1

‘देशभक्ति काव्य लेखन प्रतियोगिता ‘ हेतु प्रेम कविता-शीर्षक: प्रेम कुटीर

प्रेम कुटीर
————-

हम कम बोलते हैं आपसे
नज़र मिलाते हैं ज्यादा
ज्यादा कोशिश तो करते हैं पर टिक
नहीं पा रहे हैं दिल कमज़ोर है ज्यादा

सोचा रोमियो जैसे पीछे पड़ूं !
मजुनू जैसे दिल कोलकर प्यार करूं!
दिल में तिल टूटने लगे हैं डर रहा हूं
कहीं उनके जैसे इतिहास न बनूं

याद आयी राधा-कृष्ण की जोड़ी, पवित्र
प्रेम-बन्धन से बदल गई समय की घड़ी
स्नेह के नाम पर प्रेम करूं ! या प्रेम के                  नाम पर स्नेह करूं ! बस सोचता ही रहा

दिन बीत गयें साल-साल निकल गयें
खेले आंख-मिचौली कहीं वसंतें
कभी बन्द न होने लगी दिल की खिड़की
बस चलती थी हमारी प्रेम की गाड़ी

आयी प्रेमिका बनकर  प्रेम देवी  सामने
दिन महीने साल निकलें, भगवान जाने
निकले थे अलग-अलग दिशाओं में
बन्दी थे मोह-जीवन से, आज हम स्वतंत्र हैं

आज हम बोलते हैं ज्यादा आपस में
नज़र मिलाते हैं विश्वास से भी ज्यादा
दिल में लड्डू फूटने लगे हैं, डर किसका
प्रेम का वसंत आया पवित्र प्रेम में नहाया

हम न बन पाये लैला मजुनू या न बने
रोमियो जूलियट या सलीम आनरकली
बस पवित्र प्रेम कुटीर में एक हुएं, स्नेह से
प्रेम से इस वृद्धाश्रम में हम स्वतंत्र हुएं ।




अंतरराष्ट्रीय “प्रेम काव्य लेखन प्रतियोगिता” हेतु

रचना शीर्षक : “प्रणय निवेदन”

विचलित से हैं भाव मेरे,
तेरे सम्मुख आ जाने आने पर,
फेर सको गर नज़रें तुम,
कुछ शब्द लिखूं पैमाने पर…!

शब्द, शून्य की सीमा पर,
कैसे तारीफ के शब्द लिखूं…?
मुख पर मुस्कान की आभा है,
मैं कैसे भाव अनेक लिखूं…??

मेरे शब्दों के उपर है,
सुंदरता तेरे मन की,
है काव्य तुच्छ मेरा सुन लो,
गर भान करूं तेरे तन की…!

जो अपने मन के भाव कहूं,
ये तिरछे नैन अधीर करें,
मुस्कान तेरे अधरों की तो,
हृदय बेध मन पीर भरें…!

प्रेम भरी आंखों और,
भौहों की भाषा बतला दो…?
अधरों की आधी मुस्कानों का,
ये भेद ज़रा तुम दिखला दो…!

बतला तो दो कैसे मन की,
सुंदरता को तुम प्राप्त किए…?
तन के प्रेमी इस युग में तुम,
कैसे निर्मलता व्याप्त किए…??

ख़ामोशी को ओढ़ भला,
तुम कैसे मुस्कान बिखेर रहे…?
मैं व्यग्र तुम्हें पढ़ पाने को,
क्युं मेरे मन को घेर रहे…??

वास करूं तेरे मन में,
इक स्वप्न मेरा साकार करो,
इस युग ना सही अगले युग में,
तुम प्रणय मेरा स्वीकार करो…!
तुम प्रणय मेरा स्वीकार करो…!!

सादर,
ऋषि देव तिवारी




छेडना था : बस यूँ ही

तुमने  ये गजरे कयूॅ नहीं लगाये,

चंदन सा बदन क्यो नहीं महका,

ये जुलफें वैसे कयूॅ नहीँ बलखाई,

तेरा चितचोर इसलिए नहीं बहका,

ऐ!इत्ती सी बात पर तुम रूठी मुझसे,

छेडना था मुझे बस यूँ ही कह दिया।1।

        तेरी हर अदा पे तो गुलिस्ताॅ कुरबाॅ है,

        हर डाल पर सारे बुलबुल मेहरबाँन है,

         गेसुएॅ लहराती तो ये कहर बरपाती, 

        हम कयूॅ झाँकते फिर अपनी गिरेबाॅ है,

         ऐ! इत्ती सी बात पर तुम रूठी मुझसे,

        छेडना था मुझे  बस यूँ ही  कह दिया ।2।

बरखा की बूंदो से,सिहरता है ये मन,

हरे भरे सावन में, दमकता तेरा दामन,

पानी की फुहार, जब छेडते तेरा बदन,

हवा के बहाव में बहके तब मेरा कदम,

ऐ! इत्ती सी बात पर तुम रूठी मुझसे,

छेडना था मुझे, बस यूँ ही  कह दिया ।3।

 




पुस्तक

 

कोने में ,जर्जर सी अकेली खड़ी है,
साथियों के साथ एक रैक में पड़ी है।
अपने सारे पन्नों को समेटे,
ऊपर गंदा सा आवरण लपेटे।

थोड़ी बदहवास सी पुरानी लगती है,
किसी की आपबीती कहानी लगती है।
खुद की मौत को दे रही दस्तक है,
ये लाइब्रेरी में पड़ी एक पुस्तक है।

तकनीकी के चलते लोगों ने,
पुस्तकों को पढ़ना छोड़ दिया।
मोबाइल से जोड़कर अपना नाता,
इन से क्यों मुंह मोड़ लिया?

एक समय था वह हर मेज पर,
पड़ी भाग्य को इठलाती थी।
अपने अंदर ज्ञान समेटे,
वो विद्या दीप जलाती थी।

एक समय सखियों के साथ,
लाइब्रेरी की शोभा बढ़ाती थी।
छोटे बड़े बच्चे बूढ़ों को,
नई कहानियां सुनाती थी।

बदली समय की ऐसी धारा,
घट गया पुस्तक का मोल।
खुद को अकेले में कोस रही
जो थी कि कभी अनमोल।

 




वसंतोत्सव काव्य प्रतियोगिता हेतु – ‘देखा वसंत में !’

देखा वसंत में

फूले सरसों से खेत चमकते

फले हरे गेहूं लहराते

कू-कू कोयल कूजते

पछुवा को डालियों से करते दोल विलास

देखा वसंत में !

जहाँ तहाँ  कटते

उलझे निकालते

और झुंड में लूटते

पतंग उड़ाते, डोर काटते

देखा वसंत में !

रंगों का खेल खेलते

पिचकारी लिए दौड़ते

परस्पर रंग उड़ेलते

छोड़ गिले शिकवे गले लगाते-मिलते

देखा वसंत में !

लदी लताएँ बेर से झूलते 
पतझड़ के पत्ते गिरते
किंशुक खिलते
विरह मिलन की बेला आते
प्रातः दीप्त पूर्व दिशा सूर्य स्वर्ण से उगते |
देखा वसंत में || 

बागों में आम्र मंजरी आते

सुमन वन में बहार लाते

झोंके हवा धूल संग खेलते

मधुमास सुरभित होते

देखा वसंत में !

 

रूह जगाते

बिसरी यादें  स्मरण कराते

नयी उमंग  उमड़ते

श्रृंगार रस बढाते

देखा वसंत में !




नारी : तेरे बिन जग कुछ सूना है

अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस के कवि सम्मेलन हेतु

 

नारी तुम कितनी हो महान, 

तुम जग को दे सर्वस्व दान,

है कर्म किया कितना महान,

बस ये जग करे तुम्हारा मान।

गौतम,गांधी हों या हों कबीर,

ईशू ,नानक या औलिया पीर, 

लव कुश हों या फिर कर्मवीर, 

प्रचंड शौर्य शक्ति के परमवीर।

       नर कितने ही बन गये हों महान,

       माँ बन, अंगुली पकड चलाया है,

       तेरी ममता की ऑचल  छाया में,

       नर ने हर पल सुकून को पाया है।

कभी तुम अर्द्ध नहीं हो अपने में,

पर अधूरे नर को पूर्ण बनाया है,

इस आधे संसार की भरपाई हेतु,

अपना सब कुछ वजूद लुटाया है ।

     तेरे बिन यह जग बहुत ही सूना है,

     आखिर तुम क्यों सूनी यूँ अपने में,

      यह ऑसू की बूँदें क्यों बता रही हैं,

     आज फिर लुटा कुछ फिर सपने में। 

 

 




अंतरराष्ट्रीय प्रेम काव्य लेखन प्रतियोगिता हेतु प्रेषित कविता कविता का शीर्षक-1 प्रेम..! 2 प्रेम का संसार ऐसे ही..

अंतरराष्ट्रीय प्रेम काव्य लेखन प्रतियोगिता-
सृजन ऑस्ट्रेलिया अंतरराष्ट्रीय पत्रिका

1. कविता का शीर्षक :- प्रेम…!

अनुभूति का अद्भुत संगम है
       प्रेम…!
संवेदनाओं और स्वानुभूति का
      मनोरम संसार है
         प्रेम…
दो दिलों के बेतार-तारों को
        जोड़ता है प्रेम…
दो जिस्म एक जान के जज़्बे को जगाता है
         प्रेम..
दो हृदयों के अंतर्मन में
       प्रेम-ज्योति जगाकर
         स्नेह को अंतःसंचरित करता
              वो है प्रेम…

रोम-रोम को रोमांचित कर..
     सहृदयों के हृदय में

      प्रेम-लहर को निरंतर आगे बढ़ाता
           वो है प्रेम…!

दो दिलों के निकट आने की अभिलाषा को
    स्नेह-स्नेह स्नेहिल कर जाता…
      वो है प्रेम…!!

मन में अनेकों भाव जगाता..
   कभी अपनों से मिलता..
      कभी उनसे दूर करके
         स्नेह-प्रेम के बंधन को अटूट बनाने में
           समय की मार को सहने
             आगे बढ़ने की राह
                दिखाता है प्रेम…!

अपने-पन को
    स्वानुभूति के राग से झंकृत कर
       दिलों के बेतार-तार में..
         धड़कन को धड़कना सिखाता है प्रेम..!

अनुभूति से अभिव्यक्ति का
    मार्ग प्रशस्त कर
      अनेक अवसर..
         बार-बार लाता है प्रेम..

कभी हँसाता-
    कभी रुलाता
     कभी प्रेम-सरोवर में
       गोते लगाने के अवसर
       बनाता है प्रेम..!

कभी अवसर को लंबा करके
    प्रेम-परीक्षा..
       समय दर समय देता रहता है
           प्रेम…!

कभी कसौटी पर खरा उतरता…
   कभी बेलौस-सा..
     इधर-उधर भटकता..
       प्रेम का ये कैसा जहान?
         जहाँ अपनों का अपनापन..
            जाने क्यों वीरान ?

दिखावटीपन के इस कलिकाल ने
     स्वार्थों की इस आँधी में
        जाने कितने रिश्ते यहाँ से वहाँ
           वहाँ से जाने कहाँ-कहाँ?
              वक्त बेवक्त भटकते
               और
                  भ्रमित होते रहे
                   छल-कपट की इस दुनियां ने
                     जाने कितनों के घर-संसार को
                        गाहे बगाहे नेस्तानाबूत किया..

अर्थतंत्र के झंझावात के झंझट ने
    जाने कितने प्रेमी युगलों के
       जहान को वीरान किया..?
          समय की मार ने उनको
             बेवक्त ही बेझार किया?

अर्थ की कसौटी पर
     प्रेम को परखने वालों की
       इन पारखी नजरों ने…
         जाने कितने प्रेमी-हृदयों के सपनों को
            बे-समय ही मार दिया..

प्रेम-कसौटी को…
     दरकिनार कर
        आगे बढ़ने वालों ने
            जाने कितनों के
                प्रेमियों के मनो-संसार को
                   झार-झार किया
                      आखिर ऐसा क्यों
              और
                   कब तक होता रहेगा?

प्रेम…!
     क्या केवल कसौटी का मोहताज़ ?
       या वो मन का ताज़
          अपनों के मन पर हमेशा करता रहता है राज
              हृदय से हृदय में चोरी चोरी चुपके चुपके
                  बनाता अपना एक अद्भुत संसार..!

केवल
    और केवल…!
       शायद यही संभावनों का भव..
          जीवन का राग..
        बेशर्तों का संचार-संचरण
           नित-प्रति आलोडन-विलोडन करता
               निरंतर आगे बढ़ता रहेगा ये प्रेम…!!

    अंतरराष्ट्रीय प्रेम काव्य लेखन प्रतियोगिता-
       सृजन ऑस्ट्रेलिया अंतरराष्ट्रीय पत्रिका

                 2. कविता शीर्षक :
                     प्रेम का संसार ऐसे ही…!

प्रेम लगन है
        प्रेम अगन है
          प्रेम में सारी दुनिया मगन है।
प्रेम आस है
           प्रेम में विश्वास है
             प्रेम में अपने हमेशा आस-पास है।
प्रेम मुक्ति में युक्ति है
           प्रेम रुह का रुह में संगम है।
प्रेम एक छुवन है
          प्रेम दिलों को जोड़ने का अद्भुत एहसास है।
प्रेम में चाहत जगना..
           दिलों के बेतार तारों का
              यो सहज जुड़ जाना
               हवा के झोंके-सा
                  एक-दूजे में समा जाना।

प्रेम में मादकता है
          प्रेम में मस्तमौलापन है।
प्रेम में सुगबुगाहट है
           दिलों में गुनगुनाहट है
               प्रेम में आहट है।
प्रेम में तरंग है
          प्रेम में रंग है।
प्रेम में भावनाओं का संगम
           प्रेम में सुमधुर स्वप्नों का संगम।
प्रेम में संगदिलों की दिल्लगी
         प्रेम में अहसासों का प्रस्फुटन
              प्रेम में जज़्बातों का स्फुरण..!
प्रेम ने जाने
           कहाँ कहाँ की यादों का कारवाँ बनाया..!!
              क़दम क़दम बढ़ते रहे
प्रेम फलता फूलता रहा…
           प्रेम ने सितम सहा
               अपनों का भी ग़म रहा।
वक्त बे वक्त याद आते रहे
       प्रेम की जोत मन में जगाते रहे..!
प्रेम का संसार ऐसे ही..!
     निरंतर छुवन से भुवन तक
        चलता रहे..!

          चलता रहे…!!

            बस ऐसे ही चलता रहे….!!!

 

घोषणा :-
मेरे द्वारा स्वरचित मौलिक और अप्रकाशित 2 कविताएं अंतरराष्ट्रीय प्रेम काव्य लेखन प्रतियोगिता के लिए प्रेषित कर रहा हूँ।इन्हें स्वीकृति कर अनुग्रहित करे..!!
धन्यवाद..!
डॉo मुकेश कुमार शर्मा ‘सुदीप’

प्रेषक :-

डॉ. मुकेश कुमार शर्मा (‘सुदीप’)
असिस्टेंट प्रोफेसर स्नातकोत्तर हिंदी विभाग
महात्मा गांधी सरकारी आर्ट्स कॉलेज, चालक्करा, माही (UT पुदुच्चेरी)भारत
पिन कोड 673311
मोबाईल – 09660325669
ईमेल- [email protected]
स्थायी पता :-
डॉ० मुकेश कुमार शर्मा S/o श्री मांगीलाल शर्मा
गाँव- परकियाखेड़ी खेड़ी, पोस्ट – शादी
तहसील- बेगूं, जिला- चित्तौड़गढ़, राज्य- राजस्थान
भारत
मोबाईल नम्बर-9660325669
पिन-312023




1. “हिन्दुस्तान” 2. “मैं वापस आऊँगा”

_हिन्दुस्तान_

सत्ता के सिंहासन पर विराजे है
तिरंगा हमारा
शान है इसकी ऊँची और
हौंसले बांधे हर वक्त हमारा,

देशभक्ति नहीं केवल
तिरंगा लहराना
देशभक्ति की परिभाषा तो है
हिन्दुस्तानी कहलाना,

धर्म,जाति,रंग-रूप का ना कोई वास्ता
भारतीय मेरी अस्मिता है
मानवता ही नहीं केवल
सशक्त बनना भी निष्ठता है,

मिट्टी के ख़ातिर हमारे देश की
शीश कि कुर्बानी दे देते हैं
ह्रदय में रखते हिन्दुस्तान अपने
स्वयं को अर्पित कर देते हैं,

माथे का सिंदूर प्रिय का
मातृ-भू को सौंप दिया
ऐसे महारथियों ने जन्म लेकर
वतन को हमारे ऊँचा किया,

अद्भुत ही है आन-बान-शान इसकी
दशकों से ही खिलखिला रही
शांति दूत है हिन्दुस्तान क्योंकि
सबके दिल में वतन-ए-आबरू रही,

देश प्रेम की धारा बहती
पावन पर्व की बेला है कहती
निश्चल भाव की ये अमर कहानी
सदैव ही सुंदर इतिहास दिखाती,

आज़ाद भारत के वासी हैं हम
वीरों की गाथा सुनते हैं
लहू-लुहान हुए जो हैं
उन सभी को सलाम करते हैं,

अखण्ड ज्योति की जलती ज्वाला
हिन्दुस्तान को सम्मानित करती है
क्योंकि हर वक्त लहराता
बुलंदियों पर तिरंगा है,

मर कर भी जो ना निकले मेरे
देश की उल्फ़त ऐसा
त्योहार मनाया जाए
मिट्टी से आती खुशबु-ए-वफ़ा ऐसा
जश्न-ए-आज़ादी मनाया जाए।।

*** 

और

***

_मैं वापस आऊँगा_

अपने घर के आंगन से बहुत दूर हूँ
ये ना समझना के मैं मजबूर हूँ.!

गंगा और यमुना सा पवित्र हूँ
सावन की हरियाली सा पावन हूँ,
मेरी माँ करती जिसका इंतज़ार
उस माँ का लाडला सा वीर मैं हूँ,
श्रंगार सजी राह ताके मेरी दुल्हन
उसके विरह वेदना में तड़पन की कहानी मैं हूँ,
बैठी है मेरी प्यारी बहन थाल में राखी सजाए
उसकी राखी का हकदार मैं हूँ,
सुनाते मेरी बहादुरी के किस्से गर्व से सबको
अपने बूढ़े बाबा का अभिमान मैं हूँ,

कहा था मैंने माँ से अपनी
माँ तुम चिंता मत करना,
बस थोड़ी सी मजबूरी है
कुछ मीलों की ही दूरी है,
मैं फिर वापस आँऊगा
सबके चहरे की खुशी बन जाऊँगा,

वादा है मेरा मैं वापस आऊँगा
भारत माँ के मुकुट की शान बनकर दिखाऊँगा..
लेकर जान हथेली पर मैं उफ़ तक ना कहूँगा
भारत माँ का वीर हूँ मैं सारे फर्ज़ निभाऊँगा…

भूला नहीं हूँ माँ तुझसे किया वादा मैं अपना
खुद ना आ सका तो,
तिरंगे में लिपटकर आऊँगा,
रोना मत मुझे देख तुम सब
लड़ते-लड़ते कठिनाईयों से
अपना सर कटवाऊँगा,
सेना का जवान हूँ मैं
देश की शान में शहीद हो जाऊँगा ।।

***

नाम- मेघा
पता- L-2/6A शास्त्री नगर दिल्ली-110052
ई मेल- [email protected]
मोबाईल नंबर- 9711100577
व्हाट्स्ऐप नंबर- 9711100577
पदनाम- विद्यार्थी
महाविद्यालय- कालिंदी महाविद्यालय (दिल्ली विश्वविद्यालय)
तृतीय वर्ष
हिन्दी विभाग
महाविद्यालय पता- ईस्ट पटेल नगर नई दिल्ली-110008




अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस काव्य लेखन प्रतियोगिता हेतु कविता

कविता क्रमांक 1

शीर्षक-  कमजोर नहीं है नारी

जरूरी नहीं कि नारी है ,तो बेचारी ही होगी|

हां होती है परवरिश थोड़ी अलग, 

इसलिए कमजोर दिख सकती है|

पर नारी कमजोर नहीं होती है|

हिमालय को लांघना भी उसे आता है|

वक्त पड़ जाए तो सबक सिखाना भी जानती है|

किसी का भरोसा, किसी की उम्मीद ,किसी का

सहारा होती है|

पर नारी हरगिज़ कमजोर नहीं होती है|

तन और मन दोनों से ही मजबूत होती है|

नारी हर क्षेत्र ,हर मुकाम पर पहुंच जाती है|

नारी सा सब्र कहां सब में पाया जाता है|

हर स्तर पर खुद को परिभाषित करती है|

दिखाए भले ना पर बहुत बार खुद से ही लड़ती है|

गलत का प्रतिकार करना जानती है|

खुद को स्थापित करना उसे आता है

संस्कारित होती है नारी, 

इसलिए सब के साथ हर वक्त खड़ी रहती है|

स्वप्न दूसरों के पूरे हो जाएं ,इसलिए

हमेशा दूसरे पायदान पर खड़ी रहती है|

                    रचना स्वरचित मौलिक

 कविता क्रमांक 2

शीर्षक- स्त्री का घर

स्त्रियां बचपन में पिता के घर को, 

अपना मानती हैं|

सजाती हैं संवारती है स्नेह से, 

फिर एक दिन अचानक से कह दिया जाता है|

बेटी तुम तो पराई हो, 

तुम्हें पराए घर जाना है|

मन को समझाती हैं ,स्त्रियां

फिर इस घर को थोड़ा सा भुलाकर, 

नए घर को सजाने संवारने में लग जाती है|

यह दूसरा घर भी स्त्रियों का नहीं होता, 

यह घर उनके पति का होता है|

पर वह इसे भी अपना ही मानती हैं|

पर तब स्तब्ध सी हो जाती है|

जब ससुराल वाले अचानक से, 

एहसास कराते हैं|

कि तुम हमारा भला नहीं सोच सकती, 

क्योंकि तुम तो पराई हो ,पराए घर से आई हो

तब स्त्री फिर सोचने लगती है|

कि जिसे वह अपना समझ कर संवार रही है|

वह घर भी उसका अपना नहीं है|

तब वास्तव में उसका अपना घर कौन है

यही प्रश्न हर स्त्री को

जीवन भर परेशान करता है

कि जब वह दोनों घर जिसे उसने

अपना सर्वस्य दिया

वही उसके अपने नहीं है

तो वास्तव में वह कौन हैं

अपना वजूद ,अपना घर तलाशती स्त्री

सदियों से अनुत्तरित है|

                   वंदना जैन

            रचना स्वरचित मौलिक

——————————————

 नाम- वंदना जैन

पदनाम-   प्रोपराइटर आफ मार्बल शॉप

संगठन- ब्राह्मी सुंदरी संभाग ज्ञान इकाई महिला मंडल ललितपुर उत्तर प्रदेश

 पता श्री जितेंद्र कुमार जैन वंदना मार्वल डैम रोड ललितपुर उत्तर प्रदेश

ईमेल पता- [email protected]

 मोबाइल नंबर-9696690848

व्हाट्सएप नंबर-9616475366

 

 

 




शुभा शुक्ला निशा की कविता – ‘नारी’

जिस स्त्री से जीवन पाते हैं उस पर ही कलंक लगाते हैं
सारे ग़लत काम स्वयं करते और नारी पर ही दोष लगाते हैं
समझ सको तो समझो नारी जिसने तुमपे खुशियां वारी
तुम्हारे जन्म पे मिठाईयां बांटी अपने समय तानो की बौछार ही आंकी
नो महीने गर्भवती रहकर घर सारे काम सम्हाले
पर नारी ने ही सास ननद बन के उसपे ही अत्याचार कर डाले
कैसे जीती और क्योंकर जीती इतने जुल्म वो सहती जाती
बस एक अपने कोख में पलती जिंदगी के लिए हंस जीती जाती
पर वह अपनी किस्मत से हारी जिनकी उंगली उसने कभी ना छोड़ी
आज उन्हीं युवा होती औलादों ने उसकी सारी उम्मीदें तोड़ी
धरती हम सब की माता है जननी भी हमारी जन्मदाता है
मान सम्मान सब करलो उसका उससे ही जीवन आता जाता है
आखिर क्यों होता आया हमेशा से स्त्री पर इतना अत्याचार
क्यों वो सबकुछ सहने पर भी कहलाती बेकार और लाचार
श्रष्टि का संचार उसी से दुनिया औ परिवार उसके सहभाग से
फिर भी क्यों समझी जाती शून्य वो इस पुरुष प्रधान समाज में
मै ये नहीं कहती की नारी जाति की किस्मत ही खराब है
पर जो ना उठा पाए आवाज अपने हक़ में उसकी दुनिया बर्बाद है
बहुत कुछ तो जीत गई इस मान सम्मान की जंग को
पर कुछ अभी भी घुट रहीं पी कर अपमान के दंश को
आज भी कुछ बहने हमारी जिन्दा जलाई जा रही
पल रही कोख में बेटी की आज भी सांसे बुझाई जा रही
नहीं होती सबमें हिम्मत आवाज उठाने की अपने लिए
डर डर के जीती जीवन अपना कोई साथी नहीं सम्हालने के लिए
आदि काल से तो हम नारी कभी भी इतनी कमजोर नही रही
कई महिलाएं वीरता के लिए संपूर्ण विश्व में
मशहूर रही
अंग्रेजो के समय भी देखिए नारी शक्ति का फैला परचम था
लक्ष्मी बाई , सरोजिनी नायडू कस्तूरबा गांधी , विजया लक्ष्मी में कितना दम था
जब हमे भी स्वतंत्र होना था तब हमे घूंघट में कैद किया
और पुरुष वर्ग ने नारी जाति पर जाने क्यों कर आधिपत्य किया
नारी शक्ति है जीवनदायनी उसे अपना अस्तित्व समझना होगा
पुरुषों के आधीन नहीं वो उसे अपना व्यक्तित्व बदलना होगा

शुभा शुक्ला निशा
रायपुर छत्तीसगढ़