1

देश भक्ति मुक्तक

मुक्तक (देश भक्ति)

सभी देशों में अच्छा देश भारतवर्ष प्यारा है,
खिले हम पुष्प इसके हैं बगीचा ये हमारा है,
हजारों आँधियाँ झकझोरती इसको सदा आईं,
मगर ये बाँटता सौरभ रहा उनसे न हारा है।

(1222*4)
*********

यह देश हमारी माँ, हम आन रखें इसकी।
चरणों में झुका माथा, सब शान रखें इसकी।
इस जन्म-धरा का हम, अब शीश न झुकने दें।
सब प्राण लुटा कर के, पहचान रखें इसकी।

(221 1222)*2
*********

देश के गद्दार जो हैं जान लो सब,
उनके’ मंसूबों को’ तुम पहचान लो सब,
नाग कोई देश में ना फन उठाए,
नौजवानों आज मन में ठान लो सब।

देश का ऊँचा करें मिल नाम हम सब,
देश-हित के ही करें बस काम हम सब,
एकता के बन परम आदर्श जग में,
देश को पावन बनाएं धाम हम सब।

(2122*3)
*********

बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’
तिनसुकिया




पथिक

पथिक (नवगीत)

जो सदा अस्तित्व से
अबतक लड़ा है।
वृक्ष से मुरझा के
पत्ता ये झड़ा है।

चीर कर
फेनिल धवल
कुहरे की चद्दर,
अव्यवस्थित से
लपेटे तन पे खद्दर,
चूमने
कुहरे में डूबे
उस क्षितिज को,
यह पथिक
निर्द्वन्द्व हो कर
चल पड़ा है।

हड्डियों को
कँपकँपाती
ये है भोर,
शांत रजनी सी
प्रकृति में
है न थोड़ा शोर,
वो भला इन सब से
विचलित क्यों रुकेगा?
दूर जाने के लिए
ही जो अड़ा है।

ठूंठ से जो वृक्ष हैं
पतझड़ के मारे,
वे ही साक्षी
इस महा यात्रा
के सारे,
हे पथिक चलते रहो
रुकना नहीं तुम,
तुमको लेने ही
वहाँ कोई खड़ा है।

जीव का परब्रह्म में
होना समाहित,
सृष्टी की धारा
सतत ये है
प्रवाहित,
लक्ष्य पाने की ललक
रुकने नहीं दे,
प्रेम ये
शाश्वत मिलन का
ही बड़ा है।

बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’
तिनसुकिया




चरर्तृहरि की ज्ञान मारक कथाएं

<span;>सब जीव-जंतु अपनी खोपड़ी पर आगे लगे ललाट नामक नोटिस बोर्ड पर लिखवा कर आते हैं। ईश्वर इसके ऊपर स्केच पेन से लिख देता है; जिसे भाग्य कहा जाता है। कोई भी नेता या मंत्री किसी को कुछ नहीं देता। न ही कोई अफसर किसी का कोई काम करता है। अफसर और मंत्री अपनी खोपड़ी पर आगे से लिखवा कर लाते हैं। वे अपनी खोपड़ी का लिखा हुआ ही खाते हैं। इसलिए सीमेंट-सरिया सब पचाते हैं। चमचा चरर्तृहरि ने भी इस मामले में बड़े एक्सपेरिमेंट किए। कहा कि इस ललाट नोटिस पट्ट पर जो कुछ लिख दिया गया है, वही होकर रहता है। जैसे बसंत ऋतु आने पर भी करील वृक्ष पर किसी भी हाल में पत्ते तक नहीं लगते हैं। जैसे सूरज का उजाला होने पर भी उल्लू देव को दिखाई नहीं देता है। जैसे चारों और बरसात होने पर भी चातक हमेशा प्यासा ही रहता है। जैसे नेता हर हाथ को काम और हर मुंह को रोटी देने का वादा करता है, लेकिन कुछ नहीं देता है। इससे स्पष्ट होता है कि इनके भाग्य में यही होना लिखा हुआ है और यही होता है। फिलहाल मेरे सामने टेबल पर जो केला रखा हुआ है, वह बिल्कुल अकेला है। मेरी इसे खाने की भयंकर इच्छा हो रही है। लेकिन मेरे भाग्य में लिखा होगा, तो मैं इस केले को खाऊंगा वरना ऐसे ही लिखते-बिलखते सड़ जाऊंगा। <span;>चरर्तृहरि<span;> एक्सपेरिमेंट करते हैं। उन्होंने भाग्य की वैक्सीन खोजने के लिए बाकायदा एक प्रयोगशाला स्थापित की। पहले प्रयोग में उन्होंने एक गंजे आदमी की व्यवस्था की। ऐसा गंजा जिसके पास बाकायदा एक कंघा भी था और कहते हैं कि खुदा ने उसको नाखून भी दिए थे। इसे प्रयोगशाला में बुलाया। देखा कि प्रयोगशाला के बाहर जो सूरज तम-तमा रहा था उसकी सारी किरणें उसकी खोपड़ी पर आ गिरी। इसकी वजह से गंजे की खोपड़ी से पसीना चूने लगा। तत्काल वह मरणासन्न भया। तब उसे प्रयोगशाला में बुलाकर एक कुर्सी पर बैठाया गया। जिस कुर्सी पर वह बैठा था, उसके ऊपर एक भारी सा झूमर लगा था। तत्क्षण ही झूमर गिरकर उसकी चिकन लोडी खोपड़ी को चकनाचूर कर गया। तब <span;>चरर्तृहरि<span;> ने अपने लैपटॉप पर ये नोट्स लिखे कि अगर किसी के भाग्य में ठुकना लिखा होता है, तो उसे हर जगह ठुकना पड़ता है।

<span;>एक अन्य एक्सपेरिमेंट में उन्होंने एक भूखा सांप लिया। उसे टोकरी में बंद करके रसोई घर में रख दिया। <span;>चरर्तृहरि<span;> हमेशा सांप पर नजरें रखा करते थे। पूरे 4 दिन बीत गए। सांप काफी मात्रा में भूखा हो गया। उनको यकीन हो गया कि अब सांप मर जाएगा। तभी उन्होंने देखा कि एक चूहा जो बहुत मोटा ताजा था और एक नेता की तरह सीमेंट-सरिये से लेकर रोटी-बोटी चट करके फुलं-फुल मोटा ताजा हो गया था। उसने अपने दांत गड़ा कर उस टोकरी में छेद कर दिया जिसमें सांप रखा गया था। चूहा छेद करके टोकरी के अंदर घुस गया। भूखा सांप चूहे को खा गया और वह उसी <span;>छेद<span;> से बाहर निकल गया जिससे चूहा अंदर गया था। तब <span;>चरर्तृहरि<span;> ने अपने लैपटॉप को फिर खटखटाया एक्सेल शीट में टाइप किया कि अब तो सबूत नंबर दो आ गया। पता भी लग गया है कि जिसके भाग्य में जो कुछ लिखा होता है, वही हो जाता है। इस बात को और पुख्ता करने के लिए <span;>चरर्तृहरि<span;> ने एक्सपेरिमेंट नंबर 3 किया। इस एक्सपेरिमेंट में <span;>चरर्तृहरि<span;> ने अपने पड़ोसी से एक टूटी-फूटी जंग खाई बाल्टी उधार मांगी। बाल्टी लेकर वह हैंडपंप से उसमें पानी भरने लगे। देखा कि पानी जितना भरा उतना बाहर निकल गया। बाल्टी लेकर वे एक झील के किनारे गए। उन्होंने पानी भरा देखा कि जितना पानी भरा गया वह सब निकल गया। बाल्टी को वे जहां भी ले गए बाल्टी अंत में खाली ही रही। तब एकदम से उन्होंने कंप्यूटर ऑन किया और लिख मारा कि बाल्टी में चाहे जितना ही पानी भरो। फूटी बाल्टी के भाग्य में पानी नहीं होता। इसलिए हमें भी मंत्री और अफसरों से उम्मीद नहीं करना चाहिए। बस अपनी खोपड़ी पर सरसों का तेल मलते हुए आराम से खाट पकड़ कर पड़ जाना चाहिए। नेताओं के चुनावी वादों को मात्र चुटकुले समझना चाहिए। इतना ज्ञान मारकर <span;>चरर्तृहरि<span;> ने अपना लैपटॉप शटडाउन कर दिया। <span;>अफसर करे न चाकरी, मंत्री करे न काज। वोटर वोट दे घर गया, अब चमचे करे मसाज।

<span;>– रामविलास जांगिड़,18, उत्तम नगर, घूघरा, अजमेर  (305023) राजस्थान




डॉ प्रियंका मिश्रा की दो कविताएं

1

कितनी बदल गयी है दुनिया

कितनी बदल गयी है दुनिया

यह स्वीकारा जायेगा

या जिसने यह पाप किया

वह पापी मारा जायेगा ?

 

इन्द्रलोक के ऐरावत हो

ऐसा जाना जाता था

गौरी सुत का रूप तुम्हीं हो

गणपति माना जाता था

 

पहला भोग तुम्हें लगता है

फिर दूजों को जाता है

बुद्धि विनायक कहकर,तुमको

पहले पूजा जाता है

 

अब तक जो पढ़ती आई मैं

लगा कथानक झूठ रहा

मैं मानव हूँ सबका रक्षक

अभी भरम यह टूट रहा

 

अगर कथानक सच्चे हैं, तो

ऐसी बात कहाँ से आयी

गर्भवती मां के सम्मुख वह

काली रात कहाँ से आयी

 

जंगल से बाहर आयी थी

केवल क्षुधा मिटाने को

नहीं पता था निकल पड़ी

अपनी तकदीर लुटाने को

 

मानव पर विश्वास किया था

उसको उसका सूद मिला

अन्ननास के फल के अन्दर

बदले में बारूद मिला

 

जाने कितना भटकी होगी

दर्द लिये वह राहों में

अपनी व्यथा सुनाती होगी

खुद ही खुद को आहों मे

 

तीन दिनों तक जल में रहती

अपना गर्भ बचाने को

एक अकेली ही काफी थी

वह कोहराम मचाने को

 

मानवता कितनी ओछी है

यह उसने बतलाया है

बेजुबान होकर उसने

अहिंसा का पाठ पढ़ाया है

 

मानवता ऐसे कृत्यों से

तार-तार हो जाती है

इस भारत की गौरवगाथा

शर्मसार हो जाती है

 

2

मन की बात कही होती

 

विपदाओं को पीठ दिखाना कर्म नहीं है मानव का

बिना लड़े ही प्राण गंवाना धर्म नहीं है मानव का

 

मौत भले आयी हो सर पर दूर भागने लगती है

मानव प्रण के सम्मुख विपदा स्वयं कांपने लगती है

 

अगर बढ़ाकर हिम्मत थोड़ा मन की बात कही होती

मन हल्का कुछ हो जाता फिर निश्चित मौत नहीं होती

 

सबके जीवन में संकट कोई न कोई रहता है

साहस नहीं तोड़ता जिससे हर संकट को सहता है

 

सुख दुख है जीवन का संगम इससे कोई बचा नहीं 

जिसने हार मान ली दुख से उसने कुछ भी रचा नहीं

 

मातु पिता को नहीं पता था क्या देना क्या लेना है

जिसको पाला पोस अब तक उसको कंधा देना है

 

मंजिल पाने के हित में शोलों पर पैर धरे होते

पाते सह अनुभूति मेरी यदि अपनी मौत मरे होते

 

मेरी कलम चला करती है स्वाभिमान के आदर में

मेरी कविता लिप्त नहीं  रण छोड़ भाग के जाने में 

 

यह कविता है बूढी आँखों के बेबस लाचारी की

बीच सफर में छोड़ गये जो केवल उस नाराजी की

 

यह कविता है मातु पिता के पावन उन संबंधों पर

जिनपर उनको जाना था वह लाश रखी जिन कंधों पर

 

डॉ. प्रियंका मिश्र




अमूल्य त्रिपाठी की नई कविता – “तेरी मुहब्बत”

वो रातें मुझे पसंद है,
वो बातें मुझे पसंद है,
तेरी मुहब्बत की हर,
यादें मुझे पसंद है।

चाँदनी रातों में तेरा,
खूबसूरत दमकता चेहरा,
इन आँखों को बड़ा पसंद है।

बारिश की बूँदों के बीच,
तेरा,यूँ भीगते जाना,
तेरी हर मुलाकात
मुझे पसंद है।

चेहरे पर गिरती लटों को,
यूँ हाथों से फेरना,
मुझे पसंद है।

मुहब्बत की बातों पर,
तेरा मुस्कुराना
मुझे पसंद है.
हर लहजा तेरा
मुझे पसंद है।




प्रभांशु कुमार की नई कविता-मेरे अंदर का दूसरा आदमी

मेरे अंदर का दूसरा आदमी

मेरा दूसरा रुप है,

वर्तमान परिदृश्य 

का सच्चा स्वरूप है।

रात में सो रहा होता हूं

उसी समय मेरे अंदर का दूसरा आदमी

अस्पताल के आईसीयू के बाहर 

ईश्वर से विनती 

कर रहा होता है।

जब मैं रोटी के टुकड़े

खा रहा होता हूं

तो मेरा दूसरा आदमी

किसी रेस्टोरेंट में

बिरयानी के स्वाद में

तल्लीन हो रहा होता है।

जब मैं मॉ की दवाई

खरीद रहा होता हूं

तो मेरे अंदर का दूसरा आदमी

अपनी प्रेयसी को 

को पत्र लिख रहा होता है।

और जब मैं

अपने विचारों की 

आकाशगंगा में

गोता लगा रहा होता हूं

तो मेरे अंदर का दूसरा आदमी

टेलीविजन पर रिमोट के

बटन बदल रहा होता है।

सोचिए मत, जरा विचारिए

मैं और मेरा दूसरा आदमी

दो नहीं एक है

बस विचारों से अनेक है।।

                                




पढ़िए डॉ० भावना कुंअर का यात्रा वृतांत- अफ्रीकन सफारी

हमारी रोमांचक यात्रा

अफ्रीकन सफ़ारी दुनिया भर में प्रसिद्ध है काफी समय से हम लोगपरिवार सहित पूर्वी अफ्रीका के प्राकृतिक खूबसूरती से समृद्धयुगांडा की राजधानीकम्पालामें रह रहे हैं इसेसिटी ऑफ सेवनहिल्स‘  भी कहते हैं मगर सफ़ारी जाने का अवसर एक लम्बे अरसे बाद ही मिल सका यूँ तोतंज़ानिया और कीनियासफ़ारी भी बहुत प्रसिद्ध है किन्तुमरचीज़न फॉल नेशनल पार्क‘  ‘युगांडाकी सबसे प्रसिद्ध सफ़ारी है

आखिरकार 7अप्रैल 2007 को वह दिन ही गया जब हम लोगों कोअफ्रीकन सफ़ारी जाने का अवसर मिला मैं, प्रगीत, मेरी दोनों बेटियाँकनुप्रिया और ऐश्वर्या, प्रगीत के मित्र, 5बजकर 50 मिनट पर कम्पाला से सफ़ारी वैन में निकल पड़े,क्योंकि वहाँ अपनी गाड़ियों से जाना खतरे सेखेलना होता है

सफ़र शुरु हुआ तो मेरी छोटी बेटी ने , जो मात्र 6 साल की है, अपनी प्यारीप्यारी बातों से सबका मन मोह लिया वह मुझसे बोली— “मम्माहम रात में ही जा रहे हैं ना?”

नहीं ,  ये तो सुबह हो गई है अब सुबह के 6 बजे हैं

तो इतना अँधेरा क्यों है ? और ही आसमान में कोई कलर भी दिखाई देरहा ? “

मैंने कहा– “थोड़ी देर में कलर भी जायेंगे….”

मेरी बात अभी खत्म भी नहीं हुई थी कि वह खुद ही बोल पड़ी – “अच्छा अभी हमारी तरफ कलर इसलिए नहीं हैं ;क्योंकि परियाँ इधर नहीं आई है, क्योंकि वे तो दो ही होती हैं वे दूसरी तरफ कलर कर रही होंगी जबवे उधर के आसमान में कलर कर लेगीं तब । हमारी तरफ़ वाले आसमान मेंआकर कलर करेंगी तब हमें नारंगी  और नीला कलर दिखाई देखा देगा और वे साथ में सूरज भी लेकर आएँगी है ना मम्मा?”  

हम उसकी इन काल्पनिक बातों को सुनकर अपने बचपन में खो गए। जब हमारी दादी माँ और नानी माँ हमें परियों के किस्से और कहानियाँ सुनाया करतीं थीं और हमेशा हमारे सपनों में परियाँ आया करती थी अपनी छड़ी लेकर।

कम्पाला सेमरचीज़न फॉल400 किलोमीटर दूर है। इस दूरी को लगभग 5 घण्टे में तय किया जा सकता है। रास्ते में एक शहर आया जिसका नाममसीन्डीथा। यहाँ हम ठीक 9 बजे पहुँच गये। युगांडा की एक बड़ीशुगरमिल‘ ‘मसीन्डीमें है, जिससे यह शहर दूरदूर तक प्रसिद्ध है। हम 10बजकर 40 मिनट परमरचीज़न फॉलकेटॉप ऑफ हिलपर पहुँचे।

यहाँ का नज़ारा देखते ही बनता है यहाँ पर पानी का इतना जबरदस्तप्रपात  है कि अगर व्यक्ति गिर जाए  , तो एक पल भी लगे उसकी जानजाने में यहाँ के नज़ारों और खतरों  को कैमरों में कैद करके हम लोगवहाँ से निकल पड़े – ‘सांबिया रिवर लॉज़की तरफ।

यह लॉजमरचीज़न फॉल्स नेशनल पार्कके बीच स्थित है। खाना खाकरहम लोग निकल पड़े, 1 बज़कर 45 मिनट परनाइल रिवर‘  पर बोटिंग केलिए पहुँचे हम लोग बोट की छत पर चले गए ; जहाँ से नज़ारा ज्यादाखूबसूरत लग रहा था। दूर किनारों पर हिरण परिवार अपनी दुनिया मेंव्यस्त थे तो वहीं दरियाई घोड़े पानी में गोते लगाते तो कभी बाहर निकलआते यहाँ बड़ेबड़ेमगरमच्छभी थे।युगांडाकेनाइल क्रोकोडाइलदुनिया में सबसे बड़ेमगरमच्छहोते हैं, यहाँ परनाइल पर्चनामक मछलीभी पाई जाती है। हम लोग 3 घण्टे तक बोटिंग करते रहे बोटिंग के बादहम लोग वापस लॉज गये जब हम वहाँ पहुँचे तो हमारा टेण्ट तैयारहो चुका था

ठीक 10 बज़े सिक्योरिटी गार्ड आया उसने हमें बताना शुरू किया, रात में यहाँ पर अक्सर चीते और जंगली सूअर आते हैं हमने पूछा-“तो तुम्हारे पास क्या है उनसे रक्षा के लिए?” उसने कहा– “तरकीबहमने पूछा वो कैसे? क्योंकि उसके पास एक रस्सी और टॉर्च थी ,कोई गन आदि नहीं।वह  बोला-“जब शेर आता है तो हम इस रस्सी को जमीन पर फेंककर अपनी तरफ एक खास तरीके से खींचते हैं ; जिससे शेर रस्सी को साँप समझकर भाग जाता है और सभी जानवरों पर एक खास तरीके से टॉर्च मारते हैं ,तो वो भी भाग जाते हैं ठीक बारह बज़े सभी लाइटें बन्द कर दी जाती हैं

अब यह सुनकर भागने का मन तो हमारा हो रहा था ,पर कहाँ भागते अब तो भागने में भी जिन्दगी खत्म होती नज़र रही थी और रुकने में भी, अब मरते क्या करते वाली स्थिति हमारी हो चुकी थी डर अलग बात हैऔर उत्सुकता अलग, हमारे मन में भी उत्सुकता कुछ ज्यादा गहरा गई और उसके मुकाबले में डर थोड़ा कम, ये सोचकर कि अज़ीब सी ही सही पर सुरक्षा तो है ये कैसे भगाता होगा ये सब देखने की लालसा मन में जाग गयी तो हम लोगों ने फैसला किया कि हम कॉटेज़ में नहीं टैंट में ही सोयेंगे

हमने उससे पूछा कि-“हम टैंट में रहकर ये एडवेन्चर देखना चाहते हैं, क्या तुम हमारे टैंट के पास रहोगे?”

उसने कहा– “हाँ मैं रात भर जागकर पहरा देता हूँ और यहीं आपके टैंट केपीछे बैठता हूँ।

हमने कहा – “ठीक है तो हम टैंट में रहकर ही देखेंगे

वह बोला-“ठीक है पर एक बात का ध्यान रखना कि जब भी कोई जानवर इधर आए तो आप लोग आवाज़ मत करना और टॉर्च ही जलाना हमारी टॉर्च की ओर देखकर बोला – “और हाँ बिना किसी आहट के बस चुपचाप लेटे रहना।

हमने पूछा– “लेटे रहेंगे तो देखेंगे कैसे?”

वह बोला-“देखने से आहट हुई तो समस्या हो जायेगी हमने कहा-“ठीक है जैसा तुम कहो

हमने उसको कुछ शीलिंग दिये और अपने टैंट में जाकर खिडकियों तक को बन्द कर डाला अब गर्मी के मारे बुरा हाल होने लगा खैर अब हमारी बातों का सिलसिला चला कि कैसी होगी हमारी ये रोमांचक रात जानवरों के बीच में सामने के कॉटेज़ में कुछ भारतीय रुके थे, वे बाहर कुर्सी ड़ालकर अपने नन्हें बच्चे के साथ बैठ गये ; जो कि उचित नहीं था यही नहीं सामने वाले कॉटेज़ के बाहर एकअंग्रेज़ महिला कुर्सी पर बैठी नॉवेल पढ़ने में व्यस्त थी हम अन्दर बैठे इन लोगों को देख रहे थे और हिम्मत जुटा रहे थे कि जब वो लोग बाहर बैठे हैं तो हम तो अन्दर ही हैं, कम से कम खिड़कियाँ तो खोल सकते हैं, हमने सारी खिड़कियाँ खोल दीं तब जाकर गर्मी से राहत मिली

ठीक बारह बज़े सभी लाइट बन्द कर दी जाती हैं ; क्योंकि बारह बज़े केबाद खतरा बढ़ जाता है। हम इस वृतान्त को कह सुन रहे थे कि जाने कब बारह बज़ गए और सभी लाइटें बन्द कर दी गयीं, घुप्प अँधेरा छागया। हमने इधरउधर नज़र दौड़ाई ।टार्च से देखा तो वहाँ कोई नहीं था वो भारतीय परिवार और वह अंग्रेज़ महिला अब हमने टॉर्च बन्द की और चुपचाप लेट जाने में ही भलाई समझी। क्योंकि अब हम बाहर नहीं  निकल सकते थे, जाने अँधेरे में कौन सा जानवर हमारी घात लगाये बैठा हो

अब ये सब बातें सुनकर बच्चे बुरी तरह डरने लगे, हमने बड़ी मुश्किल सेउनको समझाया बुझाया और अपने सीने से लगाकर सुलाया,बच्चों केकारण हम भी डरे हुए थे और पछता रहे थे कि हम कॉटेज़ में क्यों रहे, किन्तु अब क्या हो सकता था ।अब तो रात आँखों में ही काटनी थी, सबतरफ सन्नाटा छाया हुआ था जो बहुत भयावह लग रहा था और सच बाततो ये कि हम भी बुरी तरह डर रहे थे, पर हम रोमांचक रात जो देखनाचाहते थे तो हमें अब डरना नहीं था, पर ऐसा नहीं हुआ एक तो घुप्पअँधेरा उस पर सन्नाटा और उस सन्नाटे में झींगुरों, मच्छरों की अज़ीबअज़ीब सी आवाज़ें रात को भयावह बना रही थीं जागने वालों में मैं औरप्रगीत ही थे, बच्चों को खुद से चिपकाए बस घड़ी में समय ही देखते रहे

समय देखा तो रात के 2 बज़ चुके थे तभी सामने से भयावह आवाज़ें आने लगीं आवाज़ें जंगली सूअरों और चीतों की थीं। अब आवाज़ें धीरेधीरे पास आने लगींतो उनकी तीव्रता और बढ़ने लगी प्रगीत के दोस्त भी चौंककर उठ गए। हम बुरी तरह डर भी रहे थे और उनको पास से देखना भी चाहते थे तो सब उठकर खिड़कियों के पास गए। अब हमारी साँसे रुकने लगीं  ; क्योंकि वो हमारी तरफ जो रहे थे और हम पर चाँद की रोशनी तो पड़ ही रही थी तो हमने तुरन्त अपनाअपना स्थान बदला और चुपचाप लेट कर भगवान से आज़ की रात जान बख्शने की दुआ माँगने लगे। अब तो आवाज़ें बिल्कुल ही पास गयीं थीं बिल्कुल हमारे टैंट के पास, यहाँ तक कि उनके कदमों की आहटें भी, अब तो कोई हमें नहीं बचा सकता। यही सोचकर हम सिक्योरिटी गार्ड को भी कोसने लगे ,बच्चे बेखबर सो रहेथे, हम सोचने लगे कि वो बस अब टैंट को हिलाने वाले हैं ,अब गिरानेवाले हैं और सोचतेसोचते टैंट को एक तीव्र छटका लगा। बस अब तो सब खत्म, लगा मेरा तो हार्ट फेल हो गया, साँसे उखड़ने लगीं, सारा रोमांच धरा का धरा रह गय। बस मन में एक ही बात कि मुझे चाहे ले जाए पर बच्चों को और किसी को भी कुछ हो अचानक बाहर भगदड़ मच गयी, आवाज़ें भी दूर जाने लगीं, धूल उड़ाते जानवर भागने लगे झाड़ियों कीतरफ हमने देखा तो गार्ड महाशय हमारे टैंट के सामने खड़े थे, हमने मन ही मन अपने भगवान का शुक्रिया अदा किया कि हमने बेकार में ही उन पर शक किया। 3 बज़ चुके थे, ये घण्टे जिंदगी और मौत के बीच बीते, अब खतरा टला देखकर आँखे बोझिल होने लगीं और हम सब जाने कब सो गए।पाँच बज़े आँख खुली और ठीक 6 बज़े हमारा ड्राइवर गया। हम गाड़ी में बैठकर और रेंजर को भी साथ लेकर, निकल पड़ेअगले एडवेन्चर यानीपारा नेशनल पार्कके लिए कुछ दूर रास्ता तयकरके हम नाइल रिवर पहुँचे नौका से गाड़ी और हम सभी नदी के दूसरी पार गए ।फिर हम सब अपनी गाड़ी में बैठकरपारा नेशनल पार्ककी तरफ चल पड़े।पारा नेशनल पार्कयुगांड़ा का सबसे बड़ा नेशनल पार्क है गाड़ी का ऊपर का हिस्सा खोलकर हम खड़े हो गये, वहाँ अफ्रीकन भैंसे, हाथी,हिरणउनके छोटेछोटे बच्चे और बबून देखे बस इस जंगल की खट्टीमीठी यादों को समेटे हम लोग वापस कम्पाला केलिए रवाना हुए और 3 बज़कर 35 मिनट पर समतल रास्ते पर आ गए। यात्रा यादगार रही।

डॉ० भावना कुंअर,ऑस्ट्रेलिया

www.australianchal.com



प्रभांशु की नई कविता कूड़े वाला आदमी

वह आदमी
निराश नही है
अपनी जिन्दगी से
जो सड़क किनारे
कूड़े को उठाता हुआ
अपनी प्यासी आंखो से
कुछ दूढ़ता हुआ
फिर सड़क पर चलते
हंसते खिलखिलाते
धूलउड़ाते लोगों को टकटकी
निगाह से देखता
फिर कुछ सोचकर
नजरें दुबारा काम पर टिका लेता ।

शायद ये सब मेरे लिए नही
वह सोचता है
अखिर कमल को हर बार
कचरा क्यों मिलता है
वह आदमी
दौड़ के उसे उठाता
जैसे ईश्वर का प्रसाद मिल गया हो
जैसे तालाब किनारे
कमल खिल गया हो।
फिर सड़क पर लोग नही है,
प्लास्टिक के थैले नही है
और चल देता है
दूसरे कूड़े की ओर
शायद अपनी किस्मत को कोसते हुए
बस यही है मेरी जिन्दगी।

   मो०-9235795931,




बेशर्मी के लिए नशा बहुत जरूरी है जनाब…

सुशील कुमार ‘नवीन’

आप भी सोच रहे होंगे कि भला ये भी कोई बात है कि बेशर्मी के लिए नशा बहुत जरूरी है। क्या इसके बिना बेशर्म नहीं हुआ जा सकता। इसके बिना भी तो पता नहीं हम कितनी बार बेशर्म हुए हैं। हमारे सामने न जाने कितनी बार अबला से छेड़छाड़ हुई है और हम उसे न रोककर तमाशबीन बन देखते रहे। न जाने कितने राहगीर घायल अवस्था में बीच सड़क पर तड़पते मिले और हम ग्राउंड जीरो से रिपोर्टर बन उसकी एक-एक तड़प का फिल्मांकन करते रहे। क्या ये बेशर्मी का उदाहरण नहीं है। और छोड़िए, किसी मजबूर लाचार की मदद न कर उसका उपहास उड़ाकर हमने कौनसा साहसिक कार्य किया।

 जनाब हम जन्मजात बेशर्म है। कुछ कम तो कुछ जरूरत से ज्यादा। हमारी हर वो हरकत बेशर्मी है। जो हमें सुख की अनुभूति कराती रही और दूसरे को पीड़ा। ये नशा ही तो है जो हमें बेशर्म बनाता है। नशा पद, प्रतिष्ठा, सत्ता का ही सकता है। नशा समृद्धि-कारोबार का हो सकता है। नशा हमारी मूर्खता भरी  विद्वता का भी हो सकता है। नशा हमारे भले और दूसरे के बुरे वक्त का भी हो सकता है। सिर्फ खाने-पीने का ही नशा नहीं होता। नशा हर वो चीज है जो हमे राह से भटकाता है।

   अब इसका दूसरा पहलू लीजिए। हम बेशर्म हीं क्यों बनें। क्या इसके बिना काम नहीं चल सकता। इसका जवाब होगा कतई नहीं। जब तक आप होश में होंगे कोई भी ऐसी हरकत नहीं करेंगे जिस पर आपका मजाक बन सकता है। शर्म-झिझक के चलते जिससे आप आंख नहीं मिला सकते। मन की बात कह नहीं सकते। एक पैग अंदर जाते ही वही डरावनी आंखें ‘ समुंद्र’ बन जाती है और आप तैरना न जान भी उसमें डूबने को तैयार हो जाते हैं। इस दौरान आप न जाने, क्या चांद, क्या सितारे सबकुछ जमीं पर लाने का दावा कर जाते हैं। ये तो भलीमानसी होती है सामने वाली की, की वो आपसे सूरज की डिमांड नहीं करती। अन्यथा आप तो उसका भी वादा कर आते। 

   अब आप हमारे सितारों को ही लीजिए। पुरुष होकर नारी वेश धारण कर आपका भरपूर मनोरंजन करते हैं। कभी दादी कभी,नानी बन मेहमानों से फ्लर्ट करते हैं तो कभी गुत्थी बन ‘हमार तो जिंदगी खराब हो गई’ डायलॉग मार विरह वेदना का प्रस्तुतिकरण करते हैं। कभी सपना बन मसाज के मेन्यू कार्ड की चर्चा करते हैं तो कभी पलक बन अपने संवादों से हमें लुभाते हैं। आपके सामने वो सब हरकतें करतें हैं जिसे सपरिवार देखने की हमारी हिम्मत नहीं होती। फिर भी हम उनकी सारी बेशर्मी को दरकिनार कर उन्हें ललचाई नजरों से न केवल देखते हैं अपितु ठहाके भी लगाते हैं । क्योंकि हम भी तो बेशर्म हैं। स्वाद का नशा हम पर हावी रहता है। 

  अब वो थोड़ा नशा गांजा, कोकीन,सुल्फा आदि का कर भी लें तो कोई गुनाह थोड़े ही है। अपनी बेइज्जती करवाकर आपको हंसाना कोई सहज काम थोड़े ही है। ये तो वही काम है कि भरे बाजार मे पेटीकोट-ब्लाऊज पहना कोई आपको दौड़ने को कह दे। विवाह शादी में पत्नी की चुन्नी ओढ़ कर ठुमके तभी लगा पाते हो जब दो पैग गटके हुए हो। नागिन डांस में जमीन पर भी ऐसे लोटमलोट नहीं हो सकते। अब बेचारा कपिल हवाई उड़ान में किसी से लड़ पड़े या भारती के पास गांजा मिल जाये तो हवा में न उड़िये। नशे में हम सब हैं। क्योंकि बिना नशे के हम बेशर्म हो ही नहीं सकते। नशा न होता तो हम सबको अच्छे-बुरे सब कर्मों की फिक्र होती जो वर्तमान में हमें नहीं है। तो सबसे पहले अपने नशे की खुमारी उतारिये फिर दूसरों के नशे पर चर्चा करें।

नोट: लेख मात्र मनोरंजन के लिए है। इसका किसी के साथ व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं है। 

लेखक: 

सुशील कुमार ‘नवीन’, हिसार(हरियाणा)

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है।

96717-26237

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‘ओजोन-लेयर’ कविता में अभिव्यक्त पर्यावरण पूरक व्यंग्य

प्रो. (डॉ.) सदानंद भोसले
अध्यक्ष, हिंदी विभाग
सावित्रीबाई फुले पुणे विश्‍वविद्यालय, पुणे- 07
मोबाईल नं. 9822980668
ईमेल: [email protected]

व्यंग्य ‘सटायरिक स्पिरिट’ है, अर्थात् एक ‘व्यंग्य-भावना’। ‘व्यंग्य-भावना’ साहित्य के माध्यम से बुराइयों की गहरी खोजबीन करती है। इसकी अभिव्यक्ति प्राचीन पाश्चात्य साहित्य में, सर्व प्रथम छंदों में हुई। आरंभ में व्यंग्य पद्य में लिखा गया  किंतु वर्तमान तक आते-आते व्यंग्य विशुद्ध गद्यात्मक बन गया है। इस संदर्भ में हूग वाकर ने यहाँ तक कहा है कि, ‘‘व्यंग्यात्मक भावना गद्यात्मक है पद्यात्मक नहीं।’’1 बावजूद उसके यह बात स्‍पष्‍ट हो जानी चाहिए कि व्यंग्य अलग है और कविता उससे एकदम भिन्न साहित्य-विधा। व्यंग्य-भावना के तीन प्रमुख तत्व होते हैं- बुध्दि, हास्य और आक्रोश। साहित्यिक व्यंग्य का प्रमुख उद्देश्‍य समाज में सुधार करना होता है। इस संदर्भ में गिलबर्ट हाइट लिखते हैं, ‘‘व्यंग्य का उद्देश्‍य हँसी या निन्दाविनोद के द्वारा समाज में सुधार करके बुराई को दंडित करना है किंतु यदि यह उद्देश्‍य प्राप्त नहीं कर पाता तो वह भूलों की खिल्ली उड़ाता तथा बुराई को कड़वी घृणा का पात्र बनाकर समाज के सम्मुख उपस्थित करता है।’’2

‘ओजोन-लेयर’ अशोक चक्रधर की कविता है। वे एक संजीदा आलोचक, फिल्मकार, प्रोफेसर और कवि हैं। दूरदर्शन पर इनके साप्ताहिक कार्यक्रम ‘चले आओ चक्रधर चमन में’ ने सफलता के नए कीर्तिमान स्थापित किए। विभिन्न सामाजिक समस्याओं पर इन्होंने कई टेलीफिल्म, धारावाहिक और वृत्तचित्र बनाए। इनकी चर्चित फिल्में है- ‘गुलाबड़ी’ और ‘बिटिया’। इन्होंने कई कथाएँ एवं गीत लिखे। साठ से अधिक पुस्तकें लिखीं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए नियमित स्तंभ-लेखन किया। कई पुरस्कारों और सम्मानों से सम्मानित डॉ. अशोक चक्रधर भारत के राष्‍ट्रपति द्वारा ‘पद्म श्री’ सम्मान से भी अलंकृत किए जा चुके हैं।

 प्रस्तुत कविता में कवि ने वर्तमान भारतीय समाज के सभी क्षेत्रों में मनुष्‍य द्वारा किए जानेवाले प्रदूषण पर करारा व्यंग्य किया है। परिवार के सभी सदस्य, पड़ोसी दफ्तरों में काम करने वाले सभी कामकाजी लोग अस्वाभाविक एवं तनाव भरा जीवन जी रहे हैं और आचरण की भ्रष्‍टता का प्रदर्शन  कर रहे हैं। लोकमंगल का भाव प्रदूषित हुआ है। गाँवों, कस्बों, पहाड़ों, नगरों, और महानगरों में रहने वाले लोगों के स्वाभाविक जीवनदायी ओजोन लेयर में छेद हुआ है। परिणाम स्वरूप जमीन बंजर हुई है, नदियों की जिंदगी सूख गई है। सेठ-साहुकारों की उदारता खत्म हुई है।

जंगल काटकर सीमेंट की इमारतें खड़ी हो रही हैं और उससे लिपटी झोंपड़पट्टी भी बढ़ रही हैं। भोर के समय प्रभातियाँ गानेवाली गौरैया गुमसुम हो गयी है तथा जीव जंतुओं की और भी कई प्रजातियाँ लुप्त हो रही हैं। देश का भविष्‍य यानि बच्चे खेत-खलिहानों, मैदानों-जगलों, नदी-पहाड़ों, झरनों-तालाबों में खेलने की अपेक्षा एडल्ट मूवी  देखने में मशगूल  हैं और केबल टी वी के कार्यक्रम संस्कृति चर रहे हैं। एसी कूलर में जीवन यापन करनेवालों के प्रदूषित जीवन व्यवहार पर व्यंग्य करते हुए कवि लिखते हैं :-

‘‘ऐसी और कूलर में
खुलती नहीं हैं खिड़कियाँ,
जलाऊ लकड़ी का संकट है
इसलिए जलाई जाती हैं लड़कियां।’’3

लोक व्यवहार इतना प्रदूषित हुआ है कि आचरण की लीपा  पोती के लिए पुलिस थाने, म्यूनिसपैलिटी ऑफीस तथा अन्य पंचायतें रिश्‍वत लेकर हाजिर हैं। ईमानदारी का अकाल पड़ गया है। विकास के नाम पर कल कारखानों, उद्योगों ने कचरे से जीवनदायी सद्भाव रूपी नदी को प्रदूषित किया है। पर्यावरण संवर्धन हेतु बनाई गयी योजनाओं में भी अब भ्रष्‍टाचार हो रहा है। पर्यावरण को बचानेवाले आंदोलन भी सत्ता के साथ-साथ हाथ मिला बैठे हैं। इसी बेईमानी का पर्दाफ़ाश करते हुए कवि कहते हैं :-

‘‘कागजों पर खुद गई हैं नहरें,
ड्राइंगरूम में उठ रही हैं लहरें।
राजनीति में सदाशय अनाथ हैं,
चिपको आंदोलन
कुरसी के साथ है।’’4

आम जनता की बात को सत्ता धारियों तक पहुँचाने वाले भी भ्रष्‍ट हुए हैं। जनसंचार माध्यमों में एकता की भाषा का अकाल है। वैयक्तिक स्वार्थ ने सब को अंधा बना दिया है।  या यूँ कहिए कि उन्होंने सच्चाई से आँखें मोड़ ली है। राष्‍ट्रीय सपनों की गैर-कानूनी चराई चल रही है। समाज से सांप्रदायिक सौहर्द का भाव खत्म होता जा रहा है। धर्म के ठेकेदारों ने नफरत के रेगिस्तान का विस्तार बढ़ाया है। आबादी का आतंक बढ़ रहा है और आतंक की आबादी बढ़ रही है। इस आबादी से सामाजिक दायित्व वाले मूल्य अंतिम सांसे ले रहे हैं। एक दूसरों के प्रति भाईचारा, सद्भाव और सहजीवन आदि भावनाओं का आवेग प्रदूशित हुआ है। अब हमारी आँखें किसी दूसरे के लिए नम नहीं होती। आँखों तक का पानी प्रदूषित हुआ है। इसी यथार्थ को अभिव्यक्त करते हुए कवि लिखते हैं :-

‘‘हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई,

आपस में हैं भाई-भाई

X         X         X         X

लेकिन दिल में दरारें आ गई हैं,
आपस में भेद हो गया है,
देश की ओजोन-लेयर में
छेद हो गया है।’’ 5

कवि का मानना है कि इस तरह प्रदूषण सर्वव्यापी है। इसे स्‍पष्‍ट करते हुए वे लिखते हैं :-

‘‘घर की ओजोन-लेयर है-
कॉलोनी मोहल्ला या गाँव।
गाँव की ओजोन-लेयर है- शहर।
शहर की ओजोन-लेयर है- देश।
देश की ओजोन-लेयर है- दुनिया।
और मुझे इस बात का खेद है,
कि हर ओजोन-लेयर में छेद है।’’6

वर्तमान मनुष्‍य द्वारा किए जाने वाले प्रदूषित व्यवहार पर कवि ने मात्र व्यंग्य प्रहार ही नहीं किए हैं बल्कि कुछ उपाय भी दिए हैं। इस तरह के व्यापक प्रदूषण से यदि हमें अपने समाज को और संसार को बचाना हो तो, पर्यावरण के ओजोन-लेयर की रक्षा करनी होगी। चूंकि प्राचीन काल से प्रकृति मावनजाति की सहयोगी रही है। संसार की सभी संस्कृतियाँ और सभ्यताओं की उत्पत्ति एवं विकास पर्यावरण के सहयोग से ही संभव हुआ है। इसलिए आज हमें सभी स्वजनों को यह पाठ पढ़ाना होगा कि मनुष्‍य की हर मुश्‍किल में प्रकृति ने साथ दिया है और उसका वह संबल बनी है। इसी सच्चाई को स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं-

‘‘बावड़ी, कुएँ, तालाब और समंदर ने
मनव को हर मुष्किल से निकाला है,
पर्वतमालाओं ने हमें पाला है।
अगर हम इनका निष्छल रूप बिगाडे़ंगे,
 अपने भविश्य को गर्त में गाड़ेंगे।’’ 7

कवि का कहना है कि वक़्त रहते ही हमें यह संज्ञान लेना होगा। इस में ही मानवजाती ही भलाई है। पर्यावरण की सुरक्षा ही हमारे सारे घाव भर सकती है। आज संसार में जिस षोशण से भरी वृत्ति को हम देख रहें हैं, जिसके परिणाम स्वरूप सहजीवन में स्वाभाविकता नहीं रही है। हाल ही में दक्षिण आफ्रिका इस देष की सरकारने यह घोशणा की है कि वह देष के नागरिकों को पीने का पानी नहीं देंगे। वह दिन दूर नहीं है कि हमारे देष का भी पेयजल ख़त्म हो जाएगा। इसलिए हमें जल, जगंल, जमीन, अबोहवा, नदी, नहर, तालाब आदि प्राकृतिक तत्वों का संवर्धन करना होगा। जैवविविधताओं की रक्षा करनी होगी। हमारे संतों, भक्तोंने प्राचीनकाल से ही हमें इस ओर निर्देषित किया है। संत तुकाराम लिखते हैं- ‘‘वृक्षावल्ली आम्हा सोईरी…’’ (पेड लताएँ हमारे परिजन हैं।) इसी संदेष को उपाय के रूप में प्रस्तुत करते हुए कवि लिखते हैं-

‘‘फिर न शोषण होगा, न हिंसा, न तनाव

एक-दूसरे को न काटेंगे हम

जब पेड़ काटने पर दर्द होगा,

इनसान प्रकृति का हमदर्द होगा।

बंजर को पानी देंगे

तो धरती धानी होनी,

चैतरफा मोहब्बत की कहानी होगी।’’ 8

कविता के अंत में कवि ने वैश्विक शांति  का सूत्र पर्यावरण की सुरक्षा के रूप में बताया है। यहि हम पर्यावरण की रक्षा करते हैं, तो बुद्ध  कहलाएँगे। पर्यावरण संवर्धन करने वाले मनुष्य को कवि ने बुद्ध कहा है क्योंकि  बुद्ध शांति के दूत हैं। सात्विक हैं, सात्विक है, सात्विक प्रकृति होती है, जिसमें कहीं भी खोट नहीं होती है। इसी तरह से यही हम बुद्ध की भाँति अपने मन का दीपक जलाकर पर्यावरण की रक्षा करेंगे तो हवा, पानी एवं संपूर्ण प्रकृति शुद्ध होगी। इस बात को प्रस्तुत करते हुए कवि लिखते हैं-

‘‘उजाड़ मसान के मुरदा मरसियों पर

सिर नहीं धुनेंगे,

बल्कि बाली-बाली की ताली पर

लहराती हरियाली की

स्वर-लहरी सुनेंगे।

तब हम अपने आप बुद्ध होंगे,

क्योंकि हवा-पानी शुद्ध होंगे।’’9

निष्कर्षत: ओजोन-लेयर संसार के सभी जीवों के लिए पर्यापरण का सुरक्षा कवच है। संसार की समग्र परिस्थितियों का संरक्षण इसी कवच द्वारा होता है। समस्त सजीवों के आधिवास इसी कवच में विकसित होते हैं। शुद्ध प्राणवायु भी इसी के बदौलत मिलती है। कविता में कवि ने इस पर्यावरण कवच को प्रतीकात्मक रूप द्वारा प्रस्तुत किया है। परिवार में पति-पत्नी नन्हे पौधों जैसे बच्चों का पर्यावरण कवच हैं। काॅलोनी के पडोसियों का आपसी मित्रभाव एक दूसरों के लिए, साहुकारों की उदारता और सरपंचो की उदारता मजदूरों के लिए, जंगल के पेड़-पौधे, पशु-पंछियों के लिए, दफ्तर में काम करनेवालों के लिए ईमानदारी, युवाओं के लिए संस्कार, पुलिस, म्युनिसपैलिटी कर्मचारियों का सदाचार भरा बरताव आमजनों के लिए, कारखानों का सद्भाव भरा व्यवहार नदी के लिए, पर्यावरण संरक्षक जन आंदोलनों की ईमानदारी राष्ट्रहित के लिए, अखबारों की एकता राष्ट्रीय सपनों की पूर्ति के लिए, धर्म के ठेकेदारों की चतुराई सांप्रदायिक सौहार्द के लिए और इंसानों की हमदर्दी प्रकृति के लिए पर्यावरण कवच है।

            कविता के अंत में कवि ने यह उम्मीद जातई है कि यदि हम अपने सहजीवन के सदाचार भरा जीवन-मापन करके ओजोन-लेयर के छेद को बचाएँगे तो हम अपने आप बुद्ध  होंगे, क्योंकि हवा-पानी शुद्ध  होंगे। बुद्ध ने समस्त मानव संसार को यह संदेश दिया है कि हिंसा को अहिंसा से, असत्य को सत्य से, स्वार्थ को त्याग और दान से, क्रोध को प्रेम से जीता जा सकता है। हमें भी प्रकृति के प्रति बुद्ध की तरह भाव-संप्रक्त व्यवहार करना होगा। पर्यावरण पूरक सहजीवन जीना होगा। हमें कभी भी यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारा निर्माण पंचतत्वों के योग से पूर्ण हुआ है। ये पंचतत्व यानि प्रकृति। इसलिए प्रकृति शुद्ध रहेगी तो मानव शुद्ध रहेगा।

संदर्भ ग्रंथ :

  1. इंगलिश सटायर एण्ड सटायरिस्ट – हूग वाकर, पृष्‍ठ क्र. 54
  2. द एनॉटमी ऑफ सटायर – गिलबर्ट हाइट, पृष्‍ठ क्र. 155
  3. ‘ओजोन-लेयर’ – अशोक चक्रधर,  पृष्‍ठ क्र.71
  4. ‘ओजोन-लेयर’ – अशोक चक्रधर, पृष्‍ठ क्र. 72
  5. ‘ओजोन-लेयर’ – अशोक चक्रधर, पृष्‍ठ क्र. 73
  6. ‘ओजोन-लेयर’ – अशोक चक्रधर, पृष्‍ठ क्र. 74
  7. ‘ओजोन-लेयर’ – अशोक चक्रधर, पृष्‍ठ क्र. 74
  8. ‘ओजोन-लेयर’ – अशोक चक्रधर, पृष्‍ठ क्र. 75
  9. ‘ओजोन-लेयर’ – अशोक चक्रधर, पृष्‍ठ क्र. 75