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द ग्रेट पॉलीटिकल ड्रामे का सुपर परफॉर्मर है ‘अर्नब ‘

सुशील कुमार ‘नवीन’

आप सोच रहे होंगे कि आज सूरज कौन सी दिशा में जा रहा है। गलत दिशा तो नहीं पकड़ ली है। घबराइए मत। सूरज भी अपनी सही दिशा में है और हम भी। आप भी न रामलाल जी की तरह है छोटी-छोटी बातों पर गम्भीर हो जाते हो । रामलाल जी कौन है? अरे भाई। वो भी हमारे एक मित्र हैं आप लोगों की तरह। देश-दुनिया के प्रति सुबह से लेकर शाम तक फिक्रमंद रहते हैं।

खैर इस बारे में फिर बात करेंगे। आप तो आज की सुनो। बाजार की तरफ से आते हुए उनसे मुलाकात हो गई। दो दिन से अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी का मुद्दा लगातार चर्चा में है। वो कुछ बोलते इससे पहले आज हमने ही शब्दों के बाण छोड़ दिए। बोले-भाई साहब, ये अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी का क्या मामला है। कानूनी कार्रवाई कम ड्रामा ज्यादा दिख रही है। दो दिन से मामले को सही या गलत प्रमाणित करने में बुद्धि चकरा रही है। आप ही इस बारे में कुछ बताएं। हमारे कथन को उन्होंने भी बड़ी गम्भीरता से लिया।

बोले- ड्रामे देखने में तो आपकी भी पूरी रुचि है। यूं समझिए ये भी एक ड्रामा ही है। हम बोले-एक पत्रकार की गिरफ्तारी का ड्रामे से क्या मेल? समझ नहीं आया। थोड़ा विस्तार से समझाओ।बोले-अपने यहां यथार्थ की जगह अवसरवादी नाटक की प्रमुख श्रेणी हैं। इन दिनों वही नाटक खेला जा रहा है। जब से मुम्बई आया है मंगलाचरण में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रखी। मंगलाचरण में ही ये इतना समय ले लेता है कि नाटक के अन्य अंगों को उभरना तो दूर कुछ कहने तक का मौका ही नहीं मिलता। प्रधान नट के रूप में लगातार अपनी स्वयंप्रभा की प्रशंसा तब तक जारी रखता जब तक अगले के सिर में दर्द न हो। नाटक के बीच में नट, नटी सूत्रधार इत्यादि के परस्पर वार्तालाप का अवसर नाममात्र का ही छोड़ता है। कई बार तो नाटक का प्रस्ताव, वंश-वर्णन आदि विषय शून्य में विलीन होकर रह जाते हैं।

   उनका बोलना लगातार जारी था। एक जिम्मेदार श्रोता के रूप में हम भी रसास्वादन में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे। बोले-महोदय प्रासंगिक ‘इतिवृत्त’  के माहिर हैं। सो इतिवृत्त के प्रधान नायक की जिम्मेदारी भी इन्हीं के कंधे पर रहती है। अवस्थानुरुप अनुकरण या स्वांग ‘अभिनय’ है। इसमें वे आंगिक, वाचिक, आहार्य और सात्विक रूप का ये भरपूर इस्तेमाल करते है। नाटक में बीज, बिंदु, पताका, प्रकरी और कार्य इन पांचों के द्वारा प्रयोजन सिद्धि इनके नाटक से पूरी हो ही जाती है।

मैंने कहा-ये तो ठीक है पर अब आगे क्या होगा। बड़े-बड़े नेता, मंत्री भी उसके समर्थन में बोल रहे हैं। बोले-लिखवा लो, छोरा पक्का राज्यसभा में जाएगा। मैंने कहा-राजनेता वाला कोई गुण तो उसमें है ही नहीं। बोले-गुणों से तो भरा पड़ा है। पक्का मुंहफट है। इसके सामने कोई दूसरा बोलकर तो देखे। इसकी तो आवाज ही सदन में गूंजने के लिए बनी है। मैंने कहा-कोई पार्टी इसे अपने साथ कैसे लेगी। ये तो नेताओं की बहुत बेइज्जती करता है। बोले-नेता बन जाएगा, तब सब छोड़ देगा। देखा नहीं, राजनीति का चोला धारण करते ही सब रंग बदल जाते हैं। ये भी बदल लेगा। मैंने कहा-तो फिर ये समर्थन और विरोध का क्या चक्कर है। बोले-समर्थन करने वाले इसे अपनी टोली में शामिल करना चाहते हैं। विरोध वालों की मंशा है कि ये चुप्पी साध ले। 

  मैंने कहा-जरूरी तो नहीं कि वो राजनीति में आए। वो बोले- चोट खाया शेर है। ये क्या करेगा, सिर्फ यही जानता है। हालातों को देखते हुए इसकी सम्भावना ज्यादा ही है। कुछ भी हो सकता है। पर ये पक्का तय है कि द ग्रेट पॉलीटिकल ड्रामे का सुपर परफॉर्मर यही बनेगा। यह कहकर वो तो निकल गए। मेरे साथ आप भी सोचिए कि आगे क्या होगा। ये तो अभी भविष्य के गर्भ में है पर रामलाल जी की बात भी दरकिनार करने वाली नहीं है।

(नोट:लेख मात्र मनोरंजन के लिए है। इसका वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं है)

लेखक:

सुशील कुमार ‘नवीन’

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है।

96717-26237

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अनवर हुसैन की कविताएं

आजादी के दीवाने जो

आजादी के दीवानों जो
सर पर बांधे कफ़न निकले थे
लहू में मिला के अपने जो
आजादी वतन निकले थे
सरफरोशी की थी जिनकी तमन्ना
दिलों में आज भी जिंदा है
सच बताओ पाके आजादी
हम आज भी क्यूं शर्मिंदा है।

इंकलाब का दे के नारा
इंकलाब जो लाए थे
जिन के बनाए बमों से
दुश्मन भी घबराएं थे
आजादी के दीवानों की
यादें आज भी जिंदा है
सच बताओ पाके आजादी
हम आज भी क्यूं शर्मिंदा है।

भारत मां की अस्मिता जिनको,
जान से अपनी प्यारी थी
हंस के कफ़न पहनने की यारों
जिन के लहू में खुमारी थी
माटी के फरजंदो का,इंकलाब
आज भी यारों जिंदा है ।
सच बताओ पाके आजादी
हम आज भी क्यूं शर्मिंदा है।

पहने झोला वो बसंती
देते कौमी तराना बढ़ गए
हाथों में लिए तिरंगा
सूली पे हंसते चढ़ गए
राष्ट्र प्रेम की जली चिंगारी
दिलों में आज भी जिंदा है
सच बताओ पाके आजादी
हम आज भी क्यूं शर्मिंदा है।

अमर हुए मतवाले, दीवाने
पाके शहादत वतनपरस्ती में
नाम सुनहरा कर लिया
सब , दीवानों की बस्ती में
हर दिल में उन दीवानों की
जोत आज भी जिंदा है।
सच बताओ पाके आजादी,
हम आज भी क्यूं शर्मिंदा है।

  • संपर्क : सरवाड़, अजमेर, मो -8432286233



मनोरंजन तिवारी की कहानी – ‘दिवाली का उपहार’

दिवाली की तैयारियाँ चल रही है, साहब के घर पर काम बहुत बढ़ गया है। रोज रात में देर से आने के बाद “हरी” अपने पत्नी से कहता है। “अपने घर में भी दिवाली की तैयारी करनी है” उसकी पत्नी कहती, “इतने दिनों से सोच रहे हैं, घर में कोई ढंग का बर्तन नहीं है, इस धनतेरस पर बर्तन खरीदना है, तुम साहब से बोलो ना एडवांस में पैसे के लिए, वे माना नहीं करेंगे”।पर हरी उसकी हर बात को टाल जाता है।  कहता है, “वे खुद ही देंगे, महिना भी तो लग गया है, इस दिवाली पर मासिक वेतन के साथ बोनस भी देंगे तो हम बर्तन खरीद लेंगे”।

जैसे-जैसे दिवाली नजदीक आती गई, साहब के घर पर आने-जाने वालों का दिन भर ताँता लगा ही रहता है, साहब के ऑफिस का नौकर घर चला गया है, इसलिए अपने सारे काम करने के साथ-साथ लोगों को चाय-पानी और मिठाई खिलाते रात हो जाती है। इधर हरी की पत्नी ने हर साल की तरह इस बार भी धनतेरस के दिन मिट्टी के कुछ दिए और एक झाड़ू खरीद लिया।

दिवाली के दिन सबकी छुट्टी थी मगर साहब ने कहा ” हरी तुम कल सुबह आ जाना, तुम्हारी दिवाली भी तो देनी है” हरी मन ही मन बहुत प्रसन्न हुआ, घर जाकर अपने पत्नी को बोला, कल साहब ने सिर्फ मुझे बुलाया है अपने घर पर, कुछ खास दिवाली के उपहार देंगे मुझे, आदमी की परख है उन्हें, साहब इसीलिए सबसे ज्यादा मुझे मानते है।अगले दिन तड़के ही उठ कर हरी साहब के घर पर चला गया।  इधर उसके बच्चे पटाखे और मिठाई के लिए अपनी माँ को परेशान कर रहे थे। वह बच्चों को समझाती कि थोड़ी देर में ही उनके पापा आ जाएँगे तो चल कर ढेर सारी मिठाई और पटाखे खरीदेंगे।

बच्चे दिन भर अपने पिता की राह देखते रहे, इधर-उधर भटकते रहे। जब सायं ढलने लगी तब तो हरी की घरवाली भी चिंतित हो उठी, घर में पूजा का सारा काम पड़ा था, मगर उसका ध्यान सिर्फ अपने पति के राह देखने में ही लगा रहा। उधर साहब के घर पर आज रोज से भी ज्यादा लोगों का आना-जाना लगा रहा, लोग कीमती डब्बों में मिठाई और ड्राई फ्रूट उपहार में ला रहे थे। हरी उन पैकटों को समेट कर साहब के बैठके से साहब के घर में पहुंचाता रहा। मेहमानों को चाय-पानी पिलाता रहा।  मिठाई खिलाता रहा और सोचता रहा कि मासिक वेतन के साथ इसी में से कोई पैकेट साहब उसको उपहार दे दें तो कितना अच्छा हो।  ड्राई फ्रूट के पैकेट पर चढ़ी पन्नियों से सब दिखता था।  इसमें से कई ऐसे मेवें थे, जो हरी ने कभी नहीं खाए थे। लोग बैठक में बैठ कर किस्म-किस्म के बातें करने लगते।  कोई पाकिस्तान के दुनिया में अलग-थलग पड़ने की बात करता तो कोई देश की राजनीती पर बात करता।

समय बहुत तेज़ी से बीतता जा रहा था और इसके साथ ही हरी मन ही मन झुंझलाते जा रहा था। वह सोच रहा था कि ये लोग ये कैसी-कैसी बात लेकर समय बिताते जा रहे हैं। पर्व-त्यौहार का दिन है। सब जल्दी वापस जाएं ताकी साहब भी जल्दी फुरसत पाकर उसको दिवाली देकर विदा करें। पर ऐसा हुआ नहीं। शाम चार-पाँच बजे तक हरी के चेहरे का सारा उत्साह और ख़ुशी निचोड़ी जा चुकी थी। साहब उठते हुए बोले ” मैं तो बहुत थक गया हरी, तू बैठ थोड़ी देर, कोई आये तो चाय-पानी देना।  मैं एक बार नहा कर आता हूँ”।

साहब को अंदर गए करीब दो घंटे हो चुके थे।  इस बीच ,पता नहीं भूख से या किस बात से, हरी के आँखों से आँसुओं के बाँध कई बार टुट चुका था। अँधेरा हो गया था, हरी अभी भी कातर आँखों से साहब के घर के गेट को देख रहा था। आखिर जब पूजा का समय हो गया तो साहब अपने दोनों बेटों के साथ बाहर निकले। साहब के बेटों के हाथों में बड़े-बड़े पटाखों के पैकेट थे। साहब उन्हें सावधानी से पटाखे जलाने की हिदायत दे रहे थे। फिर हरी के पास आकर ऐसे बोले जैसे कुछ हुआ ही नहीं है, “अरे हरी,कोई आया तो नहीं था? मैं तो नहा कर सो गया था। नींद  आ गई थी।

हरी को कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या कहे? वह मन ही मन सोच रहा था कि अभी भी भीख माँगने पर ही साहब उसे उपहार देंगे क्या? उसके हलक के अंदर एक घुटी-घुटी सी चीख़ निकल कर होठों तक आती, फिर वापस चली जाती। किसी तरह खुद को संयत करते हुए, उसने कहा ” साहब मेरा वेतन दे देते तो… बच्चे मेरी राह देख रहे होंगे। साहब ने घर के भीतर से लाकर उसका वेतन और एक मिठाई का पैकेट पकड़ा दिया। वेतन में से तीन हजार रूपया काट लिए थे, जो हरी ने महीने के शुरू में ही एडवांस लिया था, पत्नी के दवाई के लिए।




“एकान्त का प्रलाप”

“एकान्त का प्रलाप”

विचार किया है मैंने
कई बार एकान्त में
कि हमें आसपास जो
लोग दिखते हैं शान्त से
हँसते हुए, मुस्कुराते हुए,
कुछ कहते हुए, गुनगुनाते हुए
सामने जो अपने से लगते हैं
क्यों अब छद्म से दिखते हैं!
सच क्या है, असत्य कितना है
कौन पराया है, कौन अपना है
तभी अंतर्मन चीख कर बोलता
जगत में अपना खोज पाना सपना है
सम्बंधों के नाम पर यहाँ
अभिनय किया जा रहा है
‘जय’ अधिकतर स्वार्थी हैं
स्वार्थवश जिया जा रहा है
मनुष्य का साथ छोड़ो
समय का हाथ पकड़ो
यदि जीवन जीना है तो
बस! समय के साथ चलो,
हाँ …. समय के साथ बढ़ो।




युवाओं को दिशाहीन करती नशे की आदत

कुछ समय पूर्व फ़िल्म अभिनेता सुशांत सिंह की आत्महत्या के मामले की जाँच में नए तथ्यों के सामने आने से सारे देश को झकझोर दिया है।कल्पना लोक,सपनो के संसार मे नशा का मकड़जाल सभी को हतभ्रत करता है इसमे अभिनेत्रियों के नामों ने चिंता की लकीरों को गहरा कर दिया ये सही है कि सच्चाई तो जांच के बाद ही सामने आएगी परन्तु ये घटनाक्रम हमे अपने गिरेवान में झांकने को मजबूर जरूर करता है।दिखावे वाली सभ्यता ने हमारे देश किस तरह अपनी ओर आकर्षित किया, इसकी ओर देश के युवा सबसे अधिक आकर्षित हुए है, और अपनी संस्कृति छोड़ इसी संस्कृति के पीछे भाग रहें है।नशाखोरी इसी अंधानुकरण का परिणाम है।हमारा देश युवाओं का देश है इन्ही के भरोसे वैश्विक आर्थिक महाशक्ति बनने का ख्वाब था। लेकिन जिस युवा पीढ़ी के बल पर देश विकास के पथ पर दौड़ने का दंभ भर रहा है, वह दुर्भाग्य से दिन पे दिन नशे की गिरफ्त में आ रही है।ड्रगवार डिस्टार्सन और वर्डोमीटर की रिपोर्ट के अनुसार नशे का व्यापार 30 लाख करोड़ से अधिक का है।अकेले हमारे देश की 20 प्रतिशत आबादी इसकी गिरफ्त में है।नेशनल ड्रग डिपेंडेंट ट्रीटमेंट(एनडीडीटी) एम्स की 2019 की रिपोर्ट बताती है कि देश मे ही 16 करोड़ लोग शराब का नशा करते है,इसमे बड़ी संख्या में महिलाएं भी शामिल है।ग्लोबल वर्डन और डीजीज स्टडी 2017 के आंकड़े बताते है कि दुनियाभर में 7.5 करोड़ से भी अधिक लोग अवैध ड्रग के कारण अकाल मौत मरे इनमें 22 हजार तो देश के लोग भी सम्मिलित है। इस लत के शिकार सभी वर्ग व आयु के लोग है।एक सर्वे के अनुसार देश में गरीबी की रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले लोगो मे लगभग 37 प्रतिशत नशे का सेवन करते हैं। इनमें वो लोग भी शामिल हैं जिनके घरों में दो वक्त की रोटी भी सुलभ नहीं है।उनके मुखिया मजदूरी के रूप में जो कमा कर लाते हैं वे शराब पर फूंक डालते हैं।अब ये समस्या देश के किसी राज्य तक सीमित नही रही एक राज्य के बारे में वहा के सामाजिक सुरक्षा विभाग की रिपोर्ट बताती है की बीते साल के अंत में राज्य के गांवों में करीब 67 फीसदी घर ऐसे हैं, जहां कम से कम एक व्यक्ति नशे की चपेट में है। इसके अलावा हर हफ्ते कम से कम एक व्यक्ति की ड्रग ओवरडोज के कारण मौत होती है।ऐसे ही हर राज्य को ये दानव अपने आगोश में लेता जा रहा है। नशा लेने में इजेक्शन के उपयोग के कारण लगातार एचआईवी और हिपेटाइटिस के प्रकरण भी बढ़ रहें है। समय रहते समाज को जागरूक बनना होगा तभी समाज को इस महामारी से बचाया जा सकेगा।

(लेखक राज्यपाल पुरस्कार प्राप्त शिक्षक है।)




भला भारत में ऐसे भी पूछ सकता है कोई..

सामयिक व्यंग्य: अर्णब की गिरफ्तारी

सुशील कुमार ‘नवीन’

देशहित सर्वोपरि। राष्ट्रहित सर्वोपरि। मुल्क का भला। आपका भला। उंगली उठाने वाले खबरदार..क्योंकि पूछता है भारत। नमस्कार दोस्तों ! मैं हूं आपका अर्णब गोस्वामी। और आप देख रहे हैं मेरे साथ ‘पूछता है भारत’ । 

देशवासियों, जो दिखता है क्या उसे देखना छोड़ दूं। जो आवाज चीख-चीख कर मुझे पुकारती है उसे सुन चीखना छोड़ दूं। अपने विचारों, अपनी भावनाओं की हत्या कर दूं। अपने कर्म, अपने मर्म की फिक्र करना छोड़ दूं। दोस्तों, मुझसे ये नहीं हो सकता। ये चैनल किसी के बाप का नहीं है। मेरा है। मेरा खून-पसीना है।जो चाहे वो करूं। 

जरा सोचिए, आखिर वे मुझसे क्यों डरते हैं। क्यों..डरते हैं  मुझसे। क्या मुझसे दो-दो हाथ करने की उनमें हिम्मत नहीं । खुद को फौलाद की दीवार कहते हैं वो। तो महानुभावों, मेरा भी सिर कांच का नहीं है। जो हल्की सी चोट से तिड़क जाऊंगा। हिम्मत है तो आओ। आज पूरा देश तुम्हें देखना चाहता है। और पूछना चाहता है सारा भारत। क्यों कर रहे हो ऐसा। ये अर्णब गोस्वामी, ललकारता है तुम्हें। आओ, आ जाओ, आ भी जाओ यार। दिखा दो अपनी हिम्मत। क्या कहा। मेरा इलाज करोगे। अरे सुनो, हुक्म के गुलामों। लेमन ड्रिंक्स नहीं हूं मैं। जो झट से पी जाओगे। कॉटन कैंडी नहीं हूं, जो सटाक से गटक जाओगे। कुछ नहीं कर सकते मेरा। आजाद भारत की एक सौ बतीस करोड़ जनता साथ है मेरे। क्या कर लोगे। ओ भाई, कान खोल कर सुन लो। अर्णब दूध पीता लल्ला नहीं है। जो तुम्हारी एक गीदड़ भभकी से मां के आंचल में छुप जाएगा। और सुनो, हाथों में चूड़ियां नहीं पहन रखी। पास आकर तो देखो, कच्चा चबा जाऊंगा कच्चा। चप्पल चोरों चिंदी चोरों, फ्री की राजमा बिरयानी खाने वालों। पांच मिनट देता हूं। पांच मिनट। फिर न कहना। अर्णब गोस्वामी ने मौका नहीं दिया अपने आपको साबित करने का….।

चकरा गए ना। सोच रहे होंगे। दूसरों के दिमाग का दही बनाने वाले महानुभाव आज कैसी बहकी-बहकी बात कर रहें है। सुबह से आज सर मेरा भी चकरा रहा है।  जब से लाउडस्पीकरों को मात देने वाले, सरदर्द के साथ बदनदर्द करने वाले, आ बैल मुझे मार कहने वाले, महा ओजस्वी,महाऊर्जावान,देदीप्यमान,राजनीति के भावी उदीयमान सितारे, कॉमेडी पत्रकारिता में एकछत्र राज स्थापित करने वाले जनता के चहेते अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी की बात पता चली है, रोटी का एक कोर गले नहीं उतर रहा। वजह भी वाजिब है। जब तक रोज उसे एक घण्टे न सुन लें, नींद ही नहीं आती। 

नाश जाए इस मुम्बई पुलिस का। भलेमानुष को भला कोई ऐसे गिरफ्तार करके ले जाया जाता है। वो कोई रणछोड़ थोड़े ही है जो मैदान छोड़ कर भाग जाए। उसे बताते तो सही कि हम तुम्हें गिरफ्तार करने आ रहे हैं। पगले की खुशी का कोई ठिकाना ही नहीं रहता। आवभगत में कोई कोरकसर नहीं छोड़ता। काजू कतली, बेसन बर्फी, बीकानेरी नमकीन कड़क कॉफी के साथ तैयार मिलती। चलो, मान लेते हैं। इस तरह की गिरफ्तारी में मेजबानी स्वीकार करना उचित नहीं था तो कम से कम उसे दो-तीन घण्टे का समय तो दे देते। जब तक वह सोच विचारकर  इस बारे में जिम्मेदारों को कोस तो पाता। आज का प्रोगाम ही रिकॉर्ड कर लेने लेते। मुद्दा तो वो अपने आप ही बना लेता। मौका तो देते एक बार। चुपके से ले गए हो। कोई गाजा बाजा लाते। बाहर हजारों लोग खड़े होने देते। अमिताभ बच्चन स्टाइल में खुद ही हथकड़ी लगवाने देते। फिर देखते उसकी टीआरपी के साथ मुंबई पुलिस की टीआरपी भी शिखर छू जाती। 

    खैर अब ले ही गए हो तो देश की जनता के भावनार्थ एक लाइव प्रोग्राम वहीं से दिखवा देना। बड़े दिल का है वो। सारी व्यवस्था खुद ही कर लेगा। डिबेट में तुम्हे पक्का शामिल करेगा पर तुम्हें बोलने देगा या नहीं इस बात की गारंटी नहीं है। उसके पास जुझारू, कर्मठ निष्ठावान रिपोर्टर की फौज है। उन्हें भी तो काम चाहिए। उसे लाइव सुनने का मौका नसीब वालों को ही मिलता है। बस तुम उसे परमिशन दे देना। बाकी सब उसके भरोसे छोड़ देना। क्या कहा। प्लानिंग चल रही है। ठीक है तो बता देना। जनता जानना चाहती है कि पूछता है भारत से आप पूछेंगे या वो ही आवाज सुनाई पड़ेगी। पूछता है भारत। मेरे साथ आप भी इंतजार कीजिए। कुछ सूचना आई तो अगले अंक में आपको सुनाऊंगा पूछता है भारत का हाल। तब तक नमस्कार। राम राम। 

 उसकी डायलॉग और स्क्रिप्ट तो सलीम-जावेद को भी माफ करने वाली है। खाली हाथ दुर्योधन कहीं के। अरे चीन के चपरासी। भाग जाओ यहां से। भाग जिनपिंग..भाग जिनपिंग।  मैं नहीं चाहता कि आपको जूते मारे जाएं। मगर मारेंगे वो पक्का आपको। अंगुली नीचे करने को बोलो उसे, अंगुली। मेरे पास कोई उड़नखटोला नहीं है। अरे मैं तो डर गया,हिल गया। नहीं मांगूगा माफी, क्या कर लोगे। ए, सुन औकात की बात मत करना। आप मुझे हड़काओगे। आप जैसे 50 लोग लगे है मेरे पीछे। आप जवाब देने आए हैं या सवाल पूछने। अकेले खड़े हो। पराजित। कोई इज्जत नहीं करता। परमपराजित।  जुबान संभालकर बात करिए। कौन डरता है आपसे ।अरे हुर्रियत के समर्थक। अरे गिलानी के चमचे।अरे बाजवा के चाटुकार। अरे रावलपिंडी के हलवाई। अरे इस्लामाबाद के मुरझाए फूल। आप पाकिस्तानियों मेरी बात सुनो। रिश्ते में हम तुम्हारे बाप लगते हैं और नाम है हिंदुस्तान। समझते क्यों नहीं। मुझे ये बताइए ये टिड्डी बिरयानी खाने वाले चप्पल चोर।

(नोट: लेख मात्र मनोरंजन के लिए है। दिल पर लेने का प्रयास कदापि न करें।)        

लेखक: 

सुशील कुमार ‘नवीन’

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है।

96717-26237

 

 




शिक्षक और समाज

*शिक्षक और समाज*
माधव पटेल
वर्तमान समय मे शिक्षक की भूमिका अत्याधिक महत्वपूर्ण है आज शिक्षक केवल पुस्तकीय ज्ञान का प्रदाता न होकर पथ प्रदर्शक भी है जीवन का मार्गदर्शन करने वाला है परंतु अब शिक्षक के पद का दायरा सीमित हो रहा है इसे केवल विद्यालयी शिक्षण तक समेट दिया गया है प्रशासकीय व्यवस्था में वह अकेले शासकीय कर्मचारी जैसा बन कर रह गया है जबकि आवश्यकता है इसे व्यापक बनाने की माना जाता है कि यदि शिक्षक नही होता तो शिक्षण की कल्पना भी नही की जा सकती थी शिक्षण की आधारशिला शिक्षक के द्वारा ही रखी जाती है प्राचीन काल से ही शिक्षक का दर्जा बहुत ही उच्च और अहम रहा है वह समाज का आदर्श होता था शिक्षक के स्वरूप में ईश्वर की तक कल्पना की गई”गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः
गुरु साक्षात पर ब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः” श्लोक में गुरु की तुलना ब्रह्मा से की गई है जिस प्रकार ब्रह्मा को सृष्टि का रचयिता माना जाता है उसी प्रकार शिष्य के सम्पूर्ण जीवन के निर्माण की बागडोर शिक्षक के हाथों में होती है गुरु का कार्य शिष्य का जीवन निर्माण होता है,शिक्षक ज्ञान रूपी आहार देकर शिष्य को जीवन संघर्ष के योग्य बनाता है उसका चरित्र निर्माण करता है इसलिये उसकी तुलना विष्णुजी के रूप मे भी की गई ,शिष्य के दुर्गुण दूर करने के कारण उसकी बुराइयों के संहार करने के कारण शिक्षक को महेश भी कहा गया है|शिक्षक समाज के आदर्श स्थापित करने वाला व्यक्तित्व होता है किसी भी देश समाज के निर्माण में शिक्षक की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण यदि दूसरे शब्दों में कहे तो शिक्षक समाज का आईना होता है छात्र और शिक्षक का संबंध केवल विद्यालयी शिक्षा देने तक सीमित नही रहता वल्कि शिक्षक हर मोड़ पर एक मार्गदर्शक की भूमिका का निर्वाहन करता है विद्यार्थी में सकारात्मक सोच विकसित करता है उसे सदा आगे बढ़ने के लिए प्रेरणा देता है और स्वयं को भी उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत करता है एक सफल जीवन यापन हेतु शिक्षा अनिवार्य प्रक्रम है संसार मे भारत ही एकमात्र ऐसा राष्ट्र है जहाँ शिष्यो को विद्यालयी ज्ञान के साथ उच्च मूल्यों को स्थापित करने वाली नैतिक व चारित्रिक शिक्षा भी प्रदान की जाती है जो छात्र के सर्वांगीण विकास में सहयोगी होती है गुरु का शाब्दिक अर्थ होता ही है अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला गु अर्थात अंधकार और रु का मतबल नष्ट करने वाला है परंतु बदलाव का प्रभाव सम्पूर्ण व्यवस्था पर पड़ता है शिक्षक और शिक्षा इससे अछूते नही है शिक्षक पथ प्रदर्शक है ज्ञान प्रदाता है उसका आचरण और व्यवहार समाज के लिए अनुकरणीय रहा है तो निश्चित रूप से ये प्रश्न उठना लाजिमी है कि शिक्षकीय गरिमा को लोग शनैः शनैः विस्मृत क्यो करते जा रहे है शिक्षक की उपेक्षा आज हमारे लिए कमजोरी बन रही है तथा समाज को घातक सिद्ध हो रही है फिर चाहे हम लौकिक शिक्षक की बात करे या फिर किन्ही अन्य गुरूओ की राष्ट्र निर्माण में एक शिक्षक का योगदान जितना होता है उतना शायद ही किसी का होता हो क्योंकि राष्ट्र की उन्नति में प्रत्येक क्षेत्र मे उसके छात्रों का योगदान रहता है कोई राजनेता,अभिनेता,खिलाड़ी, लेखक, डॉक्टर या फिर इंजीनियर की भूमिका में अपने अपने क्षेत्र में राष्ट्र उन्नति को दिशा दे रहा होता है आधुनिक दौर में शिक्षक की भूमिका और भी चुनौतीपूर्ण हो गई क्योंकि अब छात्र सजग,कुशल और अधतन रहता है जिसके सामने खुद को कुशलता और तत्परतापूर्वक प्रस्तुत करना किसी कला से कम नही है उनके सामने शिक्षक का दायित्व बढ़ जाता है क्योंकि उसे न केवल बौद्धिक,भौतिक, मनोवैज्ञानिक, शरीरिक विकास करना है अपितु सामाजिक, चारित्रिक एवं संवेगात्मक विकास भी तय करना है |स्वयं के आचरण द्वारा छात्रों के मानस पटल पर अमिट अविस्मरणीय छाप भी छोड़नी होती है उसे अपने प्रेम,अनुभव,शिक्षा, समर्पण ,सृजन, त्याग व धैर्य से छात्रों की मूलभावना जानकर उसे सही दिशा देने का कार्य करना होता है क्योंकि यही भविष्य के नागरिक होते है शिक्षक का कार्य बहुत महत्वपूर्ण है। जिस प्रकार शिक्षा सम्पूर्ण जीवन प्राप्त होती रहती है वैसे ही शिक्षण भी सतत चलने वाली अंतहीन प्रक्रिया है व्यक्ति पूरे जीवन कुछ न कुछ सीखता रहता है और उसे कोई न कोई सिखाने वाला मिलता ही है चाहे औपचारिक शिक्षण हो या फिर अनोपचारिक शिक्षण। शिक्षक के संबंध में कहा गया कथन अपनी सार्थकता स्वमेव सिद्ध करता है “गुरु कुम्हार शिष्य कुंभ सम गड गड काढ़े खोय,
अंदर हाथ सहार दे बाहर मारे चोट”
बेशक किसी देश की शिक्षानीति संतोषप्रद न भी हो तो ये शिक्षक का चातुर्य होता है कि कम उपयोगी शिक्षा नीति को भी अच्छी शिक्षा में तब्दील कर देता है शिक्षा और शिक्षण किसी भी राष्ट्र की रीढ़ होते है ,उन्नति की नींव होते है वस्तुतः शिक्षक एक प्रकाशपुंज की तरह होता है जो अपनी आत्मा की ज्योति को समाज के मानस में ब्याप्त कर अपने व्यक्तित्व की विराट छवि से सम्पूर्ण राष्ट्र को प्रदीप्त करता है शिक्षक समाज के अंधकार को हरण करने वाला प्रकाशस्तंभ होता है शिक्षक वह सर्वशक्ति सम्पन्न व्यक्तित्व है जो राष्ट्र हित हेतु अपने छात्रों के उत्कर्ष व कल्याण के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देता है उसके इस त्याग समर्पण में ही राष्ट्र कल्याण निहित होता है।शिक्षक नैतिक,आध्यात्मिक व भौतिक शक्तियों का अथाह भंडार होता है शिक्षक में राष्ट्र निर्माण की अदम्य शक्ति संचित होती है उसमें मानवता का विकास करने की अदभुद क्षमता समाहित होती है शिक्षक के विचार और व्यवहार समाज को प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित करते है शिक्षक का चरित्र छात्र और समाज के लिए पाठशाला ही होता है यदि शिक्षक के हृदय में सच्चे अर्थो में समाज निर्माण की आकांक्षा है तो निश्चित ही अपना चरित्र उन आदर्शो में व्यवस्थि करने के लिए प्रयत्नशील होगा जिससे वह समाज मे परिवर्तन लाना चाहता है उसके हाथ मे विद्यार्थियों के रूप में वह शक्ति होती है जिससे वह पुनः समाज की रचना कर सकता है ऐसे शिक्षको के लिए कहा गया है”गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागू पांव
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो मिलाय”
हुमायूं कबीर के अनुसार”शिक्षक राष्ट्र के भाग्य निर्णायक है यह कथन प्रत्यक्ष रूप से सत्य प्रतीत होता है परन्तु अब बात पर अधिक बल देने की आवश्यकता है कि शिक्षक ही शिक्षा के पुनर्निर्माण की महत्वपूर्ण कुंजी है यह शिक्षक वर्ग की योग्यता ही है जो कि निर्णायक है” शिक्षक ही वह शक्ति है जो प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से,आने वाली संततियों पर अपना प्रभाव डालती है भारतीय संस्कृति का एक वाक्य प्रचलित है “तमसो मां ज्योतिर्गमय” जिसका आशय होता है अंधेरे से उजाले की ओर जाना इस प्रक्रिया को वास्तविक अर्थों में पूरा करने के लिए शिक्षा, शिक्षक और समाज तीनो की महत्वपूर्ण भूमिका होती है भारतीय समाज शिक्षा और संस्कृति के मामले में प्राचीनकाल से ही बहुत संमृद्ध रहा है शिक्षक को समाज के समग्र व्यक्तित्व के विकास का उत्तरदायित्व सौपा गया है महर्षि अरविंद ने एक बार शिक्षको के संबंध में कहा था कि “शिक्षक राष्ट्र की संस्कृति के चतुर माली होते है वे संस्कारो की जड़ो में खाद देते है और अपने श्रम से सींचकर उन्हें शक्ति में परिवर्तित करते है”किसी भी राष्ट्र का निर्माता कहे जाने वाले शिक्षक का महत्व यही समाप्त नही होता क्योंकि वे न सिर्फ समाज को आदर्श मार्ग पर चलने को प्रेरित करते है बल्कि प्रत्येक छात्र के सफल जीवन की नींव भी इन्ही हाथो से रखी जाती है।
आज जैसे जैसे हमारे समाज ने उत्तरोत्तर प्रगति की समाज का हर ताना बाना भी प्रभावित हुआ है ।सामाजिक संस्थानों में समय समय पर जो परिवर्तन हो रहे है वो किसी से छिपे नही है कुछ सकारात्मक स्वरूप लेकर समाज निर्माण कर रहे है तो कुछ समाज के लिये विध्वंसक बन रहे है शिक्षा समाज के लिए आवश्यक व अनिवार्य तत्व है ये कहना अतिशयोक्ति नही होगी कि भोजन पानी जितनी आवश्यक शिक्षा भी है क्योंकि इसी के द्वारा हम जीवन कौशल सीखते हैं परंतु वर्तमान में शिक्षा का स्वरुप दिन प्रतिदिन बदरूप होकर बदलता जा रहा है शिक्षा नैतिक जीवन की आधारशिला न होकर केवल जीविकोपार्जन का साधन मात्र बनती जा रही है यह एक कटु सत्य है कि प्रत्येक व्यक्ति की शिक्षा का एकमात्र लक्ष्य अच्छी नौकरी प्राप्त करना रह गया है जिस तरह शिक्षा बदल रही है शिक्षक भी उससे अप्रभावित नही है अब वह पथप्रदर्शक के स्थान पर निर्देशकर्ता बनकर रह गया है चूंकि शिक्षक भी समाज का एक अभिन्न अंग है समाज के बदलाव उसे भी प्रभावित करते है उसकी सोच भी व्यावसायिक होती जा रही है वह भी एक हाथ दो एक हाथ लो कि पद्धति का अनुसरण करने लगा है उसी व्यावसायिकता के चलते शिक्षा का स्तर दिनोदिन गिरता जा रहा है अधिक धन कमाने की लालसा ने शिक्षा जैसे दान के कार्य को व्यापार का रूप दे दिया है ऐसी शिक्षा से धन तो प्राप्त हो जाएगा परंतु नैतिक पतन तो अवश्यम्भावी है आज सब भौतिक सुख सुविधाओं में इतने तल्लीन हो गए है कि उन्हें खुद के दायित्व नजर नही आते न ही समाज के प्रति कर्तव्य आर्थिक उन्नति ही विकास का पर्याय होती जा रही है इस प्रकार का बदलाव समाज के लिए सकारात्मक न होकर नुकसानदेह ही होता है क्योंकि शिक्षा और शिक्षक किसी भी समाज की धुरी होती है अगर वही टूट गई तो हम सभ्य समाज की कल्पना भी नही कर सकते इसकी परिणति आये दिन शैक्षिक संस्थानों में देखने को मिलती रहती है कभी प्रोफेसर सभरबाल के रूप में तो कभी अन्य के रूप में प्रश्न यही है कि हमारे शिक्षक के प्रति सम्मान की इतनी मजबूत नीव हिलने कैसे लगी समाज के दिशा निर्धारक इस व्यक्तित्व को शनैःशनैःविस्मृत क्यो किया जा रहा है।आज शिक्षा के गिर रहे स्तर के लिए निश्चित रूप से शिक्षक को जबाबदेह ठहराया जाता है परंतु हमे यह देखना होगा कि क्या यह पूर्णतः सत्य है तो हम पाएंगे कि समाज की शिक्षा के प्रति व्यवसायीकरण की सोच तथा शिक्षक के शैक्षिक कार्य के अतिरिक्त अन्य कार्यो में समायोजित करना भी इसका एक प्रमुख पहलू है यदि शिक्षक प्रारंभिक समय से ही शिक्षण पर पूर्ण ध्यान केंद्रित नही कर पायेगा तो उसके आगामी प्रतिफल प्राप्त नही किये जा सकते है।छात्रों द्वारा जीवन मे कुछ अच्छा करने पर आज भी शिक्षकों का हृदय गर्व से भर जाता है परंतु समय मे वदलाव स्वरूप छात्र व शिक्षक के बीच जो विश्वास का पल बना था वह कमजोर हुआ है वे एक दूसरे को शंका व संदेह की दृष्टि से देखने लगे है यदि हम कहे तो इस गुरु शिष्य परंपरा को कमजोर करने में शिक्षक और छात्र दोनों का योगदान है ।कुछ शिक्षको की कार्य के प्रति उदासीनता और बच्चों की भौतिकवादी सोच व दिशाहीनता ये सभी शिक्षा स्तर की गिरावट के लिए उत्तरदायी है जरूरी के है कि दोनों अपनी अपनी जिम्मेदारियों को समझे और ईमानदारी से उसका निर्वाहन करे शिक्षक और छात्र के बीच की दूरी बढ़ने से धीरे धीरे उनके बीच की आत्मीयता और सम्मान कम होते जा रहे हैं जो भविष्य के बड़े संकट के संकेत है समय रहते इस बात पर ध्यान केंद्रित नही किया तो एक बड़ा संकट हमारे सामने होगा इसका एक पक्ष ये भी है कि वर्तमान समाज शिक्षको की असुविधाओं को देखकर भी उनके निराकरण में उदासीनता दिखाता है शिक्षको के कंधों पर बच्चों के भविष्य निर्माण का भार तो सौप देता है लेकिन शिक्षको के प्रति अपने दायित्वों को भूल जाता है इन्ही कारणों से शिक्षक के सामाजिक स्थान एवं दर्जे में भारी गिरावट आ गई है समाज और शिक्षक के बीच की दूरी सम्पूर्ण व्यवस्था में अव्यवस्था पैदा कर रही है।यह स्थिति न तो छात्र न शिक्षक और न ही राष्ट्र के हित मे है आज के वैश्विक दौर में हर इंसान आर्थिक हितों की सोच की ओर अग्रसर हो रहा है शिक्षक भी इससे अप्रभावित नही है ऐसे में कई बार ऐसे रास्ते चयन हो जाते है जो नैतिक रूप से सही नही कहे जा सकते यही एक कारण भी है कि तमाम सरकारी प्रयासो के बावजूद शिक्षा का व्यवसायीकरण होता ही जा रहा है संस्थान केवल प्रमाणपत्र वितरण केंद्र बनते जा रहे है ।समाज का नैतिक स्तर लगातार गिर रहा है शिक्षा व्यवसाय बनती जा रही है परंतु शिक्षकों को विचार करना होगा कि वे केवल शासकीय कर्मचारी नही है अपितु उनके ऊपर समाज के नैतिक उत्थान की महत्वपूर्ण जबाबदेही भी है शिक्षक अपनी गरिमा समझें यदि वह खुद को अकेले कर्मचारी मानने लगेंगे तो इससे बड़ा दुर्भाग्य हो ही नही सकता ।शिक्षकों को अपने अतीत के गौरव को समझना चाहिए साथ ही उसे खो देने के कारणों पर विचार करके स्वयं में बदलाव लाना चाहिए नही तो यह केवल शिक्षक का पतन नही होगा बल्कि सारे राष्ट्र को इसकी कीमत चुकानी होगी ।आज शिक्षा व्यवस्था की स्थिति के लिए राजनीतिक, सामाजिक और शैक्षिक सभी स्तरों पर चिंतन और निकालकर आये तथ्यों का निराकरण जरूरी है अन्यथा हमारी गौरवशाली शैक्षिक परंपरा हमारे लिए उदाहरण मात्र रह जायेगी
माधव पटेल
(राज्यपाल पुरस्कार प्राप्त शिक्षक)




उत्तर सत्य युग में राष्ट्रीय साँस्कृतिक जागरण

वर्तमान संदर्भ में मीडिया और राष्ट्रीय साँस्कृतिक जागरण

डाॕ पद्मप्रिया

असोसिएट प्रोफेसर

हिन्दी विभाग, पाँडिच्चेरी विश्वविद्यालय

 

आधुनिक युग में राष्ट्रों के चरित्र निर्माण में समाचार पत्र, रोडियो, टी.वी. तथा इंटरनेट का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है जनसंचार माध्यम तथा राष्ट्रों का उदय तथा विकास लगभग समानांतर चलता रहा है।  राष्ट्रीय साँस्कृतिक जागरण निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है भारत में इस प्रक्रिया को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है पहला स्वतंत्रता पूर्व काल और दूसरा स्वातंत्रयोत्तर काल |

     स्वतंत्रता पूर्व काल में एक तरफ उपनिवेशवादी शक्तियों से मुक्ति प्राप्त करने का संघर्ष चल रहा था तो दूसरी ओर साँस्कृतिक पहचान की स्थापना का कार्य चल रहा था अंग्रेजों से लडाई केवल सत्ता के लिए ही नहीं थी बल्कि दो सँस्कृतियों की टकराहट भी थी स्वातंत्र्योत्तर काल में भी भूमंडलीकरण के कारण साँस्कृतिक धरातल पर पहचान की राजनीति सक्रिय रही और आज भी विद्यमान  है

वस्तुत: मीडिया एवं राष्ट्रवाद ऐतिहासिक रूप से एक दूसरे से अविनाभाव संबंध रखते हैं मीडिया या जनसंचार माध्यम राजनीति को जनता तक पहुँचाने वाले सशक्त उपकरण है राष्ट्रीयसाँस्कृतिक परिप्रेक्ष्य को प्रचार करने में ही नहीं बल्कि जनता में चेतना जागृत करने की जिम्मेदारी भी मीडिया पर है इस संदर्भ में दो पक्ष उरते हैं  

  1. मीडिया और राष्ट्रवाद
  2. मीडियाइ राष्ट्रवाद 

उपरोक्त बिन्दुओं पर विचार करने से पहले पत्रकारिता की कुछ परिभाषाओं पर दृष्टि डालें| टाइम्स मैगज़ीन के अनुसारपत्रकारिता इधर उधर से एकत्रित सूचनाओं का केंद्र है जो सही दृष्टि के संदेश भेजने का काम करता है जिससे घटनाओं के सहीपन को देखा जाता है  

डॉ. अवनीश सिंह चौहान के अनुसार – “तथ्यों सूचनाओं एवं विचारों को समालोचनात्मक एवं निष्पक्ष विवेचन के साथ शब्द, ध्वनि, चित्र, चलचित्र संकेतों के माध्यम से देशदुनिया तक पहूुँचाना ही पत्रकारिता है यह एक ऐसी कला है जिससे, देश, काल और स्थिति के अनुसार समाज को केंद्र में रखकर सारगर्भित एवं लोकहितकारी विवेचन प्रस्तुत किया जा सकता है  

पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है और जनता की आवाज़ को अभिव्यक्त करने का लोकतांत्रिक उपकरण है जो सामाजिक, साँस्कृतिक, राजनैतिक, धार्मिक विषयों पर आधारित खबरों को आम जनता तक पहूुँचाता है। पत्रकार राजकिशोर के कथनानुसार – “पत्रकारिता खबरों की सौदागरी नहीं है, उसका काम सत्ता के साथ शयन है उसका काम जीवन की सच्चाइयों को सामने लाना है पत्रकारिता का व्यवसाय जिम्मेदारीपूर्ण है इसके नैतिक सिद्धांत स्पष्ट हैं यह आंरभ में उद्योग नहीं था आज यह एक बहुत बड़ा उद्योग बन गया है जिसका प्रमुख कार्य सूचना देना, शिक्षा और मनोरंजन के साथसाथ लोकतंत्र की रक्षा एवं जनमत संग्रह है संचार माध्यमों ने सूचनाओं को समाचार के द्वारा देने की प्रक्रिया में होड़ उत्पन्न कर दिया है  

जब से दृश्यश्रव्य माध्यमों का बोलबाला बढ़ा है तब से पत्रकारिता का स्वरूप बदलता रहा है | साथ में पत्रकारिता के नैतिक सिद्धांतों के साथ भी समझौता हुआ है लोकतंत्र की रक्षा तथा जनमत को स्वर देना जहाँ पत्रकारिता की बुनियाद है वहाँ अब वह एजेंडा निधारण करने लगा है और सत्य, तथ्य, सटीकता, स्वतंत्रता, तटस्थता, औचित्य, निष्पक्षता, मानवीयता,आदि मूल्यों के साथ समझौता होने लगा है इंटरनेट, निजी चैनल मोबाइल, सोशल मीडिया आदि ने अनेक परिवर्तनों को उत्पन्न किया है  

वर्ष 2016 पत्रकारिता के क्षेत्र में विशेष महत्व रखता है इसी साल ऑक्सफॉर्ड शब्दकोश ने पोस्ट-ट्रूथ अथवाउत्तरसत्य” शब्द कोवर्ड ऑफ इयर” अर्थातवर्ष का शब्द” घोषित किया है  

उपरोक्त समस्त बातों को समेटकर संक्षेप में कहा जा सकता है कि –”We live in an unfinished revolutionary age of communicative abundance, networked digital machines and information flours are slowly but surely shaping practically every institution in which we live our daily lives. “

हम सूचनाओं की अधिकता के असम्पूर्ण युग में जी रहे हैं, तथा सूचना प्रवाह का संजाल धीरेधीरे परन्तु निश्चितता के साथ समाज के उन सभी संस्थाओं को गढ़ रहा है, जिसमें हम रोज़मर्रा का जीवन जीते हैं। 

    इस प्रपत्र का मुद्दा राष्ट्रीय साँस्कृतिक जागरण है। राष्ट्र और संस्कृति को मीडिया निर्धारित कर रहा है। परन्तु सत्य के आधार पर नहीं बल्कि उत्तरसत्य के आधार पर जो तथ्यों पर नहीं बल्कि भावनाओं को हवा देकर झूठी खबरों पर आधारित है। पत्रकारिता की ऐसी दुरवस्था का कारण स्वयं पाठक समाज भी है। क्योंकि उसने हवाई बातों पर विश्वास करना सीख लिया है और किसी भी बात पर प्रश्न करना, संशय करना, तथ्य माँगना छोड़ दिया है। पाठक समाज सूचनाओं के बाढ़ में बह रहा है।  

    डिजीटल युग में राष्ट्रवाद का चेहरा भी पूर्व निर्धारित हो रहा है। भावनाओं को भड़काया जा रहा है। चैनलों पर चर्चा में शामिल होने वाले व्यक्ति विषयविशेषज्ञ नहीं होते और कोई भी वक्ता अपनी बात को स्थिरता से , तर्कपूर्ण ढंग से प्रस्तुत नहीं कर पाता और समस्त चर्चा एक  अर्थहीन शोर में बदल जाती है। इस शोर में अप्रत्यक्ष प्रतिभागी के रूप में दर्शक भी लिपट जाता है। 

    आज सब कुछ पर्दे पर गया है। दीवार से लेकर गोद और हथेली पर टी. वी, लैपटॉप, मोबाईल विराजमान है| यह उस आग की तरह है जो सही इस्तेमाल से ऊर्जा देगा और गलत प्रयोग से विस्फोट कर देगा।

    आज विश्व के समस्त देश पत्रकारिता के उत्तर सत्य स्वरूप से त्रस्त है पर यह दोष मात्र पत्रकारिता का नहीं है। बल्कि राजनीति तथा भूमंडलीकरण का भी है, जहाँ सत्य की जगह वैकल्पिक सत्यों को स्थापित किया जाता है और प्रमाण की जगह भावनाओं को उछाला जाता है।

    उत्तरसत्य शब्द का प्रयोग सबसे पहले 1992 में सर्बियाईअमरीकी लेखक स्टीन टेसिच ने अपने लेख गवर्नमेंट ऑफ लाइस’ (झूठ की सरकार) में किया था। टेसिच ने अमरीकी जनता को बुश (वरिष्ट) के झूठ को सिर झुकाकर स्वीकार  करने तथा सचेत रूप से उत्तरसत्य स्थितियों में जीने की आलोचना की थी। 2004 में इस शब्द का प्रयोग पुन: राल्फ कीस की पुस्तकउत्तरसत्य युगमें प्रयुक्त हुआ। 2006 में अमरीकी चुनावों के दौरान यह अधिक लोकप्रिय हुआ। परन्तु इस प्रक्रिया ने भारत में भी परिणाम उत्पन्न किए। उत्तरसत्य युग में सत्य को नकारा नहीं जाता मतलब यह नहीं कहा जाता कि सत्य होता है, बल्कि यह माना जाता है कि सत्य जरूरी नहीं है। सत्य वही है जो बोला जा रहा है, जो दिखाया जा रहा है और जो एजेण्डा के तहत निर्धारित है। जनता को सोचनेसमझने का मौका भी नहीं मिलता। जनता को निरंतर निर्धारित एजेण्डा की घुट्टी दृश्यश्रव्य माध्यमों द्वारा अविरल पिलाकर विश्वास दिलाया जाता है और एक सामूहिक भावनाओं के पुँज का भी निर्माण हो जाता है जो आर्थिकराजनैतिक उद्देश्यों को पूरा करता है। यह सब कुछ ब्रेकिंग न्यूज की होड़ में किया जाता है और सचझूठ का अंतर मिट जाता है जो एक सामूहिक बल प्राप्त करता है। इसका उपयोग सत्तासीन शक्तियाँ अपनी विचार धारा के अनुसार अपने लाभ के लिए करती है। अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के साथ ही फेक न्यूज और पोस्टद्रूथ की प्रक्रिया सुदृढ़ हुई। 

    इस प्रकार वर्तमान संदर्भ में मीडिया और राष्ट्रवाद का अंत:सम्बन्ध मीडियाई राष्ट्रवाद का निर्माण करता है और विभिन्न सँस्कृतियों को वस्तु में बदल कर बिकाऊ बना देते हैं। ऐसा नहीं है कि इतिहास में पहले कभी शासकों ने झूठ को बढ़ावा नहीं दिया या किसी उद्देश्य प्राप्ति के लिए जनसंचार माध्यमों का प्रयोग नहीं किया। परन्तु अंतर यह है कि आधुनिक राष्ट्रों तथा राष्ट्रवाद के उदय से  लेकर वर्तमान राष्ट्रों एवं राष्ट्रवाद की संकल्पना से लेकर स्थापना तक मीडिया के नैतिक मूल्यों में परिवर्तन हुआ है। सच को हटाकर झूठ को स्थापित कर दिया गया है और झूठ को सच कहा जा रहा है। जनता को जहाँ सूचनाएँ आसानी से उपलब्ध हैं वहीं सूचनाओं के आधिक्य ने अस्पष्टता तथा निष्क्रियता को भी बढ़ावा दिया है। 

    भारत में स्वतंत्रता पूर्व काल में पत्रकारिता ने सत्य, तथ्य, सुधार, प्रचार, प्रसार को नैतिक मूल्यों के साथ राष्ट्रीय सांस्कृतिक चरित्र का निर्माण किया वहीं वर्तमान संदर्भ में पत्रकारिता उत्तरसत्य परिवेश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के व्यवसाय में डूबतीउतराती नजर रही है।

 

अॕानलाइन संदर्भ –

  1. नेशनलिज्म,पोप्यूलिज्म एंड पॉस्ट ट्रूथ- बाईफ्रास्ट यूनिवर्सिटी |
  2. मीडिया बयास/फास्ट चेक/पोस्ट ट्रूथ प्राबलम्स |
  3. सोल्यूशन्स फॉर पोस्ट ट्रूथ- टाॕम रेफर्टी |




सौभाग्य-पर्व और तुम

04-11-2020
आज सौभाग्य-पर्व के उपलक्ष्य पर

सच्ची में ..

आज आप बहुत याद आ रहे हैं ..
यूँ तो हम प्रतिदिन बात करते हैं
घण्टों मोबाइल से
पर आज की बात कुछ अलग है
सच्ची में ..

आप दिलासा देते हैं मुझे हर त्योहार
घर आने की और हर बार
कोई न कोई अड़चन
सामने आ जाती और ठिठक जाते हैं
पैर आपके वहीं पर …
मेरी आशाओं को कुचल कर
सच्ची में …

सामाजिक सम्बंधों को निभाते हुए
दिन तो व्यतीत हो जाता है किंतु ..
रात .. रात जिसपे आपका है अधिकार
वह रात .. जो आपके साथ होने पर
शरमाती है, सहमती है, सिसकती है
वही आज मुँह चिढ़ाती है मेरा बार बार
बोलती है, ‘क्या यही है तुम्हारा प्यार’
सच्ची में ..

ढलता हुआ चन्द्रमा और खिलता हुआ सूरज
फुसफुसाते रहते हैं प्रायः मुझे देख कर
मैं जानती हूँ कि हँसेगा आज का चंद्र मुझ पर
साथी सितारे लगाएंगे ठहाके और
आज व्योम में मेरे उपहास का होगा निनाद
मेरी प्रबल अभिलाषा है ‘जय’
कि साक्षात सामने आकर आप
तिरोहित कर दें ढीठ चन्द्र का उपहास
सच्ची में ..

कभी कभी मैं सोचती हूँ
हाँ .. कभी कभी ही सोचती हूँ
ऐसे ही किसी अवसर पर कि
क्या डॉलर और दीनार ही
उपलब्धि हैं हमारे वैवाहिक जीवन की !
क्या पैसे की चमक के आगे ..
मेरे यौवन की कांति कुछ भी नहीं !!
दहकते तन में ज्वालामुखी बनी भावनाओं
के लिए क्या मोबाइल ही समाधान है !!!
डर लगता है कभी कभी
सच्ची में …




नाम ही नहीं, विचारों में भी करना होगा बदलाव

सुशील कुमार ‘नवीन’

मॉर्निंग वॉक में मेरे साथ अजीब किस्से घटते ही रहते हैं। कोशिश करता हूं कि बचा रहूं पर हालात ही ऐसे बन जाते हैं कि बोले और कहे बिना रहा ही नहीं जाता। सुबह-सुबह हमारे एक दुखियारे पड़ोसी श्रीचन्द जी मिल गए। दुखियारे इसलिए कि ये ‘तारक महता का उल्टा चश्मा’ के पत्रकार पोपट लाल की तरह है। लाख जतन कर लिए पर विवाह का संजोग नहीं बन रहा। मुझसे बोले-आप हमारे बड़े भाई हैं। एक सलाह लेनी है। मैंने कहा-जरूर, मुझसे आपका कोई काम बने तो यह मेरा सौभाग्य होगा। एक बाबा के विज्ञापन की कटिंग दिखाकर बोले-कल इस बाबा जी के पास गया था। मैंने उनसे सारी कहानी विस्तारपूर्वक सुनाने को कहा तो उन्होंने बताया कि दोपहर 12 बजे मैं विज्ञापन में दिए गए पते पर पहुंचा। बाबा जी एक रंगीन लाइटों से जगमगाते कक्ष में सुंदर आसन पर भस्म रमाये बैठे थे। चारों ओर धूप और दीप की सुगंध बरबस उन्हीं की ओर खींच रही थी।

 कमरे में मेरे प्रवेश करते ही बाबा ने अपने दिव्य चक्षु खोले। मेरी तरफ देखा और हंसकर बोले-श्रीचन्द, सब गड़बड़ी तुम्हारे नाम में है। नाम बदलना पड़ेगा। मैंने भी उत्सुकतावश इस बारे में और जानना चाहा तो बोले-बड़े भोले बनते हो। नाम श्री(लक्ष्मी) चन्द(चन्द्र, सरताज,स्वामी) रखकर ‘श्री’ का वरण करना चाहते हो। नहीं हो सकता। अनन्ता,अवयुक्ता,अनिरुद्धा,अदित्या, दयानिधि,दानवेन्द्र,देवेश, देवकीनन्दन तुम्हें कभी भी ऐसा नहीं करने देंगे। नाराज है वो तुमसे। मूर्ख बालक। अपने घर की ‘श्री’ तुम्हें कौन देगा। 

 बाबा लगातार बोलते जा रहे थे और मैं सुनता जा रहा था। उनके रुकने पर उपाय पूछा तो वो बोले-कृपा चाहते हो तो अपने नाम के आगे से ‘श्री’ हटा दो। मैंने कहा-नाम से ‘श्री’ हटाने से तो मजाक बन जायेगा। ‘श्री’ के बिना तो चन्द की कोई वैल्यू ही नहीं रहेगी। बाबा गुस्सा होकर बोले- तुम तो निरे अज्ञानी हो।’श्री’ हटाने से भी तुम्हारे नाम में कोई कमी नहीं आएगी। रूपवान हो तो चन्द के साथ ‘रूप’ जोड़ रूपचन्द हो जाओ। परमात्मा की मेहर चाहिए तो ‘मेहर’ जोड़ मेहरचन्द हो जाओ। धार्मिकता रग रग में भरी हो तो  ‘धर्म’ जोड़ धर्मचन्द हो जाओ। दयावान हो तो ‘दया के चन्द’  दयाचन्द हो जाओ। पूर्णता प्राप्त करनी हो तो पूर्णचन्द बन जाओ। अमरता प्राप्त करनी हो तो अमरचन्द हो जाओ। रोमान्टिक हो तो प्रेमचन्द बन जाओ। सोमप्रिय हो तो सोमचन्द हो जाओ। ज्ञानवान हो तो ज्ञानचन्द बन जाओ। 

बाबाजी का प्रवचन रुकने का ही नाम नहीं ले रहा था। लास्ट में बोले- एक बार आजमा के देखो। देखना, हफ्ते भर में तुम्हारी बात बन जाएगी। बाबा को प्रणाम कर मैं वहां से लौट आया। श्रीचन्द जी की बात सुन मैंने कहा-देखो,भाई, गुड़ की डली से बाबा राजी होता हो तो क्या बुराई है। नाम बदलने से तुम्हारा भाग्य बदलेगा या नहीं यह मैं नहीं कह सकता। पर नाम क्या, नाम में एक भी वर्ड की बढ़ोतरी और घटोत्तरी सब कुछ बदल सकती है। राम रमा तो मोहन मोहिनी, श्याम श्यामा का रूप धर लेता है तो कृष्ण कृष्णा बन जाता है। ज्ञान अज्ञान बन जाता है तो धर्म अधर्म में बदल जाता है। सत्य असत्य तो नाम अनाम बन जाता है। श्री चन्द बोले- आप भी लग गए बाबा जी जैसे ज्ञान बांटने। सीधे-सीधे समझाओ तो कोई बात बने।

 मैंने कहा- मेरे भाई। सब आजमा लिया। ये भी आजमा लो। मन तो सन्तुष्ट होगा ही। कुछ मिलेगा तो ठीक अन्यथा जैसे हो वैसे तो रहोगे ही। वो बोले-मतलब। मैंने कहा- नाम के साथ विचारों में भी बदलाव जरूरी है। दुष्ट प्रवृति और नाम सुशील, ख्याल पुराने नाम नवीन, काम राक्षसों के और नाम प्रभुदयाल रखने से थोड़े भलाई पाओगे। मुखौटा छलावे के लिए ही होता है। मुखौटा पहनने का शौक है तो ये भी आजमाकर देख लो। पोपट के साथ चाहे लाल लगाओ चाहे चन्द। रहेगा तो वो पोपट ही। बॉम्ब को बम कहने से वो विनाश कम थोड़े ही न करेगा। श्रीचन्द ने दोनों हाथ जोड़े और कहा-भाई, गलती हो गई, जो आपसे सलाह मांग ली। आपने तो बात को सुलझाने की जगह इसे और उलझा कर छोड़ दिया। मुझे खुद ही इस बारे में कोई निर्णय लेना पड़ेगा। यह कहकर वो वहां से निकल गए। मुझे उनसे इस प्रत्युत्तर की उम्मीद कतई नहीं थी। 

आप ही बताओ मैंने क्या गलत कहा। जब ‘बिल्लू बारबर’ फ़िल्म पर विवाद हुआ तो बारबर हटा ‘बिल्लू’ कर दिया। पद्मावती ‘पद्मावत’ बन गई। रैम्बो राजकुमार ‘आर राजकुमार’ बन गया। मेंटल है क्या ने ”जजमेंटल है क्या’ का रूप धर लिया। लवरात्रि को ‘लवयात्री’ तो रामलीला को ‘गोलियों की रासलीला-रामलीला’ बना दिया। इससे कुछ फर्क पड़ा। कहानी वही, पात्र वही रहे। फेरबदल सिर्फ नाम का और कुछ नहीं। ताजा उदाहरण ‘लक्ष्मी बॉम्ब’ का है। विवाद हुआ तो बॉम्ब हटा ‘लक्ष्मी’ नाम कर दिया गया है वो भी स्पेलिंग बदलकर। अब इससे क्या फर्क पड़ेगा। जब नाम बदलने से कहानी में, थीम में फर्क ही नहीं पड़ रहा तो नाम बदलना क्या जरूरी है। बदलना है तो विचार बदलें। नाम तो लोग अपने आप धर लेंगे।

नोट: लेख मात्र मनोरंजन के लिए है। इसे किसी प्रसंग से जोड़कर अपने दिमाग का दही करने का प्रयास न करें।

 

लेखक: 

सुशील कुमार ‘नवीन’

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है।

96717-26237