1

आंचलिकता और रेणु

                                                          डा० शबनम कुमारी
पीएचडी  (हिंदी) पटना विश्वविद्यालय

‘अंचल ‘,’आंचलिकता ‘ तथा अन्य समीपवर्ती शब्दों  की वास्तविक सामर्थ्य को समझना महत्वपूर्ण है।  हमारे शब्दकोशों में ‘अंचल ‘ का अर्थ ‘सीमा का समीपवर्ती ‘ भाग दिया गया है| ‘ये अंचल अधिकांशतः सीमा पर होने के कारण नागरी जीवन की केंद्रीय क्रियाशीलता और गतिविधियों से असंपृक्त होते हैं  और इसीलिए एक ही देश के भाग बने होकर भी जीवन – व्यबहार संबंधी  उनकी  अपनी संस्कृति , अपनी भाषा और अपनी विशिष्ट मानसिकता होती है जो उन्हें राष्ट्रीय सन्दर्भ में भी  विशिष्ट  बना  देती है  | …. अंचल का निजी जीवन ,लोक व्यव्हार ,नैतिक आदर्श और संस्कृति सबंधी विशिष्टताएँ ही समन्वित होकर ‘आंचलिकता’ कहलाती है |’1


आंचलिक उपन्यास की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए डा० रामदरश मिश्र कहते हैं कि – “जैसे  नई कविता ने सच्चाई से भोगे हुए अनुभव की भट्टी में तपे हुए पलों को व्यंजित में ही करने कविता की सुन्दरता देखी, वैसे ही उपन्यासों के क्षेत्र में आंचलिक उपन्यासों ने अनुभवहीन सामान्य या विराट के पीछे न दौडकर अनुभव की सीमा में आनेवाले अंचल विशेष को उपन्यास का क्षेत्र बनाया। आंचलिक उपन्यासकार जनपद-विशेष के बीच जीया होता है या कम से कम समीपी दृष्टा होता है। यह विश्वास के साथ वहाँ के पात्रों, वहाँ की समस्याओं, वहाँ के संबंधों, वहाँ के प्राकृतिक और सामाजिक परिवेश के समग्र रूपों, परंपराओं और प्रगतिओं को अंकित कर सकता है क्योंकि उसने उसे अनुभूति में उतारा है। आंचलिक उपन्यास लिखना मानों ह्रदय में किसी प्रदेश की कसमसाती हुई जीवन अनुभूति को वाणी देने का अनिवार्य प्रयास है। आंचलिक कथाकार को युग के जटिल जीवन बोध का नहीं, इसीलिए वह आज भी पिछड़े हुए जनपदों के सरल, निश्छल जीवन की ओर भागने में सुगमता अनुभव करता है, ऐसा कहना असत्य होगा।”2


हिन्दी साहित्य जगत के इतिहास में आंचलिकता शब्द की चर्चा सन् 1954 ई० में प्रकाशित ‘मैला आँचल’ के साथ ही शुरू हुआ। हालांकि 1953 ई० में यह, बिहार के एक स्थानीय प्रकाशन से छप चुका था। यहीं से आंचलिकता की चर्चा का आरंभ हुआ। ‘आंचलिक पद का प्रयोग भी संभवतः पहले – पहल ‘रेणु’ ने ही किया – “यह है मैला आँचल, एक आंचलिक उपन्यास। कथांचल है पूर्णिया। पूर्णिया बिहार राज्य का एक जिला। …. मैंने इसके एक हिस्से के एक ही गाँव को पिछड़े गाँवों का प्रतीक मानकर इस किताब का कथा क्षेत्र बनाया है।” 

यद्यपि सही अर्थों रेणु से पूर्व नागार्जुन ने ‘रतिनाथ की चाची’ (1948) तथा ‘बलचनमा’ (1952) के द्वारा आंचलिक उपन्यासों से हमारा परिचय कराया दिया था। हमारे हिन्दी के विद्वानों ने आंचलिक रचनाओं का वर्गीकरण शुरू कर दिया था। केई विद्वान के अनुसार प्रेमचंद आदि के रचनाओं में आंचलिकता देखी जा सकती है। परंतु तमाम चर्चाओं के बाबजूद फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ की ‘मैला आँचल’ को ही हिन्दी साहित्य का प्रथम आंचलिक उपन्यास माना गया है।

सर्वप्रथम आंचलिक कृतियों की आवश्यकता- ” आंचलिक उपन्यास के माध्यम से हम उस अंचल की विशिष्ट सांस्कृतिक संपदा, प्राकृतिक मनोहर तथा वहाँ की भाषा-बोली की सहज मिठास का परिचय तो पाते ही हैं, साथ ही वहाँ के संस्कारों, वहाँ के जीवन की कटुता और विषमताओं तथा विद्रुपताओं का ज्ञान भी हमें प्राप्त होता है। आंचलिक उपन्यास ‘अंचल’ की स्थानीयता को महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति देते हैं। साथ ही व्यक्ति के सहज चरित्र का विवेचन आंचलिक उपन्यास का प्रमुख गुण माना जाना चाहिए।”4

हिन्दी गद्य लेखन ने बड़ी तेजी से अपनी विकास-यात्रा तय की हैं। पिछले दो-तीन दशकों में इसके विकास में और भी तीव्रता आई है, और विविधता की दृष्टि से भी नये-नये क्षेत्रों में प्रयोग हुए हैं। इस स्थिति में उपन्यास की प्रवृत्ति भी बदली हैं और शैली भी। आंचलिक उपन्यास मूलतः स्वातन्त्र्योत्तर युग की देन हैं। स्वतंत्रता से पूर्व राष्ट्रीयता के प्रभाव एक अंचल विशेष के यथार्थ अथवा उसकी सुन्दरता-असुन्दरता की ओर ध्यान देने का लेखक के पास अवकाश  नहीं था। स्वतंत्रता हमारी प्रथम आवश्यकता थी। यद्यपि प्रेमचंद जैसे लेखकों ने ग्राम्य जीवन को अपनी लेखनी का आधार बनाया परंतु उनमें हमें सिर्फ आंचलिक स्पर्श या स्थानीय रंगत ही दिखलाई पड़ता है। उस समय ग्रामीण जीवन को आधार बनाना गांधी जी के प्रेरणा स्वरुप था। स्वतंत्रता पश्चात् स्थिति में परिवर्तन आया। देश के प्रत्येक अंचल’ के उत्थान के लिए कार्य करने की प्रेरणा ने प्रशासन और साहित्यकार का ध्यान आकर्षित किया। ऐसे समय में साहित्यकारों ने प्रत्येक अंचल’ को एक संपूर्ण इकाई मानकर बड़ी सूक्ष्मता के साथ इन परिवेशों का अध्ययन किया है, इनके यथार्थ को पहचाना है, यहाँ की मिट्टी से संबंध स्थापित किया है, यहाँ की जलवायु को जीया है और यहाँ की भाषा बोली संस्कार, परंपराओं और रुढियों के गहरे मे जाकर यहाँ के परिवेश और चरित्र का उदघाटन करते हुए साहित्य को एक नयी विधा ‘आंचलिक साहित्य’ से अलंकृत और उपकृत किया है। 

हमारा विशाल भारत देश एक विस्तृत भू- भाग में फैला हुआ है। देश की परतंत्रता के कारण उनका अविकसित रह जाना स्वाभाविक है। ‘वास्तव में देखा जाए तो सोवियत रूस के अनुकरण पर भारत में भी पंचवर्षीय योजनाएँ शुरू हुई। नवनिर्माण के और विकास की प्रक्रिया में छोटे-छोटे अंचलों की और ध्यान जाना स्वभाविक था। सर्वांगीण विकास की प्रक्रिया में छोटे – छोटे अपरिचित अंचलों की खोज ही आंचलिकता का मूल उत्स था। 19 वीं सदी के उत्तरार्ध में जब अमेरिकी उपन्यासकारों- विटहार्ट और हैरेट बीयर स्टो ने सुदूर अमेरिकी अंचलों को ध्यान में रखकर उपन्यास लिखे तो उनका विशेष आग्रह इस पर था कि मध्यवर्गीय सोच नहीं हावी होनी चाहिए। अंचल का वैशिष्ट्य पत्रों के माध्यम से उनके जीवन-व्यव्हार के माध्यम से उभरकर आना चाहिए -लेखक के विचार की भूमिका वहाँ नगण्य रहनी चाहिए |(जैसा की नागार्जुन के उपन्यासों में है) इस आधार पर देखा जाये तो वास्तविक आंचलिक उपन्यास उड़िया लेखक गोपीनाथ मोहंती का ‘अमृत संतान ‘ है |5 हमारा देश विस्तृत भू -भाग होने के कारण आपने विविध संस्कृति की समाहित किये हुए है | इस तरह की समसामयिक स्थिति आंचलिक कृतियों की रचना के लिए सुदृढ़ आधार प्रदान करती है | 


आंचलिक गद्य साहित्य के विकसित होने के दो मुख्य कारण और भी थे – ‘गांधी का गाँव के प्रति लगाव ‘ और ‘भीगा हुआ यतार्थ का वर्णन ‘| हिंदी साहित्य पर महात्मा गाँधी का काफी प्रभाव रहा | ‘प्रेमचंद’ से लेकर ‘रेणु’ तक सभी साहित्यकारों ने अपने साहित्य में ‘गांधीवाद’ को प्रतिष्ठित किया है | गाँधी जी का नारा ‘हमारा वास्तविक भारत गाँव में बसता है ‘ से साहित्य में आंचलिकता को बढ़ावा मिला | यहाँ सुमित्रा नंदन पंत की कविता याद आती है :

“भारत माता ग्राम वासिनी
खेतों में फैला है श्यामला
धूल भरा मैला सा आँचल 
मिटटी की प्रतिमा उदासिनी

भारत माता ग्रामवासिनी |”
6 


आंचलिकता की अवधारणा बनने का दूसरा मुख्य कारण ‘ भोगा हुआ यथार्थ’ कहने की ललक तथा तमाम साहित्यकारों का ग्रामीण परिवेश से आना भी था |

सन् 1950 के आस पास ‘नई कहानी ‘ की प्रतिष्ठा करते हुए कमलेश्वर , मोहन राकेश तथा राजेंद्र यादव इत्यादि प्रतिष्ठित साहित्यकारों ने साहित्य में ‘भोगे हुए यथार्थ’ का नारा प्रतिष्ठित किया | इससे यह हुआ जो साहित्यकार कस्बाई, महानगरीय आदि परिवेश से जुड़े थे , उन्होंने साहित्य में उस परिवेश की प्रतिष्ठा की और जो साहित्यकार (प्रेमचंद , नागार्जुन , रेणु , आदि ) ग्रामीण परिवेश से सम्बद्ध थे, उन्होंने साहित्य में ग्रामीण परिवेश की स्थापना की | इन्ही में से जो साहित्यकार सुदूर आंचलिक अथवा अत्यंत पिछड़े तबके से आये थे , उन्होंने साहित्य में वहां के सामाजिक – सांस्कृतिक परिवेश की प्रतिष्ठा की , जिसे रेणु ने ‘मैला आंचल’ में ‘आंचलिकता’ की एक व्यापक अवधारणा के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया |7

गोपाल राय लिखते हैं – “आँचल का व्यक्तित्व , उसकी संस्कृति अर्थात वहां की परम्पराओ , विश्वासों , रहन-सहन के तौर तरीकों , रीती रिवाजों , किवदंतियों , लोकगीतों , लोक कथाओं आदि से  बनता है | आंचलिक जीवन का एक सुपरिचित यथार्थ यह है की ग्रामीणों के समस्त संस्कार काम करने का एक -एक क्षण. पर्व. उत्सव , कर्मकांड , गीत – नृत्य आदि से जुड़े होते है |”8

रेणु जी का  ‘मैला आँचल ‘ वस्तु और शिल्प दोनों स्तरों पर सबसे अलग है | इसमें एक नए शिल्प में ग्रामीण-जीवन को चित्रित किया गया है। इसकी विशेषता है की इसका नायक कोई व्यक्ति नहीं वरन् पूरा का पूरा अंचल ही इसका नायक है। इस कथा वस्तु के माध्यम से पूर्णिया जिले के मेरी गंज गांव की सभयता , संस्कृति राजनीतिक गतिविधियों , आर्थिक और सामाजिक – सांस्कृतिक परिवेश का सही मायने में अंकन किया गया है | मैला आँचल में फणीश्वर नाथ रेणु ‘ जाति समाज और ‘वर्गचेतना’ के बीच विरोधाभास की कथा कहते है | आज इस इलाके को ‘मैला आँचल’ की दृष्टि से देखने पर जाति समीकरण और संसाधनों पर वर्चस्व की जातीय व्यवस्था उपन्यास के कथा समय के लगभग अनुरूप ही दीखता है | जातियाँ उपन्यास को कथा काल की हकीकत थीं और आज भी है।’मैला आँचल ‘ में स्वत्रंत होते और स्वंत्रता के तुरंत बाद के भारत की राजनितिक , आर्थिक , सामाजिक परिस्थितियों और परिदृश्यों का ग्रामीण और यथार्थ से भरा संस्करण है |9 रेणु के अनुसार – इसमें फूल भी है , शूल भी है , गुलाब भी है, कीचड़ भी है , चन्दन भी सुंदरता भी है , कुरूपता भी है – मैं किसी से दमन बचाकर भी नहीं निकल पाया | कथा की सारी अच्छाइयों और बुराइयों के साथ साहित्य की दहलीज पर आ खड़ा हुआ हूँ, पता नहीं अच्छा किया या बुरा | जो भी हो , अपनी निष्ठा में कमी मससूस नहीं करता।10 इसमें गरीबी , भुखमरी , धर्मांधता में भरा हुआ व्यविचार, शोषण, अंधविश्वासों आदि का वर्णन है| 


‘एक तरफ यह उपन्यास आंचलिकता को जीवंत बताता है तो दूसरी तरफ उस समय का बोध भी दृष्टि गोचर होता है | ‘मेरी गंज ‘ में मलेरिआ केंद्र खुलने से वहाँ के जीवन में हलचल पैदा होती है | पर इसे खुलवाने में पैंतीस वषों की मशक्कत है और यह घटना वहाँ के लोगों की विज्ञान और आधुनिकता को अपनाने की हकीकत बयान करती है | भूत-प्रेत , टोना-टोटका , झाड़-फूक आदि में विश्वास करने वाली अंधविश्वाशी परंपरा गनेश की नानी की हत्या में दिखती है | साथ ही जाति-व्यवस्था का कट्टर रूप भी दिखाया गया है | सब डा० प्रशांत की जाति जानने के इच्छुक है | हर जातियों का अपना अलग टोला है | दलितों के टोले में सवर्ण विरले ही प्रवेश करते हैं , शायद तभी जब अपना स्वार्थ हो | छुआ-छूत का मामला है , भंडारे में हर जाति के लोग अलग-अलग पंक्ति में बैठकर भोजन करते हैं और किसी को इस पर आपत्ति नहीं है…. | इस उपन्यास की कथा वास्तु काफी रोचक है | चरित्रांकन जीवंत | भाषा इसका सशक्त पक्ष है | रेणु जी सरस व सजीव भाषा में परंपरा से प्रचलित लोक कथाएं , लोकगीत, लोक संगीत आदि को शब्दों में बांधकर तत्कालीन सामाजिक राजनीतिक परिवेश को हमारे सामने सफलतापूर्वक प्रस्तुत करते है | अपने अंचल को केंद्र में रखकर कथानक को ‘मेला आँचल’ द्वारा प्रस्तुत करने के कारण फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ हिंदी में आंचलिक उपन्यास की परंपरा के प्रवर्तक के रूप में प्रतिष्ठित हुए |11 

आंचलिक स्पर्श से युक्त उल्लेखनीय कृतियों में रेणु के ‘दीर्घतपा’ और ‘जुलुस’ आदि है | किन्तु ”परती परिकथा’ के उपरान्त उनकी रचनाएँ आंचलिकता की स्पर्श मात्र बनकर रह जाती है | हालांकि ‘दीर्घतपा’ को पूर्ण आंचलिक मानने में लेखक खुद ही संकोच मससूस करता है और जुलुस अपनी भाषा और शिल्प में पूर्ण आंचलिकता लिए हुए हैँ | इसमें कोई संदेह नहीं है लेकिन उसकी यह भाषा और शिल्प-कुशलता परिवेश को अपनी सम्पूर्णता नहीं दे पाता है | इसकी वजह ग्रामोत्थान के लिये चलाई जाने वाली पचवर्षीय योजनाओ की बिफलता है | इसके कारण साहित्यकार का आंचलिक के प्रति मोहभंग भी दिखाई देने लगता है |

कहा जाता है कि लेखक के व्यक्तित्व का प्रभाव उनकी रचनाओं में अवश्य परिलक्षित होता है | फणीश्वरनाथ रेणु सिर्फ एक सृजनात्मक व्यक्तित्व के स्वामी ही नहीं बल्कि एक सजग नागरिक व देश भक्त भी थे | ‘1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में उन्होंने सक्रिय रूप से योगदान दिया | इस प्रकार एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप उन्होंने अपनी पाहचान बनाई | ….. ‘1950 में बिहार के पड़ोसी देश नेपाल में राज शाही  दमन बढ़ने पर वे नेपाल की जनता को राणा शाही के दमन और अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के संकल्प के साथ वहाँ पहुंचे और वहाँ की जनता द्वारा जो सशत्र क्रांति व राजनीति की जा रही थी उसमे सक्रिय योगदान दिया | 1952-53 के दौरान वे बहुत लम्बे समय तक बीमार रहे | फलस्वरूप वे सक्रिय राजनीति से हट गये | उनका झुकाव साहित्य सृजन की ओर हुआ | 1954  में उनका पहला उपन्यास ‘मैला आँचल ‘ प्रकाशित हुआ | मैला आँचल उपन्यास को इतनी ख्याति मिली कि रातों रात उन्हें शीर्षस्थ हिंदी लेखकों में गिना जाने लगा |’12 

रेणु की लेखन शैली वर्णात्मक थी जिसमे पात्र के मनोवैज्ञानिक सोच का विवरण होता था | रचनाओं में पात्रों का चारित्रिक निर्माण तीव्रता से होता था क्योंकि पात्र एक सामान्य सरल मानव के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होता था। इनके कृतियों में आंचलिक पदों का बहुत ही ज्यादा प्रयोग दिखलाई पड़ती है |

अंततः फणीश्वरनाथ रेणु नई कहानी की दौर में ग्राम आँचल की विशिष्ट ताजगी और जीवंत अनुभूति को लेकर आनेवाले प्रमुख रचनाकार रहे हैं।अपनी आंचलिक कृतियों से हमारा परिचय कराने वाले बड़े साहित्यकार रेणु ने जिस मनःस्थिति में आकर अंचल विशेष को नायक बना कर कथाकाल की हकीकत को अपनी रचना में स्थान दिया है, वह हकीकत आज की भी है|

संदर्भ ग्रंथ सूची:-

  1. मैला आँचल की रचना-प्रक्रिया – डा० देवेश ठाकुर 
  2. हिंदी उपन्यास : एक अंतर्यात्रा  – राम दरश  मिश्र
  3. भूमिका – मैला आँचल : फणीश्वरनाथ रेणु 
  4. मैला आँचल की रचना-प्रक्रिया – डा० देवेश ठाकुर 
  5. आंचलिक उपन्यास की अवधारणा और मैला आँचल – सुनील कुमार अवस्थी 
  6. ग्राम्याः सुमित्रानंदन पंत
  7. आंचलिक उपन्यास की अवधारणा और मैला आँचल – सुनील कुमार अवस्थी   
  8. हिंदी उपन्यास का विकास – गोपाल राय 
  9. मैला आँचल फणीश्वरनाथ रेणु-भारत कोश 
  10. मैला आँचल (हिन्दी ) अभिगमन तिथि 21 मार्च 2013 
  11. मैला आँचल फणीश्वरनाथ रेणु भारत कोश
  12. फणीश्वरनाथ रेणु -भारत कोश





रमेश कुमार सिंह रुद्र की नई कविता ‘मां सरस्वती’

वीणावादिनी ज्ञानदायिनी ज्ञानवान कर दे….

माँ रूपसौभाग्यदायिनी नव रुप भर दे….

हंसवाहिनी श्वेतांबरी जग उज्ज्वल कर दे…..

वीणापाणिनि शब्ददायिनी शब्दों से भर दे….

ज्योतिर्मय जीवन

तरंगमय जीवन

सभी जन प्रकाशयुक्त

सभी जन ज्ञानयुक्त

अज्ञान निशा को

जीवों से दूर कर दे…..

सत्य पथ सत्यमय

वीणा के तारों से

विद्या-विनयमय

स्वरों की झंकारों से

सभी जीव-प्राणि को

सुखद पल भर दे…..

कमलासिनी कमलनयन से सभी को दृष्टि दे.

वाग्देवी माँ वागेश्वरी वाणी से सभी को वृष्टि दे.

कमंडलधारिणी करकमलों से सभी को वृद्धि दे.

बुद्धिदात्री ब्रम्भचारिणी सभी को सृष्टि दे.

©️रमेश कुमार सिंह रुद्र




जिज्ञासा धींगरा की कविता “एक पागल सी लड़की”

 
छोटा सा सपना, गहरी सी आंखें,
मासूम सी बातें, पागल सी लड़की।
 
कहीं उसके सपनों की लड़ी खो गई,
वो पागल सी लड़की कहीं गुम हो गई।
 
आंगन की देहरी, सौ रंग के सपने,
अनछुए से अनदेखे इक दिल के कोने।
 
जो सबको खिलाकर भूखी भी सो गई,
वो पागल सी लड़की कहीं गुम गुम हो गई।
 
दिल में बसती थी, एक रंगीन बगिया,
उसमें बोती थी, अपनों की खुशियां।
 
लो सूखे क्या पौधे! बस रो गई,
वो पागल सी लड़की कहीं गुम हो गई।
 
टूटे जो वादे, रूठे जो अपने,
गिन भी ना पाओ, झूठे थे इतने।
 
बस तब से मुश्किल खड़ी हो गई,
वो पागल सी लड़की कहीं गुम हो गई।
 
बस एक भगवान थे उसके हमराज,
करती थी उनसे राज की हर बात।
 
वक्त से लड़ने को  खड़ी हो गई,
वो पागल सी लड़की, कहीं गुम हो गई।
 
सपने जलाकर बन गई वो दीपक,
रह गई अकेली, ना कोई आहट।
 
जाने कहां वो फुलझड़ी खो गई।
उफ वो पागल सी लड़की कहीं गुम हो गई।
 
वो शरारत वो बातें कहीं खो गई
वो पागल सी लड़की कहीं गुम हो गई।
 
 जिज्ञासा धींगरा ,खुर्जा, बुलन्दशहर



स्वर्ग के शौचालय में हिंदी

उत्कृष्ट रचनाकार भारतेंदु ने ‘स्वर्ग में विचार सभा का आयोजन‘ लिखा था और निकृष्ट कोटि का रचनाकार मैं, जनमेजय ‘ स्वर्ग के शौचालय में हिंदी ’ लिखता हूं। शौचालय के नाम पर नाक पर रुमाल मत लाएं। आज के शौचालय कम से कम भारतीय राजनीति से कम दुर्गंध छोड़ते हैं। शौचालय अध्ययन कक्ष हो गए हैं। कंबोट पर बैठकर हर भाषा का अध्ययन होता है तो बेचारी हिंदी का क्या कसूर की उसका न हो! हिंदी को पिछड़ा मत करें, उसे आरक्षण की आवश्यक्ता नहीं है, उसे आधुनिक करें। और मैं तो विदेशी धरती के स्वर्ग मंे स्थित एक शौचालय में, हिंदी के सम्मान पर प्रकाश डाल रहा हूं, अंधेरा नहीं।
हुआ यूं कि..। पत्नी न,े मुझसे, मंत्रीमंडल में स्थान कब मिलेगा टाईप, जिज्ञासा व्यक्त की – कब ले जा रहे हो धरती पर स्वर्ग दिखानें ?’
वैसे तो भव सागर पार करते ही जीव स्वर्गवासी हो जाता है। पर मेरी पत्नी बिना भवसागर पार किए धरती पर स्वर्ग देखना चाहती थी।
मेरी पत्नी टू इन वन है- एकमात्र पत्नी और प्रेयसी। वह इस चतुराई से अपनी भूमिका बदलती है कि मुझे पता ही नहीं चलता कि कब वह प्रेमिका है और कब पत्नी। जैसे आपको पता नहीं चलता कि आपकी झोपड़ी में, आप ही की थाली में खाने वाला कब उसमें छेद कर देता और आपका बहुमूल्य वोट उसकी जेब में चला जाता है। आप किसान बन जाते हैं।
मैंने कहा – डर डर के स्वर्ग देखने में क्या आंनद! जब भी कश्मीर जाने की सोचते हैं स्वर्ग में कर्फयू लग जाता है।
– तो विदेश वाला स्वर्ग दिखा दो। शर्माईन स्वीट्जरलैंड हो कर आई है।
– शर्मा कस्टम में काम करता है और मैं हूं एक खालिस मास्टर। मेरी औकात नहीं है।
– औकात तो बनानी पड़ती है, बैंक से लोन ले लो। वो तो उधार देने को उधार खाए बैठे हैं।
– मैं कोई माल्या नहीं हूं …
-गरीबो को घर के लिए मिलता है
– यह बेईमानी होगी।
– बिना बेईमानी के औकात नहीं बनती, और तुम मेरी इतनी-सी इच्छा …
इतनी सी इच्छा के लिए मैंने बैंक लोन की प्रक्रिया निभाई और प्रेयसी ने शर्माईन से स्विटजरलैंड के क्रैश कोर्स की।
पत्नी बोली – पहले हम माउंट टिटलिस चलेंगें।
– वहां क्या खास है ?
– दस हजार फुट की उंचाई पर दिल वाले दुलहनिया ले जाएगी की शूटिंग हुई थी। शाहरुख और काजोल का कट आउट है। हम दोनों वहां पोज बनाकर फोटो खिचवाएंगे…’’ उसने मेरी आंखों में प्रेयसी बन झांका और कंधे पर सर रख दिया।
मैंने पति बन झटका और बोला -तुम धरती पर स्वर्ग देखना चाहती हो या स्वर्ग में दिलवाले … तुम स्विटजरलैंड जाना चाहती हो या मुंबईलैंड…
– वो सब कुछ नहीं, जो मैं कहूंगी वही होगा।
हुआ भी वही। मेरे पास स्विस बैंक में एकाउंट तो नहीं है पर मेरे पास स्विस रेल पास था। हम सबसे पहले माउंट टिटलिस पहुंचे। मेरी प्रेयसी ने वह सब कुछ किया जिसकी ट्रेनिंग वह शर्माईन से लेकर आई थी। उसने ट्रेनिंग ली थी इसलिए उसे चारों ओर स्वर्ग दिखाई दे रहा था। मैंने बैंक से लोन लिया था, मुझे स्वर्ग के साथ नर्क भी दिखाई दे रहा था।
बढ़ती ठंड ने विवश किया कि हम दस हजार फीट पर शौचालय का प्रयोग करें। पत्नी प्रयोग कर बाहर आई तो उसके चेहरे पर संतोष नहीं कुटिल मुस्कान थी। मैंने जिज्ञासा प्रकट की तो बोली- अंदर जाओ, खुद देख लो कि संडास में तुम्हारी हिंदी…
मैं देखकर आया, बोला ‘ वर्तनी की भयंकर अशुद्धि है- शौचालय को शोचालय लिखा है। पर दस हजार फीट पर स्वर्ग जैसी विदेशी धरती पर हिंदी, गर्व होता है..
– विदेशी संडास में हिंदी को देखकर गर्व हो रहा है।
– क्या संडास संडास कह रही हो… संस्कृत की हो, संभ्रांत शब्द का प्रयोग करो।
– मानते हो न कि संस्कृत हिंदी से अधिक संभ्रांत है।
– मानता हूं मेरी मां, मानता हूं।
– मैं तुम्हारी पत्नी और प्रेयसी हूं, मां नहीं …
– सांसारिक रिश्ते में पत्नी हो पर भाषाई रिश्ते में मां हो। संस्कृत हिंदी की मां ही है ….
– मैं कुछ भी हूं यहां तुम्हारी हिंदी शौचालय में है।
– वर्तनी की एक भूल क्या हो गई… शौचालय को शोचालय लिख दिया तो तुमने हिंदी को शौचालय में बैठा दिया।
-हिंदी के मास्टर हो न, वर्तनी पर गए, मूल चिंता पर नहीं। यह पूरी भारतीय मानसिकता पर चोट है। ध्यान से पढ़ा, क्या लिखा है? लिखा है- कृपया एक स्वच्छ हालत में शोचालय छोड़ें।’ तुम्हें यहां पूरे टिटलिस में कहीं और हिंदी दिखाई दी ? कहीं स्वागत लिखा दिखा। दिल वाले दुलहनियां भी रोमन में लिखा है। स्विटजरलैंड में जर्मन, फ्रेंच, इटेलियन और रोमांश राष्ट्रीय भाषाएं हैं, इनमें से किसी में लिखा है?
मैंने व्यंग्य करते हुए कहा – आंख की अंधी नाम की नयनसुख, वहां अंग्रेजी में भी लिखा है – प्लीज लीव दी टॉयलेट इन ए क्लीन कंडीशन। मतलब …
पत्नी ने व्यंग्योत्तर देते हुए कहा – मतलब यह कि कोल्हू के बैल,वे जानते हैं कि गैर हिंदी वाले भारतीयों की ‘मातृभाषा’ अंग्रेजी है। वैसे भी हिंदी वाला विदेश में कब्जीयुक्त अंगे्रजी बोलना सम्मानजनक समझता है। यहां सीधे -सीधे अंगे्रजी और हिंदी में समझाया गया है कि तुम गंदगी फैलाउ हो, अपनी गंदगी कृपया यहां न बिखेरना। कंबोट में बैठने का तरीका भी हिंदी और अंगे्रजी में लिखा है।
तभी बर्फ गिरने लगी। मैंने प्रार्थना की कि किसी तरह इतनी बर्फ पड़े कि शौचालय उसमें दब कर खो जाए।पर जहां बर्फ नहीं पड़ती और वहां ऐसा शौचालय हुआ तो…! मैं सोच में पड़ गया और पत्नी प्रेयसी बन बर्फ के गोले मुझपर दागने लगी।

 




मनीषी मित्तल की नई कविता ‘सारा सच’  

अख़बार का इक पन्ना सारा सच बतलाता है।

देश-विदेश की सारी खबरें चुटकी में पहुंचाता है।

घर-आंगन में जब आता सब का मन हर्षाता है।

सुबह की सब की चाय का फिर ये स्वाद बढ़ाता है।

अख़बार के आंगन में कई तरह की खबरें है।

 कुछ खुशी की , कुछ गम की तस्वीरें है।

स्याही में है इतनी ताकत सच से नहीं घबराता है।

काले धन के चोरों को अदालत तक ले जाता है।

सारा सच फिर उनका जनता तक पहुंचाता है।

कानून के सारे निर्देशों को जारी करवाता है

नेता हो या अभिनेता सबका रंग बताता है।

रंग है इसका काला गोरा पर सच को ये दर्शाता है।

नहीं अख़बार ये है आईना

जो सारा सच दिखलाता है।

ना समझो इसको कागज के पन्ने 

ये रोजगार दिलाता है।

कितने ही लोगों के चूल्हे ये जलाता है।

समझ के इसको इतना सस्ता हवा में नहीं उड़ाना है,

जानकर इसके मूल्यों को दुनिया तक पहुंचाना है।

(स्वारचित)

 मनीषी मित्तल, टीजीटी हिन्दी ,राजकीय आदर्श उच्च विद्यालय, मनीमाजरा चंडीगढ़। [email protected]। 8054660410




माथे की बिंदी

हिंदी दिवस पर बहुत सारे नारे लगते हैं । और अगर कहा जाए कि हिंदी – दिवस है ही नारों का दिवस तो ये बात आपको वैसे ही हजम होगी जैसे यह कि चुनाव -दिवस है ही नारों का दिवस । चुनाव और हिंदी , दोनों बहने ही तो हैं — दोनों में राजनीति होती है, दोनों में जो नहीं हो सकता उसका आश्वासन दिया जाता है तथा दोनों में हाथी दांतिया इस्टाईल में आंदोलन होते हैं । इसलिए इस हिंदी – दिवस पर मैंनें भी नारा लगा दिया , ‘‘हिंदी माथे की बिंदी ।’’ वैसे यह नारा मेरा नहीं है , बरसों से हर बरस इस नारे को लगाकर प्रसन्नता इस अंदाज में व्यक्त की जाती है जैसे बरसों की प्रतीक्षा के बाद लडकियों वाले घर में लड़का पैदा हुआ हो ।

वे बोले , ‘‘सारे माथों पर तो अंग्रेजी लगी हुई है , ये बिंदी किसपर लगाओगे ?’’ यह कहकर उन्होंनें अपना माथा छिपा लिया । वे आदरणीय हैं । मैंनें ध्यान से देखा, उनके चेहरे पर सबकुछ था, माथा नहीं था । जीवन में जो आदरणीय जन इस तरह की चुनौतियां देते हैं, अक्सर उनके माथे गायब ही होते हैं ।

मैं हिंदी की बिंदी के लिए माथा ढूंढने निकल पड़ा ।

वे मुझे बीच रास्ते में ही मिल गए । इस देश के निर्माताओं को वे हिंदी पढाते हैं , इसलिए परम आदरणीय हैं। हिंदी की खाते हैं, हिंदी की ही पीते हैं । हिंदी के बारे में उनके विचार बड़े पवित्र और नेक हैं । उनका सत्य वचन है , हिंदी भी कोई पढने पढाने की ‘वस्तु’ है । वो अत्यधिक धार्मिक स्वर में अक्सर कहते हुए पाए जाते हैं,  “हिंदी तो गउ माता है जिसका दूध निकालने के बाद उसे गंदगी में मुंह मारने के लिए छोड़ दिया जाता है, फिर मजे से आदमी उसका चारा खाता है।’’

मैं जब उनसे मिला तो वे चारा खाने का सत्कर्म ही कर रहे थे । कृष्ण की तरह उनके चेहरे पर चारा लिपटा हुआ था और वो गा रहे थे ,‘‘ मैया मोरी मैं नहीं माखन खायों ! ’’ उनके सुर में सुर मिलकर उनकी पत्नी भी गा रही थी, ‘‘ ओ ससुरी मैया ,ये नहीं माखन खायो ’’ और मैया बेचारी कहीं कोठरी में पड़ी दिन गिन रही थी ।

मैंनें पूछा ,‘‘आपके बिंदी लगाउं ?’’

वे बोले , ‘‘बाबा माफ करो ,आगे जाओ । यू नो डौली डॉटर का पब्लिक स्कूल में एडमिशन कराना है , ट्वेंटी थाउजेंड का डोनेशन चढाना है । यू नो कि कितना कम्पीटीशन हो गवा है, ससुर सी0एम0 की एप्रोच तक नहीं चलती है । तुम्हारे पास माल पानी है तो लाओ, फिर चाहे शरीर में जितनी चाहे बिंदियां लगाओ । ’’

मैंनें कहा,‘‘ हे हिंदी ज्ञानदाता ! हे भारत भविष्य विधााता ! बिंदी चाहे मत लगाओ हिंदी तो शुद्ध बोलेा , राजनीति में तो भ्रष्टाचार का मिश्रण करते हो , इसमें तो अंग्रेजी मत मिलाओ । शुद्ध हिंदी बोलो बाबा, शुद्ध हिंदी ।’’

‘‘ तुम शुद्ध हिंदी की बात करते हो, यहां तेल से लेकर राजनीतिक, खेल तक सब अशुद्ध है । ’’

यह कहकर वे अपने पब्लिक स्कूली माथे के साथ आगे बढ़ गए ।

मैं अपनी कुंवारी बिंदी के साथ और आगे बढ़ा । आजकल जिसे राजनीति में आगे बढना हो वह दिल्ली आता है और जिसे फिल्म में आगे बढना हो वह बम्बई जाता है । जिसे साहित्य में आगे बढना हो पहले वह प्रयाग जाता था आजकल दिल्ली ही आता है, क्योंकि वह चाहे देश की राजनीति हो या साहित्य की, यहीं फल फूल रही है । फिल्म -क्षेत्र में आगे बढ़ा हुआ वही माना जाता है जो करोड़ों कमाता है । मुझे हिंदी की बिंदी के साथ आगे बढ़ना था, सुंदर माथा तलाशना था , इसलिए मैं भी मुंबई पहुंचा ।

वह टॉप की हिरोईन है, पर उसके जिस्म से टॉप अक्सर गायब रहता है । अपने टॉपलेस सौंदर्य की बदौलत उसने हिंदी फिल्मों से करोड़ों कमाए हैं ।

मैंनें कहा,‘‘ हिरोईन जी, बिंदी लगाऊं ?’’

वह अंग्रेजी में हकलाई , ‘ बिंदी लगाकर मुझे मरवाओगे, मेरी मार्किट वेल्यू गिराओगे । इसे लगाकर इंडियन वूमेन लगूंगी, अपने जिस्म की नुमाईश कैसे करूंगी ? हिंडी हमारी भा—– भा— , लेंग्वेज है । हिंदी गाना बजाना अच्छा लगता है । हिंदी में लव करना अच्छा लगता है । पर हिंडी की बिंदी लगाने से फिल्म स्टार गंवार लगता है । ’’

‘‘ पर आप तो हिंदी फिल्मों में काम करती हैं, यही आपकी रोजी – रोटी है । हिंदी फिल्मों के कारण ही आपका भविष्य सुरक्षित है । ऐसा कहना आपको शोभा नहीं देता ।’’

‘‘ यह टुम कैसी डिफिकल्ट हिंडी बोलता है , मैन ! ये वाला हिंदी हमको समझ नहीं आता , थोड़ा सिम्पल हिंदी बोलों नं । अभी हम शूटिंग को जाता ’’   यह कहकर वह चल दीं खंडाला ।

सच कहा मेरे देश की हिरोईन, मेरे देश की लाखों युवकों की आदर्श और करोड़ों दिलों की धाड़कन ने । साला इस देश में कोई सरल हिंदी बोलता ही नहीं है । सरल तो केवल अंग्रेजी बोली जाती है । और अंग्रेजी जितनी डिफिकल्ट होती है उतनी ही खूबसूरत होती है, आदमी उतना ही पढ़ा लिखा भी लगता है । शुद्ध हिंदी तो पोंगा पंडित बोलते हैें । साले तिलकधाारी, धोतीप्रसाद, इन लोगों ने हिंदी को जितना पिछड़ा बना दिया है उससे इनके लिए गालियां ही निकलती हैं । इन हिंदी वालों के कारण ही तो देश प्रगति नहीं कर रहा है ।

फाईव स्टार होटल का बेयरा तक हिंदी में बात करना पसंद नहीं करता है । हिंदी बोलते समय आदमी कितना अनपढ़ लगता है । पब्लिक स्कूल के दसवीं फ़ेल बच्चे की अंग्रेजी देख लीजिए और इन एम0ए0 , पी एच0डी हिंदी वालों की अंग्रेजी देख लीजिए — ऐसे हकलाते हैं कि——- बस अपने को तो शरम ही आ जाती है ।

राधोलाल मेरा पड़ोसी है । हर समय उसके दिल में देश सेवा के ऊंचे विचार आते हैं इसलिए देश चाहे कितना गरीबी की रेखा के नीचे जाए हमारे राधेलाल जी मेवा ही खाते हैं । वह पचास बरसों से मेवा खा रहा है और जब चाहता है जिसके, उसी के गुण गाता है । वह जितने गुण गाता है उतना गुणा पाता है । सही मायनों में तो देश उसी के लिए स्वतंत्र हुआ है । उसके पास हर तरह की आज़ादी है, अनेक लोगों की आज़ादी तो उसके पास गिरवी पड़ी है । उसका माथा बहुत चौड़ा है, और उसपर तरह तरह की बिंदिया लगी हुई हैं ।

मैंनें राधोलाल से कहा, “यार तूं तो लगा ले हिंदी की बिंदी ।’’

‘‘लगा लूंगा , पर मिलेगा क्या ?’’

मैंनें कहा, ‘‘ हिंदी को इज्जत मिलेगी।’’

‘‘ अभी हिंदी बेइज्ज़त हो रही है क्या ! वैसे खाली पीली इज्जत से होता भी क्या है। कुछ माल पानी बने तो अप्पन इस बिंदी को कहीं भी लगाने को तैयार है । कुछ मिलता है इस ‘हिंदी की बिंदी’ से या फोकट में हमारे जिसम में इसकी पबलिसिटी करना चाहता है।’’

‘‘अरे प्यारे सरकार में पव्वा फिट हो तो सबकुछ मिल जाता है । हिंदी की उन्नति के लिए विदेश जाओं, विश्व हिंदी सम्मेलन करवाओ, हिंदी की पालिटिक्स करो और मंत्री बन जाओ ।’’

राधेलाल चिंतन की मुद्रा में आ गया ,बोला , ‘‘यार मुझे पता नहीं था कि हिंदी इत्ते काम की चीज है । मैं तो समझता था कि यह हमारी बूढी अम्मा की तरह है जो पड़ी पडी अपनी सेवा करवाती रहती है, खाली पीली दिमाग खाती हे । तेरे आइडिया से तो हिंदी की एक बढ़िया- सी दूकान खोली जा सकती है । चल लगा दे बिंदी मेरे माथे पर और एक हिंदी सम्मेलन की तैयारी कर डाल ।आजकल तो अपनी ही सरकार है । (वैसे सरकार कोई भी हो वो राधेलाल जैसों की अपनी ही होती है ।) पी0एम0, शी0एम0 को मैं पकड़ लाउंगा । ग्रांट वा्रंट की चिंता मत कर । बीस एक लाख तो मैं झटक ही लूंगा ।’’

बीस लाख की बात सुनकर हम दोनेां के दिल में हिंदी प्रेम के भाव आए जैसे चुनाव देख किसी नेता के दिल में झोपड़पट्टी के लिए प्यार जाग जाए। चुनाव का मौसम भारतीय राजनीति में बड़ा हिट मौसम है । प्रजातंत्र की फ़सल इसी मौसम में लहलहाती है, देश में प्रजातंत्र जिंदा है इसकी शुभ सूचना मिल जाती है।

सम्मेलन से दो दिन पहले राधोलाल मिला । बहुत चिंतित  लगा, लगा जैसे इसके पिताश्री अपना बीमा कराए बिना ही मर गए हैं या फिर इसने अपनी लड़की की शादी करनी हैे । हमारे यहां लड़की की शादी करना पिता के मरने जैसा दुखा उठाना ही है । पिता के मरने से सर से साया उठता है, लड़की की शादी में घर का सब कुछ उठ जाता है ।

मैंनें पूछा ,‘‘ बहुत दुखी दिख रहे हो , क्या हिंदी के रास्ते में अंग्रेजी आ गई है ?’’

‘‘ हमारी बला से अंग्रजी आए , वंगरेजी आए , रंगरेजी आए, और हिंदी जाए भाड़ में। हमारी परेसानी जे नहीं है।’’

‘‘फिर, क्या पी0 एम0 ,सी0एम 0, डी0एम ने सम्मेलन में आने से मना कर दिया । या फिर अपनी सरकार पर संकट के बादल आए हैं ’’ ( जबसे साझा सरकारों का मौसम आया है , राजनीतिक मानसून अधिक सक्रिय हो गया है । जब देखो संकट के बादल मंडराते ही रहते हैं । ये बादल जब बरसते हैं तो इसकी बाढ़ में अनेक सरकारें बह जाती हैं।)

‘‘अरे बबुआ , पी0एम0 हमारे फंक्शन में आने से मना कर देंगें तो पी0एम0 बने रहेंगें क्या ? समर्थन वापस न ले लेंगें।’’

‘‘फिर,ग्रांट नहीं मिल रही है क्या ?’’

‘‘ग्रांटवा तो डबल मिल रही है, संस्कृति मंत्री को भी पी0एम0 के साथ बिठा रहे हैं । पर कुछ घुसपैठिए हमारा मंच हथियाना चाहते हैं । पेड़ हमने लगाया और अब उसपर फल लगने लगे तो ——- अगर किसी ने ऐसा किया तो हिंदी शिंदी गई कडु़वा तेल लेने हम सबकी खटिया उलट देवेंगें। इस बार ससुर टिकट हमको मिलना चाहिए । हिंदी के लिए हमने अपना खून बहाया है, किसी ने टांग अड़ाई तो ससुर की सुपारी दे देंगें । ’’
मैं समझ गया , वे हिंदी की बिंदी को सीढी बनाना चाह रहे थे।

मित्रों,  मैं इस हिंदी दिवस पर किसी सुहागन माथे की तलाश में रहा जिसपर हिंदी की महिमा मंडित हो सके, पर निराश ही रहा। आपको कोई सुहागन माथा मिले तो बताना , न न न ——- अपना माथा तलाश करने का कृप्या कष्ट न करें, इससे आपकी आत्मा को कष्ट होगा। मेरी आत्मा को तो बहुत हो चुका है ।




श्रीमती ज्योति मिश्रा की नई कविता ‘ भारत के कवियों की गाथा’

क्रौंच पंक्षी के आहत से

शीकरूणा हुई तरंगित ।।

वाल्मीकि के मुख से

पद्य काव्य सृजित ।।

नेत्रों में लिए दया भाव

बसी करूणामयी छवि।

मिले जगत को सर्वप्रथम

वाल्मीकि मुनि आदिकवि।।

राजाओं के आश्रित रहकर

करते उनका नित गुणगान ।

वीरों की विरुद्घावली गाते

युद्ध,शौर्य,वीरगाथा महान।।

राम-कृष्णमय कवियों की

निर्मल भक्ति की धारा।

कबीर,तुलसी,सूर,जायसी

इनको जाने सब संसारा ।।

मीराबाई, रहीम,रसखान

रचे कृष्णमय अद्भुत काव्य।

नित भक्ति में रहते लीन

पुष्टिमार्ग कवि अष्टछाप।।

नारी का सौंदर्य और प्रकृति

किया खूब नख-शिख वर्णन ।

लिए काव्य में गहन भावना

रीति कवि बिहारी महान ।।

प्रसाद, पंत,निराला जी

यह है,छायावादी स्तंभ

महादेवी की नारी गरिमा

करती नवयुग का आरंभ ।।

प्रसाद की ‘कामायनी’

गुप्त जी की’ साकेत’।

केशव को कहते सदा

कठिन काव्य का प्रेत।।

स्वतंत्रता के समरागंण में

हुई लेखनी की पैनी धार।

अंग्रेजी हुकूमत ने भी

मानी इनके आगे हार।।

राजनीति,कुरीति, नारी

देशप्रेम और उत्साह ।।

नई कविता, प्रगतिशीलता है

काव्य का अविरल प्रवाह ।।

ओजस्विता लिए वीरता

अमर शहीदों की गाथा।

इस अज्ञानी लेखनी से

भारतीय कवियों की गाथा।।

श्रीमती ज्योति मिश्रा की नई कविता ‘ भारत के कवियों की गाथा’ नई कविता, सम्पादन: रेखा रानी, हिसार




पूरे रोहतकी स्वाद लिए है ‘कांटेलाल एंड संस ‘

सुशील कुमार ‘नवीन’

न्यूं कै दीदे पाड़कै देखण लाग रहया सै, इसा मारूंगी दोनूं आंख बोतल के ढक्कन ज्यूं लिकड़कै पड़ ज्यांगी। आया म्हारा गाम्म का …ला। किसे मामलै ने उलझाकै राखण की मेरी बाण ना सै, हाथ की हाथ सलटा दिया करूं। या हरियाणा रोडवेज की बस ना सै कै अंगोछा धरते सीट तेरी हो ज्यागी, या मेरी सीट सै। बैठना तो दूर इस कानी लखाय भी ना, तो मार-मार कै मोर बना दयूंगी। मीची आंख्या आलै, आडै कै तेरी बुआ कै ब्याह म्ह आया था। घणा डीसी ना पाकै,इसा मारूंगी सारी मरोड़ कान्ध कै चिप ज्यागी। तेरे जिसे म्हारी भैंस चराया करैं, आया बिना नाड़ का चौधरी। चाल्या जा, आज तेरा भला बख्त सै, जै मेरा संतोषी माता का बरत ना होता ना, तै तेरी सारी रड़क काढ़ देती….।

चकराइये मत। दिक्कत वाली कोई बात नहीं है। दिल और दिमाग दोनों दुरस्त हैं। सोचा आज आपको स्वाद का नया कलेवर भेंट कर दूं। रोज-रोज आम का अचार खाकर बोरियत हो ही जाती है। बीच-बीच में तीखी मिर्च के आस्वादन की बात ही कुछ और होती है। ठेठ हरियाणवी बोली और वो भी रोहतकी। तीखी मिर्च से कम थोड़े ही न है। सुनने वाले के सिर में यदि झनझनाहट ही ना हो तो फिर इसका क्या फायदा। 

  ठीक इसी तरह का स्वाद लिए सब टीवी पर एक नया सीरियल सोमवार से शुरू हुआ है ‘कांटेलाल एन्ड संस’। पूरी तरह से रोहतकी कलेवर के रंग में रंगे इस सीरियल की शुरुआत प्रभावी दिखी है। हरियाणवी को किसी सीरियल या फ़िल्म में सही रूप में बनाए रखना सरल कार्य नहीं है। और यदि इसमें रोहतक को प्रमुख केंद्र बना दिया तो गले में रस्सी बांधकर कुएं में लटकने जैसा है। ‘एक रोहतकी सौ कौतकी’ ऐसे ही थोड़े ना कहा जाता है। इनके मुख से निकला हर शब्द ‘ब्रह्मास्त्र’ होता है, वार खाली जाता ही नहीं। एक रोहतकी के शब्दों के बाणों का मुकाबला दूसरा रोहतकी ही कर सकता है और कोई नहीं। दिल्ली से रोहतक होकर गुजरने वाली बसों और ट्रेनों में बैठे यात्री रोहतक जाने के बाद ऐसा महसूस करते हैं जैसे कई महीनों की जेल से पीछा छूटा हो।

   आग्गै नै मर ले, आडै तेरी बुआ का लोग (फूफा) बैठेगा। 50 रपिये दर्जन केले तेरी मां का लोग (पिता) खरीदेगा, परे न तेरी बेबे का लोग(जीजा) 40 रपिये दर्जन देण लाग रहया सै। ओए दस रपिया की दाल म्हारे कानी भी करिए, नींबू निचोड़ दे इसमै, इननै कै घर के बाहर टांगण खातर ल्या रहया सै। ओ रे कंडेक्टर, एक टिकट सांपले तांईं की दे दे,कै कहया बाइपास जाग्गी, भीतरनै कै थारे बुड़कै भर लेंगे। तड़के आइए फेर बतावांगे। और कंडक्टर भी रोहतक का मिला तो पूरी बस का मनोरंजन फ्री हो जाता है। खिड़की कानी होले, ना तै रोहतक जाकै गेरूँगा, फेर या मरोड़ झोले म्ह लिए हांडे जाइये। बस ड्राइवर भी रोहतक का मिल जाये तो फिर क्या कहने। दो-चार डायलॉग लगे हाथ वो भी मार जाएगा। आ ज्यां सै, तड़के तड़क सुल्फा पीकै। या बस थारे  बटेऊ की ना सै,कै जड़े चाहो ब्रेक लगवा ल्यो। इब तो या रोहतक भी बाइपास जाग्गी। जो किम्मे करणा हो वा करलियो। सतबीरे, मारदे लाम्बी सीटी।

कहने की बात ये है कि हास्य का अलग ही अंदाज लिए होते हैं रोहतकी बोल। गाली भी इस तरह दे जाते हैं कि सामने वाला महसूस करके भी चुप्पी साधना भलाई समझता है। तो ‘कांटेलाल एंड संस’ हरियाणवीं रंग को कितना बरकरार रख पाएगा, ये तो समय ही बताएगा। पर सुशीला, गरिमा के साथ छोटे भाई घनश्याम की तिकड़ी की हरकतों पर ठहाके लगना पक्का है।शब्दों का सही फ्लो और डायलॉग डिलीवरी यूँ ही बनी रही तो टीआरपी शिखर छूते देर नहीं लगेगी। 

(नोट-लेख मात्र मनोरंजन के लिए है। इसे व्यक्तिगत न लेकर जनसाधारण के रूप में रसास्वादन करें)

लेखक: 

सुशील कुमार ‘नवीन’

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है।

96717-26237

PHOTO: GOOGLE




रीनू पाल की लघुकथा “सपनों का घरौंदा”

उत्तर प्रदेश के छोटे से गाँव की रहने वाली थी मन्नत। मन्नत अपने
माता-पिता की इकलौती संतान थी। शादी के लगभग 8 वर्ष बाद ईश्वर से बहुत मन्नतें मांगने के बाद पैदा हुई थी इसलिए बाबा ने उसका नाम मन्नत रखा था। मन्नत देखने में बहुत ही खूबसूरत और स्वभाव से शांत मिजाज की थी। हमेशा सबके साथ प्यार से पेश आती थी। वह अपने मां-बाबा की बहुत लाडली थी मन्नत के माँ – बाबा गरीब थे लेकिन उसे कभी किसी चीज की कमी महसूस नहीं होने देते थे। उन्होंने उसे बड़े ही नाजों से पाला था। अच्छी पढ़ाई, ऊंचे घराने में शादी उसके लिए लाखों सपने सँजो रखे थे। बचपन से ही उसकी शादी के लिए एक – एक पैसा जुटा रहे थे। धीरे- धीरे समय बीता। अब मन्नत बड़ी हो गई थी। आज उसे कुछ लोग देखने आने वाले थे। वे बहुत पैसे वाले और ऊंचे घराने के लोग थे। बाबा उनके स्वागत- सत्कार में कोई कमी नहीं छोड़ना चाहते थे। माँ रसोईघर में तरह- तरह के पकवान बना रही थी। मन्नत भी रसोई में अपनी माँ का हाथ बँटा रही थी। बाबा दरवाजे पर उनकी राह देख रहे थे। जब वे लोग आए तो बाबा उन्हें अपने साथ अंदर ले आए। बाबा ने उन्हें पौर में बैठाया और उनका खूब स्वागत – सत्कार किया। कुछ देर बाद मन्नत धीमें कदमों से सहमते और शर्माते हुए तश्तरी में मिठाई लेकर आई। मन्नत ने सभी को नमस्ते किया। बाबा के आँखों के इशारे को समझते हुए उनके बगल में पड़ी खाली चौकी पर बैठ गयी। मन्नत सबको एक नज़र में ही पसंद आ गई। रिश्ता तय हो गया। मन्नत के माँ – बाबा बहुत खुश थे। उन्होंने बचपन से मन्नत को एक सम्पन्न परिवार में ब्याहने का जो सपना देखा था। वह सच होने जा रहा था। मन्नत के माँ – बाबा बरसों से जिस दिन का इंतजार कर रहे थे। आखिर वह घड़ी आ ही गई।
आज मन्नत की शादी का दिन था। सब तैयारियों में जुटे थे। मन्नत का छोटा सा घर रिश्तेदारों से लबालब भरा था। पूरे घर में ढोलक और गानों का स्वर गूँज रहा था। कभी मेंहदी तो कभी हल्दी की रस्में हो रही थीं। दिन ढला गाजे – बाजे के साथ बारात आयी। बारातियों की खूब आवभगत की गयी। फिर जयमाला कार्यक्रम हुआ। तत्पश्चात फेरों और कन्यादान की बेला आयी। पंडित जी मंत्र उच्चारण करते हुए वैवाहिक रस्मों को संपन्न कर रहे थे। अब वर – वधू को फेरों के लिए खड़ा किया गया। जैसे ही एक फेरा पूर्ण हुआ। दूसरा फेरा लेने के लिए मन्नत ने पग बढ़ाया ही था तभी पीछे से एक शोर मन्नत के कानों में पड़ा घबराते हुए जैसे ही मन्नत ने पीछे मुड़कर देखा। उसकी आंखे फटी रह गयी। उसके बाबा की पगड़ी उसके होने वाले ससुर के पैरों में थी। और उसके बाबा घुटनों के बल बैठ, हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हुए, “शादी ना तोड़िये समधी जी की प्रार्थना कर रहे थे।” ससुर ऊँ चे स्वर में बोल रहे थे, “ जब तक दहेज़ पूरा नहीं मिलेगा तब तक ये शादी नहीं हो सकती। एक भी पैसा कम नहीं चलेगा।” बाबा का गला भरा हुआ था। वह लड़खड़ाती जुबान में कहते जा रहे थे, “मैं पाई-पाई चुका दूंगा कृपा करके आप ये शादी मत तोड़िये।” मन्नत शादी के रस्मों रिवाज़ की परवाह ना करते हुए मंडप से बाहर कदम बढ़ाते हुए पहुँची और अपने दोनों हाथों से सहारा दते हुए अपने बाबा को उठाया और पगड़ी को सर पर रखते हुए तेज स्वर में बोली, “आपको मेरे बाबा का अपमान करने का कोई अधिकार नहीं है। आप क्या तोड़ेंगे, मैं स्वयं तोड़ती हूँ ये शादी।” बाबा पहली बार शान्त और सरल स्वाभाव वाली अपनी मन्नत को किसी से ऊंचे स्वर में बात करते देख आश्चर्यचकित थे। किंतु अन्याय के विरुद्ध मन्नत को आवाज उठाते देख गर्व भी महसूस कर रहे थे। बारात वापस चली गयी सबकी आंखे नम थी। आज माँ – बाबा का हृदय बिलख -बिलख कर रो रहा था। उन्होंने बचपन से मन्नत के लिए तिनका – तिनका जोड़ कर जो सपनों का घरौंदा बनाया था। आज वह बिखर चुका था। आज एक बार फिर दहेज़ प्रथा जैसी कु प्रथा ने एक और परिवार को तोड़ के रख दिया था।
आज भी दहेज़ प्रथा जैसी कुप्रथा हमारे समाज में वट वृक्ष के समान अपनी जड़े पसारे है। मन्नत की तरह हम सबको इसके खिलाफ आवाज उठाने की आवश्यकता है वरना हम और हमारा समाज इससे कभी उबर नहीं पाएंगे। मन्नत के परिवार की तरह ना जाने कितने परिवार इसके शिकार होते रहेंगे। अतः यदि हम सब भी मिलकर साहसी मन्नत की तरह अपने आत्मसम्मान के किए इस कु प्रथा के विरुद्ध आवाज उठायेंगे तो यक़ीनन एक दिन इससे निजात पा सकेंगे।

रीनू पाल “रूह”
शिक्षिका
जनपद- फतेहपुर, उत्तर प्रदेश




videsho me hindi Saahitya

विदेशो मे हिन्दी शिक्षण

              सन 1998 के पूर्व, मातृभाषियो की संख्य की दृष्टि से विश्व मे सर्वाधिक बोली जानेवाली भाषओ के जो आँकडे मिलते है, उनमे हिन्दी को तीसरा स्थान दिया जाता था।

              1998 यूनेस्को, प्रध्नावली के आधार पर उन्हे महावीर सरन जैन द्वारा भेजी गई विस्तृत रिपोर्ट के बाद अब विश्व स्तर पर स्वीकृत की मातृभाषियो को सख्या की दृष्टि से संसार की भाषाओ मे चीनी भाषा के बाद हिन्दी का दूसरा स्थान है।

              विश्व के लगभग 100 देशो मे या तो जीवन के विविध श्रेत्रो मे हिन्दी का प्रयोग है। अथवा उव देशो हिन्दी के अध्ययन, अध्यापन की व्यवस्था है।

1) प्रत्येक देश के शिक्षण स्तर एंव हिन्दी पशिक्षण के लश्यो एवं उद्देश्यो को ध्यान मे रखकर हिन्दी शिक्षण के पाठ्यक्रम का निर्माण करना चाहिए। पाठ्यक्रम इतना व्यापक एवं स्पष्ट होना चाहिए जिससे शिक्षक एवं अध्येता का मार्गदर्शन हा सके।

2) विदेशो मे हिन्दी शिक्षण करने वाले शिक्षको के लिए शिक्षण-प्रशिक्षण एवं नवीकरण पाठ्यक्रमो का आयोजन एवं संचालन होना चाहिए।

3) देवनागरी लेखन तथा, हिन्दी वर्तनो व्यवस्था

4) वास्ताविक भाषा व्यवहार को आधार बनाकर व्यावहारिक हिन्दी संरचना – ध्वनि संरचना, तथा पदबंध संरचना और पाठो का निर्माण शिक्षार्थी के अधिगम की पृष्टि के लिए प्रत्येक बिन्दू पर विभिन्न अश्यासो की योजना।

              हिन्दी साहित्य का अध्ययन करने वाले विदेशी अध्येताओ के लिए हिन्दी साहित्य के इतिहास का निर्माण करते समय प्रत्येक काल की मुख्य धाराओ, प्रमुख्य प्रवृत्तियो, प्रसिद्द रचनाकारो का विवरण भारत के हिन्दी है।

               विदेशियो के लिए हिन्दी शिक्षण कार्यक्रम मे प्रशिक्ष्ति होने वाले अनेक प्रतिभागी पाठ्यक्रम को सफलता पूर्वक पूरा करने के बाद अपने अपने देशो मे जाकर विविध श्रेत्रो मे हिन्दी का प्रचार-प्रसार का कार्य कर रहे है। कुछ लोगो ने अपने देश मे हिन्दी विभाग की स्थापना की कुछ लोग रेडियो या दूरदर्शन के कार्यक्रमो के प्रसारण से जुडे है, कुछ लोग पत्रकारिता के श्रेत्र मे सकिया है, कुछ विदेशो विश्वविद्यालयो या विध्यालयो मे हिन्दी शिक्षण का कार्य कर रहे है। दिल्ली केन्द्र मे छात्रवृत्ति पर आने वाले प्रतिभागियो के लिए किराए के भवनो मे आवास की व्यवस्था करना कठिन होता जा रहा था और मुख्यालय आगरा मे छात्रावासो की सुविधा थी।

              जव विदेशी हिन्दी पाठ्यक्रम का प्रारंभ हुआ था, तब मात्र एक कक्षा की व्यवस्था थी। जब विभिन्न देशो से अलग अलग स्तर के छात्र आने लगे, तो पूरे कार्यक्रम को प्रमाण पत्र और डीप्लोमो के दो स्तरो मे बाँटा गया। उसी समय विदेशियो के चतुवर्षिय कार्यक्रम का आयोजन होता आ रहा है। उदाहरण के लिए माँरीशस मे डा भगवतशरण उपाध्याय जैसे लोगो को भेजा जाना इसी दृष्टिकोण का परिचायक था।

              अब इस पहलू पर विचार किया जाए कि विदेशो की विविध सरकारो की ओर से हिन्दी के प्रति कैसी खोया है, और किन संदर्भो मे हिन्दी की व्या स्थिति है। विश्व के इस बडे भूभाग से संर्पक करने के लिए उन्हे विदेशो मे हिन्दी की स्थिति, प्रचार तथा प्रसार को लेकर दो भिन्न दृष्टेयो से विचार करना होगा। देशो मे जहाँ की भारतवासियो लोगो की संख्या अच्छी खासी है और वह हिन्दी और भारतीय संस्कृति के लिए डाँ भगवतशरण उपाध्याय जैसे लोगो को भेजा जाना। इसी दृष्टिकोण का परियाचक या विभिन्न प्रमुख देशो की सरकारो ने अपने विश्वविध्यालय मे हिन्दी के अध्ययन अध्यापन की व्यवस्था और सुविधा की ओर ध्यान दिया। अपने छात्रो को छात्रवृत्तियो प्रदान कर हिन्दी प्रदान कर हिन्दी पढने के लिए भारत भी भेजा। जिसमे हिन्दी एक मात्र देश की राष्ट्रभाषा और संपर्क भाषा बनेगी।

              जिन विदेशी विश्व विध्यालयो मे हिन्दी अध्ययन अध्यापन की व्यवस्था है, उनकी आर्थिक व्यवस्था भेल ही सरकार भरेगी। यह रूप विश्व हिन्दी कहा जा सकता है। पर व्यवहार श्रेत्र मे हिन्दी की एक अपनी दुनिया है। आइए हिन्दी की इस दुनिया का विश्व हिन्दी का नही अपितु हिन्दी विश्व का रूप देखे।

              भारत मे हिन्दी बोलने वालो की सख्या निरंतर बढ रही है। भारत के किसी भी भाग जाइए मिलन की संपर्क भाषा प्रायः हिन्दी मिलेगी। सेनिक जीवन मे रेल यात्राओ मे तीर्य स्थानो मे छात्र सम्मेलन मे प्राकृतिक ऐतिहासिक दर्शनिय स्थ्लो मे बाज़ारो मे आपको इस हिन्दी विश्व को क्षमता और उपयोगीता का पता चल सकेगा। हिन्दी को व्यवहारिक जीवन मे उपयोग करने वालो की सख्य निरंतर बढ रही है।

              तीसरे वर्ग मे यूरोप अमरिका आदि वे विकसित राष्ट्र जा सकते है, जहाँ बहुत बडी सख्यो मे भारत के लोग बस भी गए है और अस्थायी रूप से जा भी रहे है। उदाहरण के तौर पर अमरिका, कनाडा मे गुजराति भाषी काफी संख्या मे बसे है। भारत के उच्च और उच्च भासी वर्गो की संपर्क भाषा अंग्रेजी है। जिनकी सख्या 3 प्रतिशत से अधिक नही है, हिन्दी जानने वाले व्यक्ति को इस फैली हुई हिन्दी की दुनिया मे अंग्रेजी न जानने पर भी कोइ कठिनाई नही होती। हिन्दी उनके लिए माहयम का काम कर रही है।

              हिन्दी मानवीय मूल्यो की भाषा के रूप मे विकसित हुई है। उसमे मानवीय संस्कृति के उदार मूल्यो और प्रेम करूण और उदारता के गीत गाने की वृत्ति रही है। जिन विरो और संतो ने जिन भक्तो और महात्माओ ने इसे पनपाया और फैलाया है, धर्म, जाती, प्रांत, ऊँच, नीच, पूंजी प्रशासन सबकी छाया से मुक्य उदात्त चेतनाओ ने हिन्दी को खडा किया। एक भाषा खडी करने के लिए नही उदात्त मानवीय मूल्यो के रूपायन के लिए, हिन्दी मे आज भी वह शक्ति आत्मा के रूप मे प्रतिष्ठित है, मानवता के कल्याण के लिए उसका प्रसार, प्रचार आज के अकेले भारत के लिए नही विश्व के अपने हित मे है।

              हिन्दी को उठाने की माँग करते समय हिन्दी विश्व भारत मे ही नही, विदेशो मे भी हिन्दी विश्व इस उत्तरदादित्व की भाषा का संयोजन है। विश्व हिन्दी की इस भावना को भारत मे भी विकसित करना होगा और विदेशो मे भी। विदेशो मे हिन्दी के प्रचार प्रसार की बात करने समय इस बात की और प्रमुख ध्यान देकर चलना होगा।

              हिन्दी भारतीय हृदय की वाणी है। यह भारत भारती है। जिसमे भारतीय आत्मा मुखरित है। इसमे हिन्दीतर अनेक भाषाओ इसमे मुखरित हो। यही हमारा द्रुढ संकल्प होना चाहिए। हमे इस सिद्दि की प्राप्ति के लिए तन, मन, धन से प्रयत्न करना चाहिए।

              मूल रूप मे विदेशो मे हिन्दी शिक्षण का एक ही प्रमुख कारण होसकता है। कहा कारण चही है कि भारतवासी अलग अलग कारणो से विदेश मे जाकर बसता है। वहाँ जाने के उपरान्त किसी हाल मे भारत से नाता तोडना नही चाहता वही एक अपनापन प्यार, स्नेह, वहा भाषा के ऊपर दिखाता है, अपनी भाषा को न भूलते हुए वहाँ जाकर धीरे धीरे भाषाओ का आदर सम्मान बढाने के लिए संघ की स्थापना करते है, वही संघो मे भाषा की जन्म, उत्पत्ति, बढना, जान प्राप्त ही एक मूल उद्देश्य बनता है, इस तरह विदेशो मे केवल हिन्दी भाषा की उन्न्ति के साथ साथ, कन्नड, तेलूगू, तमिल, सभी भाषाओ की बढाव हो रहा है।

              यही एक मूल जड है भाषाको बढावा देना संघो की माँग से विदेश की विश्वविध्यालयो मे हर एक भाषा का एक एक छोटा विभाग़ का जन्म है। भाषा विभागध्यक्ष अनिर्वाय रूप से भारतीय ही हो सकता भाषा विभागध्याक्ष का मूल उद्देश्य, भाषा का प्रसार, प्रचार के साथ, भाषा की प्रति अपनापन और प्रेम जताना है पढता है। इससे ही भाषा का वेग और उन्न्ति तथा टिकाऊ विर्भर है। अगर विदेशो मे भी हिन्दी भाषा का बढाव बहुत दीर्घ से बहुत उन्न्ति हो रहा उसका नीव हर एक भारतीय सदस्य पर निर्भर है।

              यह बात इन पर निर्भर करती है, मूल रूप से अनुवासि भारतीयो के लिए है, वे वही भसते है, अनेक के लिए यहा डर बना रहता है कि कही भी जाय मगर अपना मूल्य नही भूले अपनी पेहचान, अपनी चरित्र केवल भाषा है, भाषा से चरित्र, चरित्र से साहित्य साहित्य से पहेचान पहेचान से यश मिलता वह यश और द्रिडता को पाने के लिए, अपना नीव को मजबूत कर लेता है। पहेला शिक्षा को सीखता है सीखकर दूसरो को सीखाता है, शिक्षा मे कितने सारे मुस्किल आने दिजिए वह अपने को विदेशो मे मजबूत बनाने के लिए साधारण पाठशाला से विश्व विध्यालय तक पहुँचता है।

              शिक्षा के श्रेत्र मे होने दीजिए, संस्कृति के श्रेत्र मे होने दिजीए अपना बढाव के लिए वही से ही जुडता है, और वहाँ के सरकार से जुडकर भाषा का एक विभाग़ का निर्माण करता है। तभी सरकार यहा बातो से सहमत रहती है, भाषा के अर्शित कितने सख्या मे अनुचायी है, वह जानकारि देखकर ही सरकार सहमती बरकार करती है।

              अंत यही बात कहेना चाहते है, अमेरिका जपान, योरूप, रूस जैसे बडे बडे राष्ट्रो मे हिन्दी का विभाग जीवित है, उसेक अनुवासि भारतीयो को यह महसूस कराते की वहा कही नही है भारत देश मे ही है। अपनी भाषा संस्कृति, साहित्य का एहसास दिलाते है कि हम भारतीय है, भारतीय ही बन कर रहेंगे। साहित्यकारो का यही कहना है कि मजबूरी वह थी कि हम यहाँ आके बसे मगर हमारा रिश्ता मरते दम तक देश की उन्नती लहराती हुई झण्डा से है।