प्रांजल कुमार नाथ
शोध छात्र, गौहाटी विश्वविद्यालय, असम
भूमिका :
भारतीय संस्कृति में असम प्रांत के संत महापुरुष शंकरदेव असमीया सभ्यता और संस्कृति के बाहक है। उनका जन्म ऐसे संकटकालीन समय में हुआ था जब पूरा देश राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक सभी दृष्टियों से अंधकार में ग्रासित थे। भारतवर्ष में ईसा की चोदहवीं और पंद्रहवीं शताब्दी में ऐसे अनेक महानुभावों का जन्म हुआ था, जिन्होंने सम्पूर्ण भारत में भक्ति आंदोलन के माध्यम से समाज को सही मार्ग दिखाया। शंकरदेव भी उनमें से एक थे जिन्होंने शेष भारत के साथ असम को तथा उत्तर-पूर्व को सांस्कृतिक रूप में जोड़ा और अध्यात्मिकता के साथ मानवतावाद का संदेश दिया।
रहस्य शब्द का अर्थ और स्वरूप :
रहस्य शब्द का शाब्दिक अर्थ है गुढ़ या छिपा हुआ, गोपनीय विषय, मर्म भेद, निर्जन एकांत में घटित वृत्त, दुर्बोध्य तत्व आदि। इस प्रकार रहस्य का अर्थ है एकांत संबंधी विषय, ‘‘जिनके अस्तित्व के बारे में हमें ज्ञात है, मगर हमारे ज्ञान और और बुद्धि से जिसको हम कभी नहीं पहचान पाते वही रहस्य है ।’’1 रहस्यानुभूति के संदर्भ में हम कह सकते हैं कि सभी व्यक्ति के मन में कुछ चिरंतन प्रश्न होते हैं, जिनके उत्तर आसानी से नहीं मिलते। जिन प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए मनुष्य प्राचीन काल से ही प्रयत्नशील है, वही रहस्यनुभूति है। जिस अंतदृष्टि से कवि इस सृष्टि के परम सत्य को उपलब्धि करे, उसी दैविक अनुभूति को साहित्यिक क्षेत्र में साधित करना ही रहस्यवाद है। उपनिषद में कहा गया है- ‘गह्य ब्रहम तदिंद बव्रीमि’ यानि ब्रह्म ही रहस्य है और उसी से संबन्धित बाद या बात रहस्यवाद है। रहस्यवाद को अंग्रेजी में Mysticism कहा जाता है, जो ग्रीक शब्द MUCO से आया है। रहस्य के पीछे एक सर्व-शक्तिमान तादात्म्य जुड़ा हुआ है । असल में रहस्य भावना मनुष्य की उस आंतरिक प्रवृति का प्रकाशन है, जिससे वह परम सत्य परमात्मा के साथ प्रत्यक्ष संबंध जोड़ना चाहते है ।
शंकरदेव के रहस्यनुभूति :
शंकरदेव के साहित्य में रहस्यमयी भावानुभूति बिखरी हुई है। बचपन में ही स्वरवर्ण और व्यंजन वर्ण सीखकर – ‘करतल कमल कमल दल नयन’ करके जो कविता उन्होंने लिखी थी, उसी में उनके रहस्यभाव का आभास स्पष्ट हो जाते है ।
शंकरदेव के साहित्य में साधनात्मक रहस्य यत्र-तत्र बिद्यामन है। उनके वाणियों से ज्ञात होते हैं कि उन्हे साधना द्वारा उस परम सत्य की उपलब्धि हो चुकी थी। उन्हें सर्वत्र अपने उपास्य की विभूति बिखरी हुई दृष्टिगोचर होते थे। तादात्म्य अथवा अद्वैत की यही वास्तविक अनुभूति ही रहस्यवाद की मूल आधार है। एक उदहरण प्रस्तुत है –
‘जनिलु तोमाक जगत ईश्वर
तुमि सनातन हरि ।
समस्त भूतर तुमि प्राणवल
जगतके आछा धरि ॥
स्रष्टारो स्रष्टा तुमि सर्वदृष्टा
उद्धारि धरिला भूमि।
जीवर नियंता परम आत्मा
मृत्युरो अंतक तुमि ॥’2
(भावार्थ : साधक शंकरदेव को भगवान के अस्तित्व का बोध हो गया है। वही इस संसार के प्राण-शक्ति है, जिनके कारण यह दुनिया चल रही है। उसी ने यह संसार बनाई है और वे अपने ही इच्छानुसार इस दुनिया को संचालन भी कर रहे है। वे मृत्यु से भी ऊपर है ।)
शंकर के अनुसार उस परंब्रहम को जानने के लिए लोगों को माया, मोह आदि से मुक्त होना पड़ता हैं। संपद-वैभव के मोहजाल में पड़कर लोग ईश्वर के असली स्वरूप को भूल जाते है। श्रीमदभगवत के सप्तम स्कन्ध में लिखा हुआ है कि मनुष्य का जीवन बड़ा ही दुर्लभ है। अनेक साधनाओं द्वारा इसकी प्राप्ति होती है और इसी कारण लोगों को ईश्वर की भक्ति में लीन होना आवश्यक है। साधक शंकरदेव का मानना था कि ईश्वर के इच्छा बिना संसार अधूरा है, शून्य है। शंकर का वह परम तत्व पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि, आकाश सबमें व्याप्त हैं। इस जगत के आदि-अंत-मध्य सब उन्हीं से जुड़े हुए है ।
‘जेन जलवायु पृथ्वी आकाश
व्यापि आछे चराचर
सेई मते मई मन बुद्धि प्राण
व्यापि आछो समस्तर
आपूनाते मई आपूनाके स्रजो
आपुनि पालो सकले
आपूनाके पाछे आपुनि संहारो
आपुनि मायर बले ॥’ 3
(भावार्थ : जिस तरह पृथ्वी, आकाश, वायु पूरी दुनिया में व्याप्त है। ठीक उसी प्रकार ईश्वर तन, मन, प्राण, बुद्धि सब में व्याप्त हैं। हमारे शरीर के रोम-रोम ईश्वर समाया हुआ है । ईश्वर ही हमें सृजन करते है, पालन करते है और अपनी माया द्वारा संहार भी करते है और अंत में हम ईश्वर में ही लीण हो जाते है ।)
शंकरदेव ने कीर्तन में भी लिखा है-
‘तुमि जगतर गति मति पितामाता ॥
तुमि परमात्मा जगतर ईश एक ।
एको बस्तु नाहिके तोमत व्यतिरेक ॥
तुमि कार्य कारण समस्त चराचर ।
सुवर्ण कुंडले जेन नाहिके अंतर ॥
तुमि पशु-पक्षी सुरासुर तरु-तृण ।
अज्ञानत मूढ़जने देखे भिन्न भिन्न ॥’4
(भावार्थ : परमात्मा भगवान ही इस संसार के माँ-बाप, गति-मति सब कुछ हैं। वही कारण है, वही कार्य भी। उनके बिना यह संसार कुछ भी नहीं है। पशु-पक्षी सुर-असुर, तरु-तृण सबमें एकमात्र भगवान ही व्याप्त है, मूर्ख और अज्ञान लोग ही इनको भिन्न देखते है ।)
उस रहस्यमयी परमब्रह्म ने यह दुनिया बनाई है। इस दुनिया का जब अस्तित्व ही नहीं था, उस समय उस निरंजन,आनंद स्वरूप अंतर्यामी का आभास देने के लिए शंकर ने एक स्थान पर लिखा है कि –
‘जगतर पुर्व्वे मई मात्र थाको जान ।
कार्य कारणर किछु नाछिलेक आन ॥
मोक मात्र देखि थोक सृष्टिर मध्यत ।
देखा सुना माने सवे मइ विराचत ॥’5
(भावार्थ : संसार में जब कोई नहीं था, न कुछ करने का कारण; न कुछ कार्य उस समय केवल भगवान ही थे। उन्हीं से सब कुछ सृजन हुआ है। सभी में केवल उनके ही अस्तित्व बिराजमान हैं ।)
शंकरदेव ने जीव, जगत, आत्मा, परमात्मा, ब्रह्म आदि के ऊपर प्रयाप्त रूप से अपने काव्यग्रंथों में चर्चा की हैं। इससे यह पता चलता है कि संसार के मूल में एक ही ईश्वर की प्रधानता है। जिस प्रकार हम पेड़ के डाल-पत्ते में पानी देने की बजाए केवल मूल में पानी डालते हैं, शंकरदेव की रहस्यवाद भी ठीक उसी प्रकार है। उस परमब्रह्म को पूजने से ही सब कुछ ठीक होता है। ‘कीर्तनघोषा’ के प्रारम्भ में ही मंगलाचरण करके उनहोंने सबसे पहले उस ब्रह्म रूपी सनातन का आशीर्वाद लिया है, जो सर्वअवतारों के कारण हैं। शंकरदेव की वाणी में उस असीम तत्व का रहस्य विद्यमान है । जो सत्य है, पूर्ण है।
कबीर आदि रहस्यवादियों की अपेक्षा शंकरदेव के साहित्य में भावनात्मक रहस्यवाद का अभाव है। उनके नाटक ‘केलिगोपाल’ या फिर ‘रास क्रीडा’ में कुछ भावात्मक रहस्यवाद का प्रकाश देखने को मिलते हैं। लेकिन वे भी खुद शंकर के नहीं हैं, शंकरदेव ने आराध्य श्री कृष्ण प्रियतम के साथ गोपियों की प्रेम लीला को बहाना बनाकर इसका वर्णन किया है। लेकिन अंत में शंकर ने इसमें केवल प्रेमभक्ति के रहस्य को ही दिखाया है। इसमें चित्रित विरह-प्रेम का एक उदाहरण प्रस्तुत है-
‘प्राण गोपाल पिउ बिने नाहि रह जीउ
विरह दहानु दहे प्राण ।
करतु बिलाप गोपाल गुण गावे
कृष्ण किंकर गुण गाण ।’6
(भावार्थ : गोपियों को कृष्ण के विरह सहन नहीं हो रही हैं। कृष्ण के बिना गोपियाँ जीवित नहीं रह पाएंगे और उस कृष्ण से मिलने की आश लगाये हुए उनके गुण-गाण करके ये लोग पीड़ा में बिलाप कर रही हैं ।)
इसके अलावा शंकरदेव ने अपनी एक बरगीतो में लिखा है –
‘कहरे उद्धव, कह प्रणारे बांधव
हे प्राण कृष्ण कब आवे ।
पुछये गोपी प्रेम आकुल भावे
ए नहीं चेतन गावे ।’7
(भावार्थ : गोपियाँ प्रेमाकुल स्वर से पूछती है कि उनके शरीर में अब चेतना नहीं रही, हे उद्धव यह बता दो कि हमारे प्राण कृष्ण कब आयेंगे ?)
शंकरदेव के नाटक ‘रुक्मिणी हरण’ के रुक्मिणी और ‘राम-विजय’ की सीता ने भी अपने प्राण प्रिय कृष्ण भगवान को साधारण प्रेमी की तरह नहीं, जगत के स्वामी के रूप में ही कल्पना की है। उसी रूप में दोनों ने अपने स्वामी की बन्दना भी की है।
कुल मिलाके कहा जा सकता है कि, शंकरदेव के साहित्य में भावात्मक रहस्यवाद की तुलना में साधनात्मक रहस्यवाद की ज्यादा प्रमुखता है।
शंकरदेव के दर्शन :
ईसा की चौदहवीं और पंद्रहवीं शताब्दी भारतवर्ष के इतिहास के लिए महत्वपूर्ण समय था। उस समय में भागवत धर्म के प्रचार-प्रसार के परिणाम स्वरूप समग्र देश में भक्ति आंदोलन का सूत्रपात हुआ था जो बौद्ध धर्म के उदय के बाद की सबसे बड़ी घटना है ।
15 वीं शताब्दी में शंकरदेव ने असम में वैष्णव धर्म का प्रचार किया और जिसके लिए उन्होंने शंकरचार्य द्वारा आठवीं शताब्दी में स्थापित अद्वैतवाद दर्शन को अपनाया। जिसका प्रमाण ‘कीर्तन घोषा’, ‘भक्ति रतनांकर’ आदि साहित्य में स्पष्टत: देखने को मिलते हैं। शंकरदेव ने अद्वैत वेदान्त दर्शन को आधार मानकर भागवत-महापुराण के इस वेदान्त-दर्शन के द्वारा अपने धर्म की प्रचार की थी। जिस दर्शन के अनुसार आत्मा और परमात्मा द्वैत (अलग-अलग) नहीं है। इस संसार में केवल वही सत्य है और सब उन्ही से जुड़ा हुआ है। यथा –
‘एक ब्रह्म आछे सर्वदेहत प्रकटे ।
जेन एक आकाश प्रत्येक घटे घटे ॥
जलत सूर्यक जे देखि भीन भीन ॥’8
(भावार्थ : प्रत्येक जीवों में उस परम ब्रह्म निवास करते हैं। अर्थात आत्मा और परमात्मा एक ही है। जिसका रूप अलग-अलग होने पर भी उसका मूल उस परमब्रहम से जुड़ा हुआ है )
लेकिन शंकरदेव के दर्शन के संदर्भ में पंडितों में मतभेद है कि इनके दर्शन में शंकरचार्य के अद्वैतवाद का प्रभाव प्रमुख रूप से देखने को तो मिलते है पर साथ ही साथ रामानुजाचार्य के विशिष्टद्वैतवाद का प्रभाव भी। क्योकि शंकरदेव ने खुदकों दास मानकर भगवान को स्वामी रूप में स्वीकार किया है। मगर यह महत्वपूर्ण है कि शंकरदेव ने इन दर्शन ज्ञान के विपरीत भक्ति को ही श्रेष्ठ माना हैं। शंकरदेव के अनुसार भक्ति से ही इस संसार का उद्धार संभव है।
शंकर के अनुसार सभी जीवों के शरीर में आत्मा रूप से उस परंब्रह्म भगवान व्याप्त हैं। माया के कारण ही लोग अंधकार में रहते है। लोगों के शरीर तो पंचभूत में बिलिन हो जाते हैं मगर आत्मा कभी समाप्त नहीं होते। जैसे ही आत्मा शरीर से अलग हो जाती है तो वे उस परमात्मा के साथ एकाकार हो जाते है। एक स्थान पर शंकरदेव ने लिखा है कि-
‘आपुनाते मइ अपोनाके स्रजो
अपुनी पालो सकले
आपोनाके पाछे आपुनी संहारो
आपुनि मायार बले ।’9
शंकरदेव के मानवतावाद :
शंकर के रहस्य-दर्शन में मूलतः मानवतावाद को ही प्रमुखता मिली है। मानवतावाद का अर्थ ही है सभी मानव को समान रूप से देखना अथवा सभी मानव की कल्याण साधन करना। संकीर्ण और नीच मनोभावों से ऊपर उठकर मनुष्य को मनुष्यता की दृष्टि से देखना ही सही अर्थ में मानवतवाद है। दरअसल मानवतावाद एक प्रकार का विद्रोह है, जो किसी भी परिस्थिति में सभी तरह के अन्याय-अविचार और अत्याचारों से मनुष्यों को मुक्ति की राह दिखाते है और इसी चिंतन का परिणाम है शंकरदेव के दर्शन और भक्ति में उपलब्ध ‘मानवतवाद’।
शंकरदेव का उदेश्य सर्व-भारतीय पृष्ठभूमि पर आधारित नव-वैष्णव धर्म को प्रचार-प्रसार करना था। जिसके लिए उनको समाज के सभी जाति, वर्ग, धर्म के लोगों को अध्यात्मिक रूप से शक्तिशाली बनाना था और इसके लिए सबको एकसूत्र में बांधना भी आवश्यक था। उनके समय में तत्कालीन असम सभी दृष्टियों से अंधकार में डूबे हुए थे। बाहरी आडंबर, कुआचार, संकीर्ण मनोभाव, धार्मिक दिखावा, उच-नीच की प्रथा आदि ने समाज में विभेदों के वीज पैदा कर रहे थे। इन सबकों खतम करके समाज को स्थिर बनाये रखने के लिए एक ही धर्म का अपना भक्ति-दर्शन शंकरदेव ने लोगों के सामने रखे।
शंकर के रहस्यवाद से यह मालूम पड़ता है कि संसार के सभी जीव ईश्वर का ही अंश है। जीव ईश्वर के कार्य-कारण है, इसीलिय हमे सभी से प्रेम और सदभाव रखना जरूरी है। मानव मानव के प्रति समभाव का भाव का प्रदर्शन उनके रहस्यचिंतन का प्रतिफलन है।
उनके द्वारा प्रचारित संप्रदायों में जातिवाद का कोई स्थान नहीं है। ब्राह्मण से लेकर चांडाल तक को उन्होंने अपने संप्रदाय में स्थान दिया हैं। खास बात तो यह है कि उन्होंने अपने धर्म की प्रचार के लिए किसी भी धर्म को नीचा नहीं दिखाया और लोग अनायस ही उनके आदर्शों से प्रभावित होते चले गए। वे सामाजिक समता की प्रतिष्ठा करने में सदा प्रयत्नशील रहे थे,शायद इसी कारण वे अपने साथ मुसलमान दर्जी चांद खाँ को साथ लेकर चले थे। शंकरदेव ने अपने दर्शन-रहस्य की आड़ में सभी जीव-जंतुओं को एक ही ईश्वर की संतान बताते है।
शंकरदेव मानवतवादी दार्शनिक थे । उनके साहित्य का उद्देश्य भी ईश्वर की साधना में सत्यता का निर्वाह करते हुए किसि को न दुख पाहुचना, न द्वेष तथा न किसि को पीड़ा देना था। उनके के धर्म में सबके के लिए द्वार हमेशा खोला रहता था। उनकी भक्ति की साधना भी बड़ी ही सहज और सरल थी। कबीर की तरह इन्होंने भी मूर्ति पूजा,कठोर बामाचार्य, तीर्थभ्रमन आदि का विरोध किया था। कहा जाता है, असम एक समय में तंत्र-मंत्र का देश था। यहा बलि-विधान की प्रथा में लोग ज्यादा ही उत्सुकता दिखाते थे। भेंस,बकरी,हंस,कबूतर आदि के साथ-साथ एक जमाने में मनुष्य की भी यंहा बलि चड़ाई जाती थी। हालाकी मनुष्य बलि देने की प्रथा अब यहा नहीं है। शंकरदेव ने इन सब का खोलकर विरोध किया। जिसके कारन समाज से उन्हें लांछित भी होना पड़ा। उस समय में भक्ति के अनेक राहे थी, अनेक देवी-देवताओं की पूजा की जाती थी, सबकी अलग-अलग उपासना की पद्धतियाँ थी, दूसरी ओर वामचारी तांत्रिकों का बोलबाला था, देवदासियों का नृत्य तथा शैव और शाक्त की तंत्र-मंत्र का प्रभाव भी था।
शंकरदेव ने बारह वर्ष पूरे भारत वर्ष घूमकर लोकमंगल हेतु धर्म की राह को अपनाया। वे उस असीम तत्व की रहस्य को जानकर लोगों को उसकी ओर आकर्षित करने की कौशिश की। जिसके लिए उन्होंने नाम, भाऊना, बरगीत, नृत्य, चित्रकला, वादयों की वादन के द्वारा लोगों को अपनी ओर खींचा तथा उन्होंने नामघर और सत्रों की सृष्टि की, जंहा पर वे सांस्कृतिक तथा धार्मिक कार्यो का समापन करते थे। उनके द्वारा निर्मित सत्र में सबकों समान स्थान मिलता था। जहाँ वे सिखाते थे कि बाहरी दिखावा और उपासना के स्थान पर एक ईश्वर की पूजा करने से सबका भला होता है। वह ईश्वर ही मूल है बाकी सब उन्हीं से निकला हुआ शाखा-प्रशाखा हैं।
शंकरदेव के दर्शन अद्वैतवाद होने के वाबजुड़ उन्होंने अद्वैत के सभी तत्वों को स्वीकार करने के विपरीत वे भक्तितत्व को ही श्रेष्ठ माना है। ज्ञान की प्रयोजनों को स्वीकार करते हुए भी मुक्ति और भगवद प्राप्ति की एकमात्र उपाय भक्ति को ही माना है। उन्होंने भक्ति की महात्म्य को स्वीकार करते हुए भक्ति को इस संसार पार करने की एक जरिया बताते है।
दूसरी ओर उनके साहित्य में समकालीन जीवन चित्रण के विपरीत मनुष्य की दु:ख, पीड़ा को कम करने की चिंता को प्रमुखता दी गयी है। शंकरदेव ने मानव को पशु से भिन्न मानकर सामाजिक मर्यादासम्पन्न प्राणी के रूप में प्रतिष्ठित करवाया। जिसके लिए उन्होंने ने ‘एक शरण नाम धर्म’ की प्रतिष्ठा की। उन्होंने शंकरचार्य के अद्वैतवाद दर्शन को अपनाया और भगवान की भक्ति में सबकों समअधिकार और सममर्यादा दिया। ज्ञान की प्रयोजनों को स्वीकार करते हुए भी शंकरदेव ने भगवद और मोक्ष की प्राप्ति का एकमात्र उपाय भक्ति को ही माना है।
दरअचल मानवतावाद ही शंकरदेव के भक्ति धर्म का मूल केन्द्रबिन्दु है। मगर इसके लिए उन्होंने धर्म में केवल आवेग कों ही प्रमुखता नहीं दी उसमें दर्शनिकता की शुद्ध प्रवाह के साथ साथ रहस्यवाद की आध्यात्मिक चिंतन को भी विशेष स्थान दिया है।
निष्कर्ष :
शंकरदेव के रहस्य और दर्शन के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि उन्होंने अपने युग की नैतिकता को नये ढंग से लोगों के सामने रखा। जिस समय मानवता प्रतिकार तथा प्रतिशोध की ज्वाला में समाज दग्ध हो रहे थे, उस समय तत्कालीन जनता को उनके वाणियों ने प्रेम तथा एकता का संदेश दिया। शंकरदेव के वाणी में उनके साहित्यिक,समाज सुधारक,भक्त,दार्शनिक और रहस्यवादी होने के सप्ष्ट प्रमाण मिल जाते हैं। उनके महान विभूतियों ने लोगों के चिंतन और विचारों में मानवता की चरम उत्कर्स साधन की । शंकरदेव ने अपनी रहस्य और दर्शन को तत्कालीन जणगन के सुविधानुसार प्रयोग करके अव्यवस्थित और आडंबरपूर्ण समाज को व्यवस्थित कर सही अर्थ में समाज को मानवता की राह दिखाई है ।
सहायक गर्न्थ सूची :
1. शइकिया, नागेन : साहित्यत वाद वैचित्य, कौस्तुभ प्रकाशन, डिब्रूगड़, 2003, पृ. 11 ।
2. चौधरी, रामानन्द : श्री श्री शंकरी धर्म आरू भक्तिसार, ज्योति प्रकाशन, पाणबजार, गुवाहाटी 1956, पृ. 32-33 ।
3. मेधी, कालिराम (स.), महापुरुष शंकरदेवर वाणी, लयार्छ बूक ष्टल, पानबजार, गुवाहाटी: असम 1997, पृ. 6 ।
4. वही, पृ. 2 ।
5. वही, पृ. 8 ।
6. बरा, माहिम (स.), शंकरदेवर नाट, असम प्रकाशन परिषद, गुवाहाटी,1989, पृ. 203 ।
7. महंत, वापचन्द्र (सं.) : बरगीत, स्टूडेंट्स ष्तोर्च, कॉलेज हॉस्टल रोड, गुवाहाटी, 2008, पृ. 94 ।
8. चलिहा, भावप्रसाद (स.): शंकरी संस्कृति अध्ययन, गुवाहाटी: श्री मंत शंकरदेव संघ 1999, पृ. 15 ।
9. मेधी, कालिराम (स.), महापुरुष शंकरदेवर वाणी, लयार्छ बूक ष्टल, पानबजार, गुवाहाटी: असम 1997, पृ. 6 ।