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अर्धांग भस्म भभूत है…अर्ध मोहिनी रूप है

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  • सार 

शादी के बाद लड़कियाँ, लड़के को पति और उससे ज़्यादा परमेश्वर मानने लगती हैं। हमारे समाज की बनावट-बुनावट ही कुछ ऐसी है कि लड़कों को बचपन से ऊँचा दर्जा दिया जाता है और लड़के पति बनते ही दस पायदान ऊपर चढ़ जाते हैं और अच्छी-भली लड़कियाँ शादी के बाद खुद को बीस पायदान नीचे गिरा लेती हैं तो यह जो असंतुलन होता है वह लगभग तीस पायदान का हो जाता है। तीस पायदान नीचे खड़ा व्यक्ति उससे उतने ही ऊपर खड़े व्यक्ति से कुछ कहेगा तो उसे क्या समझ आएगा और क्या दोनों में तालमेल होगा।

चलिए ईश्वर मान लिया है तो अपेक्षाएँ करना बंद कर दीजिए। मंदिर में रखे देव से नहीं कहते कि ज़रा दरवाज़ा खोल देना, बच्चों को स्कूल से लिवा लाना या बिजली का बिल ही भर देना…एक ओर पति को ईश्वर बना दिया है, दूसरी ओर उससे मानवीय अपेक्षाएँ हैं। बंद कीजिए…कोई अपेक्षा मत रखिए और चाँद-तारे तोड़कर लाने की तो बिल्कुल नहीं…जो एक कप चाय नहीं बना सकता हो, वो आपके लिए चाँद-तारे कहाँ से तोड़कर लाएगा? पति से सीधा संबंध आता है बंद कमरे में। यहाँ भी सहधर्मिता नहीं है, पति की इच्छा है और उस इच्छा के आगे नतमस्तक उसके अधिकार की कोई वस्तु है। कल तक जिन लड़कियों से कहा जाता रहा कि इस विषय पर खुलेआम कुछ कहना भी गंदी बात है, वे उस गंदगी को ही दिमाग में बैठाए अपने परमेश्वर के आगे है। खेल देखिए कितना बड़ा है, द्वंद्व कितना बड़ा है…जो किसी के साथ साझा नहीं करना वो किसी के साथ न चाहते हुए साझा किया जा रहा है। पत्नियाँ इस स्थिति का लाभ उठाती हैं, ठीक उसी समय फलाना-ढिकाना माँग करने लगती हैं, मानवीय देह में उलझा उस समय का पति हाँ बोल देता है और दूसरे दिन से उस विषय पर फिर कलह शुरू हो जाती है।

पति परमेश्वर कैसे है?

स्त्री और पुरुष दो धुरियाँ हैं जिन पर पूरी दुनिया टिकी है। कोई किसी से कमतर नहीं। यदि स्त्री खुद को दासी समझती है तो निश्चित ही वो जिसके साथ सहजीवन बिता रही है वह कोई दास ही होगा। सहजीवन बिताना तो ऐसा है जैसे आप होस्टल में किसी के साथ कोई कमरा साझा करते हैं, बस विवाह के बाद आप एक कमरे के बजाय एक घर साझा कर रहे होते हैं। पति परमेश्वर है…इसे समझे बिना, उसे परमेश्वर मान उससे इच्छा की और इच्छा भी कितनी छोटी जैसे नए कपड़े-गहने खरीदना या नया घर लेना…मायके जाना….परमेश्वर था…अपने लिए मुक्ति माँग लेती पर प्रपंच में अटकी रही।

तो पहले उसे ढूँढना होगा जो तुम्हारा पति हो…न, न वो पत्रिका, वो पंचांग, वो घर-परिवार, वो जात-बिरादरी, वो नाते-रिश्तेदार….सारी दुनियावी बातें हैं। वहाँ एक अनुबंध खोजा जा रहा है…ऐसी बातें पता लगाई जा रही हैं जिनके बूते पर कम से कम इतना तय हो जाए कि यह संबंध इस जन्म में चल जाएगा…टिका रह जाएगा और फिर उन पर व्रत-त्योहार, उपवास, कर्म-कांड का मुलम्मा (लेप) चढ़ाया जा रहा है ताकि अगले सात जन्मों की व्यवस्था हो जाए और बाकी सब इस झंझट से छुट्टी पाए। इसमें मन, आत्मा, शरीर, आपसी ऊर्जा और भाव-भावनाओं की कोई बात नहीं है, कोई स्थान नहीं है। जैसे राजनयिक या व्यावसायिक संबंध बनाने के लिए रोटी-बेटी के रिश्ते होते हैं वैसा ही ताना-बाना है। एक घर से दूसरे घर में जाना है और इतना देखा जा रहा है कि वह घर पहले के घर जैसा ही हो…ऊँच-नीच, अमीरी-गरीबी…सारी, सारी बातें देखी जा रही हैं लेकिन नहीं देखा जा रहा तो वह रिश्ता जिसमें वे पति और पत्नी हो पाएँ…

अचानक से सगाई-शादी के बाद दोनों ने ही उस अनिवार्यता को स्वीकारते हुए प्रेम मान लिया है जबकि वह तो दुनियादारी है। एक-दूसरे के बिना ‘निवाला’ न उतरने की बात यहाँ पक्के तौर पर किताबी है। जहाँ प्रेम विवाह हुआ है वहाँ भी एक अजीब शर्त आ गई है कि जीवन भर एक-दूसरे को और घर-परिवार को बताते रहना है कि दोनों एक-दूसरे के लिए कितने सही हैं। तो हँसना है ऐसे कि कोई गवाह भी हो उसका। दोनों तरह के विवाह के सफल कहलाने की शर्त है कि दुनिया के सामने ‘राम मिलाई जोड़ी’ की तरह रहना है…दुनिया के लिए शादी की थी या अपने लिए! यहाँ जो राम आया है उससे सीता को हमेशा डर है कि कहीं निर्वासन न मिल जाए…लेकिन भूल भी है कि यदि कोई राम के दंभ में आकर घर निकाला दे रहा है तो वे भी सीता हैं न…सँभाल सकती है अकेले के दम पर खुद को, बच्चों को…लेकिन पति को राम मानने वाली खुद को सीता नहीं समझ पाती….खुद की पवित्रता पर खुद ही संदेह लगाती है…देखिए फिर कितनी दूरी है, एक को मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् राम का दर्जा दिया गया है और दूसरी ने खुद को देवी सीता मानने से इनकार कर लिया है।

समीक्षा

पति परमेश्वर है तो खुद देवी नहीं हुई क्या?

शक्ति और सत्ता का संघर्ष कई बार सुना होगा…क्योंकि वही आपके आसपास घटित होता रहता है या वहीं होता है इसलिए आप उसे ही सत्य मान लेते हैं। लेकिन सत्ता और शक्ति के बीच संघर्ष नहीं, प्रेम है जिसने इस पृथ्वी को जीने लायक बनाए रखा है और वही गुम हो रहा है।

पुराण पात्र देखते हैं ब्रह्मा, विष्णु और महेश तभी भगवान् होते हैं जब उनके पास शक्ति होती है, यदि शक्तिहीन हो जाएँ तो वे केवल ब्रह्मा, केवल विष्णु, केवल महेश होंगे…भगवान् नहीं। इसे समझे बिना पुराण से उठाया कि लक्ष्मी, श्री विष्णु के चरण पखार रही है। दिया ज्ञान सभी को कि लक्ष्मी है फिर भी विष्णु जी के चरणों में बैठी है।

पर क्यों बैठी है, कुछ तर्क तो हो…कुछ सोच तो हो….लक्ष्मी धन की देवी है, धन अभिमान देता है…किसी दूसरे के चरणों में बैठने से वो अभिमान तिरोहित हो जाता है। इस बारे में पौराणिक कहानी है कि देवर्षि नारद ने एक बार धन की देवी लक्ष्मी से पूछा कि आप हमेशा श्री हरि विष्णु के चरण क्यों दबाती रहती हैं? इस पर लक्ष्मी जी ने कहा कि ग्रहों के प्रभाव से कोई अछूता नहीं रहता, वह चाहे मनुष्य हो या फिर देवी-देवता। महिला के हाथ में देवगुरु बृहस्पति वास करते हैं और पुरुष के पैरों में दैत्यगुरु शुक्राचार्य। जब महिला पुरुष के चरण दबाती है, तो देव और दानव के मिलन से धनलाभ का योग बनता है। इसलिए मैं हमेशा अपने स्वामी के चरण दबाती हूँ।*1 विष्णु को भी पता है कि लक्ष्मी है तभी तक उसका अधिष्ठापन है। रंगमंच के देवता गणेश हैं लेकिन पूजा सरस्वती की होती है…क्योंकि शक्ति का संचार उसी से होगा, लेकिन सत्ता गणपति की होगी, इसे भूल नहीं सकते।

सीधे मनुष्यों में आते हैं….यदि इस बात को संगत किया तो पुरुष देव है, मतलब उनके पास को-क्रिएटर होने की ताकत है…शक्ति स्त्री के पास है। बुद्धिमान स्त्री हुई तो वह देव से सृजन करा सकती है। लेकिन पुरुष को परमेश्वर मान केवल सिर पर बैठा लिया…न उसका उद्धार किया, न खुद का उद्धार होने दिया। बात उलझी है लेकिन समझनी होगी कि आपका विष्णु कौन है…हो सकता है आप जिसके साथ हो, वो आपका विष्णु हो ही न…इसलिए सारी उलझनें हैं…इसलिए आपकी ऊर्जा उस तक और उसकी ताकत आप तक नहीं पहुँच रही…पार्वती को भी अपना शिव ढूँढने के लिए कड़ी तपस्या करनी पड़ी थी..यदि आप पति को देवों के देव महादेव मान रही हैं तो अपनी तपस्या को उस कसौटी पर देखिए…यदि यह बिना तपस्या से मिला है तो यह वरदान नहीं, तात्कालिक फल है। इससे ज्ञानेंद्रियाँ (सेंस ऑर्गन) संतुष्ट हो जाएँगी लेकिन वो आनंद उतना ही होगा जितनी आपकी चाहना रही होगी मतलब आइस्क्रीम पिघलने तक की या वाइन-डाइन तक की…या उससे कुछ ज्यादा…फिर भूख लगेगी फिर खाना खाएँगे जैसी…लेकिन तृप्ति नहीं होगी।

तृप्ति पाने के लिए अपने काउंटर पार्ट को खोजना होगा…दोनों को। मतलब जो जैसा उसे वैसा साथी मिल सकेगा। जैसे पुरुष गर्भ धारण नहीं कर सकता यह सत्य है, वैसे ही सत्ता का अधिकार पुरुष के पास है…यह भी सत्य है..शक्ति पर निर्भर है कि उस सत्ता को वो कैसे स्वीकारती है। अनचाहे तरीके से लादी गई इच्छा की तरह या सत्ता के आनंद में खुद का आनंद देखकर…आनंद लेकर, आनंद लौटाएँगी तो आनंद द्विगुणित होकर आएगा लेकिन ‘मैं इसकी बात क्यों मानूँ?’ का दंभ और ‘मुझे तो इसकी बात माननी ही होगी’ की मजबूरी, आनंद नहीं देगी…संघर्ष ही बढ़ाएगी।

शोध विधि

चुंबक का उत्तरी ध्रुव, दूसरे चुंबक के दक्षिणी ध्रुव को खींचता है*2 इस सत्य के साथ यहाँ यह भी है कि हर चुंबक के लिए बना दूसरा चुंबक असल में उसका ही अपना वो हिस्सा है, जिसे उसे खोजना है, जिसे पाकर उसे पूर्णता का अहसास हो सकता है। लेकिन जो मिल जाता है, उसे ही अपना मान लेते हैं। इसमें कोई बुराई नहीं है, लेकिन यह मानवीय संवेदनशीलता है, संवेदना है, जिसमें एक का दु:ख दूसरे को महसूस हो सकता है लेकिन एक का दु:ख, दूसरे का तब बन जाता है, जब वह उसका ही हिस्सा हो। किसी दिन आपका सिर दुखता है तो पूरी देह उस दर्द को अनुभूत करती है…किसी दूसरे का सिर दुखेगा तो आप उसका सिर दबाएँगे, उसे दवा देंगे…सब करेंगे जो संवेदना के स्तर पर होगा, अनुभव के स्तर पर नहीं। अपने चुंबक को पाना वैसा होता है कि उसका और आपका दर्द अलग नहीं होता। जब यह समझ आ जाती है तब वह पति परमेश्वर होता है तब उसकी सत्ता चलती है, वो जो बोले वो होता है, क्योंकि उसके कहे में उसकी शक्ति का पूरा साथ होता है, विरोध या विद्रोह नहीं होता। ये प्राण और आत्मा की बात होती है। फिर पति कहे इससे बात मत कर या उस ओर न देख तो मन मसोसता नहीं है क्योंकि यह एक ही मन की एक ही मन से कही बात होती है…जो इसे नहीं पसंद, वो मुझे भी नहीं पसंद….बस

परिणाम और चर्चा

यह एक यात्रा है पुरुष और उसकी सहधर्मिणी स्त्री की। पुरुष के पास ताकत है और स्त्री के पास ऊर्जा है। ऊर्जा का इतना अबाध प्रवाह स्त्री की धमनियों में है कि उसे कोई ताकत ही रोक सकती है अन्यथा यह ऊर्जा विध्वंसक तक हो सकती है। ऊर्जा की अपार अबाधित क्षमता में देवी काली का वह स्वरूप याद कीजिए जिसमें रक्तबीज*3 जैसे असुरों को मारने के लिए नरमुंडों की माला धारण कर ली थी और असुरों का रक्त धरा पर न गिरने दिया, अपनी ही जिह्वा पर लेती गई थी…असुरों की मृत्यु के बाद ही क्रोध शांत नहीं हुआ था और स्वयं शिव को उनके मार्ग में आना पड़ा था। देवी के इस रूप को महादेव उसी तरह रोक सकते हैं जैसे तांडव करते शिव को दुर्गा लास्य कर सँभाल लेती है। यह पृथ्वी इसी संतुलन से बची रह सकती है।

लेकिन ऊर्जा को सही ताकत धारण नहीं कर पाती है और सृजन की जगह तबाही मची रहती है। यह तबाही केवल भौतिक जगत में दिखाई दे ऐसा नहीं, कई बार मानसिक, शारीरिक, भावनात्मक और सामाजिक स्तर पर भी हो जाती है। असीमित तेज, असीमित ऊर्जा की अभूतपूर्व सुंदरी द्रौपदी को पाँच पतियों में बँटना पड़ जाता है और तब भी उसके सामने शर्त रखी जाती है कि वह चिरयौवना रहे। वह चिरयौवना तभी रह सकती है जब उसका कौमार्य अखंडित रहे। स्त्री का कौमार्य सुरक्षित रहे और तब भी वह संतुष्ट रहे तो वह द्रौपदी की तरह महाभारत तक खड़ा कर देने का सामर्थ्य पा लेती है लेकिन जिन स्त्रियों का कौमार्य सुरक्षित रहते हुए वे अतृप्त रहती है, उनमें पूर्णता का अभाव होता है वे मानसिक रूप से कुंद नज़र आती है। बड़ी उम्र तक अविवाहित रह गई लड़कियों में महिला न हो पाने की अतृप्त इच्छा उन्हें कितना संकीर्ण बना देती है, देखा ही होगा।

दूसरी ओर यदि उनकी इस ऊर्जा का दोहन लगातार होने लग जाए तब भी वे निस्तेज हो जाती है। कई शादीशुदा महिलाएँ जब विवाह में रहते हुए अपने ही पति से बलात्कार झेलती हैं तब उनके चेहरे से सारा लवण जा चुका होता है। इसका और खतरनाक उदाहरण रेड लाइट एरिया की महिलाओं का है। चेहरे पर लिपा-पुती करने पर भी उनका बेरौनक होना छिपता नहीं है। वृंदावन की गलियों में भटकती विधवाओं के साथ होने वाली घटनाएँ भी कई बार चर्चा में आ जाती है। उम्र में आई लड़की को सुरक्षित रखने का मार्ग विवाह संस्था के ज़रिए ढूँढा जाता है ताकि जैसे एक सुरक्षित रक्षा कवच मिल जाए लेकिन वह रक्षा कवच सही है या नहीं…यदि रक्षा होती है तो वह विकसित हो सकती है लेकिन कई बार रक्षा उसे कैद में ले जाती है।

अब शक्ति को देखें…स्वामी विवेकानंद*4 जैसा ओज पुरुष शक्ति के संयम का उदाहरण है। विद्यार्जन के दौरान ब्रह्मचर्य का पालन इसलिए सख्ती से कहा गया है ताकि ओज का निस्तरण बेवजा न हो। यह माना जाता है कि पुरुष कुछ देकर खाली हो जाता है और स्त्री पा लेती है। लेकिन जो इसे गहरे जानते हैं, वे ये भी जानते हैं कि जो पुरुष सचेत रहकर ताकत उड़ेलता है तो वह स्त्री से ऊर्जा प्राप्त कर सकता है। तंत्र मार्ग में इस ऊर्जा का प्रयोग काली शक्तियों के रूप में होता है। उस दुनिया के लोग इस बारे में अधिक जानते हैं। लेकिन इस शक्ति का सही इस्तेमाल हो जाए तो पुरुष कुछ देकर खाली नहीं बल्कि अधिक परिपूर्ण हो सकता है। बात यह है कि ताकत को उसकी सही ऊर्जा मिलनी चाहिए और अधिकांश मामलों में ऐसा नहीं होता है।

निष्कर्ष

सवाल है कि ऐसा क्यों नहीं होता…जैसे हर स्विच के लिए खास प्लग हो तो ही स्विच ऑन होने या सही समय आने पर ऊर्जा का प्रवाह हो सकता है। पर ऐसा नहीं होता, क्यों? क्योंकि यदि सभी को सभी सही जोड़ियाँ मिल जाएँ तो धरती पर ऊर्जा का प्रवाह अपरंपार होगा और सभी मुक्ति के मार्ग पर चल पड़ेंगे। यदि सभी को मुक्ति मिल गई तो दैवीय नाटकीय खेल समाप्त हो जाएगा। इस खेल को चलाए रखने के लिए सही जोड़े नहीं मिलते और उनकी तलाश जारी रहती है।

जो बहुत सही होते हैं वे मिलते हैं तो बहुत सही कार्य भी होता है जैसा सुधा नारायण मूर्ति। लेकिन सच्चे मिलान हो नहीं पाते, सच्चे मिलान होने नहीं दिए जाते। शीरी-फरहाद, लैला-मजनूँ, रोमियो-जूलियट,ढोला-मारू, नील-दमयंती…उदाहरण देख लीजिए…जो सच्चे थे, उन्हें मिलने नहीं दिया गया, वे मिल नहीं पाए। वे मिल जाते तो गजब कर जाते…पर वे नहीं मिले तब भी एक हो गए। उनके नाम उसी तरह साथ लिए जाते रहेंगे जैसे राधेकृष्ण, सियाराम- इनमें एक प्रेम है, एक विवाह। याने या तो प्रेम सच्चा होना चाहिए या विवाह..पर दोनों ही आधा-अधूरा होता है और हम मध्यम (मिडीओकर) जीने के इतने आदी हो जाते हैं कि उस पर ही समझौता कर लेते हैं..पर हम कम पर समझौता क्यों करते हैं? हम सही की तलाश जारी क्यों नहीं रखते? हम मुक्ति का मार्ग क्यों नहीं खोजते? 

संदर्भ

  • पद्म पुराण
  • Jiles, David C. (1998). Introduction to Magnetism and Magnetic Materials
  • दुर्गा सप्तशती अष्टम अध्याय
  • स्वामी विवेकानन्द अपनी यूरोप यात्रा के दौरान जर्मनी गये थे। वहां कील यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर पॉल डयूसन स्वामी विवेकानन्द की अद्भुत याददाश्त देखकर दंग रह गये थे।

तब स्वामी जी ने रहस्योद्घाटन करते हुए कहा थाः ‘ब्रह्मचर्य के पालन से मन की एकाग्रता हासिल की जा सकती है और मन की एकाग्रता सिद्ध हो जाये तो फिर अन्य शक्तियां भी अपने-आप विकसित होने लगती हैं।’




तरक़्क़ी पसंद ग़ज़लगो : जाँ‌‌ निसार अख़्तर

तरक़्क़ी पसंद ग़ज़लगो : जाँ‌‌ निसार अख़्तर

डॉ. वसीम अनवर

असिस्टेण्ट प्रोफेसर

उर्दू और फ़ारसी विभाग

डॉ. हरी सिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर, मध्य प्रदेश
[email protected], 09301316075

ग़ज़ल उर्दू शायरी की मक़बूल तरीन सिन्फ़ सुख़न है। ग़ज़ल का फ़न ईजाज़-ओ-इख़्तिसार रम्ज़-ओ-किनाया, मजाज़-ओ-तमसील, इस्तिआरा-ओ-तशबीहा और आहंग-ओ-नग़्मगी से मुज़य्यन होता है। ग़ज़ल में शुरू से ही मुख़्तलिफ़ मौज़ूआत‌-ए-ज़िंदगी, समाजी मुआशरती ख़्यालात, तारीख़ी वाक़ियात-ओ-नज़रियात की तर्जुमानी होती रही है। हर तरह के ख़्यालात की अक्कासी दीगर अस्नाफ़ सुख़न की बनिसबत ग़ज़ल में ज़्यादा मुअस्सिर और जामे तरीक़े से की जा सकती है। इस तरह ग़ज़ल का हर शेअर अपने अंदर एक जहान-ए-मानी रखता है।
ग़ज़ल के मुताल्लिक़ नक़्क़ादों के मुख़्तलिफ़ नज़रिए रहे हैं। फ़िराक़ के नज़दीक ग़ज़ल इंतिहाओं का सिलसिला है। प्रो. रशीद अहमद सिद्दीक़ी ने ग़ज़ल को उर्दू शायरी की आबरू क़रार दिया। ख़्वाजा अहमद फ़ारूक़ी ग़ज़ल को महबूब तरीन सिन्फ़-ए-सुख़न बताते हैं।
ग़ज़ल की इस्लाह का रुजहान हाली से शुरू हुआ लेकिन सिर्फ मौज़ूआत की हद तक रहा। इस के बाद अज़मत अल्लाह ख़ां, वहीद-उद-दीन सलीम, जोश मलीहाबादी, कलीम-उद-दीन अहमद वग़ैरह के नाम आते हैं जो ग़ज़ल की हय्यत और साख़्त ही के मुख़ालिफ़ थे। इन हज़रात के नज़दीक ग़ज़ल बेवक़्त की रागनी, नीम वहशयाना शायरी या रब्त-ओ-तसलसुल से आरी कलाम है। अज़मत अल्लाह ख़ां का तो ये ख़्याल था कि उर्दू शायरी की तरक़्क़ी सिर्फ तभी हो सकती है जब ग़ज़ल की गर्दन बे-तकल्लुफ़ मार दी जाये। ये रद्द-ए-अमल इंतिहा पसंदाना था। ग़ज़ल के सिलसिले में प्रो. आल-ए-अहमद सुरूर की राय बड़ी मुतवाज़िन है:
”ग़ज़ल की मक़बूलियत से कुछ लोग इस हक़ीक़त से चश्मपोशी करने लगे हैं कि ग़ज़ल सारी शायरी नहीं है। और ना ग़ज़ल को उर्दू शायरी की आबरू कह कर दिल ख़ुश कर लेना मुनासिब है।“(1)
इब्तिदाई दौर में तरक़्क़ी-पसंद शौअरा ने ग़ज़ल की तरफ़ कोई ख़ास तवज्जह नहीं दी और जब उसे अपनाया तो उर्दू ग़ज़ल की आम रिवायत से इज्तिनाब की कोशिश करते हुए। अब उस के रिवायती और बुनियादी किरदार आशिक़-ओ-माशूक़ और रक़ीब माअनवी तौर पर बदले हुए थे और इबहाम की बनिसबत वज़ाहत ज़रूरी हो गई थी। तरक़्क़ी-पसंद शायर के लिए तय-शुदा नताइज को मंज़ूम करना लाज़िमी था। लिहाज़ा इस में मक़सद को अव्वलीयत और फ़न को सानवीयत हासिल रही जिसकी वजह से अक्सर तरक़्क़ी-पसंद ग़ज़ल ख़िताबत और ब्यानिया बन कर रह गई।
इस के बावजूद तरक़्क़ी-पसंद शौअरा ने अच्छी ग़ज़लें कहीं हैं। इसी दौर में फ़ैज़ की ग़ज़लें उनकी नज़्मों से ज़्यादा मक़बूल हुईं। जज़बी, मजाज़, मजरूह, सरदार जाफ़री,,वामिक़, मख़दूम, जाँ‌‌ निसार अख़्तर, साहिर, ताबां, परवेज़ शाहिदी, अख़्तर अंसारी वग़ैरह ने तरक़्क़ी-पसंद ख़्यालात की अक्कासी अपनी ग़ज़लों में की है।
जाँ‌‌ निसार अख़्तर ग़ज़ल की एहमीयत वा इफ़ादियत का एतराफ़ करते हुए रक़्म तराज़ हैं:
“ फ़न अदब और समाज अपने इर्तिक़ा के लिए नई नसल से नए ख़ून का तक़ाज़ा करते हैं। ग़ज़ल जो हमारे अदब की शानदार रिवायत है और जिसके बग़ैर उर्दू शायरी का तसव्वुर मुम्किन नहीं, जिसका नाम आते ही हमारी सदियों की तहज़ीब सिमट कर हमारे सामने आने लगती है, हमारी जज़्बाती और वजदानी कैफ़ियात, हमारी मुआशरत, तमद्दुन और अख़्लाक़ की हज़ारहा झलकियाँ अपने चेहरे से निक़ाब सरकाती नज़र आती हैं। एक अज़ीमुश्शान विरसे के तौर पर नई नसल तक पहुंची है।“ (2)

जाँ‌‌ निसार अख़्तर को शायरी का शौक़-ओ-ज़ौक़ विरसे में मिला था। उनकी इब्तिदाई ग़ज़लिया शायरी क़दीम रंग-ओ-आहंग लिए हुए थी, जो इन्होंने तरक़्क़ी-पसंद तहरीक से वाबस्तगी के बाद क़लमज़द कर दी। यही वजह है कि उनके पहले मजमूआ कलाम सलासिल मैं कोई ग़ज़ल शामिल नहीं है। दूसरे मजमूआ-ए-कलाम तार-ए-गिरेबाँ मैं तीन ग़ज़लें, जावेदाँ मैं तेराह ग़ज़लें और नज़र-ए-बुताँ मैं सात ग़ज़लें शामिल की गई हैं।
ग़ज़लगोई का फ़न और हिन्दुस्तानी तहज़ीब-ओ-तमद्दुन से लगाओ जाँ‌‌ निसार अख़्तर के ख़ून में शामिल था। वो ग़ज़ल की तरक़्क़ी को निहायत ज़रूरी ख़्याल करते थे। जाँ‌‌ निसार अख़्तर की ग़ज़ल के मुताल्लिक़ इज़हार-ए-ख़याल करते हुए कहते हैं:
हमसे पूछो कि ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फ़न क्या
चंद लफ़्ज़ों में कोई आग छिपा दी जाये

जाँ‌‌ निसार अख़्तर ने अपनी शायरी के आख़री दौर में फिर ग़ज़ल की तरफ़ तवज्जह करते बहुत सी ग़ज़लें कही। इन ग़ज़लों का तर्ज़ बयान क़ारी को मुतवज्जह करता है। क़दीम तक़ाज़ों और असरी रुजहानात का हसीन इम्तेज़ाज, मुतवाज़िन लहजा, अंदाज़ बयान की नुद्रत, तराकीब की हलावत, शगुफ़्तगी, सदाक़त, सादगी, रवानी और नग़्मगी के साथ असरी मसाइल का बयान ने जाँ‌‌ निसार अख़्तर की ग़ज़ल को ख़ारिजी और दाख़िली दोनों तरह का हुस्न अता किया है:
ये किसी ग़रीब दिल से ग़म-ए-इश्क़ का इशारा
मिरी ज़िंदगी को मुझ पर ये सितम भी है गवारा

ख़ुद बख़ुद नींद सी आँखों में घुली जाती है
महकी महकी है शब-ए-ग़म तिरे बालों की तरह
सलासत अल्फ़ाज़ और सादगी बयान से मुहब्बत की ख़ास कैफ़ियत बड़ी ख़ूबी के साथ अशआर की शक्ल इख़्तियार कर लेती है:
सुबह की आस किसी लम्हा जो घट जाती है
ज़िंदगी सहम के ख़्वाबों से लिपट जाती है

शाम ढलते ही तिरा दर्द चमक उठता है
तीरगी दूर तलक रात की छट जाती है
जाँ‌‌ निसार अख़्तर की इश्क़िया शायरी एक सच्चे दिल की पुकार है, जो दिलों पर असर करती है। मुहब्बत का करब और हिज्र की बेक़रारी शायर को बहुत अज़ीज़ है और वो उसे क़ायम रखने की कोशिश करता है:
कौन कहता है तुझे मैंने भुला रखा है
तेरी यादों को कलेजे से लगा रखा है

और क्या इस से ज़्यादा कोई नरमी बरतूँ
दिल के ज़ख़्मों को छुआ है तिरे गालों की तरह
सेहतमंद क्लासिकी रिवायतों से इस्तिफ़ादा और फ़न का रचाओ जाँ‌‌ निसार अख़्तर के कलाम की एक अहम ख़ूबी है। उनके यहां मअनी आफ़रीनी के साथ साथ कैफ़ीयत, हलावत और वालेहाना-पन बदर्जा‌-ए-इतम मौजूद है। मीर तक़ी मीर का रंग उन्हें ख़ासतौर पर बहुत पसंद है:
इश्क़ में क्या नुक़्सान नफ़ा है हमको क्या समझाते हो
हमने सारी उम्र ही यारो दिल का कारोबार किया

आज वो क्या सर-ए-अंजुमन आ गए
राज़ दिल का सर-ए-अंजुमन आ गया

वो चश्मा हुस्न नौजवानी
अंगड़ाई जो ले फ़िज़ा नहाए

अख़्तर की ग़ज़लों में रूमानियत, क़ौमीयत, अज़्म-ए-जवाँ, ख़ुश उम्मीदी और क़ौमी तहज़ीब की आमेज़िश पाई जाती है। जिसकी वजह से उनके कलाम में नामुरादी और मायूसी के बजाय हौसला, उम्मीद, शादकामी और मसर्रत के जज़्बात-ओ-कैफ़ियात वाज़िह नज़र आते हैं:
समुंदर को यक़ीं आएगा किस दिन
कि साहिल से भी उठ सकते हैं तूफ़ाँ

अपने तारीक मकानों से तो बाहर झाँको
ज़िंदगी शम्मा लिए दर पे खड़ी है यारो

जब भी चाहेंगे ज़माने को बदल डालेंगे
सिर्फ कहने के लिए बात बड़ी है यारो
अख़्तर की शायरी में इन्सान और ज़िंदगी से मुहब्बत की तलक़ीन मिलती है। मगर जब वो अपने इन ख़्यालात और तसव्वुरात को अपनी शख़्सियत में जज़्ब कर के शेअरी पैकर में ढालते हैं तो शेअर की तहदारी में इज़ाफ़ा हो जाता है और ज़िंदगी की जद्-ओ-जहद फ़ित्री तौर पर सामने आती है:
ज़िंदगी ये तो नहीं तुझको सवारा ही ना हो
कुछ ना कुछ हमने तिरा क़र्ज़ उतारा ही ना हो

समझ सके तो समझ ज़िंदगी की उलझन को
सवाल इतने नहीं हैं जवाब जितने हैं

ज़िंदगी जिसको तिरा प्यार मिला वो जाने
हम तो नाकाम रहे चाहने वालों की तरह
जाँ‌‌ निसार अख़्तर की शायरी में हक़ीक़त निगारी और हिन्दुस्तानी अनासिर की कसरत है। वो अपने वतन के फ़ित्री मनाज़िर, तहज़ीब-ओ-तमद्दुन वग़ैरह का ज़िक्र निहायत पुरख़ुलूस लहजे में अहतराम के साथ करते हैं। उनके यहां इन्सान की सियासी आज़ादी का शऊर मौजूद है। लेकिन इस तरह के अशआर में फ़ित्री बुलंद आहंगी, ख़िताबत और रास्त अंदाज़ बयान के अनासिर आम तरक़्क़ी-पसंद शौअरा की तरह पाए जाते हैं:
कट सकी हैं अब तलक सोने की ज़ंजीरें कहाँ
आज हम आज़ाद हैं यारो अभी ये मत कहो

वतन से इश्क़, ग़रीबी से बैर, अमन से प्यार
सभी ने ओढ़ रखे हैं निक़ाब जितने हैं

शर्म आती है कि इस शहर में हम हैं कि जहां
ना मिले भीक तो लाखों का गुज़ारा ही ना हो
जाँ‌‌ निसार अख़्तर ने तरक़्क़ी-पसंद शायरी की आम रविश के मुताबिक़ क़दीम रिवायात से इन्हिराफ़ किया है। इश्क़-ओ-मुहब्बत और हिजर्-ओ-फ़िराक़ के मौज़ूआत में भी वो रिवायत के बजाय फ़ित्री और हक़ीक़ी तजुर्बे को एहमीयत देते हैं। उनका महबूब और इश्क़ मावराई नहीं फ़ित्री और इन्सानी है। इसलिए अख़्तर की ग़ज़ल हक़ीक़त और सदाक़त की हदूद से तजावुज़ नहीं करती:
जब लगें ज़ख़्म तो क़ातिल को दुआ दी जाये
है यही रस्म तो ये रस्म उठा दी जाये

मेरी ख़ामोशी पे जब तुम रो दिए हो बारहा
लाओगे किस दिल में मेरे आँसूओं की ताब तुम

आज भी जैसे शाने पर तुम हाथ मिरे रख देती हो
चलते चलते रुक जाता हूँ साड़ी की दूकानों पर

दिल को छू जाती है यूं रात को आवाज़ कभी
चौंक उठता हूँ कहीं तूने पुकारा ही ना हो

हमसे भागा ना करो दूर ग़ज़ालों की तरह
हमने चाहा है तुम्हें चाहने वालों की तरह
जाँ‌‌ निसार अख़्तर की शायरी का एक हिस्सा ऐसा है, जिसमें हिन्दी के आम-फहम अल्फ़ाज़ नगीनों की तरह नज़र आते हैं। हिन्दी अल्फ़ाज़ के इस्तिमाल से अख़्तर की शायरी में हिन्दी शायरी का रस और नई माअनवियत पैदा हो गई है:
एक तो नेना कजरारे और तिस पर डूबे काजल में
बिजली की बढ़ जाये चमक कुछ और भी गहरे बादल में

उजड़ी उजड़ी हुई हर आस लगे
ज़िंदगी राम का बन बास लगे

तू कि बेहती हुई नदिया के समान
तुझ को देखूं तो मुझे प्यास लगे

बरखा की तो बात ही छोड़ो चंचल है पुरवाई भी
जाने किस का सब्ज़ दोपट्टा फेक गई है धानों पर
जाँ‌‌ निसार अख़्तर ने तरक़्क़ी-पसंद तहरीक से वाबस्तगी के बाद नज़्म निगारी को अपनाया। लेकिन नज़्मों में उनका इन्फ़िरादी रंग मुश्किल से ही नज़र आता है। उनकी आवाज़ आम तरक़्क़ी-पसंद शायरी में गुम हो जाती है। मगर जब वक़फ़े के बाद इन्होंने उर्दू शायरी की आबरू यानी ग़ज़ल के गेसू सँवारे तो उनकी आवाज़ में तबदीली का एहसास होता है। इस तबदीली ने एक अजीब निखार और हुस्न पैदा कर दिया है। इसी दौरान वो अपने दिल की गहिराईयों में उतर कर ख़ुद को पाने में कामयाब नज़र आते हैं।
डाक्टर मुहम्मद हसन ने जाँ‌‌ निसार अख़्तर की इस शायरी के बारे में लिखा है:
”……सबड़े ग़ैर मुतवक़्क़े अंदाज़ में जाँ‌‌ निसार अख़्तर ने फिर नग़्मासराई शुरू कर दी और ताज्जुब ही है कि ही नग़्मासराई माज़ी का तसलसुल या पुरानी धुनों की तकरार ना थी। ऐसे निराले और शगुफ़्ता नग़्मों से इबारत थी कि बस जैसे अपने नग़्मों के मुक़द्दस आतिश ख़ानों की आग रोशन करे। जल जानेवाले मुर्ग़-ए-आतिश नवा ने दूसरा जन्म लिया हो।“(3)
जाँ‌‌ निसार अख़्तर के मिज़ाज और उनके ख़ास मौज़ूआत के बारे में अमीक़ हनफ़ी रक़म तराज़ हैं:
” जाँ‌‌ निसार अख़्तर का मिज़ाज हमारे बहुत से शोअरा की तरह क्लासिकी रिवायत और नई रूमानियत के इम्तिज़ाज से तशकील पाता है। महबूबा, उस का जिस्म, उस की क़ुर्बत, उस की ख़ुश-लिबासी और बे-लिबासी उनके शेअरी मुहर्रिकात में ख़ास एहमीयत रखते हैं। मनाज़िर-ए-फ़ित्रत और शहरी ज़िंदगी की चहल पहल और रौनक, ज़ायक़ा, नफ़रत, रंगीनी, चाश्नी, लम्स उनकी शायरी को इस का पैरहन ही नहीं जिस्म भी अता करता है।“(4)
बहैसीयत मजमूई जाँ‌‌ निसार अख़्तर की आख़री दौर की ग़ज़लें एक नए आहंग का पता देती हैं। उनकी ये शायरी अच्छे उस्लूब और सच्चे ख़्यालात का इम्तिज़ाज है। उनमें समाजी शऊर जज़्बात की गहराई, फ़न्नी बुलंदी, नग़्मगी, सदाक़त-ओ-ख़ुलूस और लताफ़त व सादगी मौजूद है। लिहाज़ा तरक़्क़ी-पसंद शोअरा में जाँ‌‌ निसार अख़्तर की इन्फ़िरादियत से इन्कार नहीं किया जा सकता। बाक़ौल शमस-उर-रहमान फ़ारूक़ी:
”इस में शुबाह नहीं कि हमारे अह्द की शायरी में जाँ‌‌ निसार अख़्तर की ग़ज़ल अपनी मज़बूत इन्फ़िरादियत, शाइस्तगी, दरूँ बीनी और सिक्का बंद तसव्वुरात से बे-ख़ौफ़ हो कर शायराना इज़हार पुर इसरार की वजह से नुमायां है।“(5)
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हवाशी:

  1. पहचान और परख – आल-ए-अहमद सुरूर,स: 40
  2. ख़ेमा-ए-गुल अज़ मुहम्मद अली ताज – पेश लफ़्ज़ अज़ जाँ‌‌ निसार अख़्तर, स: 6
  3. मुआसिर अदब के पेश-रौ – डा. मुहम्मद हसन, स: 79
  4. फ़न और शख़्सियत – जाँ‌‌ निसार अख़्तर नंबर, स: 200-201
  5. फ़न और शख़्सियत – जाँ‌‌ निसार अख़्तर नंबर, स: 172

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Dr. Waseem Anwar
Assistant Professor
Department of Urdu & Persian
Dr. H. S. Gour University, Sagar M. P. 470003
[email protected], 09301316075