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उच्च माध्यमिक स्तर के विद्यार्थियों में भविष्य को लेकर बढ़ते हुए तनाव का अध्ययन।

अनुराधा तँवर
शोधार्थी, हितकारी सहकारी महिला शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय
धाकड़खेड़ी, कोटा

सारांश – प्रस्तुत शोध में उच्च माध्यमिक स्तर के राजकीय व निजी विद्यालयों के विद्यार्थियों का भविष्य को लेकर बढ़ते हुए तनाव पर अध्ययन किया। जिसमें शोधार्थी को प्राप्त हुआ कि निजी विद्यालय के विद्यार्थी राजकीय विद्यालय के विद्यार्थियों की अपेक्षा अपने भविष्य को लेकर अधिक तनावग्रस्त होते हैं। इन विद्यार्थियों में भी छात्राएँ छात्रों की अपेक्षा अधिक तनावग्रस्त रहती हैं। इस समस्या के समाधान के लिये शिक्षा को तनावमुक्त बनाना चाहिये। विद्यार्थियों को अंक प्रणाली पर नहीं माप कर उनकी प्रतिभा को ध्यान में रखते हुए उनके सर्वांगीण विकास पर जोर दिया जाना चाहिए।

बीज  शब्द – उच्च माध्यमिक, भविष्य, तनाव

प्रस्तावना – वर्तमान युग औद्योगिकरण, शहरीकरण, प्रौद्योगिक का युग है। इस युग में बदले सामाजिक मूल्यों के कारण पश्चिमी होड़ में शामिल होने के कारण, समाज में ज्ञान के स्थान पर ‘भौतिकवाद’ का प्रभाव ज्यादा हो गया है इन सब के कारण सामाजिक जटिलताएँ अधिक हो गई है इन सब से मानव जीवन में तेज रफ्तार से थकान और तनाव बढ़ता जा रहा है। वर्तमान समय में मनुष्य को प्राय: तनावजन्य स्थितियों का सामना करना पड़ता है। अपने भविष्य को लेकर हर मनुष्य के मन में कई प्रकार के प्रश्न होते हैं जिनमें आकांक्षा, उत्साह, प्रसन्नता, भय, तनाव हर स्थिति होती है।

उच्च माध्यमिक कक्षा में पहुँचते ही विद्यार्थी अपने आने वाले भविष्य को लेकर कई प्रकार के सपने बुनने लगता है वह हमेशा अपने उज्जवल भविष्य की कामना करता है।

भविष्य के बारे में हमें सकारात्मक दृष्टिकोण रखना आवश्यक है क्योंकि जब तक हमारा सोचने का तरीका सकारात्मक नहीं होगा तब तक हम भविष्य को लेकर आशावान नहीं हो पायेंगे।

आंतरिक एवं बाह्य बाधाएँ मनुष्य के उद्देश्यों की प्राप्ति में अवरोध डालती है। कभी ये बाधाएँ सामान्य होती है जिनका सामना सरलता से किया जा सकता है किन्तु कभी ये बाधाएँ मानव को तनाव ग्रस्त करती है।

हर विद्यार्थी अपने भविष्य को लेकर बहुत चिन्तित व निराशा में रहता है एक असंतोष की भावना उसमें हमेशा रहती है, कि वह किस प्रकार से अपने भविष्य को उज्ज्वल व स्वर्णिम बना सकता है।

समस्या का औचित्य –

उच्च माध्यमिक स्तर के विद्यार्थियों में भविष्य को लेकर हमेशा तनाव द्वन्द्व का वातावरण रहता है इसी को जानने के लिये यह शोध किया गया है।

शोध के उद्देश्य –

प्रस्तुत अध्ययन के उद्देश्य निम्नलिखित हैं –

  1. राजकीय विद्यालयों के विद्यार्थियों में भविष्य को लेकर बढ़ते हुए तनाव का अध्ययन के प्रति जागरूकता का अध्ययन
  2. राजकीय व निजी विद्यालयों के विद्यार्थियों में भविष्य को लेकर बढ़ते हुए तनाव का अध्ययन के प्रति जागरूकता का अध्ययन करना।
  3. राजकीय विद्यालयों के छात्रों व छात्राओं में भविष्य को लेकर बढ़ते हुए तनाव का अध्ययन के प्रति जागरूकता का अध्ययन करना।
  4. निजी विद्यालयों के छात्रों व छात्राओं में भविष्य को लेकर बढ़ते हुए तनाव का अध्ययन के प्रति जागरूकता का अध्ययन करना।

परिकल्पना –

शोध के लिए परिकल्पनाएँ निम्न है –

  1. उच्च माध्यमिक स्तर पर राजकीय व निजी विद्यालयों के विद्यार्थियों में भविष्य को लेकर बढ़ते हुए तनाव के अध्ययन के प्रति जागरूकता में कोई सार्थक अन्तर नहीं होता है।
  2. निजी विद्यालय में छात्रों व छात्राओं में भविष्य को लेकर बढ़ते हुए तनाव के अध्ययन के प्रति जागरूकता में कोई सार्थक अन्तर नहीं होता है।
  3. राजकीय व निजी विद्यालयों के छात्रों में भविष्य को लेकर बढ़ते हुए तनाव के अध्ययन में कोई सार्थक अन्तर नहीं होता है।

परिसीमन –

इस अध्ययन के लिए हमने कोटा क्षेत्र के अन्तर्गत आने वाले निजी एवं सरकारी विद्यालयों में किया।

अनुसंधान विधि –

शोध की प्रकृति, सर्वेक्षण की मौलिकता व उपयोगिता के आधार पर शोधकर्ता ने सर्वेक्षण विधि का प्रयोग किया है।

न्यादर्श –

”सौउद्देश्य यादृच्छिक प्रतिचयन विधि” के द्वारा उच्च माध्यमिक विद्यालय के 80 विद्यार्थियों का चयन किया गया। जिसमें से 40 विद्यार्थी राजकीय विद्यालय एवं 40 निजी विद्यालय के थे। इन 40 विद्यार्थियों में 20 छात्र एवं 20 छात्राएँ शोध हेतु न्यादर्श के रूप में चयनित की गई –

प्रस्तुत शोध में प्रयुक्त उपकरण –

शोधकर्ता ने प्रस्तुत शोध हेतु स्वनिर्मित ”अध्यापक अभिभावक सम्बन्ध का प्रभाव प्रश्नावली” का निर्माण किया।

विश्लेषण एवं व्याख्या –

सारणी 1

राजकीय व निजी विद्यालयों के विद्यार्थियों में भविष्य को लेकर बढ़ते हुए तनाव के अध्ययन के प्रति जागरूकता का मध्यमान, मानक विचलन व टी-मान

चर/समूह N

 

मध्यमान

 

मानक विचलन T-Value

 

निष्कर्ष

 

राजकीय विद्यार्थी 40 62.00 6.42 2.714 सार्थक अन्तर है।
निजी विद्यार्थी 40 65.45 4.84

इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि राजकीय व निजी विद्यालय के विद्यार्थियों में भविष्य को लेकर बढ़ते हुए तनाव के अध्ययन के प्रति जागरूकता में अन्तर होता है।

सारणी 2

राजकीय विद्यालय व निजी विद्यालय के छात्रों में भविष्य को लेकर बढ़ते हुए तनाव के अध्ययन के प्रति जागरूकता के मध्यमान मानक-विचलन व टी-मान

चर/समूह N

 

मध्यमान

 

मानक विचलन T-Value

 

निष्कर्ष

 

राजकीय छात्र 20 64.70 5.08 0.453 सार्थक अन्तर नहीं है।
निजी छात्र 20 65.40 4.68

इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि राजकीय व निजी विद्यालयों के छात्रों में भविष्य को लेकर बढ़ते हुए तनाव के प्रति जागरूकता में कोई सार्थक अन्तर नहीं होता है।

सारणी 3

राजकीय व निजी विद्यालयों की छात्राओं में भविष्य को लेकर बढ़ते हुए तनाव के अध्ययन के प्रति जागरूकता के मध्यमान मानक-विचलन व टी-मान

चर/समूह N

 

मध्यमान

 

मानक विचलन T-Value

 

निष्कर्ष

 

राजकीय छात्राएँ 20 59.30 6.59 3.325 सार्थक अन्तर है।
निजी छात्राएँ 20 65.50 5.10

इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि राजकीय व निजी विद्यालयों की छात्राओं में भविष्य को लेकर बढ़ते हुए तनाव के प्रति जागरूकता में सार्थक अन्तर होता है।

निष्कर्ष –

  1. निजी विद्यालय के छात्र राजकीय विद्यालय के छात्रों की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक चिन्तित होते हैं वे अपने भविष्य को लेकर तनाव अधिक लेते हैं।
  2. राजकीय विद्यालय व निजी विद्यालय के छात्र दोनों ही अपने भविष्य को लेकर चिन्तित रहते हैं। अपने भविष्य को लेकर वे दोनों समान रूप से तनावग्रस्त होते हैं।
  3. निजी विद्यालय की छात्राएँ अपने आने वाले भविष्य को लेकर अधिक विचारवान होती हैं जबकि उनकी तुलना में राजकीय विद्यालय की छात्राएँ कम विचार करती है। वह तनाव में कम रहती हैं, अपने भविष्य को लेकर।

सुझाव –

विद्यार्थियों को पुस्तकीय ज्ञान के साथ-साथ व्यवहारिक ज्ञान भी प्रदान किया जाये जिससे विद्यार्थी अपने जीवन में आने वाली समस्याओं का स्वयं समाधान करने में सक्षम बन सकें। साथ ही विद्यालयों में बाल मनोविज्ञान को समझने वाले विशेषज्ञों की सेवाएं भी ली जा सकती हैं।

सन्दर्भ सूची

  1.  शिक्षा की पत्रिका, नया शिक्षक January – June, 2002 writer Eg. Ebele Egbule James.
  2.  सुकुल, श्रीमती पूनम : नई शिक्षा – ”भारतीय किशोरों में बढ़ता मानसिक तनाव” (10-11 May-June 2003)
  3.  बत्रा, दीनानाथ : शैक्षिक मंथन – ”आत्महत्या – कारण और निवारण”, (1 October, 2010)
  4.  झा, निशा : शैक्षिक मंथन – ”भविष्य की पीढ़ी पर आघात” (1 October, 2012)
  5.  भार्गव, महेश : आधुनिक मनोवैज्ञानिक परीक्षण एवं मापन, एच.पी. भार्गव बुक हाउस, आगरा – 2003
  6.  कपिल, (डॉ.) एच.के. : अनुसंधान विधियाँ, एच.पी. भार्गव बुक हाउस, बारहवां संस्करण
  7.  पारिक, राधेश्याम : कैरियर, शिक्षक एवं उसकी उपलब्धि शिविरा पत्रिका, वरिष्ठ संपादक, बीकानेर, जनवरी 2005



डॉ. रेखा जैन की कविता – ‘परिणय’

सुखद जीवन की अनुभूति से लजाई
दुल्हन बनी बैठी सजी सजाई
हाथों में मेहंदी रचाई
अपने साथ अनेक अरमान लाई
परिणय कर प्रिय संग ससुराल आई।
पहले बहुत घबराई
फिर थोड़ी सी शरमाई
फिरआकर रस्म निभाई
कुछ दिन जिंदगी अच्छी बिताई
और बाद में पल-पल आती रही रूलाई।
जिंदगी मेरी नरक बनाई।
दहेज की बेदी पर मेरी बली चढ़ाई।
दहेज ने लाखों घर बर्बाद करवाई
दहेज के कारण लाखों कन्या डोली में बैठ ना पाई।
मुझे #परिणय की महता बतलाई
पर मेरी समझ ना आई
क्योंकि मैं हो गई अब पराई
अपनों के द्वारा सताई
कर दो मेरी जुदाई
तभी मिलेगी मुझे रिहाई
बुरे विचारों की होगी सफाई
अपना भविष्य दे रहा मुझे दिखाई।
इस बात की  मैंने समझी गहराई
अब ना बनूंगी मैं किसी की लुगाई
कोई नहीं देगा मुझे रिश्तों की दुहाई।



श्याम ‘राज’ की कविता – ‘गाँव की गलियों में बसा है मेरा मन’

गाँव की गलियों मे
आज भी घूमने
का मन करता हैं।

बिता जो बचपन
लोट आये
आज भी मन
करता हैं।

माँ के हाथ की
पापा के डंडे की
मार खाने का
आज भी मन
करता हैं

शाम शाम को
दादी संग
पड़ोसियों के
जाना का
आज भी मन
करता हैं।

दादा का इंतजार
करने का
आते ही पीट
पर बैठ
घूमने का
आज भी मन
करता हैं।

भाई बहन को
सताने का
आज भी मन
करता हैं।

कहाँ आ गये
अब कामने के
चक्कर में
आज फिर से
गाँव जाने का मन
करता हैं।

याद हैं मुझे
एक रुपये वाली
सोलह गोली
चवनि वाली
वो प्रीती सुपारी
खाने का
आज भी मन
करता हैं।

पारले – जी
का वो छोटा पैकेट
छुपाने का
आज भी मन
करता हैं।

स्कूल जाने से
पहले रोज रोज
वाली मार खाने का
आज भी मन
करता हैं।

आज के धुले
कपडे आज ही
गंदे करने का मन
करता हैं।

जेबें भरी हैं
नोटों से
मगर
आज भी सिक्के
लेकर
खनकाने का मन
करता हैं

कितनी कितनी
दूर आ गये
घर छोड़ कर
आज फिर से घर
लौटने का मन
करता हैं।

बचपन की
यारी दोस्ती
सब छुटी
यारों संग
आज फिर से
खेलने का मन
करता हैं।

गाँव की गलियों
में बसा हैं मेरा मन
क्यों बडा हो गया मैं
आज फिर से छोटा
होने का मन
करता हैं।




नीरू सिंह की कविता – ‘श्राप’

जिस आँगन उठनी थी डोली
उस आँगन उठ न पाई अर्थी भी।
क्या अपराध था मेरा?
बस लड़की होना !
अर्थी भी न सजी इस आँगन !
कैसे सजाते? कैसे सजाते?
बटोरा होगा मेरा अंग अंग धरती से !
कफ़न में समेटा होगा मेरी आबरू को !
रात के संनाटे में जली कि…
कही कोई सुन ना ले चीख मेरी।
कब तक नोचोगे मेरे जिस्म को,
अब तो जली अस्थियाँ भी न बची।
ये कैसी सजा पाई थी बेटी होने की?
आखरी विदाई पर मिल न पाई जननी से
सुनलो ऐ पुरुष प्रधान समाज !
रहा कर्ज तुम पर इस बेटी का,
करो फर्ज पूरा अपना इंसान होने का,
वरना जाते जाते दे जाऊँगी श्राप !
पुत्रीहीन हो यह समाज !
फिर न जन्मे गा किसी का कुलदीपक
न जिस्म और आबरू का भूखा कोई !
फिर न कोई बहन-बेटी होगी बेआबरू यूँ।




एस. डी. तिवारी की कविता – ‘श्रमिक’

पत्थर तोड़कर भी,
नाम मिला ना दाम मिला।
बस छोटा सा काम मिला।
सर्दी व बारिश गहरी में,
गर्मी की दोपहरी में,
कभी सड़क बनी, कभी महल बना,
तनिक नहीं आराम मिला। बस छोटा सा …
इतना सारा परिश्रम कर,
कमा पाता बस पेट भर,
झोपड़ों में करता है बसर,
उसको न अपना धाम मिला। बस छोटा सा …
बीमारी उसकी हवा हो जाती,
पसीने से ही दवा हो जाती,
श्रम के धन पर इतराता;
खाने को नहीं हराम मिला। बस छोटा सा …
हाथ का लिए भरोसा भागे,
फैलाता ना किसी के आगे,
संतुष्टि उसके मन से झांके,
पर झंझट और झाम मिला। बस छोटा सा …
– एस. डी. तिवारी, एडवोकेट



“कला बहुत कुछ देती है” – ये ब्रह्मवाक्य ही जीवन का वास्तविक सूत्र है : डॉक्टर संगम वर्मा

“कला बहुत कुछ देती है पर टीडीएस भी काट लेती है।”

ये ब्रह्मवाक्य ही जीवन का वास्तविक सूत्र है। और इसी तर्ज पर अंधाधुन फ़िल्म की पूरी कहानी टिकी है या कहें कि फ़िल्म की पटकथा का आधार इसी बात को चरितार्थ करना रहा है जिसे बख़ूबी इसमें चरितार्थ होते दिखाया भी गया है। प्रत्येक व्यक्ति में कोई न कोई गुण या कला होती है कुछ में नैसर्गिक होती है तो कुछ में जन्मजात। तो कुछ संघर्ष करते हुए अपने अंदर को मांझते हैं तो स्वयं को स्थापित करते हैं जग की रीत ही यही रही है।

फ़िल्म में मुख्य कलाकार आकाश(आयुष्मान खुराना) के माध्यम से निर्देशक श्री राम राघवन ने 2 घण्टे 30 मिनट में मिस्ट्री की केमिस्ट्री अच्छी तरह से परोसी है और वो भी पूरी तरह कला के माध्यम से। कहानी कुछ यूं है कि आकाश एक पियानोवादक है, लेकिन अँधा है असलियत में नहीं, बल्कि दुनिया की भीड़ में स्वयं को अलग रखने की कोशिश में ऐसा बनता है जिससे उसे आत्मसंतुष्टि मिलती है, इस तरह के व्यक्ति भी समाज के हिस्सा हैं जो अपनी अलग ही दुनिया में पहचान बनाने के लिए अपने पर ही प्रयोग करते हैं दूसरे शब्दों में कहें कि अपनी कला का प्रयोग विलक्षण रूप में करते हैं कभी कभार ये प्रयोग घातक सिद्ध हो जाते हैं और इस फ़िल्म में इसी कला का घातक होना भी दिखाया गया है।

आकाश एनजीओ द्वारा दिए गए कमरे में रहता है, अचानक बीच रास्ते से उसकी टक्कर सोफी (राधिका आप्टे) के स्कूटी से हो जाती हैं और वो उसे रेस्तरां में कॉफ़ी पिलाने ले जाती है दोनों में प्रेम का अंकुर उसी टक्कर में ही उपज जाता है। बातों बातों में सोफी को पता चलता है कि आकाश पियानो बजाता है तो वह अपने रेस्तरां में पियानो बजाने की नौकरी का ऑफ़र करती है।  ज़ाहिर है कि दोनों का मन्तव्य पूरा हो जाता है।  प्रेम पनपा है तो उसे मुक़ाम तक लेके भी तो जाना है। वहीं पूर्व अभिनेता अनिल धवन (प्रमोद सिन्हा) जाने माने 80 के दशक में नायक भी होते हैं जो आकाश का गाना सुनकर प्रसन्न होकर अपने घर निजी कॉन्सर्ट के लिए बुलाते हैं ताकि अपनी धर्मपत्नी सिमी (तबु) को शादी की सालगिरह का अनूठा जश्न मना सकें। इधर आकाश और सोफी का प्रेम प्रसंग शिखर  पर पहुंच जाता है और बारिश के रोमांस में एक दूजे में मग्न कर देता है। कहानी में घटनाएँ मोड़ लेती है।

आकाश जब अनिल के घर पहुंचता है तो सिमी ही उसे मिलती है जिसे इल्म नहीं था। आकाश बताता है कि आपके पति ने उसे आपको सरप्राइज देने के लिए मुझे लाइव कॉन्सर्ट के लिए बुलाया है ताकि आपकी सालगिरह यादगार बन जाए। लेकिन तबु मना करती है कि तभी सामने की पड़ोसी उसे देख लेती है तो सिमी एक दम से आकाश को कमरे में अंदर बुला लेती है। तब उसे पता चलता है कि आकाश देख नहीं सकता तो उसे पियानो बजाने के लिए कहती है। और ख़ुद उसका पियानो सुनकर  अंदर ही अंदर रोती है और बाहर ख़ुश होने का दिखावा करती है। इतने में आकाश भाँप लेता है कि घर में कुछ ग़लत हुआ है तो वो बाथरूम जाने का बहाना करता है तो सिमी उसे बाथरूम तक लेकर जाती है तब आकाश देखता है कि फर्श पर अनिल की लाश पड़ी हुई है और शैम्पिन की बोतल टूटी पड़ी है। वह बाथरूम जाता है तो वहां उसे और अचम्भा लगता है जब पता चलता है कि वहाँ एक व्यक्ति और खड़ा है जो वास्तव में मर्डरर होता है।

आकाश सकपका कर ख़ुद को संभालता है और किसी तरह से बाहर आता है तो सिमी के कहने पर फिर से पियानो बजाने लगता है। इतने में सिमी और उसका साथी लाश को सूटकेस में डाल कर बाहर जाने की तैयारी करती है। सिमी जानबूझ कर पहले से रिकॉर्ड की हुई अनिल की आवाज़ के माध्यम से आकाश को भ्रमित करने की कोशिश करती है कि अनिल उनसे मिलने आये हैं और सालगिरह के ख़ूबसूरत नज़राने हेतु बधाई देती है। और उसका साथी लाश को पास ही के दरिया में ठिकाने लगा देता है और आकाश वहाँ से घर आजाता है वह पूरी तरह से सकपका जाता है कि वो क्या करे उसका ज़मीर उसे इज़ाज़त नहीं देता तो वह कुछ दिन बाद पुलिस थाने सारी घटना की जानकारी देने पहुँच जाता है ये सोच कर कि वह सब सच बात देगा कि वह अँधा नहीं है और उसने मर्डर होते हुए देखा है, जैसे ही वो रिपोर्ट लिखाने बैठता है तभी उसके सामने वही बाथरूम में बन्द साथी इंस्पेक्टर के वेश में आजाता है। आकाश की सिट्टी पिट्टी गुम हो जाती है तो वह हड़बड़ा कर बिल्ली के हत्या की रिपोर्ट लिखाता है।  इंस्पेक्टर उसे साथ लेकर उसके घर जाता है और मुआयना करता है कि वो अँधा है कि नहीं तभी बिल्ली उसे मिल जाती है वहाँ पर। अब आकाश को रिलाइज़ होता है कि उसे उसका अँधा होने की कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है।

कहानी में और भी रोचक मोड़ आ जाता है जब शोक सभा में सिमी की पड़ोसी वृद्ध महिला वहां किसी थानेदार को ये बताती है कि सिमी ने जूठ बोला है उस दिन अनिल के आने से पहले कोई तीसरा व्यक्ति पहले से ही मौजूद था घर में। जब इंस्पेक्टर को इस बात का पता चलता है तो वह सिमी  के द्वारा को उसे बालकनी से नीचे फेंक देती है तभी वहां लिफ़्ट से आकाश आजाता है जो चश्मदीद गवाह बन जाता है लेकिन अंधे होने का नाटक करते हुए अनदेखा कर देता है। सिमी सारे सबूत मिटा करके मर्हूम अनिल की बेटी को अपने साथ पूजा करने के लिए ले जाती है। इंस्पेक्टर मनोहर भी उसी समय घटनास्थल पर आजाता है और दुर्घटना बताते हुए मामले को दर्ज कर लेता है। इधर आकाश अपने घर वापिस आ जाता है और फ़ोन करके सोफी को बुलाता है। इतने में सिमी पूजा का प्रसाद लेकर आकाश के घर आजाती है और उसके अंधे होने के नाटक का पर्दा उठाती है। जब असलियत का पता चल जाता है तब आकाश कन्फेस करता है कि वो नाटक क्यों कर रहा है और बात को दबाने की कोशिश करता है पर उसे महसूस होने लगता है कि जो प्रसाद समझ कर वो खाया उसमें कुछ मिला हुआ होता है वो बेहोश होकर गिर जाता है यही पर अंतराल हो जाता है।

अंतराल के बाद सोफी का आगमन होता है वो कमरे में दाख़िल होती है तो सिमी को आकाश के कमरे में आपत्तिजनक हालत में देख कर शॉक्ड हो जाती है कि आकाश ने उसे व उसके प्यार को धोखा दिया है वहां से रिश्ता तोड़ कर चली जाती है। इतने में आकाश को होश आता है तो उसे पता चलता है कि वह अब सचमुच अँधा हो चुका है। क्योंकि सिमी ने पेड़े में कुछ मिलाया था जिससे उसकी आँखें चली गईं। सिमी निश्चिन्त होकर वापिस आजाती है। आकाश जब बाहर निकलता है जो इंस्पेक्टर मनोहर उसे मारने की कोशिश करता है लेकिन आकाश किसी तरह से जान बचा कर वहाँ से भाग निकलता है। गलियों में वह खम्बे से टक्कर खाकर गिर जाता है और उसे सड़क से उठाकर मुरली और मौसी रिक्शेवाला उठाकर अस्पताल ले आते हैं जहाँ स्वामी डॉक्टर को बेच देते हैं जो पेशे से डॉक्टर है पर किडनी बेचने का काम करता है और पैसा कमाता है। वहाँ आकाश  सबको विश्वास में लेकर अपने अंधे होने का राज बताता है और 1 करोड़ की बात करके उन्हें अपने साथ मिला लेता है और सिमी के घर दानी को पियानो सिखाने पहुँच जाता है।

इधर सिमी आकाश को घर छोड़ने की बात करती है तो आकाश उसके साथ चलने को राज़ी हो जाता  है रास्ते में टेम्पो में मुरली और मौसी आजाते हैं जो सोफी को किडनैप करने में आकाश की सहायता करते हैं और डॉक्टर के नर्सिंग सेंटर में ले आते हैं वहाँ वह उसका सिमी का कन्फेस रिकॉर्ड कर लेते हैं कि उसने ही ख़ून किया है। और इंस्पेक्टर मनोहर के घर फ़ोन करके 1 करोड़ रुपए की फिरौती मांगते हैं। और उसकी पत्नी को ये बता देते हैं कि उसका पति ही असली हत्यारा है और सिमी का आशिक़ है दोनों में लड़ाई हो जाती है, इतने में टीवी पर खबर आती है कि सिमी ने सुसाइड कर लिया है। जो की जूठी होती है। अब आकाश अपनी योजना बनाता है और इंस्पेक्टर को 1 करोड़ के लिए 8 मंजिला इमारत में बुलाता है तो मुरली और मौसी दोनों इस घटना को अंजाम देते हैं लेकिन वहाँ मुरली इंस्पेक्टर की गोली से घायल हो जाता है लेकिन मौसी उसे लिफ्ट में ही बन्द कर देती है जहाँ मनोहर बन्द लिफ्ट में फायर करता है और अपनी ही गोली से मारा जाता है।

इधर मौसी घायल मुरली को हस्पताल लेकर जाती है जहाँ वह मर जाता है। इधर आकाश और सिमी हस्पताल में बंधे हुए होते हैं और अपनी अपनी हालत पर सोच रहे होते हैं सिमी किसी तरह से आकाश के हाथ खोल देती है ताकि दोनों बाहर निकल सकें लेकिन सिमी आकाश को मारने के लिए बढ़ती है तभी डॉक्टर स्वामी वहाँ आ जाता है तो सिम्मी उसे भी जान से मारने  की कोशिश करती है लेकिन आकाश उसे बचा लेता है तो डॉक्टर उसे सिमी को बेहोश् करके मुम्बई एयरपोर्ट पर ले जाता है और आकाश को बताता है कि उसने लिवर का सौदा किया है दुबई के किसी पठान के साथ उसकी बच्ची की जान बचाने के लिये लिवर ट्रांसफर करने के लिए एयर बताता है कि इससे तुम्हारी आँखें ठीक हो जायेगी और उसे पैसे भी मिल जाएंगे। 6 महीने बाद आकाश लंदन में होता है और किसी रेस्तरां में गाना गा रहा होता है इत्तेफाक से सोफी भी वहाँ होती है जहाँ उसे पता चलता है कि आकाश यहाँ है वो नीचे जाकर उससे मिलती है तो आकाश उसे सारी कहानी बताता है कि कैसे वो यहाँ तक आया। यहीं कहानी ख़त्म होती है।

कुल मिलाकर निर्देशक ने यही दिखाया है कि कला इंसान को बहुत कुछ देती है पर टीडीएस भी काट लेती है जैसे आकाश को अपनी कला के एवज में कितना बार जान जोखिम में डालनी पड़ी। स्पष्ट है की कला इंसान को जहाँ निखारती है वहीं उसे पछाड़ती भी है। इसलिए अपनी कला को सकारात्मक रखिये ताकि आप भी सकारात्मक रहेंगे।

संपर्क : डॉ. संगम वर्मा, सहायक प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, स्नातकोत्तर राजकीय कन्या महाविद्यालय सैक्टर 42, चण्डीगढ़-160036, मोबाईल :

094636-03737




मेरे द्वार आये,एक पाहुन की तरह

कभी मेरे नयनों में सपने की तरह,

अब जीवन नैया के हो पतवार की तरह,

माथे पे बिन्दी लगा ली तेरे नाम की,

कभी मेरे गाँव आये एक पाहुन की तरह।1।

मेरे घर से होती गली में तेरा नाम लिखा है,

जो बीते हो गई,मील के पत्थर की  तरह,

तेरे नाम की जो माल पहन आई घर में ,

छोड दी लाॅकर में, जानके जंजाल की तरह।2।

सजाने के लिए कुछ भी न पास मेरे,

दिल दे दिया अब तुम्हे अलंकार की तरह,

छलिया होके पाहुन, बन न आना कभी,

नहीँ तो गले पडूंगी, बस तुलसी की तरह।3।




सपना के ब्याह ने तोड़े बड़े-बड़ों के ‘सपने’

                                    सुशील कुमार ‘नवीन’

उसे  ‘चस्का रेड फरारी’ का भले ही रहा हो पर ‘बोल तेरे मीठे-मीठे’ की शालीनता आलोचकों को भी शर्मसार करने वाली रही है । जब भी ‘वा गजबन पानी नै चाली’ है, सब ओर से ‘आज्या नै तेरे लाड लड़ाऊं’ की आवाज सुनाई पड़ी है । ‘गाडनजोगी’ कह कितने ही हंसी-ठठे किये गए हो पर मरजानी की ‘हवा कसूती’ बनाने में चाहने वालों ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। मोरनी की सी उसकी चाल’ और  ‘आंख्या का काजल’ ने बड़े-बड़ों को कमर लचकाने को मजबूर किया। ‘इसे ढूंगे मारे जाणै कोय जलेबी सी तारै ‘ पर उठे उसके कदमों से  बलम की अल्टो पलटी ही पलटी। टल्ली होकर ‘वीरे की वेडिंग’ से बॉलीवुड में जोरदार एंट्री और, ‘नानू की जानू’ में अभय देओल संग लगाए ठुमकों से वह सबके मन को भा गई । दिलेर मेहंदी के साथ ‘बावली तरेड़’ बन गाने का जो मौका मिला वो तो करिअर का स्वर्णिम अध्याय लिख गया। ‘ चांद लुक्या हांडे जनै घूंघट की ओट’ पर जब-जब कदम थिरके, ‘तेरे घाल दयूं थूथकारा, कदै टोक लाग ज्या’ के बोल बुरी नजर से बचा गए। ‘सॉलिड बॉडी से ‘जादूगरनी, चीज लाजवाब, बदली-बदली लाग्गे, जीरो फिगर, जबर बरोठा आदि गीतों पर अपने डांस से देशभर के दिल को धड़काने वाली ‘वो सपना सपने में भी आने लगी‘ है।’ आप भी सोच रहे होंगे कि लेखनी ने आज कौन सी राह पकड़ ली है। चिंता न करें। बीपी, हार्ट बीट सब ठीक है। कुछ नया है। पढ़कर मजा लीजिए।

सुबह-सुबह आज पार्क में एक रिटायर्ड मास्टर जी से मुलाकात हो गई। मास्टर जी सपना चौधरी के जबरिया फैन है। रिटायरमेंट के बाद टाइमपास करने में सपना के डांस वीडियो महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। फोन मेमोरी में भले ही उन्हें किसी का कॉन्टेक्ट नंबर फीड करना न आता हो, पर यू ट्यूब पर सपना का कोई भी डांस का गाना चाहे आधी रात को सर्च करवा लो। राम-राम के बाद हुई बातचीत में मास्टरजी थोड़ा असहज से लगे। मैंने पूछा-क्या हुआ मास्टर जी। मास्टरनी से सबेरे सबेरे लठ बाजग्या कै। बोले-नहीं जी, वो अपने सत्संग, भजन कीर्तन में व्यस्त रहती है। सो बहस का अवसर ही नहीं मिलता। मैने पूछा-तो बात क्या हुई। बोले-एक बात बताओ, सपना का ब्याह और छोरा होने वाली बात सही है। मैंने कहा-हां, पर इसमें आप क्यों परेशान हो। आपने कौन सा उसके ब्याह में कन्यादान लिखवाण जाना था। मास्टरजी बोले-आप को भी मौका चाहिए डायलॉग मारने का। वो इतनी बड़ी कलाकार। ब्याह कर लिया और किसी को बताया तक नहीं। मैंने फिर सिक्सर दे मारा। कहा- तो आपकै धोरे कोण सा वीर साहू का बारात का न्यून्दा (निमंत्रण) आना था। मियां-बीवी राजी तो क्या करेगा काजी। बोले-मुद्दे की गम्भीरता को समझें। सपना ने इस तरह ब्याह करके लाखों लोगों के सपने तोड़ दिए। भला कोई ऐसे करता है क्या। मुझसे कहे बिना फिर नहीं रहा गया। कहा- मास्टरनी नै जाके बताऊं कै, बूढ़ा हाथां तै जा लिया। मेरे ये कहने पर वो थोड़ा झेंप से गए। बोले-आप बात को समझ नहीं रहे। इस कोरोना ने बाजार की हालत खराब कर रखी है। सोचो।यदि ये धूमधाम से ब्याह करती तो व्यापारी-दुकानदार भाइयां के कितना फायदा होता। डीजे, टेंट हाउस, कैटरिंग, साज सिंगार,, बन्दड़ा-बन्दड़ी के ब्याह की ड्रेस, टुम(आभूषण) की खरीद सब के सब अपने लोकल लोगों से होती।  बड़े-बड़े लोग ब्याह में आते तो पूरी रौनक रहती। जब तक ब्याह न होता तब तक अखबार और लोकल चैनलों वालों को काम मिला रहता। लग्न टीका, मेहदी, लेडीज संगीत,ढुकाव फेरे सब लाइव देखने को मिलते। मैंने कहा- वो सेलिब्रिटी है अब। छोटे-मोटे बाजारों का उसका लेवल नहीं है। अब बारी मास्टरजी की थी। बोले-वो सेलिब्रिटी जरूर है। पर जड़ें नहीं छोड़ी है। देसी है और छोरा भी तो देसी ही चुना है। हरियाणा के गीतों को उसके डांस ने ही अजर अमर कर दिया है। धातुओं में सोना, डांसरों में सपना का कोई तोड़ नहीं। अब उनकी इस बात का समर्थन करने के सिवाय मेरे पास कोई दूसरा विकल्प ही नहीं था। मैंने कहा-बात तो आपकी सही है मास्टर जी। खैर और बताओ। क्या चल रहा है। मास्टरजी का दर्द आखिर में उभर ही आया। धीमी आवाज में बोले- और तो सब ठीक है। पता नहीं सपना का नया डांस नम्बर अब कब आएगा। तेरे कातिल जौवन नै लूट लिया दिल म्हारा…गा सपना के सपने तोड़ने का दर्द छलकाकर वो वहां से निकल गए। उनके जाने के बाद मुझे भी हल्के-हल्के दर्द का अहसास सा हो रहा है। मुझे लगता है लेख पढ़ औरों के भी दर्द शुरू हो जाएगा।

(नोट : लेख मात्र मनोरंजन के लिए है। इसका किसी के साथ मेल मात्र संयोग ही समझा जाये।

संपर्क : सुशील कुमार ‘नवीन’, लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद, मोबाईल : 961726237




फरहत परविन की कविता – ‘सोंधी सी मुस्‍कान’

गहन तिमिर के शांत कक्ष में

सुलगाते ही एक चिंगारी

हर लेती सारे अवसादों को

रश्मिरथी ये तीव्र उजियारी

सहेज सब कुछ अंतर्मन में

रही बाँधती जिसे निष्काम

बिना बोले ही खोलती हजारों गिरहें

एक सोंधी सी मुस्कान।

चिकटे-चपटे बर्तन में

पड़ते ही सिक्के की ठन-ठन

क्षुधा-दग्ध मुक्ति मिलते ही

तृप्त वृद्धा-भिक्षुणी के चेहरे पे देखी

एक सोंधी सी मुस्कान।

पैरों में पड़ते हैं बिवाई

दिवा-निशा की कड़ी मेहनत से

ठिठुर जाड़े की शीतल पवन में

खेतों में फूटते ही

गेहूँ की नरम-सुनहरी बालियाँ

जर्जर किसान के चेहरे पे देखी

एक सोंधी सी मुस्कान।

जीवन-मरण की यादृच्छिकता में

युद्ध-विराम से घर लौटे

देश-प्रहरी को अपलक निहारती

नव ब्याहता वनिता के चेहरे पे देखी

एक सोंधी सी मुस्कान।

क्षण-क्षण सहती असीम प्रसव-पीड़ा

आकुलता भरे हृदय से

लाख दुआएँ करती रहती

सुन नवजात की पहली किलकारी

सौम्या जननी के चेहरे पे देखी

एक सोंधी सी मुस्कान।

मधुमासी उल्लास लिये

अपार समर्पित स्नेह-निर्झर में

प्रेम-निवेदन करते ही स्वीकृत

लिए लालिमा प्रेयसी के चेहरे पे देखी

एक सोंधी सी मुस्कान।

मीलों तक पथबाधा सहते

अंतिम लक्ष्य तक ज्यों पहुँचते

छूते ही रक्तिम पट्टी को

धावक के गौरवपूर्ण चेहरे पे देखी

एक सोंधी सी मुस्कान।

परिवार-समाज की सुनती ताना

पढ़कर तुमको क्या है बन जाना?

बादलों से ऊपर उड़कर

देख क्षितिज से अपनी धरा को

दृढ़ संकल्पी महिला पायलट के चेहरे पे देखी

एक सोंधी सी मुस्कान।

दे उड़ान हौसलों को

कठिन लक्ष्य तक पहुँचा देती है

पृथक कर समस्त चिंता-पीड़ा से

जो हर्ष के अपार द्वार खोल जाती है

है कितनी ही प्यारी

ये सोंधी सी मुस्कान।

संपर्क : फरहत परविन, शोधार्थी, (हिंदी), बर्दवान विश्वविद्यालय, पूर्वी बर्दवान, पश्चिम बंगाल, ई-मेल- [email protected]




शंकरदेव के रहस्यानुभूति और दर्शन में मानवता

प्रांजल कुमार नाथ
शोध छात्र, गौहाटी विश्वविद्यालय, असम

भूमिका :
भारतीय संस्कृति में असम प्रांत के संत महापुरुष शंकरदेव असमीया सभ्यता और संस्कृति के बाहक है। उनका जन्म ऐसे संकटकालीन समय में हुआ था जब पूरा देश राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक सभी दृष्टियों से अंधकार में ग्रासित थे। भारतवर्ष में ईसा की चोदहवीं और पंद्रहवीं शताब्दी में ऐसे अनेक महानुभावों का जन्म हुआ था, जिन्होंने सम्पूर्ण भारत में भक्ति आंदोलन के माध्यम से समाज को सही मार्ग दिखाया। शंकरदेव भी उनमें से एक थे जिन्होंने शेष भारत के साथ असम को तथा उत्तर-पूर्व को सांस्कृतिक रूप में जोड़ा और अध्यात्मिकता के साथ मानवतावाद का संदेश दिया।
रहस्य शब्द का अर्थ और स्वरूप :
रहस्य शब्द का शाब्दिक अर्थ है गुढ़ या छिपा हुआ, गोपनीय विषय, मर्म भेद, निर्जन एकांत में घटित वृत्त, दुर्बोध्य तत्व आदि। इस प्रकार रहस्य का अर्थ है एकांत संबंधी विषय, ‘‘जिनके अस्तित्व के बारे में हमें ज्ञात है, मगर हमारे ज्ञान और और बुद्धि से जिसको हम कभी नहीं पहचान पाते वही रहस्य है ।’’1 रहस्यानुभूति के संदर्भ में हम कह सकते हैं कि सभी व्यक्ति के मन में कुछ चिरंतन प्रश्न होते हैं, जिनके उत्तर आसानी से नहीं मिलते। जिन प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए मनुष्य प्राचीन काल से ही प्रयत्नशील है, वही रहस्यनुभूति है। जिस अंतदृष्टि से कवि इस सृष्टि के परम सत्य को उपलब्धि करे, उसी दैविक अनुभूति को साहित्यिक क्षेत्र में साधित करना ही रहस्यवाद है। उपनिषद में कहा गया है- ‘गह्य ब्रहम तदिंद बव्रीमि’ यानि ब्रह्म ही रहस्य है और उसी से संबन्धित बाद या बात रहस्यवाद है। रहस्यवाद को अंग्रेजी में Mysticism कहा जाता है, जो ग्रीक शब्द MUCO से आया है। रहस्य के पीछे एक सर्व-शक्तिमान तादात्म्य जुड़ा हुआ है । असल में रहस्य भावना मनुष्य की उस आंतरिक प्रवृति का प्रकाशन है, जिससे वह परम सत्य परमात्मा के साथ प्रत्यक्ष संबंध जोड़ना चाहते है ।
शंकरदेव के रहस्यनुभूति :
शंकरदेव के साहित्य में रहस्यमयी भावानुभूति बिखरी हुई है। बचपन में ही स्वरवर्ण और व्यंजन वर्ण सीखकर – ‘करतल कमल कमल दल नयन’ करके जो कविता उन्होंने लिखी थी, उसी में उनके रहस्यभाव का आभास स्पष्ट हो जाते है ।
शंकरदेव के साहित्य में साधनात्मक रहस्य यत्र-तत्र बिद्यामन है। उनके वाणियों से ज्ञात होते हैं कि उन्हे साधना द्वारा उस परम सत्य की उपलब्धि हो चुकी थी। उन्हें सर्वत्र अपने उपास्य की विभूति बिखरी हुई दृष्टिगोचर होते थे। तादात्म्य अथवा अद्वैत की यही वास्तविक अनुभूति ही रहस्यवाद की मूल आधार है। एक उदहरण प्रस्तुत है –
‘जनिलु तोमाक जगत ईश्वर
तुमि सनातन हरि ।
समस्त भूतर तुमि प्राणवल
जगतके आछा धरि ॥
स्रष्टारो स्रष्टा तुमि सर्वदृष्टा
उद्धारि धरिला भूमि।
जीवर नियंता परम आत्मा
मृत्युरो अंतक तुमि ॥’2
(भावार्थ : साधक शंकरदेव को भगवान के अस्तित्व का बोध हो गया है। वही इस संसार के प्राण-शक्ति है, जिनके कारण यह दुनिया चल रही है। उसी ने यह संसार बनाई है और वे अपने ही इच्छानुसार इस दुनिया को संचालन भी कर रहे है। वे मृत्यु से भी ऊपर है ।)
शंकर के अनुसार उस परंब्रहम को जानने के लिए लोगों को माया, मोह आदि से मुक्त होना पड़ता हैं। संपद-वैभव के मोहजाल में पड़कर लोग ईश्वर के असली स्वरूप को भूल जाते है। श्रीमदभगवत के सप्तम स्कन्ध में लिखा हुआ है कि मनुष्य का जीवन बड़ा ही दुर्लभ है। अनेक साधनाओं द्वारा इसकी प्राप्ति होती है और इसी कारण लोगों को ईश्वर की भक्ति में लीन होना आवश्यक है। साधक शंकरदेव का मानना था कि ईश्वर के इच्छा बिना संसार अधूरा है, शून्य है। शंकर का वह परम तत्व पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि, आकाश सबमें व्याप्त हैं। इस जगत के आदि-अंत-मध्य सब उन्हीं से जुड़े हुए है ।
‘जेन जलवायु पृथ्वी आकाश
व्यापि आछे चराचर
सेई मते मई मन बुद्धि प्राण
व्यापि आछो समस्तर
आपूनाते मई आपूनाके स्रजो
आपुनि पालो सकले
आपूनाके पाछे आपुनि संहारो
आपुनि मायर बले ॥’ 3
(भावार्थ : जिस तरह पृथ्वी, आकाश, वायु पूरी दुनिया में व्याप्त है। ठीक उसी प्रकार ईश्वर तन, मन, प्राण, बुद्धि सब में व्याप्त हैं। हमारे शरीर के रोम-रोम ईश्वर समाया हुआ है । ईश्वर ही हमें सृजन करते है, पालन करते है और अपनी माया द्वारा संहार भी करते है और अंत में हम ईश्वर में ही लीण हो जाते है ।)
शंकरदेव ने कीर्तन में भी लिखा है-
‘तुमि जगतर गति मति पितामाता ॥
तुमि परमात्मा जगतर ईश एक ।
एको बस्तु नाहिके तोमत व्यतिरेक ॥
तुमि कार्य कारण समस्त चराचर ।
सुवर्ण कुंडले जेन नाहिके अंतर ॥
तुमि पशु-पक्षी सुरासुर तरु-तृण ।
अज्ञानत मूढ़जने देखे भिन्न भिन्न ॥’4
(भावार्थ : परमात्मा भगवान ही इस संसार के माँ-बाप, गति-मति सब कुछ हैं। वही कारण है, वही कार्य भी। उनके बिना यह संसार कुछ भी नहीं है। पशु-पक्षी सुर-असुर, तरु-तृण सबमें एकमात्र भगवान ही व्याप्त है, मूर्ख और अज्ञान लोग ही इनको भिन्न देखते है ।)
उस रहस्यमयी परमब्रह्म ने यह दुनिया बनाई है। इस दुनिया का जब अस्तित्व ही नहीं था, उस समय उस निरंजन,आनंद स्वरूप अंतर्यामी का आभास देने के लिए शंकर ने एक स्थान पर लिखा है कि –
‘जगतर पुर्व्वे मई मात्र थाको जान ।
कार्य कारणर किछु नाछिलेक आन ॥
मोक मात्र देखि थोक सृष्टिर मध्यत ।
देखा सुना माने सवे मइ विराचत ॥’5
(भावार्थ : संसार में जब कोई नहीं था, न कुछ करने का कारण; न कुछ कार्य उस समय केवल भगवान ही थे। उन्हीं से सब कुछ सृजन हुआ है। सभी में केवल उनके ही अस्तित्व बिराजमान हैं ।)
शंकरदेव ने जीव, जगत, आत्मा, परमात्मा, ब्रह्म आदि के ऊपर प्रयाप्त रूप से अपने काव्यग्रंथों में चर्चा की हैं। इससे यह पता चलता है कि संसार के मूल में एक ही ईश्वर की प्रधानता है। जिस प्रकार हम पेड़ के डाल-पत्ते में पानी देने की बजाए केवल मूल में पानी डालते हैं, शंकरदेव की रहस्यवाद भी ठीक उसी प्रकार है। उस परमब्रह्म को पूजने से ही सब कुछ ठीक होता है। ‘कीर्तनघोषा’ के प्रारम्भ में ही मंगलाचरण करके उनहोंने सबसे पहले उस ब्रह्म रूपी सनातन का आशीर्वाद लिया है, जो सर्वअवतारों के कारण हैं। शंकरदेव की वाणी में उस असीम तत्व का रहस्य विद्यमान है । जो सत्य है, पूर्ण है।
    कबीर आदि रहस्यवादियों की अपेक्षा शंकरदेव के साहित्य में भावनात्मक रहस्यवाद का अभाव है। उनके नाटक ‘केलिगोपाल’ या फिर ‘रास क्रीडा’ में कुछ भावात्मक रहस्यवाद का प्रकाश देखने को मिलते हैं। लेकिन वे भी खुद शंकर के नहीं हैं, शंकरदेव ने आराध्य श्री कृष्ण प्रियतम के साथ गोपियों की प्रेम लीला को बहाना बनाकर इसका वर्णन किया है। लेकिन अंत में शंकर ने इसमें केवल प्रेमभक्ति के रहस्य को ही दिखाया है। इसमें चित्रित विरह-प्रेम का एक उदाहरण प्रस्तुत है-
‘प्राण गोपाल पिउ बिने नाहि रह जीउ
विरह दहानु दहे प्राण ।
करतु बिलाप गोपाल गुण गावे
कृष्ण किंकर गुण गाण ।’6
(भावार्थ : गोपियों को कृष्ण के विरह सहन नहीं हो रही हैं। कृष्ण के बिना गोपियाँ जीवित नहीं रह पाएंगे और उस कृष्ण से मिलने की आश लगाये हुए उनके गुण-गाण करके ये लोग पीड़ा में बिलाप कर रही हैं ।)
इसके अलावा शंकरदेव ने अपनी एक बरगीतो में लिखा है –
‘कहरे उद्धव, कह प्रणारे बांधव
हे प्राण कृष्ण कब आवे ।
पुछये गोपी प्रेम आकुल भावे
ए नहीं चेतन गावे ।’7
(भावार्थ : गोपियाँ प्रेमाकुल स्वर से पूछती है कि उनके शरीर में अब चेतना नहीं रही, हे उद्धव यह बता दो कि हमारे प्राण कृष्ण कब आयेंगे ?)
शंकरदेव के नाटक ‘रुक्मिणी हरण’ के रुक्मिणी और ‘राम-विजय’ की सीता ने भी अपने प्राण प्रिय कृष्ण भगवान को साधारण प्रेमी की तरह नहीं, जगत के स्वामी के रूप में ही कल्पना की है। उसी रूप में दोनों ने अपने स्वामी की बन्दना भी की है।
कुल मिलाके कहा जा सकता है कि, शंकरदेव के साहित्य में भावात्मक रहस्यवाद की तुलना में साधनात्मक रहस्यवाद की ज्यादा प्रमुखता है।
शंकरदेव के दर्शन :
ईसा की चौदहवीं और पंद्रहवीं शताब्दी भारतवर्ष के इतिहास के लिए महत्वपूर्ण समय था। उस समय में भागवत धर्म के प्रचार-प्रसार के परिणाम स्वरूप समग्र देश में भक्ति आंदोलन का सूत्रपात हुआ था जो बौद्ध धर्म के उदय के बाद की सबसे बड़ी घटना है ।
15 वीं शताब्दी में शंकरदेव ने असम में वैष्णव धर्म का प्रचार किया और जिसके लिए उन्होंने शंकरचार्य द्वारा आठवीं शताब्दी में स्थापित अद्वैतवाद दर्शन को अपनाया। जिसका प्रमाण ‘कीर्तन घोषा’, ‘भक्ति रतनांकर’ आदि साहित्य में स्पष्टत: देखने को मिलते हैं। शंकरदेव ने अद्वैत वेदान्त दर्शन को आधार मानकर भागवत-महापुराण के इस वेदान्त-दर्शन के द्वारा अपने धर्म की प्रचार की थी। जिस दर्शन के अनुसार आत्मा और परमात्मा द्वैत (अलग-अलग) नहीं है। इस संसार में केवल वही सत्य है और सब उन्ही से जुड़ा हुआ है। यथा –
‘एक ब्रह्म आछे सर्वदेहत प्रकटे ।
जेन एक आकाश प्रत्येक घटे घटे ॥
जलत सूर्यक जे देखि भीन भीन ॥’8
(भावार्थ : प्रत्येक जीवों में उस परम ब्रह्म निवास करते हैं। अर्थात आत्मा और परमात्मा एक ही है। जिसका रूप अलग-अलग होने पर भी उसका मूल उस परमब्रहम से जुड़ा हुआ है )
लेकिन शंकरदेव के दर्शन के संदर्भ में पंडितों में मतभेद है कि इनके दर्शन में शंकरचार्य के अद्वैतवाद का प्रभाव प्रमुख रूप से देखने को तो मिलते है पर साथ ही साथ रामानुजाचार्य के विशिष्टद्वैतवाद का प्रभाव भी। क्योकि शंकरदेव ने खुदकों दास मानकर भगवान को स्वामी रूप में स्वीकार किया है। मगर यह महत्वपूर्ण है कि शंकरदेव ने इन दर्शन ज्ञान के विपरीत भक्ति को ही श्रेष्ठ माना हैं। शंकरदेव के अनुसार भक्ति से ही इस संसार का उद्धार संभव है।
शंकर के अनुसार सभी जीवों के शरीर में आत्मा रूप से उस परंब्रह्म भगवान व्याप्त हैं। माया के कारण ही लोग अंधकार में रहते है। लोगों के शरीर तो पंचभूत में बिलिन हो जाते हैं मगर आत्मा कभी समाप्त नहीं होते। जैसे ही आत्मा शरीर से अलग हो जाती है तो वे उस परमात्मा के साथ एकाकार हो जाते है। एक स्थान पर शंकरदेव ने लिखा है कि-
‘आपुनाते मइ अपोनाके स्रजो
अपुनी पालो सकले
आपोनाके पाछे आपुनी संहारो
आपुनि मायार बले ।’9
शंकरदेव के मानवतावाद :
शंकर के रहस्य-दर्शन में मूलतः मानवतावाद को ही प्रमुखता मिली है। मानवतावाद का अर्थ ही है सभी मानव को समान रूप से देखना अथवा सभी मानव की कल्याण साधन करना। संकीर्ण और नीच मनोभावों से ऊपर उठकर मनुष्य को मनुष्यता की दृष्टि से देखना ही सही अर्थ में मानवतवाद है। दरअसल मानवतावाद एक प्रकार का विद्रोह है, जो किसी भी परिस्थिति में सभी तरह के अन्याय-अविचार और अत्याचारों से मनुष्यों को मुक्ति की राह दिखाते है और इसी चिंतन का परिणाम है शंकरदेव के दर्शन और भक्ति में उपलब्ध ‘मानवतवाद’।
शंकरदेव का उदेश्य सर्व-भारतीय पृष्ठभूमि पर आधारित नव-वैष्णव धर्म को प्रचार-प्रसार करना था। जिसके लिए उनको समाज के सभी जाति, वर्ग, धर्म के लोगों को अध्यात्मिक रूप से शक्तिशाली बनाना था और इसके लिए सबको एकसूत्र में बांधना भी आवश्यक था। उनके समय में तत्कालीन असम सभी दृष्टियों से अंधकार में डूबे हुए थे। बाहरी आडंबर, कुआचार, संकीर्ण मनोभाव, धार्मिक दिखावा, उच-नीच की प्रथा आदि ने समाज में विभेदों के वीज पैदा कर रहे थे। इन सबकों खतम करके समाज को स्थिर बनाये रखने के लिए एक ही धर्म का अपना भक्ति-दर्शन शंकरदेव ने लोगों के सामने रखे।
शंकर के रहस्यवाद से यह मालूम पड़ता है कि संसार के सभी जीव ईश्वर का ही अंश है। जीव ईश्वर के कार्य-कारण है, इसीलिय हमे सभी से प्रेम और सदभाव रखना जरूरी है। मानव मानव के प्रति समभाव का भाव का प्रदर्शन उनके रहस्यचिंतन का प्रतिफलन है।
उनके द्वारा प्रचारित संप्रदायों में जातिवाद का कोई स्थान नहीं है। ब्राह्मण से लेकर चांडाल तक को उन्होंने अपने संप्रदाय में स्थान दिया हैं। खास बात तो यह है कि उन्होंने अपने धर्म की प्रचार के लिए किसी भी धर्म को नीचा नहीं दिखाया और लोग अनायस ही उनके आदर्शों से प्रभावित होते चले गए। वे सामाजिक समता की प्रतिष्ठा करने में सदा प्रयत्नशील रहे थे,शायद इसी कारण वे अपने साथ मुसलमान दर्जी चांद खाँ को साथ लेकर चले थे। शंकरदेव ने अपने दर्शन-रहस्य की आड़ में सभी जीव-जंतुओं को एक ही ईश्वर की संतान बताते है।
शंकरदेव मानवतवादी दार्शनिक थे । उनके साहित्य का उद्देश्य भी ईश्वर की साधना में सत्यता का निर्वाह करते हुए किसि को न दुख पाहुचना, न द्वेष तथा न किसि को पीड़ा देना था। उनके के धर्म में सबके के लिए द्वार हमेशा खोला रहता था। उनकी भक्ति की साधना भी बड़ी ही सहज और सरल थी। कबीर की तरह इन्होंने भी मूर्ति पूजा,कठोर बामाचार्य, तीर्थभ्रमन आदि का विरोध किया था। कहा जाता है, असम एक समय में तंत्र-मंत्र का देश था। यहा बलि-विधान की प्रथा में लोग ज्यादा ही उत्सुकता दिखाते थे। भेंस,बकरी,हंस,कबूतर आदि के साथ-साथ एक जमाने में मनुष्य की भी यंहा बलि चड़ाई जाती थी। हालाकी मनुष्य बलि देने की प्रथा अब यहा नहीं है। शंकरदेव ने इन सब का खोलकर विरोध किया। जिसके कारन समाज से उन्हें लांछित भी होना पड़ा। उस समय में भक्ति के अनेक राहे थी, अनेक देवी-देवताओं की पूजा की जाती थी, सबकी अलग-अलग उपासना की पद्धतियाँ थी, दूसरी ओर वामचारी तांत्रिकों का बोलबाला था, देवदासियों का नृत्य तथा शैव और शाक्त की तंत्र-मंत्र का प्रभाव भी था।
शंकरदेव ने बारह वर्ष पूरे भारत वर्ष घूमकर लोकमंगल हेतु धर्म की राह को अपनाया। वे उस असीम तत्व की रहस्य को जानकर लोगों को उसकी ओर आकर्षित करने की कौशिश की। जिसके लिए उन्होंने नाम, भाऊना, बरगीत, नृत्य, चित्रकला, वादयों की वादन के द्वारा लोगों को अपनी ओर खींचा तथा उन्होंने नामघर और सत्रों की सृष्टि की, जंहा पर वे सांस्कृतिक तथा धार्मिक कार्यो का समापन करते थे। उनके द्वारा निर्मित सत्र में सबकों समान स्थान मिलता था। जहाँ वे सिखाते थे कि बाहरी दिखावा और उपासना के स्थान पर एक ईश्वर की पूजा करने से सबका भला होता है। वह ईश्वर ही मूल है बाकी सब उन्हीं से निकला हुआ शाखा-प्रशाखा हैं।
शंकरदेव के दर्शन अद्वैतवाद होने के वाबजुड़ उन्होंने अद्वैत के सभी तत्वों को स्वीकार करने के विपरीत वे भक्तितत्व को ही श्रेष्ठ माना है। ज्ञान की प्रयोजनों को स्वीकार करते हुए भी मुक्ति और भगवद प्राप्ति की एकमात्र उपाय भक्ति को ही माना है। उन्होंने भक्ति की महात्म्य को स्वीकार करते हुए भक्ति को इस संसार पार करने की एक जरिया बताते है।
दूसरी ओर उनके साहित्य में समकालीन जीवन चित्रण के विपरीत मनुष्य की दु:ख, पीड़ा को कम करने की चिंता को प्रमुखता दी गयी है। शंकरदेव ने मानव को पशु से भिन्न मानकर सामाजिक मर्यादासम्पन्न प्राणी के रूप में प्रतिष्ठित करवाया। जिसके लिए उन्होंने ने ‘एक शरण नाम धर्म’ की प्रतिष्ठा की। उन्होंने शंकरचार्य के अद्वैतवाद दर्शन को अपनाया और भगवान की भक्ति में सबकों समअधिकार और सममर्यादा दिया। ज्ञान की प्रयोजनों को स्वीकार करते हुए भी शंकरदेव ने भगवद और मोक्ष की प्राप्ति का एकमात्र उपाय भक्ति को ही माना है।
दरअचल मानवतावाद ही शंकरदेव के भक्ति धर्म का मूल केन्द्रबिन्दु है। मगर इसके लिए उन्होंने धर्म में केवल आवेग कों ही प्रमुखता नहीं दी उसमें दर्शनिकता की शुद्ध प्रवाह के साथ साथ रहस्यवाद की आध्यात्मिक चिंतन को भी विशेष स्थान दिया है।
निष्कर्ष :
शंकरदेव के रहस्य और दर्शन के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि उन्होंने अपने युग की नैतिकता को नये ढंग से लोगों के सामने रखा। जिस समय मानवता प्रतिकार तथा प्रतिशोध की ज्वाला में समाज दग्ध हो रहे थे, उस समय तत्कालीन जनता को उनके वाणियों ने प्रेम तथा एकता का संदेश दिया। शंकरदेव के वाणी में उनके साहित्यिक,समाज सुधारक,भक्त,दार्शनिक और रहस्यवादी होने के सप्ष्ट प्रमाण मिल जाते हैं। उनके महान विभूतियों ने लोगों के चिंतन और विचारों में मानवता की चरम उत्कर्स साधन की । शंकरदेव ने अपनी रहस्य और दर्शन को तत्कालीन जणगन के सुविधानुसार प्रयोग करके अव्यवस्थित और आडंबरपूर्ण समाज को व्यवस्थित कर सही अर्थ में समाज को मानवता की राह दिखाई है ।

सहायक गर्न्थ सूची :
1. शइकिया, नागेन : साहित्यत वाद वैचित्य, कौस्तुभ प्रकाशन, डिब्रूगड़, 2003, पृ. 11 ।
2. चौधरी, रामानन्द : श्री श्री शंकरी धर्म आरू भक्तिसार, ज्योति प्रकाशन, पाणबजार, गुवाहाटी 1956, पृ. 32-33 ।
3. मेधी, कालिराम (स.), महापुरुष शंकरदेवर वाणी, लयार्छ बूक ष्टल, पानबजार, गुवाहाटी: असम 1997, पृ. 6 ।
4. वही, पृ. 2 ।
5. वही, पृ. 8 ।
6. बरा, माहिम (स.), शंकरदेवर नाट, असम प्रकाशन परिषद, गुवाहाटी,1989, पृ. 203 ।
7. महंत, वापचन्द्र (सं.) : बरगीत, स्टूडेंट्स ष्तोर्च, कॉलेज हॉस्टल रोड, गुवाहाटी, 2008, पृ. 94 ।
8. चलिहा, भावप्रसाद (स.): शंकरी संस्कृति अध्ययन, गुवाहाटी: श्री मंत शंकरदेव संघ 1999, पृ. 15 ।
9. मेधी, कालिराम (स.), महापुरुष शंकरदेवर वाणी, लयार्छ बूक ष्टल, पानबजार, गुवाहाटी: असम 1997, पृ. 6 ।