिता हेतु , “स्त्री जीवन का सफर”
“स्त्री जीवन का सफर”
पलकों के झपकने में
जितना वक्त लगता है
उतना ही वक्त लगता है
एक स्त्री की जिंदगी को
मौत तक पहुँचने में
देखिए जरा
उसकी हत्या
कितनी बार होती है?
और कहाँ कहाँ से?
एक स्त्री जब माँ के गर्भ में पलती है
तकनीक उसकी जाँच करती है
गर्भ में पल रही बेटी के नाम पर
माँ फिर से मौत के दरवाजे देखती है
लड़ती है अपनी बेटी के लिए
घर परिवार से
समाज से
फिर हार जाती है
और उसके गर्भ में पल रही बेटी
मार दी जाती है
यहाँ स्त्री एक बार फिर से
काल के गोंद में चली जाती है
पैदा हुयी स्त्री
जब अपने नवयौवन तक पहुँचती है
समाज की नजरों में
एक बार फिर से मर जाती है
उनके कटार जैसे शब्दों से कटती है
अपनी इज्जत बचाती है
और अपने आपमें एक स्त्री
फिर से मर जाती है
पिता और भ्राता की अंकुश को तोड़कर
अपने दायरे से बाहर
जब निकलती है स्त्री
तो एक बार फिर से मर जाती है
प्रेम की गहराई में
जब डूबती है स्त्री
अपने प्रेमी को जाहिर
करती है स्त्री
तो एक बार फिर से मर जाती है
उसके अन्तर्मन को जाने बिना
एक मन्त्र के माध्यम से
पराये के घर में फेंकी जाती है स्त्री
तो एक बार फिर से मर जाती है
उस पति के इशारे पर नाचती स्त्री
आवाज उठाती है अगर
विरोध करती है स्त्री
तो समाज की नजर में
एक बार फिर से मर जाती है
और किसी कारण बस
पति की मौत हो जाए
तो मृत पति के चिता पर
जलायी जाती है स्त्री
वहाँ एक बार फिर से मर जाती है
विधवा स्त्री अगर जिंदा है
तो समाज के हर कोने -कोने में
उसकी शून्यता बरकरार है
स्त्री होकर भी वो मर गयी है
अपने अस्तित्व को खोकर रह गयी है
स्त्री के नाम पर
उसके सफर की घड़ी
यहीं आकर रूक गयी है |
के.एम.रेनू
शोधार्थी
हिंदी विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय