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सुखबीर दुहन की नई कविता- हालात-ए-किसान

हालात ए किसान

यह जो तेरे घर में अन्न आया है।
जरा सोचो किसने पसीना बहाया है।
चाह मिटायी , चिन्ता पाई , चैन की नींद ना आई,
तुझे दिया, खुद न खाया, बासी रोटी से भूख मिटाई।
भोर उठा , मुंह न धोया ,मिट्टी से सनी काया ,
फटे कपड़े टूटी चप्पल ,आदर भी ना पाया।
दीनहीन लगता रहता, हाथ में न कमाई,
खेत-खलिहानों में ही पूरी जिंदगी बिताई।
थका मांदा लगा रहता ,इसने ना चैन पाया,
कभी सूखा ,कभी बाढ़, ओलों ने बड़ा सताया।
जलती धूप , चमकती बिजली, ठंड इसे काम से न रोक पाई,
स्वयं ना बचे भले तूफानों से, मगर अपनी फसल बचाई ।
यह जो तेरे घर में अन्न आया है,
एक किसान ने पसीना बहाया है।

-डॉ. सुखबीर दुहन, हिसार




पूनम शर्मा की कविता – ‘चमकेगी हिंदी की बिंदी’

पूरब से पश्चिम तक

उत्तर से दक्षिण तक

सबको पिरोती एक डोर में

इसलिए सूत्रधार बनके चमकेगी हिंदी की बिंदी।

अलग-अलग जाति, धर्मों के लोग यहाँ

भिन्न-भिन्न प्रांतों के भिन्न त्योहार यहाँ

इतनी विविधता होने पर

एकता बनके चमकेगी हिंदी हिंदी की बिंदी।

जन-जन के भावों को दर्शाती

राष्ट्र को एक पहचान दिलाती

यह मधुर-मनमोहन, यही मनभाती

इसलिए मातृभाषा बनके चमकेगी हिंदी की बिंदी।

बचपन से बच्चे की बोली बन जाती

नैतिक मूल्य भी यही सिखाती

सबके ज्ञान में वृद्धि कर जाती

इसलिए शिक्षा बनके चमकेगी हिंदी की बिंदी।

प्रेमचंद, भारतेंदु, अज्ञेय, चौहान और त्रिपाठी

तत्सम, तद्भव, देशी, विदेशी सबको अपनाती

आदि से अब तक का इतिहास बताती

इसलिए साहित्य बनके चमकेगी हिंदी की बिंदी।

आओ मिलकर इसको फैलाएँ

विश्व में इसका नगाड़ा बजाएँ

इसे जन-जन की आवाज़ बनाएँ

तभी तो सूरज बनके चमकेगी हिंदी की बिंदी।




डा अशोक पण्ड्या के गीत

जिन्दगी एक गीत है

गीत जिस पर लिखे गए अनेकों गीत हैं
जी रहे हैं हम जिसे
वह जिन्दगी एक गीत है ।
गुनगुनाते अनेकों अधर
अपने प्रणय की गीति को
आलाप करते प्रफुल्ल मन
आप उपजी प्रीति को,
हंसते हुए बीतजाय यह जिंदगी
यों गीत गाती आरही यह बंदगी
गीत जिसपर लिखे गए
अनेकों गीत हैं
जी रहे हैं हम जिसे
वह जिन्दगी एकदम गीत है ।
पंछियों के कलरव को भी
कहते हम यह एक गीत है
कलकल बहते जल प्रवाह से
भी सुनते हम संगीत हैं ,
प्रकृति का नाम मानो
दूसरा यह गीत है।
जी रहे हैं हम जिसे
वह जिन्दगी एक गीत है।
गीत जिसपर लिखे गए
अनेकों गीत हैं,
जी रहे हैं हम जिसे
वह जिंदगी एक गीत है।
नहीं कह रहा मैं आपसे
आनन्द ही बस गीत है,
दुखियों की दर्द भरी आह में भी
मिल जाता हमें गीत है ।
आनन्द के उत्संग में ही
पलना नहीं गीत है,
कण्टकों के जाल में
रोना भी तो एक गीत है ।
गीत जिसपर लिखे गए
अनेकों गीत हैं,
जी रहे हैं हम जिसे
वह जिन्दगी एक गीत है ।
सुख की हो या दुःख की
कल्पना मात्र एक गीत है
चेतन की तरह जब में भी
विद्यमान यह गीत है ।
अनन्त आनन्द पा कर भी
गाया जाता यह गीत है,
लेकिन वेदना का श्रृंगार
भी तो यह गीत है ।
गीत जिसपर लिखे गए
अनेकों गीत हैं,
जी रहे हैं हम जिसे
वह जिन्दगी एक गीत है ।।
– डा अशोक पण्ड्या

“‘प्रियतम प्यारे” 

प्रियतम प्यारे करीब आओ
प्यार की पुकार है
रसवंती रंभा अमराई
फूलों की पैबंद है,
प्रियतम प्यारे करीब आओ
प्यार की पुकार है ।
श्वेत सुहागन बसंत सुंदरी
ओढ़े श्वेत परिधान
लाल लाल रक्तिम आभा
संग लिये रश्मि सखियन
नवपल्लव औऺ पुष्प कलियन
सुहागिन का सिंगार है,
प्रियतम प्यारे करीब आओ
प्यार की पुकार है ।
शिखिनृत्य,कोयल की कूक
चिड़ियों की चहचहाट है
कलि खिलती, पुष्प महकता
सर्वत्र आनन्दबहार है
पुष्पपल्लवी बनी नर्त्तकी
बसंत का संगीत है,
प्रियतम प्यारे करीब आओ
प्यार की पुकार है ।।

“सुख का सागर लहराऊं”

मैं करूं कल्पना ऐसी
सुख का सागर लहराऊं
विश्वोदय की ज्वाला में जलूं
जल कर भी मन में मुस्कराऊं
मैं करूं कल्पना ऐसी ।

अन्त ने हो इस जीवन का मेरे
मैं यह बाधा लेता हूं
सबकी भूख मिट कर रहे
सबसे मैं यह कहता हूं ,
मैं करूं कल्पना ऐसी
सुख का सागर लहराऊं ।
दुःख की ज्वालाएं जलाएं
जी भर मुझको,
तो जलाएं
लेकिन भाव न डूबेंं-छूटें
विश्वोदय की ज्योत जलाएं ।
मैं करूं कल्पना ऐसी
सुख का सागर लहराऊं ।।




मनीष खारी की नई कविता -मेरे बच्चों के लिए

जिस दिन तुम खुद को अकेला पाओ,

घबराओ ,डर जाओ और

उसका सामना ना कर पाओ।

उस दिन एक बार हिम्मत करके

अपने माता -पिता के पास जाना

हो सकता है तुम्हें थोड़ा -सा अजीब लगे

लेकिन उनके गले लग जाना।

तुम्हारा माथा सहलाएंगे,

सब समझ जाएंगे

जिस दिन असफल हो जाओ , 

फिर से खड़े ना हो पाओ

पूरी दुनिया को अपने खिलाफ पाओ,

उस दि न हिम्मत करके, स्कूल चले जाना

हो सकता है तुम्हें थोड़ा -सा अजीब लगे

लेकिन टीचर से मिलना ,दोस्तों को याद करना,

बचपन जहाँ बिताया उस नर्सरी विंग में जाना

ढूँढना अपने सबसे प्यार शिक्षक को,

 उसके सामने खड़े हो जाना

वो थपथपाएगा तुम्हारी पीठ ,तुम्हें देगा शाबाशी 

और सब ठीक हो जाएगा।

जिस दिन कुछ समझ ना पाओ ,हँसते -हँसते रोने लग जाओ

आँखों के सामने सिर्फ़ अँधेरा ही पाओ

उस दिन हिम्मत करके अपने भाई -बहन के पास जाना 

हो सकता है तुम्हें थोड़ा -सा अजीब लगे

लेकिन,उनके साथ बचपन याद करना ,

कैसे लड़ते थे ,खेलते थे ,गिरते थे , सब सुनना सुनाना

 तुम्हारे कंधे पर उनका हाथ होगा,

और देखना सब बदल जाएगा।

जिस दिन तुम हारना चाहो , किसी से मिलना ना चाहो

और हमेशा के लिए गुम हो जाना चाहो

उस दिन हिम्मत करके ,शीशे के सामने खड़े हो जाना

हो सकता है तुम्हें थोड़ा -सा अजीब लगे

लेकिन

खुद से आँखें मिलाना ,आँसू बहाना

दिल खोल कर बातें करना खुद से

चाहे तो झूठे दिलासे देना ,कोई भी हथकंडा अपनाना

लेकिन

खुद को एक बार ज़रूर मनाना।

दिल को मजबूत करना और फिर से बाहर आना

मेरे बच्चों हो सकता है तुम्हें अजीब लगे

लेकिन एक बार यह जरूर आज़माना

 

-मनीष खारी




द्वितीय भाषा के रूप में हिंदी सीखने वाले सिंहली मातृभाषी विद्यार्थियों के समक्ष प्रस्तुत समस्याएँ

वरिष्ठ प्राध्यापिका डा. वजिरा गुणसेन और सहाय प्राध्यापिका सरसि रणसिंह

श्री जयवर्धनपुर विश्वविद्यालय, श्री लंका

[email protected]

 

आजकल संसार भर में मुख्य रूप से 6500 भाषाएँ बोली जाती हैं। उनमें अनेक विविधताएँ दिखाई देती हैं फिर भी वे सब मिलकर इस पूरे संसार को सुंदर बना देती हैं।  कहते हैं कि संसार के 60-70 % लोगों में कम से कम दो भाषाएँ बोलने की क्षमता होती है।  इनमें से एक उनकी मातृ भाषा ; (L1) होती है और दूसरी उनकी द्वितीय भाषा (L2)। वास्तव में यह मातृ भाषा और द्वितीय भाषा क्या हैं ? मातृ भाषा को दो ढंग से परिभाषित किया जा सकता है। पहला संदर्भ उसे पालने या झूले की भाषा के रूप में स्वीकार करता है। अर्थात किसी व्यक्ति की मातृ भाषा वह है, जिसे व्यक्ति अपने बचपन में अनायास ही से सीखता है। जिस तरह अपनी माता की गोद में रहते रहते व्यक्ति चलना फिरना सीखता है उसी तरह वह अपने परिवार में आत्मीय जनों के बीच बोली जाने वाली भाषा को भी सहज ढंग से सीख लेता है। दूसरा संदर्भ उसे समाजीकरण की भाषा के रूप में परिभाषित करता है। मातृभाषा के माध्यम से पहले व्यक्ति अपने परिवार के साथ और फिर चारों ओर फैले हुए समाज से जुड़ जाता है। संक्षेप में कहे तो मातृ भाषा वही है जो बचपन में अनायास सीखी जाती है और समाज से जुड़ने का माध्यम भी। तो द्वितीय भाषा क्या है? द्वितीय भाषा वह भाषा है जो किसी भी व्यक्ति से अपनी मातृ भाषा के बाद प्रयत्न करके सीखी जाती है। यह द्वितीय भाषा अपने मातृ भूमि के अंदर ही प्रयोग की जानेवाली कोई अन्य भाषा हो सकती है या किसी विदेश की भाषा भी। उदाहरण स्वरूप श्री लंका के अधिकतर लोगों की मातृ भाषा सिंहली है, पर वे तमिल, अंग्रेज़ी, हिंदी, कोरियाई, चीनी, जापानी, रूसी और फ्राँसीसी भी द्वितीय भाषा के रूप में सीखते हैं।

हिंदी विश्व की एक प्रमुख भाषा है और भारत की राज भाषा भी। यदि हम ऐसा भी कहा जाय कि हिंदी पूर्वी देशों की अत्यंत सुंदर तथा मधुरतम भाषा है, तो उस कथन में कोई अतिशयोक्ति नहीं है। विश्व की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषाओं में से हिंदी ने (615 million speakers) तृतीय स्थान प्राप्त किया है। भारत की जनगणना 2011 में 57.1 प्रतिशत भारतीय आबादी हिंदी को जानती है जिसमें 43.63 प्रतिशत भारतीय लोगों ने हिंदी को अपनी मूल भाषा या मातृ भाषा घोषित कर दी है। हिंदी और उसकी बोलियाँ संपूर्ण भारत के विविध राज्यों में बोली जाती हैं। भारत में ही नहीं अन्य देशों में भी लोग हिंदी बोलते हैं, पढ़ते हैं और लिखते हैं जैसे अमेरिका, मारिशस, नेपाल, जर्मनी, श्री लंका, पाकिस्तान, न्यूज़ीलैंड, इंग्लैंड, चीन, अरब आदि। हिंदी भाषा का उद्भव आज से हज़ारों वर्ष पूर्व भारत में हुआ था। हिंदी भारत-यूरोपीय परिवार के अंतर्गत आती है। यह भारत ईरानी शाखा की भारतीय आर्यभाषा उपशाखा की आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के अंतर्गत वर्गीकृत है। भारतीय आर्यभाषाएँ वे हैं जो संस्कृत से उत्पन्न हुई हैं। इसलिए हिंदी में संस्कृत तत्सम और तद्भव शब्दों का प्रयोग अधिक है। इतना ही नहीं हिंदी शब्दकोश में अरबी फ़ारसी शब्द भी हैं। इस प्रकार देखें तो हिंदी कोई एक भाषा नहीं है। वास्तव में मुख्य रूप से पाँच उपभाषाओं – पश्चिमी हिंदी, राजस्थानी हिंदी, बिहारी हिंदी, पूर्वी हिंदी, पहाड़ी हिंदी तथा उनकी अठारह बोलियों और उनकी भी उपबोलियों से निर्मित हिंदी भाषा को द्वितीय भाषा के रूप में सीखना किसी को कोई आसान काम नहीं होता। सिंहली और हिंदी संस्कृत से उत्पन्न होते हुए भी इन दोनों भाषाओं में कई अंतर दिखाई देते हैं। इसलिए ही द्वितीय भाषा के रूप में हिंदी पढ़ते समय सिंहली मातृ भाषी को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

हिंदी सिनेमा कई शताब्दियों से श्री लंकावासियों को अपनी ओर आकर्षित करती आ रही है। आज भी श्री लंका के अधिकतर लोग हिंदी गीतों और सिनेमा से बहुत प्यार करते हैं। इतना ही नहीं कुरुणैगल, कोलंबो, कैन्डी, गोल आदि प्रदेशों के सरकारी स्कूलों और श्री जयवर्धनपुर, केलणिय, सबरगमुव आदि विश्वविद्यालयों और अनेक संस्थानों के द्वारा हिंदी भाषा सिखायी जाती है। क्योंकि उतने ही छात्र-छात्राएँ हिंदी सीखना पसंद करते हैं। पर ये सब सिंहली मातृभाषी छात्र छात्राएँ हैं। जब ये छात्र हिंदी सीखने लगते हैं तो उनके समक्ष अनेक कठिनाइयाँ प्रस्तुत होती हैं।

इन सभी समस्याओं को हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं –

  1. भाषण संबंधी समस्याएँ

      1.1   ए और ऐ का उच्चारण

सिंहली वर्णमाला में e ,ȇ, ai, ये तीनों स्वर हैं पर हिंदी में e स्वर नहीं है। केवल ए  और ऐ (ai) हैं। पर सिंहली मातृभाषी ए का उच्चारण e के रूप में करते हैं और ऐ का उच्चारण ए के रूप में करते हैं। और अधिकतर छात्र ऐ का उच्चारण अइ के रूप में करते हैं। पर वह गलत है। ऐ का उच्चारण ai के रूप में होना चाहिए।

उदाहरण – 

                             अशुद्ध                     शुद्ध

ऐसा                       अइसा                     ऐसा (aisa)

पैसा                       पइसा                     पैसा (paisa)

ऐनक                     अइनक                   ऐनक (ainak)

 

1.2    अ का उच्चारण

सिंहली भाषा में अ वर्ण का उच्चारण विवृत मुख से किया जाता है। परंतु हिंदी में अ वर्ण का उच्चारण अर्ध विवृत रूप से किया जाता है। बचपन से ही सिंहली मातृभाषी छात्र अ का उच्चारण पूरी तरह विवृत रूप से करने के आदी हो गये हैं। इसलिए हिंदी के कमल, घर, कल, नहीं, पर, फल आदि शब्दों के क्रमशः क, घ, क, न, प, फ आदि का उच्चारण विवृत रूप से करते हैं। उससे हिंदी भाषा की सुंदरता नष्ट हो जाती है।

1.3    ऋ का उच्चारण

सिंहली और हिंदी दोनों भाषाओं में संस्कृत तत्सम शब्द पाये जाते हैं। लेकिन दोनों भाषाओं में उनका उच्चारण भिन्न स्वरूप लेता है। सिंहली में ऋ का उच्चारण अधिकतर  रु , अर या रि के रूप में होता है। पर हिंदी में ऋ का उच्चारण हर वक्त रि का रूप लेता है। यदि सिहंली तत्सम शब्दों के समान हिंदी के ऋ अक्षर सहित संस्कृत तत्सम शब्दों का उच्चारण करें तो वह दोष सहित उच्चारण बन जाता है।

उदा –

                                      अशुद्ध                     शुद्ध

वृक्ष                                 Wruksha             Wriksh

हृदय                              Hardaya               Hriday       

ऋतु                                 Irthu                     Rithu

 

1.4    अल्पप्राण और महप्राण अक्षरों का उच्चारण

 

सिंहली और हिंदी दोनों भाषाओं में अल्पप्राण और महप्राण अक्षर होते हैं। लिखते समय सिंहली लोग भी अल्पप्राण और महप्राण अक्षरों पर ध्यान देते हैं। पर हिंदी लोगों के समान सिंहली मातृभाषी लोगों द्वारा महप्राण अक्षरों का उच्चारण नहीं किया जाता। जिस तरह सिंहली बोलते समय महाप्राण अक्षरों का उच्चारण भी अल्पप्राण अक्षरों के समान किया जाता है उसी तरह सिंहली मातृभाषी लोगों द्वारा हिंदी के महाप्राण अक्षरों का भी उच्चारण नहीं किया जाता। तब अर्थ की दृष्टि से उनमें पर्याप्त अंतर दिखाई देने लगते हैं, इसी कारण लिखते वक्त भी गलतियाँ होती हैं और इससे हिंदी भाषा की सुंदरता भी मिट जाती है।

         

उदाहरण –

 

हिंदी शब्द                         अशुद्ध                               शुद्ध

 

साथ    (with)                    सात    (Seven)               साथ

धर्म     (Religion)            दर्म     (No meaning)      धर्म

फल    (Fruit)                   पल     (Moment)             फल

खान   (Food)                 कान    (Ear)                     खान

भात    (Rice)                   बात    (Matter)                भात

 

1.5    ड़, ढ़ और ण अक्षरों का उच्चारण

 

सिंहली वर्णमाला में ड़, ढ़ अक्षर नहीं है। इसलिए सिंहली मातृभाषी छात्र जब ड़ और ढ़ का उच्चारण करने लगें तो उनका सही उच्चारण करने में असफ़ल हो जाते हैं। पर ण अक्षर हिंदी और सिंहली दोनों वर्णमालाओं में है। लेकिन समस्या यह है कि लिखते समय तो सिंहली लोग ण अक्षर लिखते हैं, पर उच्चारण करते समय वे उसका उच्चारण मामूली न के समान ही करते हैं । इसलिए हिंदी में भी उनसे त्रुटिपूर्ण उच्चारण ऐसे ही निकल आते हैं।

उदा –

अशुद्ध                              शुद्ध

दर्पन                                दर्पण

ऋन                                 ऋण

उदाहरन                           उदाहरण

 

1.6    है और हैं का उच्चारण

 

अधिकतर सिंहली छात्र, है और हैं का उच्चारण सही रूप में करने में असमर्थ हो जाते हैं। उसका मूलभूत कारण ये शब्द सिंहली में नहीं है। है में ऐ स्वर  अंतर्गत होता है और हैं में ऐं वर्ण अंतर्गत होता है। इसलिए ध्यान से है का उच्चारण ऐ के रूप में और हैं का उच्चारण ऐं के रूप में करना चाहिए।

 

1.7. क्षेत्रीय शैलियों के रूप में उच्चारण-भेद

हिंदी भाषा का स्वभाव ही ऐसा है कि एक ही शब्द के उच्चारण में एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र तक जाते समय थोड़ा बहुत उच्चारण परिवर्तन दिखाई देते हैं। तो द्वितीय भाषा के रूप में हिंदी सीखते समय हमें इसका ज्ञान होना चाहिए कि कौन सा उच्चारण सही है तथा कौन सा उच्चारण मानक हिंदी के अंतर्गत आता है। क्योंकि हम द्वितीय भाषा के रूप में मानक हिंदी का ही अध्ययन करते हैं । उदाहरण स्वरूप कुछ क्षेत्र में ए घ्वनि का उच्चारण मूल स्वर के रूप में करते हैं -जैसे पैसा, औसत -, उन्हीं ध्वनियों को दूसरे क्षेत्र में संध्यक्षर के रूप में करते हैं – जैसे पइसा, अउसत।

एक जगह पर संख्यावाचक शब्दों में इ का प्रयोग करते हैं, जैसे इक्कीस, इकसठ । दूसरी जगह पर इ की जगह ए का प्रयोग करते हैं, जैसे एक्कीस, एकसठ।

छत्तीसगढ के लोग घास, चावल, हाथ, हाथी आदि शब्दों को अनुनासिकता के साथ बोलते हैं। जैसे घांस, चांवल, हांथ, हांथी ।

अवधी भाषी क्ष की जगह छ बोलते हैं। जैसे क्षण के लिए छन ।

मारवाड़ी के लोग न की जगह ण बोलते हैं। जैसे मन के लिए मण, ननद के लिए नणद आदि।

और कुछ क्षेत्रों में ज़ की जगह ज बोलते हैं, जैसे मेज़ के जिए मेज, ताज़ा के लिए ताजा आदि।

इस प्रकार हिंदी भाषा को द्वितीय भाषा के रूप में सीखते समय मानक हिंदी और क्षेत्रीय हिंदी भाषा-भेदों के साथ सिंहली छात्रों को कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

 

1.7    ज़, स और श, ष का उच्चारण

सिंहली भाषा में ज़ वर्ण नहीं है, इसलिए अधिकतर सिंहली मातृभाषी छात्र ज़ का उच्चारण स के रूप में करते हैं। वह एक बडा दोष है।

शुद्ध                       अशुद्ध

ज़मीन                     समीन

ज़रा                        सरा

मेज़                         मेस

 

और श और ष का उच्चारण में भी सिंहली लोग कोई अंतर नहीं दिखाते हैं। दोनों ही अक्षर श के रूप में उच्चारण करते हैं। पर हिंदी लोग दोनों का उच्चारण, उच्चारण स्थान के अनुसार सही ढंग से करते हैं । वास्तव में सिंहली लोग उच्चारण का इतना ध्यान नहीं देता। उदाहरण स्वरूप सिंहली मातृभाषी छात्र शाला के लिए भी श का प्रयोग करते हैं और वर्षा के लिए भी -वर्शा- श का प्रयोग करते हैं। परंतु हिंदी में ताल्वय श का उच्चारण तालु से और मूर्धन्य ष का उच्चारण मूर्धा से करना चाहिए। तब लेखन के लिए भी वह आसान होता है।

1.9 शब्दों के मात्रा रहित अंतिम अक्षर का दोष सहित उच्चारण

सामान्यतः हिंदी भाषा में शब्दों के मात्रा रहित अंतिम अक्षर का उच्चारण हल स्वरूप लेता है। पर सिंहली भाषा में शब्दों के मात्रा रहित अंतिम अक्षर का उच्चारण ऐसे हल स्वरूप नहीं लेता। इसलिए कुछ सिंहली छात्र हिंदी शब्दों के मात्रा रहित अंतिम अक्षरों का उच्चारण भी हल न करके पूर्ण रूप से ही करते हैं। वह सिंहली छात्रों की बहुत बडी समस्या है।

                                           अशुद्ध  उच्चारण                  शुद्ध उच्चारण

उदाहरण                              Udaharana                    Udaharan                    

दोष                                      Dosha                              Dosh

उच्चारण                               Uchcharana                  Uchcharan

 

02 लेखन संबंधी समस्याएँ

2.1 हिंदी भाषा की भूतकाल संबंधी समस्याएँ

हिंदी और सिंहली के भूतकाल वाक्यों में पर्याप्त अंतर दिखाई देते हैं। इसलिए सिंहली छात्रों के समक्ष प्रस्तुत एक मूतभूत समस्या है कि हिंदी के सामान्य भूतकाल वाक्यों का निर्माण। एक तो सकर्मक और अकर्मक भेद। दूसरा, ने विभक्ति का प्रयोग। क्योंकि सिंहली सामान्य भूतकाल में सकर्मक और अकर्मक जैसा कोई भेद नहीं होता और ने जैसी कोई विभक्ति का भी प्रयोग नहीं करता। सिंहली में सामान्य वर्तमान के समान ही भूतकाल वाक्यों का निर्माण होता है। पर हिंदी में भूतकाल के वाक्य लिखने के लिए सिंहली छात्रों को इसका ज्ञान तो अवश्य होना चाहिए कि सामान्य भूतकाल की क्रिया सकर्मक है या अकर्मक? सिंहली में ऐसा भेद न होने के कारण छात्रों के द्वारा हिंदी भूतकाल वाक्य लिखते समय अनेक त्रृटिपूर्ण प्रयोग किये जाते हैं।

अशुद्ध                                                      शुद्ध

 

मैं दो आम खाया।                                      मैंने दो आम खाये।

मैं माताजी के लिए एक साड़ी खरीदा।        मैंने माताजी के लिए एक साड़ी खरदी।

बच्चे ने मैदान में खेले।                                बच्चे मैदान में खेले।

उसने बोला                                                वह बोला

 

2.2. सकना के साथ को विभक्ति का प्रयोग

यह भी सिंहली बच्चों से किया जाने वाला एक बड़ा दोष है। क्योंकि सिंहली में सकना के साथ को विभक्ति का प्रयोग करते हैं। इसलिए सिंहली छात्रों से यह गलती यों ही हो जाती है।

              अशुद्ध                                                  शुद्ध

मुझे हिंदी बोल सकती है।                         मैं हिंदी बोल सकती हूँ।

हमको नाच सकती है।                              हम नाच सकती हैं।

उसे अकेले जा सकता है।                         वह अकेले जा सकता है।

 

2.3. चाहिए का प्रयोग – को विभक्ति के बिना चाहिए का प्रयोग

सिंहली में चाहिए के साथ को विभक्ति का प्रयोग नहीं किया करते। इसलिए को विभक्ति के बिना हिंदी में भी चाहिए का प्रयोग करना भी सिंहली छात्रों का एक मुख्य दोष है।

 

          शुद्ध                                                    शुद्ध

मैं घर जाना चाहिए।                              मुझे घर जाना चाहिए।

हम खेलना चाहिए।                               हमें खेलना चाहिए।

तुम मन लगाकर पढ़ना चाहिए।             तुम्हें मन लगाकर पढ़ना चाहिए।

मैं एक किताब खरीदना चाहिए।            मुझे एक किताब खरीदनी चाहिए।

 

2.3. को विभक्ति के साथ चाहता का प्रयोग

सिंहली में चाहता के साथ को विभक्ति का प्रयोग करते हैं। इसलिए हिंदी में भी सिंहली छात्र चाहता के लिए कर्तृ के साथ को विभक्ति लगा देते हैं। पर वह बहुत बड़ा दोष है। क्योंकि चाहता के साथ को विभक्ति का प्रयोग नहीं किया जाता।

            अशुद्ध                                                    शुद्ध

मुझे घर जाना चाहता है।                         मैं घर जाना चाहता हूँ।

हमें संगीत पढ़ना चाहते हैं।                      हम संगीत पढ़ना चाहते हैं।

 

2.4. लिंग भेद का प्रयोग

हिंदी का लिंग भेद भी सिंहली छात्रों के समक्ष प्रस्तुत एक बड़ी समस्या है। क्योंकि सिंहली में स्त्री लिंग, पुल्लिंग और नपुंसक लिंग ये तीनों ही हैं। पर हिंदी में नपुंसक लिंग नहीं है। इसलिए अप्राण वस्तुओं का लिंग निर्णय करना, सिंहली मातृभाषी छात्रों के समक्ष एक बड़ी समस्या बन गयी है।

            शब्द                                हिंदी                      सिंहली

          किताब                             स्त्री लिंग                 नपुंसक लिंग

          पेड़                                  पुल्लिंग                   नपुंसक लिंग

          ज़मीन                              स्त्री लिंग                 नपुंसक लिंग

          आसमान                          पुल्लिंग                   नपुंसक लिंग

 

2.5. विभक्तियों का प्रयोग

सिंहली मातृभाषी छात्र सिंहली व्याकारण के नियमों के अनुसार वाक्य लिखने में आदी हो गये हैं। इसलिए वाक्य के अर्थ के अनुसार ऐसे ही विभक्तियों का भी प्रयोग करते हैं। पर हिंदी में ऐसे कुछ स्थान है, जहाँ लगता है कि अर्थ की दृष्टि से को या के साथ आना चाहिए पर वहाँ से का प्रयोग किया जाता है। तो हमें उनका ध्यान रखना चाहिए।

                                   अशुद्ध                              शुद्ध

कहना                    उसको कहो।                      उससे कहो।   

मिलना                   मुझे मिलने आया था।          मुझसे मिलने आया था।                 

दोस्ती करना           राहुल के साथ दोस्ती करो।   राहुल से दोस्ती करो।

प्यार करना             मैंने उसे प्यार किया।           मैंने उससे प्यार किया।

नफ़्रत करना           मुझे नफ़रत मत करो।          मुझसे नफ़रत मत करो।

शादी करना            मेरे साथ शादी करो।           मुझसे शादी करो।

लड़ना                     उसके साथ मत लड़ो।          उससे मत लड़ो।

नाराज़ होना            मेरे साथ नाराज़ है क्या?       मुझसे नाराज़ है क्या?

रक्षा करना              माँ को रक्षा करो।                 माँ की रक्षा करो।

मदद करना            उसे मदद करो।                 उसकी मदद करो।

 

ऽ        विभक्ति आने के बाद संज्ञा शब्दों का परिवर्तन

यह भी सिंहली मातृभाषी छात्रों के सामने एक बड़ी समस्या है। हिंदी में अधिकतर संज्ञा शब्द के बाद विभक्ति आने से संज्ञा शब्द का रूप बदल जाता है। इसीलिए लेखन में छात्रों को उसका सही ज्ञान होना चाहिए।

              अशुद्ध                                                  शुद्ध

लड़का ने भात खाया।                               लड़के ने भात खाया।

हमारा स्कूल में बहुत छात्र हैं।                    हमारे स्कूल में बहुत छात्र हैं।

राधा का बेटे को ये किताबें दे दो।              राधा के बेटों को ये किताबें दे दो।

ये किताब में बहुत कहानी हैं।                    इन किताबों में बहुत कहानियाँ हैं।

 

2.6 संस्कृत तत्सम शब्दों का प्रयोग

सिंहली और हिंदी दोनों भाषाओं में संस्कृत तत्सम और तद्भव शब्दों का प्रयोग होता है। पर कभी कभी उनका अर्थ भिन्न रूपों में प्रयुक्त होता हैं। अगर छात्र को उनका सही ज्ञान न हो तो दोष सहित पदों का प्रयोग वाक्यों में दिखाई देता है।

संस्कृत तत्सम शब्द              हिंदी अर्थ                          सिंहली अर्थ

कवि                                      Poet                               Poem

अवस्था                                 Age                               Occation, Chance                 

आशा                                    Hope                             Desire

 

         अशुद्ध  प्रयोग                                         शुद्ध प्रयोग

मुझे एक अवस्था दे दो।                             मुझे एक अवसर दे दो।                                     

उसके द्वारा एक कवि लिखी गयी।             उसके द्वारा एक कविता लिखी गयी।

 

 2.7 अनुवाद संबंधी समस्याएँ

अनुवाद सबंधी मुख्य समस्या तो यह है कि मुहावरों और लोकोक्तियों का सही ज्ञान न होना। सिंहली भाषा से ज़्यादा हिंदी में हज़ारों संख्या से मुहावरे और लोकोक्तियाँ होते हैं। इसलिए अनुवाद कार्य करते समय ठीक से उनपर ध्यान देना पड़ता है। उदाहरण स्वरूप मानो उन्हें आँखें मिल गयी। इसका मतलब उन्हें आँखें मिलना नहीं है। यह एक मुहावरा है। आँखे मिलने का मतलब एक दूसरे को देखना है। और एक उदाहरण लेंगे तो सतसई के दोहों में बिहारी ने गागर में सागर भर दिया है।। गागर में सागर भरना एक मुहावरा है। उसका मतलब एक गागर में सागर का पानी भरना नही है। थोड़े शब्दों में अधिक भाव प्रकट करना है। इस प्रकार मुहावरों और लोकोक्तियों का सही ज्ञान सिंहली छात्रों को होना चाहिए। नहीं तो त्रुटिपूर्ण अनुवाद हो सकता है।

ऐसी ऐसी और भी कठिनाइयाँ हैं जिनका सामना सिंहली मातृभाषी छात्रों को करना पड़ता है। इन सभी तथ्यों पर ध्यान देते समय हम यह कह सकते हैं कि संस्कृत नामी माँ की दो बेटियाँ होने के कारण हिंदी और सिंहली में कुछ समानताएँ है और पढ़ने की सुगमता है। पर अलग अलग भाषा होने के कारण बहुत कुछ असमानताएँ भी दिखाई देती हैं। इसलिए हमको इन सभी तथ्यों को ध्यान में रखकर द्वितीय भाषा के रूप में हिंदी सीखनी पड़ेगी। इसके लिए सिंहली मातृभाषी हिंदी अध्यापकों को भी वर्ण विचार, शब्द विचार, पद विचार और वाक्य विचार इन चारों को लेकर हिंदी का सही रूप पढ़ाना होगा। इतना ही नहीं हिंदी गीतों, फ़िल्मों और छोटी छोटी कहानियों को लेकर आनंद के साथ शिक्षण का कार्य करना होगा । सिंहली छात्रों को अधिकतर हिंदी शब्दकोशों का प्रयोग करते हुए, जितना हो सकें उतना हिंदी की किताबं पढ़ते हुए सतत अभ्यास करना होगा। तभी इन कठिनाइयों से आप उद्घार पा सकेंगे। तभी आप मानक हिंदी की और हिंदी भाषा की मधुरता की रक्षा कर सकेंगे।

संदर्भ सूची : – 

  1. दीक्षित डॉ.मीरा, 2008, हिंदी भाषा, समीक्षा प्रकाशन, इलाहबाद।
  2. शरण, श्री 2015, मानक हिंदी व्याकरण तथा संरचना, संशाइन बुक, नयी दिल्ली।
  3. जीत, योगेन्द्र, 1993, हिंदी भाषा शिक्षण,विनोद पुस्तक मंदिर,आगरा।
  4. तिवारी, भोलानाथ, 2017, हिंदी भाषा, किताब महल, इलाहबाद।
  5. तिवारी, भोलानाथ, 1951, हिंदी किताब महल, इलाहबाद।
  6. पाठक, रघुवंशमणि, 2016, भाषा विज्ञान एवं हिंदी भाषा तथा लिपि, संवेदना प्रकाशन, लखनऊ।
  7. वर्मा, रामचंद्र, अच्छी हिंदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहबाद।
  8. सहाय, चतुरभुज, 1985, हिंदी के मूल वाक्य, केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा।



नारी की महिमा और वेदों में नारी का स्थान

जब से सृष्टि की रचना हुई है, तब से ही शायद हम नारी को सशक्त करने की बात सोच रहे हैं।वह शायद इसलिए क्योंकि प्रकृति ने नारी को कोमल, ममतामयी,करुणामयी,सहनशील,आदि गुणों से भरपूर बनाया है।तब से लेकर आज तक हम नारी को हर रूप में सशक्त करने के बात सोच रहे हैं।और आज तक नारी कितनी सशक्त हुई है,कितनी सबल हो चुकी है,यह हम सब जानते हैं।यह सब बातें प्रमाणिक है और इन सब का हमारे जीवन पर अत्यधिक प्रभाव भी पड़ता है,पड़ता जा रहा है।

परंतु इन सबसे हटकर मैं आज नारी सशक्तिकरण के दूसरे पहलू पर आपका ध्यानाकर्षित करना चाहती हूं। नारी तो प्रारंभ से ही सशक्त है। इसका प्रमाण तो पग – पग पर मिलता है।ये क्या प्रमाण हैं, इन सबको बताने से पहले मै यहां यह स्पष्ट करना चाहती हूं कि नारी को यह महसूस क्यों हुआ कि उसे सशक्त होना है, होना पड़ेगा, और होना ही चाहिए। वो इसलिए कि हमारे समाज में कई लोग उसकी क्षमता को पहचान नहीं पाए,जान नहीं पाए, और जान पाए तो, मान नहीं पाए, या मानना ही नहीं चाहते है कि नारी हर क्षेत्र में, हर काम में, बेहतर हो सकती है। इसलिए अपने आप को प्रमाणित करने के लिए,अपने अस्तित्व के अनेकों रुपों को दिखाने के लिए ही उसे सशक्त बनाने की आवश्यकता पड़ी पर सच तो ये है कि सशक्त तो वह है ही।

अब हम सशक्तिकरण की बात करते हैं, तो सबसे पहले हम सब अपने अस्तित्व, अपने वजूद की बात करें तो हमें बनाने वाली कौन है?एक नारी। सृजन शक्ति ईश्वर ने पृथ्वी,और नारी को ही प्रदान की है (हलाकि उसमें बीच तत्व की महिमा को,उसकी आवश्यकता को नकारा नहीं जा सकता )इसके परिप्रेक्ष में स्वरचित कविता की दो पंक्तियां कहना चाहूंगी कि—

“मां है तो श्री है,आधार है,

क्योंकि प्रकृति, धरती एक माँ का ही तो प्रकार है।

माँ वो है जो खुद मिट कर, औरों को बनाती है, क्योंकि पत्थर पर पिस कर ही, हिना रंग लाती है।

मां और माटी का सदियों पुराना नाता है,

चाह कर भी भला, इन दोनों की हस्ती को कौन मिटा पाता है,

एक जननी है,तो दूसरी मातृभूमि भारत माता है”।

हमारे वजूद को जिसने बनाया, निर्मित किया वो एक नारी है और हमारी धरती मां,एक नारी का ही रूप है जिसकी बदौलत हम अपने इस वजूद को सुरक्षित रख पा रहे हैं।और हम सब भारत मां की संतान हैं।यह हमारी खुशनसीबी है।यहाँ भी माता की आवश्यकता एवं महत्ता दर्शनीय है।

नारी हर रूप में एक शक्ति है।वह पुरुष को जन्म देती है, उसका पालन करती है (एक मां के रूप में) आजीवन उसका साथ देती है(एक पत्नी के रुपमें) जिम्मेदार बनाती है, सोचने का नजरिया बदलती है,(एक बेटी के रूप में) और जीवन को आलंबन देती है (पुत्र वधू के रूप में)।

यानि जीवन के हर पड़ाव में,हर रिश्ते में वह सशक्त है। यहां सशक्तिकरण भावनात्मक स्तर का है क्योंकि सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय सशक्तिकरण की बातें तो सभी कर रहे हैं, और इन सबके बारे में सभी जानते भी हैं। परंतु हम कवि लोग भावनात्मक स्तर पर रहते हैं,और हर बात का संबंध ईश्वर से, आस्तिकता से करते हैं,क्योंकि

“जहां न पहुंचे, रवि वहां पहुंचे कवि”।

वेदों में नारी।

।। नारी का सम्मान।।

वेद नारी को अत्यंत महत्वपूर्ण, गरिमामय, उच्च स्थान प्रदान करते हैं। वेदों में स्त्रियों की शिक्षा- दीक्षा, शील, गुण, कर्तव्य, अधिकार और सामाजिक भूमिका का जो सुन्दर वर्णन पाया जाता है, वैसा संसार के अन्य किसी धर्मग्रंथ में नहीं है। वेद उन्हें घर की सम्राज्ञी कहते हैं और देश की शासक, पृथ्वी की सम्राज्ञी तक बनने का अधिकार देते हैं।

वेदों में स्त्री यज्ञीय है अर्थात् यज्ञ समान पूजनीय। वेदों में नारी को ज्ञान देने वाली, सुख – समृद्धि लाने वाली, विशेष तेज वाली, देवी, विदुषी, सरस्वती, इन्द्राणी, उषा- जो सबको जगाती है इत्यादि अनेक आदर सूचक नाम दिए गए हैं।

वेदों में स्त्रियों पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं है – उसे सदा विजयिनी कहा गया है और उन के हर काम में सहयोग और प्रोत्साहन की बात कही गई है। वैदिक काल में नारी अध्यन- अध्यापन से लेकर रणक्षेत्र में भी जाती थी। जैसे कैकयी महाराज दशरथ के साथ युद्ध में गई थी। कन्या को अपना पति स्वयं चुनने का अधिकार देकर वेद पुरुष से एक कदम आगे ही रखते हैं।

अनेक ऋषिकाएं वेद मंत्रों की द्रष्टा हैं – अपाला, घोषा, सरस्वती, सर्पराज्ञी, सूर्या, सावित्री, अदिति- दाक्षायनी, लोपामुद्रा, विश्ववारा, आत्रेयी आदि।

तथापि, जिन्होनें वेदों के दर्शन भी नहीं किए, ऐसे कुछ रीढ़ की हड्डी विहीन बुद्धिवादियों ने इस देश की सभ्यता, संस्कृति को नष्ट – भ्रष्ट करने का जो अभियान चला रखा है – उसके तहत वेदों में नारी की अवमानना का ढ़ोल पीटते रहते हैं।

आइए, वेदों में नारी के स्वरुप की झलक इन मंत्रों में देखें –

अथर्ववेद ११.५.१८

ब्रह्मचर्य सूक्त के इस मंत्र में कन्याओं के लिए भी ब्रह्मचर्य और विद्या ग्रहण करने के बाद ही विवाह करने के लिए कहा गया है। यह सूक्त लड़कों के समान ही कन्याओं की शिक्षा को भी विशेष महत्त्व देता है।

कन्याएं ब्रह्मचर्य के सेवन से पूर्ण विदुषी और युवती होकर ही विवाह करें।

अथर्ववेद १४.१.६

माता- पिता अपनी कन्या को पति के घर जाते समय बुद्धीमत्ता और विद्याबल का उपहार दें। वे उसे ज्ञान का दहेज़ दें।

जब कन्याएं बाहरी उपकरणों को छोड़ कर, भीतरी विद्या बल से चैतन्य स्वभाव और पदार्थों को दिव्य दृष्टि से देखने वाली और आकाश और भूमि से सुवर्ण आदि प्राप्त करने – कराने वाली हो तब सुयोग्य पति से विवाह करे।

अथर्ववेद १४.१.२०

हे पत्नी! हमें ज्ञान का उपदेश कर।

वधू अपनी विद्वत्ता और शुभ गुणों से पति के घर में सब को प्रसन्न कर दे।

अथर्ववेद ७.४६.३

पति को संपत्ति कमाने के तरीके बता।

संतानों को पालने वाली, निश्चित ज्ञान वाली, सह्त्रों स्तुति वाली और चारों ओर प्रभाव डालने वाली स्त्री, तुम ऐश्वर्य पाती हो। हे सुयोग्य पति की पत्नी, अपने पति को संपत्ति के लिए आगे बढ़ाओ।

अथर्ववेद ७.४७.१

हे स्त्री! तुम सभी कर्मों को जानती हो।

हे स्त्री! तुम हमें ऐश्वर्य और समृद्धि दो।

अथर्ववेद ७.४७.२

तुम सब कुछ जानने वाली हमें धन – धान्य से समर्थ कर दो।

हे स्त्री! तुम हमारे धन और समृद्धि को बढ़ाओ।

अथर्ववेद ७.४८.२

तुम हमें बुद्धि से धन दो।

विदुषी, सम्माननीय, विचारशील, प्रसन्नचित्त पत्नी संपत्ति की रक्षा और वृद्धि करती है और घर में सुख़ लाती है।

अथर्ववेद १४.१.६४

हे स्त्री! तुम हमारे घर की प्रत्येक दिशा में ब्रह्म अर्थात् वैदिक ज्ञान का प्रयोग करो।

हे वधू! विद्वानों के घर में पहुंच कर कल्याणकारिणी और सुखदायिनी होकर तुम विराजमान हो।

अथर्ववेद २.३६.५

हे वधू! तुम ऐश्वर्य की नौका पर चढ़ो और अपने पति को जो कि तुमने स्वयं पसंद किया है, संसार – सागर के पार पहुंचा दो।

हे वधू! ऐश्वर्य कि अटूट नाव पर चढ़ और अपने पति को सफ़लता के तट पर ले चल।

अथर्ववेद १.१४.३

हे वर! यह वधू तुम्हारे कुल की रक्षा करने वाली है।

हे वर! यह कन्या तुम्हारे कुल की रक्षा करने वाली है। यह बहुत काल तक तुम्हारे घर में निवास करे और बुद्धिमत्ता के बीज बोये।

अथर्ववेद २.३६.३

यह वधू पति के घर जा कर रानी बने और वहां प्रकाशित हो।

अथर्ववेद ११.१.१७

ये स्त्रियां शुद्ध, पवित्र और यज्ञीय ( यज्ञ समान पूजनीय ) हैं, ये प्रजा, पशु और अन्न देतीं हैं।

यह स्त्रियां शुद्ध स्वभाव वाली, पवित्र आचरण वाली, पूजनीय, सेवा योग्य, शुभ चरित्र वाली और विद्वत्तापूर्ण हैं। यह समाज को प्रजा, पशु और सुख़ पहुँचाती हैं।

अथर्ववेद १२.१.२५

हे मातृभूमि! कन्याओं में जो तेज होता है, वह हमें दो।

स्त्रियों में जो सेवनीय ऐश्वर्य और कांति है, हे भूमि! उस के साथ हमें भी मिला।

अथर्ववेद १२.२.३१

स्त्रियां कभी दुख से रोयें नहीं, इन्हें निरोग रखा जाए और रत्न, आभूषण इत्यादि पहनने को दिए जाएं।

अथर्ववेद १४.१.२०

हे वधू! तुम पति के घर में जा कर गृहपत्नी और सब को वश में रखने वाली बनों।

अथर्ववेद १४.१.५०

हे पत्नी! अपने सौभाग्य के लिए मैं तेरा हाथ पकड़ता हूं।

अथर्ववेद १४.२ .२६

हे वधू! तुम कल्याण करने वाली हो और घरों को उद्देश्य तक पहुंचाने वाली हो।

अथर्ववेद १४.२.७१

हे पत्नी! मैं ज्ञानवान हूं तू भी ज्ञानवती है, मैं सामवेद हूं तो तू ऋग्वेद है।

अथर्ववेद १४.२.७४

यह वधू विराट अर्थात् चमकने वाली है, इस ने सब को जीत लिया है।

यह वधू बड़े ऐश्वर्य वाली और पुरुषार्थिनी हो।

अथर्ववेद ७.३८.४ और १२.३.५२

सभा और समिति में जा कर स्त्रियां भाग लें और अपने विचार प्रकट करें।

ऋग्वेद १०.८५.७

माता- पिता अपनी कन्या को पति के घर जाते समय बुद्धिमत्ता और विद्याबल उपहार में दें। माता- पिता को चाहिए कि वे अपनी कन्या को दहेज़ भी दें तो वह ज्ञान का दहेज़ हो।

ऋग्वेद ३.३१.१

पुत्रों की ही भांति पुत्री भी अपने पिता की संपत्ति में समान रूप से उत्तराधिकारी है।

ऋग्वेद  १० .१ .५९

एक गृहपत्नी प्रात : काल उठते ही अपने उद् गार कहती है –

”यह सूर्य उदय हुआ है, इस के साथ ही मेरा सौभाग्य भी ऊँचा चढ़ निकला है। मैं अपने घर और समाज की ध्वजा हूं, उस की मस्तक हूं। मैं भारी व्यख्यात्री हूं। मेरे पुत्र शत्रु -विजयी हैं। मेरी पुत्री संसार में चमकती है। मैं स्वयं दुश्मनों को जीतने वाली हूं। मेरे पति का असीम यश है। मैंने वह त्याग किया है जिससे इन्द्र (सम्राट ) विजय पता है। मुझेभी विजय मिली है। मैंने अपने शत्रु नि:शेष कर दिए हैं। ”

वह सूर्य ऊपर आ गया है और मेरा सौभाग्य भी ऊँचा हो गया है। मैं जानती हूं, अपने प्रतिस्पर्धियों को जीतकर मैंने पति के प्रेम को फ़िर से पा लिया है।

मैं प्रतीक हूं, मैं शिर हूं, मैं सबसे प्रमुख हूं और अब मैं कहती हूं कि मेरी इच्छा के अनुसार ही मेरा पति आचरण करे।  प्रतिस्पर्धी मेरा कोई नहीं है।

मेरे पुत्र मेरे शत्रुओं को नष्ट करने वाले हैं, मेरी पुत्री रानी है, मैं विजयशील हूं। मेरे और मेरे पति के प्रेम की व्यापक प्रसिद्धि है।

ओ प्रबुद्ध ! मैंने उस अर्ध्य को अर्पण किया है, जो सबसे अधिक उदाहरणीय है और इस तरह मैं सबसे अधिक प्रसिद्ध और सामर्थ्यवान हो गई हूं। मैंने स्वयं को अपने प्रतिस्पर्धियों से मुक्त कर लिया है।

मैं प्रतिस्पर्धियों से मुक्त हो कर, अब प्रतिस्पर्धियों की विध्वंसक हूं और विजेता हूं। मैंने दूसरों का वैभव ऐसे हर लिया है जैसे की वह न टिक पाने वाले कमजोर बांध हों। मैंने मेरे प्रतिस्पर्धियों पर विजय प्राप्त कर ली है। जिससे मैं इस नायक और उस की प्रजा पर यथेष्ट शासन चला सकती हूं।

इस मंत्र की ऋषिका और देवता दोनों हो शची हैं। शची इन्द्राणी है, शची स्वयं में राज्य की सम्राज्ञी है ( जैसे कि कोई महिला प्रधानमंत्री या राष्ट्राध्यक्ष हो )। उस के पुत्र – पुत्री भी राज्य के लिए समर्पित हैं।

ऋग्वेद १.१६४.४१

ऐसे निर्मल मन वाली स्त्री जिसका मन एक पारदर्शी स्फटिक जैसे परिशुद्ध जल की तरह हो वह एक वेद, दो वेद या चार वेद, आयुर्वेद, धनुर्वेद, गांधर्ववेद, अर्थवेद इत्यादि के साथ ही छ : वेदांगों – शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष और छंद : को प्राप्त करे और इस वैविध्यपूर्ण ज्ञान को अन्यों को भी दे।

हे स्त्री पुरुषों! जो एक वेद का अभ्यास करने वाली वा दो वेद जिसने अभ्यास किए वा चार वेदों की पढ़ने वाली वा चार वेद और चार उपवेदों की शिक्षा से युक्त वा चार वेद, चार उपवेद और व्याकरण आदि शिक्षा युक्त, अतिशय कर के विद्याओं में प्रसिद्ध होती और असंख्यात अक्षरों वाली होती हुई सब से उत्तम, आकाश के समान व्याप्त निश्चल परमात्मा के निमित्त प्रयत्न करती है और गौ स्वर्ण युक्त विदुषी स्त्रियों को शब्द कराती अर्थात् जल के समान निर्मल वचनों को छांटती अर्थात् अविद्यादी दोषों को अलग करती हुई वह संसार के लिए अत्यंत सुख करने वाली होती है।

ऋग्वेद   १०.८५.४६

स्त्री को परिवार और पत्नी की महत्वपूर्ण भूमिका में चित्रित किया गया है। इसी तरह, वेद स्त्री की सामाजिक, प्रशासकीय और राष्ट्र की सम्राज्ञी के रूप का वर्णन भी करते हैं।

ऋग्वेद के कई सूक्त उषा का देवता के रूप में वर्णन करते हैं और इस उषा को एक आदर्श स्त्री के रूप में माना गया है। कृपया पं श्रीपाद दामोदर सातवलेकर द्वारा लिखित ” उषा देवता “, ऋग्वेद का सुबोध भाष्य देखें।

सारांश  (पृ १२१ – १४७ ) –

१. स्त्रियां वीर हों। ( पृ १२२, १२८)

२. स्त्रियां सुविज्ञ हों। ( पृ १२२)

३. स्त्रियां यशस्वी हों। (पृ  १२३)

४. स्त्रियां रथ पर सवारी करें। ( पृ १२३)

५. स्त्रियां विदुषी हों। ( पृ १२३)

६. स्त्रियां संपदा शाली और धनाढ्य हों। ( पृ १२५)

७.स्त्रियां बुद्धिमती और ज्ञानवती हों। ( पृ १२६)

८. स्त्रियां परिवार,समाज की रक्षक हों और सेना में जाएं। (पृ  १३४, १३६ )

९. स्त्रियां तेजोमयी हों। ( पृ १३७)

१०.स्त्रियां धन-धान्य और वैभव देने वाली हों। ( पृ  १४१-१४६)

यजुर्वेद २०.९

स्त्री और पुरुष दोनों को शासक चुने जाने का समान अधिकार है।

यजुर्वेद १७.४५

स्त्रियों की भी सेना हो। स्त्रियों को युद्ध में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करें।

यजुर्वेद १०.२६

शासकों की स्त्रियां अन्यों को राजनीति की शिक्षा दें। जैसे राजा, लोगों का न्याय करते हैं वैसे ही रानी भी न्याय करने वाली हों।

अंत में सिर्फ यही कहना चाहूंगी कि ;-

” माना कि पुरुष बलशाली है,पर जीतती हमेशा नारी है

 सांवरिया के छप्पन भोग पर, सिर्फ एक तुलसी भारी है”।




राजीव डोगरा ‘विमल’ की कविता – ‘वो डरते हैं ‘

वो मुझसे नहीं
मेरे बदले हुए
किरदार से डरते हैं।
तूफानों का एहसास
उनको आज भी है,
इसीलिए आने वाले
सैलाबो से डरते हैं।
उनको पता है
बिगड़े हुए वक्त की तरह
जब भी बिगड़ा है
किरदार मेरा
तो हर जुड़ा हुआ
ख्वाब भी टूट कर बिखरा है
किसी टूटी तार की तरह।
वो बहते हुए
मेरे अश्कों को देख कर
आज भी घबरते है,
उन्हें मालूम है
जब-जब ये अश्क बहे है
तो सब कुछ बहा कर ले जाते हैं
किसी  तूफान की तरह।

संपर्क : राजीव डोगरा ‘विमल’, कांगड़ा हिमाचल प्रदेश
भाषा अध्यापक, गवर्नमेंट हाई स्कूल,ठाकुरद्वारा, पिन कोड 176029 , ईमेल पता : [email protected],
फोन : 9876777233, 7009313259




गांधी और हिंदी

प्रो. विनोद कुमार मिश्र
महासचिव
विश्व हिंदी सचिवालय, मॉरिशस

स्वाधीनता आंदोलन के दौरान गांधी ऐसे इकलौते राष्ट्रनायक बने जिन्होंने अंग्रेज़ी राज के विरुद्ध पूरे देश का आह्वान किया और आह्वान की धारदार भाषा के रूप में हिंदी की पहचान की। उन्होंने महसूस किया कि विदेशी भाषा जो उन दिनों सत्ता की भाषा थी, के माध्यम से देश के जन-मानस को नहीं जोड़ा जा सकता । 1916 के राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में पहली बार सम्मिलित होने वाले गांधी ने विरोध के बावजूद अपना वक्तव्य हिंदी में दिया। इसका इतना सकारात्मक प्रभाव पड़ा कि 1918 में इंदौर में सम्पन्न हुए हिंदी साहित्य सम्मेलन का सभापति गांधी को बनाया गया। इंदौर का उक्त अधिवेशन हिंदी प्रचार-प्रसार की दृष्टि से महत्वपूर्ण रहा। उसी अधिवेशन में गांधी ने दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार की आवश्यकता पर ज़ोर दिया तथा धन संग्रह की अपील की। फिर क्या था – इंदौर के महाराजा  यशवंत राव होल्कर तथा सेठ हुकुम चंद ने दस-दस हज़ार रुपए की सहायता राशि प्रदान की। वहीं यह भी निर्णय लिया गया कि उत्तर भारत के कुछ युवक दक्षिण की भाषाओं को सीखने तथा हिंदी सिखाने के लिए दक्षिण के राज्यों में जाएँ तथा दक्षिण भारत के कुछ युवकों को हिंदी सीखने के लिए प्रयाग भेजा जाए।

गांधी की योजना तब रंग लाई जब 1918 में भारत सेवा संघ के युवकों ने गांधी से हिंदी प्रचारक भेजने की माँग की। तत्काल गांधी ने अपने 18 वर्षीय पुत्र श्री देवदास गांधी को हिंदी – प्रचार के लिए मद्रास भेजा । धीरे-धीरे 1927 में ‘दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा’ के रूप में एक स्वतंत्र संस्था का गठन कर दिया गया । आज भी यह  राष्ट्रीय महत्व की एक संस्था है जो हिंदी प्रचार के कार्य में संलग्न है। सन् 1936 में  हिंदी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन नागपुर में हुआ जिसमें गांधी ने हिंदी प्रचार समिति वर्धा के गठन का सुझाव दिया। बाद में उसका नाम ‘राष्ट्रभाषा प्रचार समिति’ कर दिया गया जिसका उद्देश्य दक्षिण को छोड़कर शेष हिंदीतर राज्यों में हिंदी का प्रचार-प्रसार सुनिश्चित करना था । इस राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा के साथ 16 अंगभूत संस्थाएँ बनीं जो प्रदेश स्तर पर राष्ट्रभाषा का प्रसार करने लगीं।  धीर-धीरे इन संस्थाओं की प्रेरणा से समस्त दक्षिण भारत हिंदी प्रचार के तीव्र आंदोलन का साक्षी बन गया।

स्वराज आंदोलनकारियों  ने धीरे-धीरे हिंदी को समूचे राष्ट्र के कार्य- व्यवहार के लिए स्वीकार कर लिया। यह निर्णय राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत था, हिंदी सीखना और सिखाना राष्ट्रीय कर्म माना जाने लगा । धीरे-धीरे हिंदी प्रचार सभा हैदराबाद मैसूर , हिंदी प्रचार परिषद बंगलोर, महाराष्ट्र राष्ट्राभाषा सभा पुणे, हिंदुस्तानी प्रचार सभा वर्धा, केरल हिंदी प्रचार सभा तिरुअनंतपुरम, साहित्यानुशीलन समिति मद्रास तथा  कर्नाटक हिंदी प्रचार सभा धारवाड़ की स्थापना से  हिंदी की लोकप्रियता दिनानुदिन बढ़ने लगी।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना से लगभग ४० वर्षों तक इस राजनीतिक मंच की कार्य व्यवहार की भाषा अंग्रेज़ी थी किंतु धीरे-धीरे स्वराज के साथ-साथ ‘स्वभाषा’ का यक्ष प्रश्न भी उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा। स्वराज के साथ-साथ राष्ट्रभाषा व राष्ट्र ध्वज भी किसी भी देश की अस्मिता की पहचान होते हैं। गांधी ने हिंदी की उस ताकत को बखूबी पहचान लिया था जो आज़ादी की लड़ाई में एकता का हथियार बनने की राह में चल पड़ी थी। उनका मानना था कि भारत की राजनीतिक आज़ादी व सांस्कृतिक स्वाधीनता हिंदी के बिना प्राप्त नहीं की जा सकती। इसलिए वे हिंदी व देवनागरी दोनों की हिमायती थे। उन्होंने ज़ोर देकर कहा था कि यदि हिंदी को राष्ट्रभाषा स्वीकार कर लिया जाए तो समाज में एकता सहज ही स्थापित हो सकती है। गांधी जी कहा करते थे कि यदि हिंदुस्तान की सभी भाषाओं की लिपि देवनागरी हो जाय तो भाषाई एकीकरण का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा और हिंदी सेतु का काम कर सकेगी। स्वराज की लड़ाई में पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण के सभी लोग हिंदी में बात करते थे। हिंदी स्वाधीनता की भाषा बनी, राष्ट्रीयता का प्रतीक बन गई। गांधी अंग्रेज़ी को आधुनिकता की भाषा मानते थे किंतु ज्ञान  की भाषा नहीं । उन्हें डर था कि अंग्रेजी के प्रति कहीं यह ललक गुलाम मानसिकता का शिकार न बना दे। गांधी घर के दरवाज़े-खिड़कियाँ खुली-रखना चाहते थे ताकि ताज़ा हवा आ सके किंतु हवाओं को आँधी बनने से रोकना भी चाहते थे। वे कहा करते थे कि जो बालक अपनी मातृभाषा के बजाय दूसरी भाषा में शिक्षा प्राप्त करते हैं वे आत्महत्या करते हैं। विदेशी भाषा उन्हें अपने जन्म सिद्ध अधिकार से वंचित करती है । विदेशी भाषा माध्यम से अनावश्यक ज़ोर पड़ता है और मौलिकता तो नष्ट होती ही है तथा एक प्रकार का राष्ट्रीय संकट भी खड़ा होता है। मातृभाषा से इतर भाषा में शिक्षा देना उनके दिमाग को कुंद करना है। यह मातृद्रोह होगा। अपने देश की भाषाओं के महत्व को दर्शाने के क्रम में गांधी ने तुर्की के शासक कमालपाशा का उदाहरण दिया जिसने सत्ता सँभालते ही तुर्की को एक झटके से राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया था। कमालपाशा के इस उदाहरण से गांधी के हिंदी प्रेम और विवशता दोनों को देखा जा सकता  है। काश! 1905 में बंगभंग के अवसर पर विदेशी शासन व वस्तुओं का बहिष्कार व स्वदेशी के प्रयोग का जो अखिल भारतीय आंदोलन चलाया गया उसी समय यदि विदेशी भाषा के वहिष्कार व स्वदेशी भाषा के प्रयोग का भी आंदोलन भी यदि शुरु कर दिया गया होता तो संभवत: आज भाषा की जटिल समस्या से हम जूझ न रहे होते।

आज राजनीतिक अधिनायकों और सामंतों ने राष्ट्रहित की चिंता छोड़ क्षणिक लाभ के लिए भारतीय जन-मानस को भाषाई दासता की बेड़ियों में जकड़ लिया है। हिंदी प्रचारकों ने जिस निष्ठा, लगन व संयम से हिंदी का प्रचार किया वह कल्पनातीत है। गांधी द्वारा भेजे गए हिंदी के प्रचारक अपनी पुस्तक, अपनी चटाई और अपनी लालटेन लेकर सुबह-सुबह किसी भी परिवार में दस्तक दे देते थे और आधा घण्टा हिंदी सिखाने के गांधी के संदेश को सुना देते थे। गांधी के इस अनुरोध को किसी परिवार ने कभी अस्वीकार नहीं किया। प्रचारक भी  मंदिर, मस्जिद, विद्यालय या किसी सार्वजनिक स्थान पर, रुकते थे । वे किसी गृहस्थ के घर कभी नहीं रुकते थे। बदले में उन्हें पाँच रुपए महीने मानदेय दिया जाता था। आज यह बात कल्पना से भी बाहर की प्रतीत होती है । हिंदी का यह दुर्भाग्य रहा कि जिन राज्यों में लोगों ने  बड़ी श्रद्धा- भावना के साथ हिंदी सीखी आज वहीं के लोग हिंदी – विरोधी स्वर देने लगे हैं । गांधी भारतीय भाषाओं को  शिक्षा का माध्यम बनाना चाहते थे हिंदी को नहीं। किंतु अंग्रेज़ी को तो कतई शिक्षा का माध्यम बनाने के पक्षधर नहीं थे । गांधी अंग्रेज़ी को क्षेत्रीय भाषाओं के विकास में बाधक मानते थे । उनका मानना था कि जब तक अंग्रेज़ी रहेगी क्षेत्रीय भाषाओं में निकटता कभी नहीं आ सकती। गांधी कहा करते थे कि “राष्ट्रभाषा का यदि प्रचार करना है तो उसके लिए भगीरथ प्रयत्न करना होगा। आप लाटसाहब या सरकार के दरबार में जो प्रार्थना-पत्र भेजते हैं, तो किस भाषा में? यदि हिंदी में नहीं भेजते हैं तो लिखकर भेजिए। मैं कहता हूँ आप अपनी भाषा में लिखो। उनकी गरज होगी तो हमारी बात सुनेंगे।”

वैश्वीकरण के दौर में इस तथ्य को याद करना कई दृष्टियों से आवश्यक  है कि भूमण्डलीकरण बाज़ार व्यवस्था का सार्वभौम रूप है। इसलिए यहाँ श्रम से नहीं धन  से मनुष्य की पहचान की जाती है । इस स्थिति में आज हिंदी का प्रश्न बाज़ार की जरूरतों  के संदर्भ में विचारणीय है तथा महात्मा गांधी ने भारत आने से पहले दक्षिण अफ़्रीका में रहनेवाले हिंदुस्तानियों के लिए सत्याग्रह किया था । मूलत: गुजराती भाषी व्यापारियों और हिंदी भाषी गिरमिटिया मज़दूरों के आपसी सम्पर्क का प्रश्न गांधी जी के सामने व्यावहारिक रूप में उपस्थित था। उन्होंने मजदूरों और व्यापारियों की एकता अंग्रेज़ी के माध्यम से नहीं कायम की, बल्कि इसके लिए उन्होंने हिंदी की अनिवार्यता को पहचाना । आगे चलकर 1909 में लंदन से अफ़्रीका वापस जाते समय पानी के जहाज़ पर उन्होंने अपनी ऐतिहासिक कृति ‘हिंद स्वराज’ लिखी। यह कृति  साधारण पढ़े-लिखे लोगों को ध्यान में रखकर गुजराती में लिखी गई थी किन्तु  अनेक भाषा-भाषी हिंदुस्तान में स्वराज्य की भाषा के रूप में उन्होंने हिंदी को जरूरी बताया था। इस तरह गांधी  की दृष्टि में राष्ट्रभाषा पाने का अधिकार हिंदी को ही था।

गांधी जी के लिए भाषा का प्रश्न देश  के भविष्य और समाज के उद्देश्य से अलग  नहीं था। उन्होंने 1909 में ही यह बात कही थी कि अगर स्वराज्य मुट्ठी भर शिक्षितों का है तो सम्पर्क की भाषा अंग्रेज़ी होगी, लेकिन ‘यदि वह करोड़ों भूखे लोगों, करोड़ों अनपढ़  लोगों, निरक्षर स्त्रियों, सताए हुए अस्पृश्य जनों  के लिए है तो सम्पर्क भाषा केवल हिंदी ही हो सकती है’। दूसरे शब्दों में गांधी इस भूखी, निरक्षर जनता के हित और अधिकार को लेकर लड़ रहे थे, इसीलिए उन्होंने इन लोगों की अपनी भाषा को सम्पर्क-भाषा और राष्ट्रभाषा के रूप में परिभाषित किया। वे देख रहे थे कि अंग्रेज़ी माध्यम से शिक्षित नया कुलीन  वर्ग हिंदी और भारतीय भाषाओं के बदले अंग्रेज़ी परस्त बनता जा रहा था । यह बात उन्हें कष्ट देती थी। उन्होंने राष्ट्रभाषा पर विचार करते हुए कहा था कि ‘जो लोग अपनी भाषा छोड़ देते हैं, वे देशद्रोही हैं और जनता के प्रति विश्वासघात करते हैं’।

यह बात विशेष रूप से ध्यान देने की है कि गांधी जनता के प्रति विश्वासघात को देशद्रोह की श्रेणी में मानते थे । उनके लिए देश का अर्थ केवल कुछ  भूभाग  नहीं था, बल्कि उस भूमि और सीमा में रहनेवाली जीती-जागती मेहनतकश  जनता था । आज के  बाज़ारवादी दौर में गांधी जी की यह चिन्ता हमारे लिए अत्यन्त प्रासंगिक और विचारणीय  बन गयी है। हम जानते हैं कि इस बाज़ारवादी संस्कृति के साथ अंग्रेज़ी का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। उस बाज़ार से लाभ उठानेवाला मध्यवर्ग अपनी भाषा छोड़कर अंग्रेज़ी की तरफ़ जा रहा है। गाँव में तथाकथित अंग्रेजी  माध्यम  स्कूल खुल गए हैं जिनमें अंग्रेज़ी पढ़ाने वाले शिक्षक  शायद ही शुद्ध अंग्रेज़ी बोल व  लिख पाते होंगे लेकिन बाज़ार का आकर्षण इन स्कूलों की तरफ़ सबको आकर्षित कर रहा है। आज का माहौल  ऐसा चिंताजनक है कि 1835 में जो ख्व़ाब मैकाले ने देखा था वह  ब्रिटिश राज के रहते हुए उस तरह पूरा नहीं हुआ था जिस तरह आज के भूमण्डलीकरण के दौर में सम्भव हो रहा है। यहाँ ब्रिटिश संसद में प्रस्तुत लॉर्ड मैकाले के प्रस्ताव का कुछ अंश उधृत करना प्रासंगिक होगा –

“मैंने सम्पूर्ण भारत का दौरा किया और मैंने एक भी आदमी ऐसा नहीं देखा जो चोर हो, जो भिखारी हो । इस देश में मैंने ऐसी दौलत देखी, ऐसे उच्च नैतिक मूल्य और ऐसे योग्य लोग देखे कि मैं नहीं मानता कि हम कभी इस देश से जीत पायेंगे, जब तक कि हम इस देश की रीढ़ ही न तोड़ दें और इसलिए मैं प्रस्ताव करता हूँ कि हम उसकी पुरानी और प्राचीन  शिक्षा पद्धति, उसकी संस्कृति को बदल दें ताकि भारतीय  यह सोचने लगें कि जो कुछ विदेशी और अंग्रेज़ी में है, वह अच्छा है और उनकी अपनी चीज़ से श्रेष्ठ  है, वे अपना स्वाभिमान, अपनी स्थानीय संस्कृति खो देंगे और वे वैसे बन जायेंगे जैसा हम चाहते हैं, एक वास्तविक पराधीन राष्ट्र”

मैकाले का यह स्वप्न  आज पूरा होता दिख रहा  है। गांधी के रहते उसका यह सपना पूरा नहीं हो सकता था। मैकाले के लिए भाषा का प्रश्न साम्राज्य के प्रभुत्व से जुड़ा हुआ था। अपने अहिंसक आंदोलनों के ज़रिए गांधी ने अंग्रेजी हुकूमत को हर स्तर पर चुनौती दी थी चाहे वह राजनीतिक स्तर हो, आर्थिक स्तर हो  या सांस्कृतिक स्तर । उनके लिए स्वराज्य, स्वदेशी और स्वभाषा परस्पर जुड़े हुए थे। इसलिए गांधी विराट राष्ट्रीय विकल्प और स्वप्न प्रस्तुत कर सके । इसीलिए उन्होंने  संसार के सबसे बड़े आंदोलन का नेतृत्व किया । हम आज गांधी का नाम लेते हुए भी उनके इन आदर्शों को भुला चुके हैं। इसीलिए विदेशी पूंजी, विदेशी संस्कृति और विदेशी  भाषा हम पर अपना वर्चस्व कायम करती जा रही है। यह कूबत  गांधी में थी कि उन्होंने जुलाई 1928 के यंग इंडिया में लिखा था, “यदि मैं तानाशाह होता तो आज ही विदेशी भाषा में शिक्षा दिया जाना बन्द कर देता । जो आनाकानी करते, उन्हें बर्खास्त कर देता। मैं पाठ्य-पुस्तकों को तैयार किए जाने का इन्तज़ार नहीं करता।” लोकतन्त्र के प्रबल  समर्थक गांधी केवल शिक्षा और भाषा के प्रश्न पर तानाशाह बनने की कामना करते हैं । आज अंग्रेज़ी भाषा और विदेशी शिक्षा जिस प्रकार भारत में अपना पाँव पसार चुकी  है और उसके लिए जो घटिया तर्क दिए जा रहे हैं, उन्हें देखते हुए आज  सचमुच गांधी जैसे ‘तानाशाह’ की एक बार फिर जरूरत महसूस की जा रही है।

गांधी जी की व्यवहारिक सूझ-बूझ अद्वितीय  थी । वे उन बिंदुओं की पहचान करते हुए  प्रस्ताविक करते थे जो जाति, धर्म, भाषा, लिंग, क्षेत्र और आर्थिक भेदभावों को परेड के पीछे रखकर भारतीय जनता के बीच व्यापक एकता का आधार बन सकते थे। इसीलिए वे हिंदुस्तान के धनकुबेरों  की आलोचना भी करते थे और स्वदेशी के विकास में उनकी सहायता भी लेने में भी समर्थ थे । दुर्भाग्य से आज व्यापारियों  के हितों और श्रमजीवी जनता के हितों के बीच ऐसी दूरी  हो गया है कि कोई भी राजनीतिक व्यक्ति  या संगठन उनके बीच का साझा आधार नहीं पहचान पा रहा है जबकि राष्ट्रीय हितों की दृष्टि से इस प्रकार का आधार खोजना आवश्यक है। ऐसा तभी हो सकता है जब हम गांधी के नाम की माला जपने के बजाय उनकी शिक्षाओं से सही सीख लें । गांधी कुछ मुट्ठी भर शिक्षकों की जगह करोड़ों वंचितों  को अपनी चेतना का मुख्य आधार मानते थे। वे अपने हर काम की कसौटी पर  समाज के आखिरी जन  को कसते थे। आज भी गांधी के इस आखिरी आदमी को इन करोड़ों गरीबों, निरक्षरों, दलितों , महिलाओं के हित के केंद्र में रखकर हम समाज के सभी स्तरों के बीच एकता की ज़मीन की खोज कर  सकते हैं । लेकिन यह काम विदेशी भाषा में सम्भव नहीं है। गांधी की तरह सामाजिक, राजनीतिक उद्देश्य और भाषा के प्रश्न को आपस में जोड़ना पड़ेगा तथा इन सभी चीज़ों की कसौटी जनसाधारण को बनाना पड़ेगा।

आज इतना बदलाव जरूर दिख रहा है कि आज हमारे समाज में अंग्रेज़ी के बढ़ते प्रभाव  के समानान्तर हिंदी अपने सामर्थ्य का भली प्रकार ज्ञान करा रही है। जो चैनल केवल अंग्रेज़ी प्रसारण का लक्ष्य लेकर आए थे, आज उनके हिंदी चैनलों की संख्या अंग्रेज़ी चैनलों से ज़्यादा है। जो टेलीविजव चैनल हिंदी के प्रयोग को अछूत  समझते थे, आज उनका यह संकल्प पता नहीं कहाँ खो गया है और जनसरोकारों से सम्पन्न हिंदी अपनी जगह यथावत है। कल तक विज्ञापनों की भाषा अंग्रेज़ी हुआ करती थी, अंग्रेज़ी के विज्ञापन निर्माताओं को बाज़ार में यश और धन की प्राप्ति  होती थी किन्तु आज स्थिति बदल गयी है । सबसे प्रतिभाशाली मस्तिष्क हिंदी के विज्ञापनों  से संलग्न  हैं । सबसे लोकप्रिय, मौलिक,प्रभावशाली और कलात्मक अभिव्यक्तियाँ हिंदी विज्ञापनों में दृष्टिगोचर होती हैं। मालिकों की भाषा अंग्रेज़ी है। वे अंग्रेज़ी के प्रभुत्व के लिए पूरी ताकत लगाते हैं, लेकिन उपभोक्ता की भाषा हिंदी है इसलिए उन्हें अपना भाषा अहंकार  छोड़कर हिंदी के आगे नतशिर होना पड़ता है। क्योंकि हिंदी भाषी मध्यवर्ग बड़े पैमाने पर बाज़ार में हिस्सेदारी कर अपनी स्थिति मज़बूत कर  रहा है।

हमारी धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रीयता की पहचान हिंदी से जुड़ी हुई है। इस हिंदी का विरोध धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रीयता का विरोध है। कम्प्यूटर के लिए भाषा की जिस पद्धति का आधार लिया गया है, वह शून्य की अवधारणा भारत है और वह भी उसी हिंदी प्रदेश की जिसकी सांस्कृतिक परम्परा ऋग्वेद और हड़प्पा के काल से 21वीं सदी के बाजारीकरण  के दौर तक सतत चली आ रही है । हमारे इस सांस्कृतिक अविच्छन्न प्रवाह को गांधी जी ने सबसे पहले हिंद स्वराज में बड़े गौरवपूर्ण शब्दों में प्रस्तुत किया था। संस्कृति, भाषा और गणना पद्धति आदि सभी बातें आपस में जुडी हुई हैं। शून्य और एक के सूत्र से कम्प्यूटर की भाषा का विकास इस आवश्यकता को उजागर करता है कि भविष्य में रोमन की जगह नागरी नये संचार माध्यम का रूप लेगी और भाषा वैज्ञानिक भी  इस आवश्यकता का अनुभव करने लगे हैं । गांधी इस भविष्य को तो नहीं देख रहे थे, लेकिन इतिहास  से सीख कर उन्होंने जो अवधारणाएँ दीं उनका तर्कसंगत विकास करके हम आज की इस समस्याओं का समाधान कर सकते हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तुर्की में वहाँ के तानाशाह कमालपाशा में यही अन्तर है। जहां कमालपाशा अपनी संस्कृति और उस संस्कृति की पहचान – लिपि – को मिटा रहे थे वहीं  गांधी ऐसे तानाशाह बनना चाहते थे, जो अपनी महान संस्कृति और उसकी पहचान को जनता के से तथा उसकी भाषा और लिपि से जोड़ने का प्रयास कर रहे थे।

गांधी अंग्रेज़ी भाषा के दुश्मन नहीं थे। अपनी भाषा की उपेक्षा की कीमत पर अंग्रेज़ी का प्रभुत्व इन्हें स्वीकार्य नहीं था। वे कहते थे, “यदि विदेशी भाषाएँ और संस्कृति मेरे घर को सुगंधित करें तो मैं विदेशी समीर के लिए अपनी खिड़कियाँ खोल दूंगा । किंतु यदि वे तूफ़ान बनकर मेरे घर को उखाड़ना चाहेंगी  तो मैं चट्टान बनकर खड़ा हो जाऊँगा” गांधी अंग्रेज़ी शिक्षा पद्धति और शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेज़ी के प्रयोग को राष्ट्र के खिलाफ़ मानते थे। उनका मानना था कि अंग्रेज़ी शिक्षा भारतीयों को निर्बल और शक्तिहीन बना देगी, नकलची बना देगी। स्वाभाविक प्रतिभा का विकास अवरुद्ध हो जाएगा। शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी होने से जनता से संबंध विच्छेद हो जाएगा जो लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी होगी। जनता की भाषा और सत्ता की भाषी में एकरूपता होने से ही सही अर्थों में स्वराज की प्राप्ति होगी।  अंग्रेज़ी जानने वाले भारतीय ही प्रजा को गुलाम बनाकर रखेंगे। प्रजा की हाय अंग्रेज़ों पर नहीं अंग्रेज़ीदाँ भारतीयों को लगेगी, ऐसा गांधी का मानना था। भारत के स्वतंत्र होने पर बी.बी.सी. संवाददाता ने गांधी की प्रतिक्रिया अंग्रेज़ी में जाननी चाही तो गांधी ने दो टूक शब्दों में कहा था कि गांधी अंग्रेज़ी भूल गया है। यह गांधी का स्वदेश और स्वभाषा प्रेम था।

गांधी सहज सरल हिंदी के पक्षधर थे। वे हिंदी को हिंदुस्तानी कहते थे। वे कहते थे कि “हिंदी उस भाषा का नाम है जिसे हिंदू और मुसलमान कुदरती तौर पर बगैर प्रयत्न के बोलते हैं । हिंदुस्तानी और उर्दू में कोई अंतर नहीं है। देवनागरी में लिखी जाने पर वह हिंदी और फारसी लिपि में लिखी जाने पर वह उर्दू हो जाती है”।उन्होंने हिंदी उर्दू के बीच की आम भाषा को हिंदुस्तानी कहा और उसी को स्वीकारने की वकालत थी।

गांधी प्रांतीय संकीर्णता को छोड़कर सभी भाषाओं के लिए देवनागरी लिपि अपनाने  की वकालत भी की। मातृभूमि की सेवा को सर्वोपरि  मानने वाले गांधी तमाम लिपियों के अनावश्यक बोझ से मुक्ति चाहते थे। वे अंग्रेजों से भी निर्भीक होकर कहते थे कि “हिंदुस्तान की आम भाषा अंग्रेज़ी नहीं बल्कि हिंदी है, वह आपको सीखनी होगी और हम तो आपसे अपनी भाषा में ही व्यवहार करेंगे।“

उनका स्पष्ट मत था कि सभी भारतीयों को उनकी अपनी-अपनी मातृभाषाओं में शिक्षा दी जानी चाहिए तथा समस्त भारतीय पारस्परिक बोलचाल के किए हिंदी का प्रयोग करें। वे  अंतरराष्ट्रीय व्यवहार के लिए अंग्रेज़ी भाषा को भी अनुचित नहीं मानते थे। उनकी यह भी मान्यता थी कि राष्ट्रभाषा के बिना किसी भी राष्ट्र का निर्माण सम्भव नहीं है। बिना राष्ट्रभाषा के राष्ट्र गूँगा बनकर रह जाता है। अत: वे अंग्रेज़ी के प्रभुत्व  से देश को मुक्त करना चाहते थे जो शायद हो न सका। आज गांधी फिर एकबार प्रासंगिक हो गए हैं । अब एकबार फिर वक्त आ गया है कि हम गांधी की भाषा दृष्टि, उनके विचार तथा उनके साहस का सहारा ले स्वतंत्र भारत की भाषाई अस्मिता को सकारात्मक ढंग से प्रस्तुत कर अतीत की ऐतिहासिक भूलों का परिमार्जन करें।




कृति के सभी जीवों और तत्वों के साथ सह अस्तित्व ही आदिवासियत – हरिराम मीणा

नई दिल्ली। आदिवासियत या आदिवासी विमर्श को अन्य विमर्शों की तरह नहीं समझना चाहिए। आदिवासियत जीवन जीने का एक बेहतरीन तरीका है, एक दर्शन और वैचारिकी है अपितु यह एक जीवन शैली है। आदिवासी समस्त प्रकृति के तत्त्वों और मानवेतर जीव – जगत के साथ सह अस्तित्व की भावना के साथ जीता है,यही उसका मूल दर्शन है। पारिस्थितिकी असंतुलन और पर्यावरण प्रदूषण की समस्याओं के निदान के लिए हमें आदिवासियत की ओर जाना होगा, प्रकृति और मानवेत्तर जीव – जगत के पास जाना पड़ेगा। सुप्रसिद्ध लेखक और आदिवासी विषयों के मर्मज्ञ हरिराम मीणा ने उक्त विचार हिंदी साहित्य सभा, हिंदू कॉलेज द्वारा आयोजित वेबिनार ‘कृति चर्चा:  धूणी तपे तीर ‘ में व्यक्त किए। मीणा ने आदिवासी लोकतंत्र की अवधारणा के बारे में कहा कि आदिवासियों का जो गणतंत्र है, वह आधुनिक लोकतंत्र की तरह बहुमत पर आधारित नहीं है ,वह गण ,जन और संघ के सर्वमत पर आधारित है। उन्होंने विकास की वर्तमान अवधारणा पर कहा कि दुनिया जिस विकास की ओर जा रही है,वह केवल आर्थिक उन्नति है, जबकि विकास एक बहुत ही वृहद अवधारणा है ,जिसमें सौहार्द्र है, धार्मिक/ सामाजिक सहिष्णुता है, सांस्कृतिक वैविध्य है, आदमी के खुश रहने की मानसिकता है। मूलतः समग्रता को लेकर चलने वाली धारणा ही वास्तविक विकास है। 

आदिवासी साहित्य के बारे में मीणा ने कहा कि आदिवासी दर्शन,आदिवासी संस्कृति, वैचारिकी पर आधारित साहित्य ही आदिवासी साहित्य है। उन्होंने कहा कि आदिवासी साहित्य इसलिए जरूरी है क्योंकि यह संपूर्ण साहित्य को और समृद्ध करेगा, समाज के जिस तबके की आधिकारिक और पर्याप्त अभिव्यक्ति नहीं हो पाई है,यह उसे भी अभिव्यक्ति प्रदान करेगा। जब हम आदिवासी साहित्य के बारे में विचार करते हैं तो यह ध्यान रखना चाहिए कि वह केवल आदिवासी समाज के जीवन के बारे में नहीं है बल्कि उसमें और मानवेतर जीव- जगत भी हैं। वेबिनार के अगले भाग में उन्होंने अपनी प्रसिद्ध औपन्यासिक कृति ‘धूणी तपे तीर’ के बारे में विस्तृत चर्चा की। मीणा ने अपने इस प्रसिद्ध उपन्यास की रचना प्रक्रिया के बारे में  बताया और आधार सामग्री के लिए किए शोध की जानकारी दी। उन्होंने खेदपूर्वक कहा कि भारत में स्वतंत्रता के लिए जलियाँवाला बाग़ से बड़ी कुर्बानी वाली इस लोमहर्षक घटना पर राजस्थान के सबसे बड़े इतिहासकारों में से एक गौरीशंकर हीराशंकर ओझा जैसे विद्वान् ने इस घटना उल्लेख तक नहीं किया। यह तथ्य इतिहासकारों के आदिवासियों और वंचित समुदायों के प्रति नजरिए को बताता है। इसके बाद उन्होंने ‘धूणी तपे तीर’ में वर्णित महत्वपूर्ण घटनाओं का जिक्र किया और उसमें अभिव्यक्त आर्थिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक शोषण के बारे में बताते हुए मानगढ़ में हुए भीषण नरसंहार की घटना पर प्रकाश डाला।

प्रश्नोत्तर सत्र का संयोजन विभाग के प्रध्यापक डॉ नौशाद अली ने किया। इसके बाद विभाग की वरिष्ठ प्राध्यापिका रचना सिंह ने हिंदी साहित्य सभा के नए पदाधिकारियों की घोषणा की। वेबिनार के प्रारम्भ में विभाग के प्राध्यापक डॉ विमलेन्दु तीर्थंकर ने मीणा का परिचय दिया और उनके रचनात्मक अवदान को रेखांकित किया। साहित्य सभा के परामर्शदाता डॉ पल्लव ने स्वागत उद्बोधन दिया। 

आयोजन में हरिराम मीणा की उपस्थिति में ही हिंदू कॉलेज की भित्ति पत्रिका ‘अभिव्यक्ति’ के नए का ऑनलाइन लोकार्पण किया गया। अंत में साहित्य सभा की कोषाध्यक्ष दिशा ग्रोवर ने धन्यवाद ज्ञापन किया। कार्यक्रम का संयोजन विभाग के प्रध्यापक डॉ धर्मेंद्र प्रताप सिंह ने किया। वेबिनार में विभाग के वरिष्ठ आचार्य डॉ रामेश्वर राय, डॉ हरींद्र कुमार सहित अनेक महाविद्यालयों के हिंदी विभागों के प्राध्यापक  में विद्यार्थी उपस्थित रहे। 

 




ग़ज़ल (छेड़ाछाड़ी कर)

ग़ज़ल (छेड़ाछाड़ी कर जब कोई)

बह्र:- 2222 2222 2222 222

छेड़ाछाड़ी कर जब कोई सोया शेर जगाए तो,
वह कैसे खामोश रहे जब दुश्मन आँख दिखाए तो।

चोट सदा उल्फ़त में खायी अब तो ये अंदेशा है,
उसने दिल में कभी न भरने वाले जख्म लगाए तो।

जनता ये आखिर कब तक चुप बैठेगी मज़बूरी में,
रोज हुक़ूमत झूठे वादों से इसको बहलाए तो।

अच्छे और बुरे दिन के बारे में सोचें, वक़्त कहाँ,
दिन भर की मिहनत भी जब दो रोटी तक न जुटाए तो।

उसके हुस्न की आग में जलते दिल को चैन की साँस मिले,
होश को खो के जोश में जब भी वह आगोश में आए तो।

हाय मुहब्बत की मजबूरी जोर नहीं इसके आगे,
रूठ रूठ कोई जब हमसे बातें सब मनवाए तो।

दुनिया के नक्शे पर लाये जिसको जिस्म तोड़ अपना,
टीस ‘नमन’ दिल में उठती जब खंजर वही चुभाए तो।

बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’
तिनसुकिया