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नवनीत शुक्ल की कविता “कंप्यूटर”

मम्मी मुझे दिलवा दो कंप्यूटर,
मिलता सारा ज्ञान इसके अंदर।

ये स्पेलिंग भी सिखलाता है,
डिक्शनरी भी दिखलाता है।

पूछो इससे जब कोई सवाल,
गूगल अंकल झट लाते जवाब।

गणित, विज्ञान सब पढ़ाता,
मिनटों में उत्तर है बतलाता।

कंप्यूटर पर चित्र बनाते हैं,
मनमर्जी के रंग लगाते हैं।

हार्डवेयर इसका शरीर है,
साफ्टवेयर इसका दिल है।

काम यह मिनटों में है करता,
जादूगर इसको मैं हूँ कहता।

मम्मी मुझे दिलवा दो कंप्यूटर,
मिलता सारा ज्ञान इसके अंदर।

रचयिता
नवनीत शुक्ल(शिक्षक)




हम क्या थे, क्या हो गये हैं और क्या होंगे अभी

अभी कुछ ही महीनों पहले कोविड-19 महामारी के कारण उद्योग-धंधों के बंद होने की वजह से दिल्ली, मुम्बई, बेंगलुरू, सूरत, पुणे आदि महानगरों में काम करने वाले प्रवासी कामगारों की रोजी-रोटी पर प्रतिकुल असर पड़ा जिनमें अधिकांश बिहार और उत्तर प्रदेश के रहने वाले थे । फलस्वरूप, आजादी के समय देश के बंटवारे के कारण हुए बड़े पैमाने पर पलायन के बाद देश में लाखों की संख्या में लोगों के पलायन की दूसरी सबसे बड़ी त्रासदी हुई जब इन कामगारों के किसी भी तरह अपनी-अपनी जड़ों की ओर लौटने के भयावह और दर्दनाक दृश्यों और घटनाओं को न सिर्फ भारत के लोगों ने देखा और दुःखी हुए वरन् पूरी दुनिया ने भी यह सब कुछ देखा, सुना । पलायन की इस त्रासदी ने बिहार के आर्थिक और सामाजिक खोखलेपन और राज्य सरकार के वर्षों के कुशासन की पोल खोल कर रख दी । देश की आजादी के कुछ वर्षों पूर्व से लेकर उसके करीब एक दशक बाद बिहार में पैदा हुए, पले-बढ़े लोग जिन्होंने अपनी धरती के अतीत को पढ़ा है, उसके साक्ष्यों को देखा है, जो इसकी समृद्ध संस्कृति का कभी हिस्सा रह चुके हैं, जिनकी सांसों में अब भी उसी मिट्टी की खुशबू बरकरार है जो अकसर उन्हें वहां खींच ले जाती है लेकिन जो अब भारत के दूसरे महानगरों में या विदेशों में प्रवासी हो गए हैं, उन्हें अपने प्रदेश की वर्तमान दुर्दशा देखकर दुःख और अवसाद होता है । प्रवासी बिहारियों की दूसरी, तीसरी पीढ़ी यानि जिनका जन्म, पालन-पोषण और कार्यक्षेत्र बिहार से बाहर हुआ, जो अपने प्रवास के प्रदेश या देश के इतिहास और संस्कृति से ज्यादा रू-ब-रू हैं और जिन्हें अपने मूल प्रदेश के गौरवशाली इतिहास के बारे में उतनी जानकारी नहीं है, जिन्होंने अपनी मूल संस्कृति को करीब से देखा नहीं, महसूस नहीं किया, उनके सामने पलायन की यह त्रासदी प्रश्न पैदा करती है कि क्या उनके पिता, दादा या पूर्वजों की भूमि ऐसी ही थी और है जहाँ इतनी गरीबी है, आर्थिक विपन्नता है, सामाजिक कुरीतियां हैं, राजनीतिक भ्रष्टाचार है, कुशासन है, जो भारत के सबसे पिछड़े राज्यों में एक है, जहां से लाखों लोग रोजी-रोटी की तलाश में दूर प्रदेशों में जाने को विवश  हैं ? क्या बिहार हमेशा ऐसा ही रहा है ?

          हैदराबाद में लगभग पांच दशकों से रह रहीं पहली पीढ़ी की प्रवासी बिहारी एवं हिन्दी तथा मैथिली की देश की जानी-मानी साहित्यकार डा. अहिल्या मिश्र की भी वही टीस है, उनके सामने भी वही सारे प्रश्न उठ खड़े होते हैं – जब हम हरेक क्षेत्र में इतने समृद्ध हुआ करते थे तो वर्त्तमान में दशा इतनी क्यों बदल गई ? हमारे अन्दर ऐसी कौन-सी कमजोरी आ गई जिससे हम अपने अतीत को चाह कर भी नहीं दुहरा पा रहे हैं ? क्या वर्त्तमान बिहार सामाजिक, आर्थिक एवं बौद्धिक विकास की चुनौती स्वीकार करने को तैयार नहीं है ? बिहार के लोगअपने प्रदेश से बाहर जाकर अपने कार्य में पहले स्थान को प्राप्त करने की कोशिश करते हैं और सफल भी होते हैं तो अपने राज्य में क्यों नहीं ? अहिल्या जी ही नहीं वरन् हरेक बिहारवासियों को यह यक्ष प्रश्न हमेशा कुरेदता रहता है कि बिहार के ही लाखों लोग दूसरे प्रदेशों में मजदूरी करने क्यों जाते हैं, गुजरात, महाराष्ट्र या पंजाब के लोग बिहार में मजदूरी करने क्यों नहीं आते ? बिहार के शिक्षित युवा देश और दुनिया में उत्कृष्ट कार्य कर रहे हैं तो क्या वे अपने प्रदेश में अवसर मिलने पर नहीं कर सकते ?

            डा. अहिल्या मिश्र के मन-प्राण में बिहार की मिट्टी की सोंधी खुशबू बसी हुई है । वे बिहारवासियों की क्षमताओं से भी वाकिफ हैं । इसलिए क्षमताओं से भरपूर होने के बावजूद बिहार की वर्तमान दशा-दिशा से उनका व्यथित होना स्वाभाविक है । इसी पृष्ठभूमि में डा. अहिल्या मिश्र के द्वारा सद्यः प्रकाशित पुस्तक बिहार : साहित्यिक – सांस्कृतिक विरासत (गीता प्रकाशन, हैदरबाद) एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है जिसके शोधपूर्ण निबंधों / उद्घाटित तथ्यों का उद्देश्य है अपनी मिट्टी की सुगंध को फैलाना तथा पाठकों एवं अपने प्रदेश से दूर सभी प्रवासी बिहारवासियों को गौरवयुक्त शांति दिलाना ।  नई पीढ़ी जो बिहार से बाहर पल, बढ़ रही है उन्हें भी बिहारी होने का भान हो । उनकी पीढ़ी की तरह भावी पीढ़ी के लिए बिहारी होना एक प्रेरणा स्रोत बने और प्रदेश के अतीत के गौरव से हम गौरवान्वित रहें ।

               मैथिलीशरण गुप्त की ये पंक्तियां बिहार के लिए काफी समीचीन लगती हैं कि उन्नत रहा होगा कभी जो हो रहा अवनत अभी / जो हो रहा अवनत अभी, उन्नत रहा होगा कभी (भारत भारती) । इतिहास साक्षी है कि बिहार का न केवल भारत में बल्कि विश्व के पटल पर एक गौरवशाली अतीत रहा है । बिहार की अपनी समृद्ध संस्कृति और विरासत है ।  यहाँ के लोगों का हजारों साल पूर्व से लेकर आधुनिक भारत के विभिन्न क्षेत्रों में विशिष्ट योगदान रहा    है । इस विस्तृत विरासत को डा. अहिल्या मिश्र ने अपनी कृति                बिहार : साहित्यिक – सांस्कृतिक विरासत को चार खंडों में विभाजित किया है, यथा (1) बिहार : सभ्यता एवं संस्कृति का दर्पण, (2) बिहार : वाह्य एवं आंतरिक समीकरण का आकाश, (3) बिहार कुछ विशेष व्यक्तित्व, उनकी प्रेरणा एवं उनके कृतित्व पर दृष्टिपात एवं (4) आधुनिक हिन्दी साहित्य तथा पत्रकारिता के विकास में बिहार के साहित्यकारों व पत्रकारों का योगदान । इन चार खंडों में छठी शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर आधुनिक समय तक  दो हजार छः सौ वर्षों के वृहत काल में विश्व एवं राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति, धर्म, साहित्य, शिक्षा, विज्ञान, कला, संगीत व पत्रकारिता के क्षेत्रों में बिहारवासियों के महत्वपूर्ण योगदान के झरोखे से बिहार की समृद्ध व गौरवशाली विरासत का दिग्दर्शन कराया गया है । साथ ही, बिहार की उन सदियों पुराने रीति-रिवाज, खान-पान, संस्कारों को भी उजागर किया गया है जो आज भी न केवल बिहार में प्रचलित हैं वरन् विभिन्न प्रदेशों एवं देशों में रह रहे प्रवासी बिहारियों के बीच भी जीवित हैं । वास्तव में, किसी भी क्षेत्र का इतने विस्तृत कालखंड के विभिन्न आयामों की एक जगह मात्र ढाई सौ पृष्ठों में शोधपूर्ण प्रस्तुति एक महती कार्य है जिसे डा. अहिल्या मिश्र ने बखूबी निभाया है ।

               विदेह कुमारी और भगवान श्री राम की पत्नी देवी सीता के जन्म और याज्ञवल्क्य, विश्वामित्र, वाल्मिकी आदि महर्षियों से पवित्र बिहार की धरती पर ही भारत ही नहीं वरन् संभवतः विश्व का पहला गणराज्य ‘वज्जि संघ’ छठी शताब्दी ईसा पूर्व में वैशाली में स्थापित हुआ जिसमें तत्कालीन विदेह, मगध और अंग राज्य सम्मिलित थे । चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में मौर्य वंश की स्थापना भी बिहार के राजगृह (वर्तमान राजगीर और पटना) में हुई जिसने इस देश को चंद्रगुप्त मौर्य और अशोक जैसे दो महान सम्राट दिए । प्राचीन भारतीय इतिहास के जिस काल को स्वर्णकाल माना जाता है वह गुप्तकाल भी बिहार की धरती पर ही आया जिस वंश के समुद्रगुप्त समेत कई अन्य सम्राटों ने पाटलिपुत्र को अपनी राजधानी बनाया (चंद्रगुप्त द्वितीय और उनके बाद इस वंश के शासकों की राजधानी उज्जैनी हो गई) । आधुनिक काल में भी अंग्रेजों के खिलाफ सन् 1857 में भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में बिहार के बाबू कुँवर सिंह के योगदान को भला कौन भुला सकता है जिन्होंने अस्सी वर्ष की आयु में अंग्रेजों के विरूद्ध तलवार उठा लिया था । स्वतंत्रता संग्राम के परवर्त्ती एवं निर्णायक चरण के महानायक महात्मा गांधी द्वारा नीलहे किसानों की समस्या को लेकर अंग्रेजों के विरूद्ध आन्दोलन की शुरूआत भी बिहार के चम्पारण से ही हुई जो विश्व में सत्य व अहिंसा के बल पर आजादी हासिल करने की पहली प्रयोगशाला बनी । देश की आजादी की लड़ाई में बिहार के डा. राजेन्द्र प्रसाद (जो स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने), जयप्रकाश नारायण, खुदीराम बोस, राम बाबू आदि का योगदान सदैव याद   किया जाएगा । स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सत्ता के शीर्ष पर बढ़ते अधिनायकवाद के विरूद्ध संपूर्ण क्रान्ति का देशव्यापी बिगुल भी बिहार की ही धरती से जयप्रकाश नारायण ने फूंका ।

               कपिलवस्तु के राजकुमार सिद्धार्थ गौतम को वर्तमान बिहार के बोधगया में ही ज्ञान (बुद्धत्व) प्राप्त हुआ और यहाँ से गौतम बुद्ध बनकर उन्होंने बौद्ध धर्म का प्रवर्तन किया जो आज विश्व के कई देशों का एक प्रमुख धर्म है । आधुनिक जैन धर्म के प्रतिष्ठापक वर्धमान महावीर का जन्म और निर्वाण भी बिहार में ही हुआ । सिख धर्म के दसवें और अंतिम गुरू गोविन्द सिंह का जन्म भी पटना के निकट वर्तमान पटना साहेब में हुआ । पटना के ही निकट मनेर के हजरत मखदूम शाह याहिया ने सूफी परम्परा का प्रचार-प्रसार किया ।

               शताब्दियों पूर्व ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में जब भारत पूरे विश्व की अगुवाई कर रहा था तब इसके दो अग्रणी केन्द्र – नालन्दा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय बिहार में ही थे । मौर्य वंश की स्थापना के सूत्रधार और चंद्रगुप्त मौर्य के प्रधान मंत्री विष्णुगुप्त चाणक्य की कर्मस्थली बिहार का मगध क्षेत्र ही रही और यहीं चाणक्य (जिन्हें कौटिल्य भी कहा गया) ने अपनी विश्व प्रसिद्ध कृति ‘अर्थशास्त्र’ का प्रणयन किया । गणित में शून्य का आविष्कार और दशमलव पद्धति प्रतिपादित करने वाले महान गणितज्ञ एवं खगोलविद आर्यभट्ट बिहार के ही थे । वैद्य सुश्रुत और शल्य चिकित्सक चरक भी बिहार की ही धरती पर ही जन्मे ।

               बिहार के साहित्यकारों का शताब्दियों से संस्कृत, हिन्दी व मैथिली साहित्य के क्षेत्र में भी अमूल्य योगदान रहा है । प्राचीन समय में जहां याज्ञवल्क्य, वाल्मीकि, मंडन मिश्र, गार्गी आदि ने संस्कृत साहित्य को समृद्ध किया, मध्य काल में संस्कृत में बाणभट्ट, पंडित वाचस्पति मिश्र और मैथिली साहित्य में महाकवि विद्यापति एवं पंडित भवनाथ झा आदि ने योगदान दिया तो आधुनिक काल में हिन्दी व संस्कृत में आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री तथा हिन्दी साहित्य में रामधारी सिंह ‘दिनकर’, नागार्जुन, शिवपूजन सहाय, राजा राधिका रमण सिंह, गोपाल सिंह नेपाली, रामवृक्ष बेनीपुरी, फणीश्वर नाथ ‘रेणु’, केदार नाथ मिश्र ‘प्रभात’, डा. लक्ष्मी नारायण सुधांशु, आचार्य नलिन विलोचन शर्मा आदि अनेक साहित्यकारों का राष्ट्रीय स्तर पर अमूल्य योगदान रहा है । वर्त्तमान में हिन्दी और मैथिली साहित्य के क्षेत्र में राष्ट्रीय स्तर के साहित्यकार उषा किरण खान, अरूण कमल, अनामिका, मृदुला सिन्हा आदि बिहार की ही धरती से उपजे हैं । पत्रकारिता के क्षेत्र में भी बिहार उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से लेकर वर्त्तमान में ढेरों पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन के द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर अपनी अहम भूमिका निभा रहा है । इनमें बिहार बंधु, हिमालय, कर्मवीर, योगी आदि पत्रिकाओं ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान आजादी का अलख जगाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया ।

               मधुबनी की चित्रकारी जहाँ विश्व में बिहार का प्रतिनिधित्व करती है वहीं डुमरांव के बिसमिल्ला खां (बाद में वे वाराणसी चले गए) की शहनाई एवं बिहार कोकिला शारदा सिन्हा के लोकगीतों की गूंज देश- विदेश में सुनाई देती  है । बिहार के भिखारी ठाकुर का लोक गीतकार व नाटककार के रूप में अपनी एक विशिष्ट पहचान है । 

               महाभारत काल से चला आ रहा सूर्य की आराधना का महापर्व छठ बिहार का ब्रान्ड अम्बेसडर बनकर न केवल भारत में वरन् विश्व के कई हिस्सों में जहाँ प्रवासी बिहारी हैं, प्रदेश की सांस्कृतिक पताका फहरा रहा है । बिहार का विशिष्ट खान-पान लिट्टी-चोखा एवं चूड़ा (चिड़वा)-दही अब पूरे देश में आम हो गया है ।

            वास्तव में, डा. अहिल्या मिश्र ने अपनी इस पुस्तक में ढाई हजार वर्षों से ज्यादा लम्बे काल के विशाल कैनवास पर बिहार के विविध आयामों के जो चित्र उकेरे हैं, वह निश्चित ही बिहारवासियों को गौरवान्वित करने वाला  है । अहिल्या जी चाहती हैं कि आज के बिहार की जो विसंगतियां उसकी छवि को धुमिल कर रही हैं, उनका निराकरण हो और उनकी मिट्टी का गौरव पुनः लौटे । उनकी यह आकांक्षा सम्पूर्ण बिहारवासियों की आवाज बनकर उभरती है । इसके लिए वे बिहारवासियों और प्रवासी बिहारियों का आह्वान करती हैं कि इस गौरवशाली अतीत पर वर्तमान का महल बनाएं एवं भविष्य का खूँटा गाड़ें । सच में, इस आह्वान का जमीनी क्रियान्वयन आज के बिहार के धुमिल चित्र को साफ कर उसे अतीत की तरह चमकदार और गौरवशाली बना सकता है । बस जरूरत है यह विचारने की कि हम क्या थे, क्या हो गये हैं और क्या होंगे अभी / आओ, विचारें आज मिलकर ये समस्याएं सभी (भारत-भारती, मैथिलीशरण गुप्त)




अबकै ही तो आई खुशियों वाली दिवाली

सुशील कुमार ‘नवीन’

गांव के पूर्व मुखिया बसेशर लाल और उनकी पत्नी राधा के कदम जमीन पर नहीं पड़ रहे। शहर जा बसे दोनों बेटे अपने परिवार के साथ गांव में आ रहे हैं। वो भो एक-दो दिन के लिए नहीं। जब तक लोकडाउन और कोरोना महामारी से राहत नहीं मिलेगी, वो यहीं रहेंगे। छोटे बेटे रमन ने जब से फोन कर यह सूचना दी है। दोनों की खुशी का कोई ठिकाना नहीं है। 

तीन दिन से घर की साफ सफाई चल रही है। खुद बसेशर लाल पास खड़े होकर अपने पुराने हवेलीनुमा मकान की लिपाई-पुताई करवाने में जुटे हैं तो राधा पड़ोस की श्यामा के साथ मिठाई और नमकीन बनवाने में जुटी है। तिकोनी मठ्ठी, मटर,सूखी मसालेदार कचोरी बनाई जा चुकी है। श्यामा साथ के मकान की पुत्रवधु है। वह राधा को बोली कि इतनी नमकीन का क्या करेंगे। राधा का जवाब था- अरे बहु-बेटे बच्चों के साथ आ रहे है। कोई कमी नही रहनी चाहिए। 

श्यामा बोली-अम्मा, आते तो वो हमेशा ही है। एक-दो दिन में वापस चले जाएंगे। उसके लिए इतना सामान क्यों बनवा रही हो। वो साथ भी नहीं ले जाएंगे। बांटोगी भी कितना। बाद में इन्हें गायों को खिलाना पड़ेगा। हर बार यही तो होता है। श्यामा की बात गलत भी नहीं थी पर ममता अपनी जगह थी। जीत तो उसी की होनी थी। उधर, बसेशर लाल अपने हिसाब से काम में लगे थे। बढ़ई को बुला तीन पुराने पलंगों और दोनों तख्तों को ठीक करवाया जा चुका था। राधा के पुराने सन्दूक से निकली गई नई बेडशीटों ने उन्हें ढक बैठक को अलग ही रूप दे दिया था। 

   आज वो दिन आ ही गया। राधा ने सुबह श्यामा की बेटी सुनहरी और उसकी एक सहेली विद्या के सहयोग से घर के बाहर बड़ी सी रंगोली बनवा दी। कोई उसके ऊपर से गुजर इसे खराब न कर दे। इसके लिए घर के गेट पर लाठी लेकर खुद बैठी हुई है। आज तो दोपहर का भोजन भी वही किया। शाम 7 बजे तक उनके पहुंचने की उम्मीद थी। अन्धेरा होते ही राधा ने मुंडेर दीयों से रोशन कर दी।सारा घर दिवाली ज्यों जगमग कर रहा था। साढ़े 7 बजे एक बड़ी गाड़ी घर के आगे आकर रुकी। आवाज सुनते ही राधा पूजा की थाली लेकर गेट पर पुहंच गई। पहले सबके तिलक किया फिर आरती उतारी। बहु-बेटों ने पैर छू आशीर्वाद लिया और घर में प्रवेश किया। राधा दोनों पोतों के साथ बातों में मग्न हो गई।

बड़ा बेटा वीरेन और छोटा रमन हैरान थे कि आज न तो दिवाली है न कोई और त्योहार। फिर घर आज इस तरह रोशन क्यों है। दोनों बहुएं रीना और माधवी भी इस प्रश्न का जवाब जानना चाहती थी पर बाबूजी से पूछने की हिम्मत किसी की नहीं हो रही थी। रमन के बेटे राहुल के पूछे गए सवाल ने सबके कान खड़े कर दिए। वह बोला-दादा, आज दिवाली है क्या। दादा हंसे। पहले राधा की तरफ देखा फिर बेटे बहुओं की तरफ। सब एकटक उनके जवाब की बाट जोह रहे थे।

 बसेशर लाल को अपने पोते से इस तरह के प्रश्न की उम्मीद नहीं थी पर अब जवाब तो देना ही था। बोले-हां, बेटा आज दिवाली ही है। तभी तो घर दीयों से जगमगा रहा है। अब दूसरे पोते राघव ने सवाल दाग दिया। बोला-दादा जी, दिवाली है तो पटाखे क्यों नहीं बज रहे। इस बार चुप बैठी राधा ने जवाब दिया। बोलीं-तुम दोनों जब से आये हो तब से अपनी प्यारी बोली से पटाखे ही तो बजा रहे है। खुशियों की फुलझड़ियां छूट रही है। खिलखिलाहट के अनार फूट रहे हैं। सब साथ तभी दिवाली। सब नहीं तो कैसी दिवाली। राधा के ये कहते ही सब समझ गए कि असली दिवाली तो आज ही है। बहुएं बोलीं-अम्मा अबके ये दिवाली तो लंबी चलेगी। रात को सोते समय बसेशर लाल राधा से बोले-होगी किसी के लिए ये महामारी। हमारे लिए तो ये वरदान बनकर आई है। किसी को फुर्सत ही नहीं थी। भगवान भी न अपनों को जोड़ने का कोई न कोई बहाना बना ही देते हैं। राधा बोली-अब सो जाओ, कल से तुम्हारी वही खुशियों वाली सुबह शुरू होने वाली है।

लेखक: 

सुशील कुमार ‘नवीन’

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है।

96717-26237

 




पटाखा मुक्त इको-फ्रेंडली दीपावली मनायें

• आसिया फ़ारूकी

हमारा देश भारत त्योहारों का देश है। तमाम सामाजिक एवं सांस्कृतिक विविधता होने के बावजूद सभी सुंदर सुवासित सुमनों की भांति एक सूत्र में गुंजे हुए हैं। प्रेम, आत्मीयता और मधुरता के साथ सभी एक दूसरे के त्योहारों में शामिल होकर देश की तरक्की और खुशहाली के लिए दुआएं करते हैं। वर्ष भर कहीं न कहीं कोई त्योहार लोग मनाते ही रहते हैं। इसी कड़ी में रोशनी का त्योहार दीपावली सभी का मन मोह लेता है। दीपावली खुशियां मनाने और प्रेम बांटने का त्योहार है जिसमें सभी लोग पटाखे, फुलझड़ी जलाकर खुशियां प्रकट करते हैं।
कॅरोना काल अभी चल ही रहा है , देखते ही देखते दीपावली भी आ गयी। अभी हम कॅरोना से मुक्त नहीं हो सके , जन-जीवन अभी पूरी तरह सामान्य नहीं हो पा रहा है। हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी दीपावली की तैयारियां चल रही हैं। बच्चे-बड़ों सभी का दिवाली को लेकर विषेष उत्साह होता है। दुःख की बात बस यही है कि कॅरोना काल में हजारों लोगों के घरों के दीये बुझ गये। इस महामारी नें त्योहारों की ख़ूबसूरती को कम कर दिया। ऊपर से किसानों द्वारा पराली जलाने से वातावरण में धुंध छायी है जिससे बच्चों, बूढ़ों एवं बीमार व्यक्तियों को सांस लेने में तकलीफ हो रही है साथ आंखों में जलन का भी एहसास हो रहा है। इसलिए जागरूकता इसी में है कि इस वर्ष सब सुखमय, सुरक्षित दीपावली मनायें। होली के बाद कॅरोना ने अपने पैर जमा दिये और सारे त्योहारों की ख़ूबसूरती कम कर दी। कॅरोना और संचारी रोगों के लिये हम भी काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार हैं। हम अपने त्यौहारों में बेमतलब गंदगी कर वातावरण को प्रदूषित बना देते हैं। हमें सोचना होगा सुरक्षित दीपावली मनायें जिससे लोगों को नुकसान न पहुँचे। कोविड का प्रकोप बढ़ता ही जा रहा है। अब हमें सुरक्षित रहने की कामना और हिदायतें देने की ज़रूरत पड़ने लगी है। आखिर कौन सा त्योहार लोगों को जोख़िम में डालने के लिये बन सकता है? कोई नहीं । उसे ऐसा हम बनाते हैं। दीवाली तो सिर्फ़ खुशियों और दीपों का त्यौहार है। ज़हरीले धुएं और शोर वाले पटाख़े तो इसमें हमने ज़बरदस्ती जोड़ दिये। कोशिश यह की जानी चाहिये कि हम त्योहार शांति से मनाएँ और गंदगी न फैलाएं। लेकिन पटाखे जलाने से दीपावली के अगले दिन नज़ारा क्या होता है? चारों ओर धुएँ का ग़ुबार और पटाख़ों का कूड़ा। हम प्रधानमंत्री जी के चलाये गये स्वच्छ भारत अभियान में दीपावली के त्योहार को भी शामिल करें। दीपावली में अहंकार और बुराइयों को जलाना ज़्यादा ज़रूरी है, न कि वातावरण को प्रदूषित करने वाले हानिकारक पटाखों को। अगर फ़िर भी पटाखे ही जलाने हैं, तो बाजार में अब ईको फ्रेंडली पटाखे भी मौजूद हैं। जो रिसाईकिल हो जाने वाले पेपर से बनें होते हैं। इनमें धुआं और शोर बेहद कम होता है। जबकि रोशनी अधिक होती है। हम इनका प्रयोग कर सकते हैं। अगर दीपावली के दिन ख़ुशियों से ज़्यादा हम लोगों को बीमारियाँ और प्रदूषित वातावरण देते जायेंगे तो एक दिन ये त्योहार अपना महत्व खो देंगें। इसलिये हम खुद और दूसरों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये हर सम्भव प्रयास करें। दीपावली के दिन बाहर के अंधेरों को ख़त्म करने के लिए जलाया गया दीप हमें रोशनी देने के साथ-साथ आँखों को भी ठंडक देता है। लेकिन अपने मस्तिष्क के अंदर के अँधेरे को ख़त्म करने के लिये हमें अंतर्मन में दीप जलाने की जरूरत है। ये दीप है ध्यान और नवल ज्ञान सृजन का। इस दीप से अपने अंदर ज्ञान, विज्ञान, मानवीय मूल्यों, प्रकृति से सह सम्बंध और स्नेह शांति का उजाला फैलेगा। इस उजाले से हम दुनिया में खुशियों की, समृद्धि की, सहकारिता और सहिष्णुता की भावना विकसित कर सकेंगे। इको फ्रेंडली दीपावली मनाकर हम प्रकृति, पर्यावरण और प्राणियों के जीवन की रक्षा कर दुनिया को खुबसूरत बना सकेंगे।
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( राज्यपाल पुरस्कार प्राप्त शिक्षिका )
फ़तेहपुर ( उत्तर प्रदेश )




ठाडे कै सब यार, बोदे सदा ए खावैं मार

सुशील कुमार ‘नवीन’

प्रकृति का नियम है हर बड़ी मछली छोटी को खा जाती है। जंगल में वही शेर राजा कहलाएगा,जिसके आने भर की आहट से दूसरे शेर रास्ता बदल लेते हों। गली में वही कुत्ते सरदार होते हैं जो दूसरे कुत्तों के मुंह से रोटी छीनने का मादा रखते हों । और तो और गांव में भी वही सांड रह पाता है जिसके सींगों में दूसरे सांड को उठा फैंकने का साहस होता है। पूंछ दबा पीछे हटते कुत्तों, लड़ना छोड़ भागने वाले सांड सदा मार ही खाते हैं। रणक्षेत्र में वही वीर टिकते हैं जिनमें लड़ने के साहस के साथ मौत से दो हाथ करने का जज्बा हो। कायरता किसी के खून में नहीं होती, कायरता मन में उमड़े कमजोरी के भावों से होती है। कहते हैं ना, जो डर गया समझो मर गया।

आप भी सोच रहे होंगे कि आज ये भगवत ज्ञान कैसे मुखरित हो रहा है। तो सुनिए, ज्ञान भी तभी मुखरित होता है जब उस ज्ञान को आत्मसात किया हुआ हो। हमारे एक मित्र वैचारिक रूप से बड़े ज्ञानी है। नाम है अनोखे लाल। नाम की तरह वे अपने विचारों से भी अनोखे हैं। बोलते समय सामने वाले को ऐसा सम्मोहित कर देते हैं कि उनके कहे को अस्वीकारना असंभव हो जाता है। लास्ट में आप ही सही,कहकर उठना पड़ता है। तो अनोखे लाल जी आज सुबह पार्क में गुनगुनी धूप का आनन्द ले रहे थे। इसी दौरान हमारा भी वहां जाना हो गया। राम रमी के बाद चर्चा चलते-चलते अमेरिका के नए राजनीतिक घटनाक्रम पर चल पड़ी। मैंने भी जिज्ञासावश उनके आगे एक प्रश्न छोड़ दिया कि भारत-अमेरिका सम्बन्धों पर क्या इससे फर्क पड़ेगा।

आदतन पहले गांभीर्यता को अपने अंदर धारण किया फिर बोले-शर्मा जी! आपने कभी सांड लड़ते देखे हैं। मैंने कहा-ये संयोग तो होता ही रहता है। बोले-सांडों की लड़ाई का परिणाम क्या होता है, ये भी आप जानते ही है। सांडों का कुछ बिगड़ता नहीं, उसका खामियाजा दूसरे भुगतते हैं। बाजार में लड़े तो रेहड़ीवाले, सड़क पर लड़े तो बाइक सवार, गली में लड़े तो लोहे के दरवाजे, खुले में लड़े तो झाड़-बोझड़े इसके शिकार बनते हैं। मैंने कहा-ये उदाहरण तो समझ से परे है। बोले-अमेरिका में कोई राष्ट्रपति बने, भारत पर इसका कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। हमारे लिए ट्रम्प जितना सहयोगी रहा है उतना ही बाइडेन को रहना होगा। हमारा साथ उन्हें भी जरूरी है। मैंने कहा-राजा बदलने से सम्बन्धों पर क्या कोई असर नहीं पड़ता है।

बोले-चेहरा बदलने से सारा स्वरूप थोड़े ही बदल जाता है। गीदड़ शेर का मुखौटा धारण कर शेर नहीं बन सकता। वो चेहरा तो बदल सकता है पर शेर जैसी हिम्मत और ताकत मुखौटा धारण करने से नहीं आ सकती। मैंने फिर टोका कि बात अभी भी समझ नहीं आई। वो फिर बोले-भाई, दुनिया की फितरत है। साथ हमेशा मजबूत लोगों का दिया और लिया जाता है।

कमजोर का न कोई साथ लेता है और न उसका साथ देता है। कोई साथ देता भी तो उसकी अपनी गर्ज होती है। चीन का साथ पाकर नेपाल की बदली जुबान हम देख ही चुके हैं। हम मजबूत हैं तभी हमसे दोस्ती करने वाले देशों की संख्या बढ़ रही है। हम मजबूत रहेंगे तो ट्रम्प-बाइडेन ज्यों साथ मिलता रहेगा। हम कमजोर पड़ते दिखे तो ओली जैसे नेता मुखर होते साफ दिख जाएंगे। बोले-बावले भाई, दो टूक की यही बात है। ठाडे कै सब यार, बोदे(कमजोर) सदा ए खावैं मार।उनके बेबाक सम्बोधन को विराम देना सहज नहीं है। औरों की तरह लास्ट में मुझे भी यही कहकर चर्चा खत्म करनी पड़ी कि आपकी बात बिल्कुल सही है। सोचा जाए तो अनोखेलाल जी की बात गलत भी नहीं है। आप भी जरा इस पर विचार करें।

(नोट:लेख मात्र मनोरंजन के लिए है। इसका वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं है)

लेखक:

सुशील कुमार ‘नवीन’

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है।

96717-26237




मैं हिंदुस्तान हूँ

पर्वतराज हिमालय रक्षक,
ऋषियों की संतान हूँ
वेद पुराण ऋचाएँ मुझमें,
मानव संस्कृति की पहचान हूँ
हांँ, मैं हिंदुस्तान हूँ ,,,,,,,,

मस्तक केसर तिलक लगाये
कश्मीर घाटी स्वर्ग बसाये
देवो की तपोभूमि मैं
अगणित रत्नों की खान हूँ

हाँ, मैं हिंदुस्तान हूँ,,,,,,,,,,

कल-कल बहती नदिया मुझमें,
झरने पहाड़ी और कहीं पठार हूँ
हर भाषा मुझ से ही जन्मी
मैं सुन्दर वन, मैं ही रेगिस्तान हूँ

हांँ, मैं हिंदुस्तान हूँ ,,,,,,,,,,,

लहर लहर लहराए धरती अपनी,
रबी, खरीफ, जायद फसल किसान हूँ,
वसुधैव कुटुंबकम् बसता मुझमें,
विश्व गुरु की पहचान हूँ

हाँ, मैं हिंदुस्तानी हूँ,,,,,,,

राम,कृष्ण, नानक, गौतम जन्में जहाँ,
आर्यभट्ट, पाणिनी, वेदव्यास बागान हूंँ,
गार्गी, अपाला, घोषा, अनसूया, सावित्री
लक्ष्मीबाई, राधा, मीरा, मैं सीता की गान हूँ

हाँ, मैं हिंदुस्तान हूँ,,,,,

मुझमें ही कबीर, तुलसी, जायसी हुए
दिनकर, पंत, निराला कालिदास महान हूँ,
इतिहास के स्वर्णिम धरोहर मुझमें,
करोड़ों वीरगाथाओं की बखान हूँ

हांँ, मैं हिंदुस्तान हूँ,,,,,

काशी, मथुरा, अयोध्या, वृंदावन,
कटक, सागरतट बसता रामेश्वर स्थान हूंँ,
कत्थक, कजरी, शहनाई, बांसुरी,
गरबा, भांगड़ा, मोहनीअट्टम यशगान हूँ,

हाँ, मैं हिंदुस्तान हूँ,,,,,,,

हिंदू, मुस्लिम, सिख, इसाई,
सब धर्मों का सम्मान हूंँ
लोकतंत्र है बसता मुझमें,
विशाल संविधान का मैं शान हूँ,

हाँ, मैं हिंदुस्तान हूँ,,,,,,

एकता, अखंडता, विविधता मैं,
खुद में समेटे हुये
कण-कण में बसता,
प्रेम, त्याग, दया अपनत्व का मैं गुलिस्तान हूँ,

हाँ हिंदुस्तान हूँ,,,,

 

वन्दना यादव “ग़ज़ल”
वाराणसी, यू०पी०




रीजनल इस्पेक्टर को धर्म का उपदेश दिया

रीजनल इस्पेक्टर को धर्म का उपदेश दिया,प्रकाशनार्थ:- 29 नवम्वर पुण्यतिथि पर विशेष प्रख्यात वेद विदुषी डा सावित्री देवी शर्मा वेदाचार्या के जीवन की प्रेरणास्पद अमूल्य घटना”जब रीजनल इंस्पेक्टर को धर्म का उपदेश दिया* वेदों वेदांगों की प्रकान्ड विदुषी ,पांच विषयों में आचार्य,दो बिषय में एम ए, शतपथब्राह्मण पर पी एच डी,शपथ र्जब्राह्मण की भाष्विकार विश्व की प्रथम महिला वेदाचार्य, विश्व की प्रथम महिला वेद उपदेशिका , सम्पूर्ण देश में धर्म प्रचार डा सावित्री देवी शर्मा वेदाचार्या जी की पूण्यतिथि 29नवम्बर 2005 को सम्पूर्ण देश मैं वेद वेदांगों का प्रचार प्रसार करते व विश्व को वेदों को आत्मसात की प्रेरणा प्रदान करती हुई संसार के मोह बन्धनमुक्त हो कर परमपिता परमेश्वर की गोद में पहुंच कर मोक्ष प्राप्ति के मार्ग पर चिरकाल के लिये पहुंच गई। 29 नवम्बर 2005 पुण्यतिथि पर उनके जीवन की प्रेरणादायक संस्मरण समाज को नवीन ज्योति प्रदान करेगी। आर्य कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय ,छपरा, विहार में प्रधानाचार्य के पद पर 1965 से 1970 तक रही , यह काल उनके जीवन का नारी शिक्षा, नारी उत्थान व समाज में नारियों का सम्मान कैसे बनाएं इस हेतु महत्त्वपूर्ण रहा। कालिज में वालिकाओं की शिक्षा के साथ वे संस्कारवान बन कर गार्गी ,अपाला, मैत्रयी जैसी विदुषियां बने, इसके लिए उन्होंने भेष-भूषा, अनुशासन, सप्ताह में एक दिन संस्कृत संम्भाषण, सप्ताह में एक दिन व्यक्तित्व विकास कार्यक्रम का आयोजन, सप्ताह में एक दिन सामुहिक वैदिक यज्ञ का आयोजन, भारतीय संस्कृति के प्रत्येक विन्दुओं को जीवन में सफलता पूर्वक अवतरित करने का आयोजन किया करती थी। इसी बीच विहार प्रान्त की तत्कालीन रीजनल इंस्पेक्टर विद्यालय का निरीक्षण करने आई, निरिक्षण करने के बाद वे सभी दृष्टि से अत्यंत प्रसन्न हुयीं, अन्त में जब प्रवंध समिति के साथ वैठक के आयोजन में उन्होंने कहा कि विहार प्रान्त का सर्वश्रेष्ठ कालेज प्रतीत हो रहा है, परन्तु कालेज की प्राचार्या कालेज में धर्म का प्रचार प्रसार अधिक करती है, हमारा देश धर्म निरपेक्ष है , ऐसा कार्य करना भारतीय संविधान में उचित नहीं है। रीजनल इंस्पेक्टर के यह वाक्य सुनकर डा सावित्री शर्मा वेदाचार्या जी ने साक्षात विद्योतमा के रुप में कहा कि आप जिस पद पर वैठी है क्या इस पद पर अधर्म का प्रचार प्रसार कर रही है? फिर क्या था उन्होंने प्रवंध समिति के सामने ४५ मिनट धर्म शब्द की व्याख्या व उपदेश प्रदान किया और कहा कि “धार्यते या सा धर्म:” धारण किया जाय उसे धर्म कहते हैं, सदाचार में जीवन का नाम धर्म है,मानव को मानव बनाने का नाम धर्म है, संस्कार वान समाज बनाने का नाम धर्म है, सम्प्रदाय,मत मतान्तर,गुरुढमवाद,हिन्दु-मुसलिम-सिख-ईसाई आदि धर्म नहीं है यह सब मत मतान्तर है,इन सब से दूर हट कर महाभारत का वह वाक्य ” आत्माना: प्रतिकूलानि परेशाम् न समाचरेत”अर्थात जो अपनी आत्मा को अच्छा नहीं लगता है वह व्यवहार दूसरों के साथ न करें उसे धर्म कहते हैं, हमारा गौरव मयी देश धर्म निरपेक्ष नहीं हो सकता है, अपितु धर्म सापेक्ष है, मत निरपेक्ष हो सकता है परन्तु धर्म निरपेक्ष नहीं हो सकता है इस प्रकार रीजनल इंस्पेक्टर को प्रवंध समिति के बीच धर्म का उपदेश प्रदान करने पर प्रवंध समिति के अध्यक्ष ने कहा कि प्रधानाचार्य वहन जी के उपदेश देने पर घबडाए और कहा कि विद्यालय की ग्रान्ट बन्द हो जायेगी, इस पर वेदाचार्या जी ने कहा कि यदि प्रवन्धसमिति को मेरे द्वारा धर्म का स्वरूप प्रस्तुत करने पर ग्रान्ट बन्द होने का भय है तो यह मेरा त्यागपत्र है,आप इसे स्वीकार करें, इस पर प्रवंध समिति चिन्तित हो गई और त्याग पत्र स्वीकार करने से मना कर दिया। परमविदुषी वेदाचार्या जी के धर्मबल, आत्म बल, आत्म विश्वास व विद्यालय की वालिकाओं को संस्कार वान बनाने के संकल्प का यह प्रतिफल था कि तीन महीने के बाद जब सरकार के द्वारा विद्मालय के निरिक्षण की आख्या का पत्र विद्यालय में आया ,तो उसमें लिखा था कि “विहार प्रान्त का सर्वश्रेष्ठ विद्यालय है एवं इसकी ग्रान्ट दूनी की जाती है।” विश्व विख्यात परम विदुषी के जीवन की इस अमूल्य घटना से हमको यह शिक्षा मिलती है कि” धर्मैव हतों हन्ति धर्मो रक्षति रक्षिता” अर्थात यदि जो धर्म की रक्षा करेंगे ,तो धर्म हमारी रक्षा करेगा। । डा श्वेतकेतु शर्मा, बरेली पूर्व सदस्य हिन्दी सलाहकार समिति भारत सरकार




बृद्धजनों की सामाजिक एवं पारिवारिक समस्यायें

*वृद्ध जनों की सामाजिक एवं पारिवारिक समस्यायें*

डा० असफिया मज़हर(शिक्षिका)
वर्तमान युग मे समय एवं धन दो वस्तुएं हैं, जो समस्त मानवीय एवं सामाजिक संबंधों एवं व्यवहारों का निर्धारण करती है। सम्पूर्ण समाज की मन स्थिति को प्रभावित करती है। पुनः चूंकि आज का युग बाजारवाद, उपभोक्तावाद, और दिखावटी जीवन का युग है अतः कोरे सभ्यतावाद के इस विचार ने हमें स्वस्थ मानवीय जीवन से परे मानव हीनता से ओत-प्रोत कर दिया है। पारिवारिक, सामाजिक एवम धार्मिक बंधनों की क्षीणता ने आज हमारे पैदा करने वाले एवं परम् पूज्यनीय वृद्धों के समक्ष अनेक सामाजिक एवं पारिवारिक समस्याएं पैदा कर दी हैं।
झूठे अहंकार, स्टेटस स्थिति ओर और काम के बोझ के तले दबा आज का युवा बूढ़े माँ- बाप को बोझ समझने लगा है। यह उन्हें परिवार एवं भावनात्मक से दूर ओल्ड शेल्टर हाउस में भेजने से भी गुरेज नही करता। जिसके लिए जीवन जिया आज वे ही लावारिस और बेसहारा छोड़कर उनसे किनारा कर लेते हैं। समाज के सामने अपने बेटे की विदेशी नौकरी, रुतबा और मोटी तनख्वाह की झूठी तारीफें करते नहीं अघाते हमारे बुजुर्ग वास्तव में जिस असहनीय एकाकीपन एवं अपेक्षा के शिकार होते हैं, वह उन्हें अंदर ही अंदर खत्म करता रहता है। उनमें सांसे तो होती है जीवन नहीं। हमारे ग्रामीण वृद्ध जहां पैसे, देखभाल और बुनियादी सुविधाओं के अभाव से ग्रस्त होते हैं वहीं शहरी वृद्धजन एकाकीपन और मानवीय संवेदनहीनता से। आज हमारे वृद्धजन घर की बेकार वस्तु हो गए हैं, समाप्त होने की प्रतीक्षा उनकी अपनी पाली-पोषी संतानें करती हैं। परिवार में रहते हुए उन्हें परिवार के किसी मामले में, आर्थिक निर्गम में, विवाह एवं कृषि-व्यापार संबंधी मामले में एवं बड़ो की भूमिका में योगदान का कोई अवसर प्राप्त नहीं होता।
भारत में वर्ष 1951 की जनगणना के अनुसार 60 वर्ष के ऊपर के वृद्धों की संख्या जहाँ 2 करोड़ थी, वहीं यह 2001 में 7 करोड़ 66 लाख हो गई और 2003 में 9 करोड़ और जिसके सन 2016 तक सम्पूर्ण जनसंख्या का 10 प्रतिशत वृद्ध होंगे। हमारे वृद्धजन हमारे लिए पूज्यनीय ही नहीं, अपितु हमारी गौरवशाली धार्मिक, सांस्कृतिक- परंपराओं व भूतकाल के अनुभवों का खजाना समेटे एक धरोहर सदृश होते हैं। यही कारण है कि 1999 में वृद्धजनों के लिए एक “राष्ट्रीय नीति” एवं “राष्ट्रीय परिषद” का गठन किया गया, जो वृद्धजनों के बारे में नीतियाँ तथा कार्यक्रमों के विकास के लिए सरकार को सलाह एवं सहायता देती है। “वृद्धजनों के लिए संभावित कार्यक्रम” के अंतर्गत गैर सरकारी संगठनों की परियोजना लागत की 90 प्रतिशत वित्तीय सहायता की जाती है। “अन्नपूर्ण योजना” में निर्धनता रेखा के नीचे के वरिष्ठ नागरिकों को प्रतिशत 10 किलोग्राम अनाज नि:शुल्क दिए जाने का प्रावधान है। 22 फरवरी 2007 को संतान के दायित्व सम्बन्धी “द मेंटेनेंस एंड वेलफेयर ऑफ पैरेंट्स एंड सीनियर सिटीजन्स बिल” को वित्तीय मदद हेतु केंद्रीय मंत्रिमंडल ने मंजूरी दी, जिसका उद्देश्य बुढ़ापे की समुचित देखभाल, बच्चों से गुजारा भत्ते की प्राप्ति एवं वृद्धों की लम्बी एवं महंगी कानूनी लड़ाई से बचाव है। इसीक्रम में हिमांचल प्रदेश बुजुर्गों को कानूनी संरक्षण देने वाला देश का पहला राज्य बन गया है।

अब प्रश्न यह है कि उपरोक्त सैद्धान्तिक एवं कानूनी उपचार क्या वृद्धों की समस्याओं के समाधान में सक्षम होंगे, तो कह सकते हैं, पूर्णतः नहीं। हमारे वृद्ध हमारी नींव हैं, जब तक यह हर एक संतान न समझेगी, तो कोई कानून उसे उसके दायित्व बोध से परिचित नहीं करा सकता। क्या कानून द्वारा संतानों से पाये अधिकारों से वृद्ध उस मानवीय संवेदना को पा सकेंगें, जिसकी असहाय एवं एकांकी बुढ़ापे में सबसे अधिक आवश्यकता होती है। इसके लिए जरूरी है कि हम अपनी वृद्धावस्था से पहले अपने बच्चों में ऐसे संस्कार डाले कि वे हमें याद रखें। यदि हमने स्टेटस, अतिशय धन लोलुयपता एवं भौतिक संवेदना के विचार उनमें डाले तो, वे आगे चलकर उन्ही वस्तुओं को महत्वपूर्ण समझते हुए हमें भी भूलने में गुरेज नहीं करेंगे और आज यही हो रहा है।
मूल्यपरक सांसारिक शिक्षा, धर्म केंद्रित जीवन एवं सादा जीवन उच्च विचार हमें बुजुर्गों के महत्व से परिचित करा सकते हैं।उपभोक्ता भौतिकवादी, तीव्र गतिमान इस युग में हमारे देश की आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक जड़ें महान फलदायी सिद्ध हो सकती हैं। बेहतर होगा यदि हम पश्चिम के अंधानुकरण के बजाय संतोष एवं सद्चरित्रता को महत्व देंऔर अपनी जड़ों की मूल्यपरकता को समझें। अब हमें समझना भी चाहिए और समझना ही होगा वस्तुत: यही वृद्धजनों की समस्त समस्याओं का सबसे सफल मंत्र भी है।

लेखक
डा० असफिया मज़हर
प्रा० वि० कोंडरपुर, भिटौरा
जनपद- फतेहपुर, उत्तर प्रदेश




हम हैं भारतवासी

“हम हैं भारतवासी”

विपत्ति आने पर जो डर जाते हैं ,
हम नही वो कायर कहलाते हैं
हर मुश्किल को यू हराते हैं ,
सही मायने में तब हम भारतवासी कहलाते हैं
जब जब संकट की घड़ी आयी है ,
हर चेहरे पर मुस्कान बनकर छायी है
डटकर जो उसका सामना करते हैं,
सही मायने में तब हम भारतवासी कहलाते हैं
न ही घबराते हैं,न ही डरवाते हैं ,
बस थाम एक-दूसरे का हाँथ हर डगर पार करवाते हैं
सही मायने में तब हम भारतवासी कहलाते हैं ,
डर लगता है कि क्या ये हो सकता है
यही सोच के वो आगे बढ़ सकता है ,
हर मुश्किल को वो आसां बनाते है
सही मायने में तब हम भारतवासी कहलाते हैं ,
एक दृढ़ निर्णय ही तो पथ दिखलाता है
शुरुआत को अंत तक पहुचाता है ,
तभी तो वो सही मायने में भारतवासी कहलाता है
जब जोर हथेली पर पड़ता है ,
वह चुप चाप यूँ ही न थर्राता है
सिसक सिसक के भी वह हर बार आगे बढ़ता जाता है ,
हर आस को उसके अंजाम तक पहुचाता है
तभी तो वो सही मायने में भारतवासी कहलाता है
स्वतंत्रता मिलने से पहले भी तो हमने देखा है ,
हज़ार बार तो लड़के हमनें देखा है
मिला था न मूल्य हमारे लडाई लड़ने का ,
एक दिन हक दिला ही दिया हर गुलिस्तां के सिपाही का
यही सीख तो हमे निरंतर दुहरानी है,
हर अंश-अंश को ये कहानी सुनानी है
न ही हम डरते हैं,न ही घबराते हैं ,
डटकर हर मुश्किल को आसां बनाते हैं,
तभी तो सही मायने में हम भारतवासी कहलाते हैं

*जय हिद,जय भारत*

स्वरचित
आशुतोष कुमार (स०अ०)
प्रा०वि० बन्दीपुर,हथगांव
फतेहपुर (उ०प्र०)
मो.9838332986
ईमेल आईडी[email protected]

 




Shabd

शब्द
शब्द स्वर भरे कभी मुस्कुराहट में तो कभी आंसुओं में ढले
कुछ मन से टकराये और भिगो गए पर कुछ कानों की ओट में ही छिपकर रह गए.
कभी अधरों से फूटे तो गुनाह बन गए,
कभी अधरों पर आने से सकुचाये तो गले में ही अटक गये.
कह दिया तो सुना कि क्यों कह दिया,
नहीं कहा तो सुना कि क्यों नहीं कहा.
दोनों तरफ तुम ही खड़े, हम बस तुम्हारे शब्दों का खेल देखते रहे.
मेरी तकलीफों में लिपटे मेरे शब्द कभी आंसुओं के
साथ तकिये में छुप गए,
पर कभी कभी उगते हुए सूरज को देख कर पंख लगा कर उड़ गए.
तुम्हारी गलत दलीलों में शामिल शब्द बन गए तुम्हारे हथियार,
मेरे टूटते जुड़ते शब्द मेरे एहसासों की गवाही न बन सके.
हम दोनों की लड़ाई में सिर्फ तुम ही तुम दिखे,
हम तो खामोशी से बस तुम्हारे वार सहते रहे.
मेरे एहसास भी थे कभी शब्दों में ढले,
तुमने नही सुने तो उंगलियों से फिसलकर डायरी में
बंद हो गए.
तुम्हारी कैद से छूट कर मेरे शब्द रहे मेरे साथ,
अब तुम अपने शब्दों के साथ समेटो अपनी बिछाई शतरंज की बिसात.
मेरे शब्द मेरे लिए अनमोल थे पर तुम्हारे लिए सिर्फ
एक शोर थे.
हमारे अंदाज थे जुदा, शब्दों की आवाज थी जुदा,
तुम बनने चले मेरे खुदा तो हम भी इबादत करना भूल गए.
डा. संजना मिश्रा………