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प्रभांशु की नई कविता कूड़े वाला आदमी

वह आदमी
निराश नही है
अपनी जिन्दगी से
जो सड़क किनारे
कूड़े को उठाता हुआ
अपनी प्यासी आंखो से
कुछ दूढ़ता हुआ
फिर सड़क पर चलते
हंसते खिलखिलाते
धूलउड़ाते लोगों को टकटकी
निगाह से देखता
फिर कुछ सोचकर
नजरें दुबारा काम पर टिका लेता ।

शायद ये सब मेरे लिए नही
वह सोचता है
अखिर कमल को हर बार
कचरा क्यों मिलता है
वह आदमी
दौड़ के उसे उठाता
जैसे ईश्वर का प्रसाद मिल गया हो
जैसे तालाब किनारे
कमल खिल गया हो।
फिर सड़क पर लोग नही है,
प्लास्टिक के थैले नही है
और चल देता है
दूसरे कूड़े की ओर
शायद अपनी किस्मत को कोसते हुए
बस यही है मेरी जिन्दगी।

   मो०-9235795931,




बेशर्मी के लिए नशा बहुत जरूरी है जनाब…

सुशील कुमार ‘नवीन’

आप भी सोच रहे होंगे कि भला ये भी कोई बात है कि बेशर्मी के लिए नशा बहुत जरूरी है। क्या इसके बिना बेशर्म नहीं हुआ जा सकता। इसके बिना भी तो पता नहीं हम कितनी बार बेशर्म हुए हैं। हमारे सामने न जाने कितनी बार अबला से छेड़छाड़ हुई है और हम उसे न रोककर तमाशबीन बन देखते रहे। न जाने कितने राहगीर घायल अवस्था में बीच सड़क पर तड़पते मिले और हम ग्राउंड जीरो से रिपोर्टर बन उसकी एक-एक तड़प का फिल्मांकन करते रहे। क्या ये बेशर्मी का उदाहरण नहीं है। और छोड़िए, किसी मजबूर लाचार की मदद न कर उसका उपहास उड़ाकर हमने कौनसा साहसिक कार्य किया।

 जनाब हम जन्मजात बेशर्म है। कुछ कम तो कुछ जरूरत से ज्यादा। हमारी हर वो हरकत बेशर्मी है। जो हमें सुख की अनुभूति कराती रही और दूसरे को पीड़ा। ये नशा ही तो है जो हमें बेशर्म बनाता है। नशा पद, प्रतिष्ठा, सत्ता का ही सकता है। नशा समृद्धि-कारोबार का हो सकता है। नशा हमारी मूर्खता भरी  विद्वता का भी हो सकता है। नशा हमारे भले और दूसरे के बुरे वक्त का भी हो सकता है। सिर्फ खाने-पीने का ही नशा नहीं होता। नशा हर वो चीज है जो हमे राह से भटकाता है।

   अब इसका दूसरा पहलू लीजिए। हम बेशर्म हीं क्यों बनें। क्या इसके बिना काम नहीं चल सकता। इसका जवाब होगा कतई नहीं। जब तक आप होश में होंगे कोई भी ऐसी हरकत नहीं करेंगे जिस पर आपका मजाक बन सकता है। शर्म-झिझक के चलते जिससे आप आंख नहीं मिला सकते। मन की बात कह नहीं सकते। एक पैग अंदर जाते ही वही डरावनी आंखें ‘ समुंद्र’ बन जाती है और आप तैरना न जान भी उसमें डूबने को तैयार हो जाते हैं। इस दौरान आप न जाने, क्या चांद, क्या सितारे सबकुछ जमीं पर लाने का दावा कर जाते हैं। ये तो भलीमानसी होती है सामने वाली की, की वो आपसे सूरज की डिमांड नहीं करती। अन्यथा आप तो उसका भी वादा कर आते। 

   अब आप हमारे सितारों को ही लीजिए। पुरुष होकर नारी वेश धारण कर आपका भरपूर मनोरंजन करते हैं। कभी दादी कभी,नानी बन मेहमानों से फ्लर्ट करते हैं तो कभी गुत्थी बन ‘हमार तो जिंदगी खराब हो गई’ डायलॉग मार विरह वेदना का प्रस्तुतिकरण करते हैं। कभी सपना बन मसाज के मेन्यू कार्ड की चर्चा करते हैं तो कभी पलक बन अपने संवादों से हमें लुभाते हैं। आपके सामने वो सब हरकतें करतें हैं जिसे सपरिवार देखने की हमारी हिम्मत नहीं होती। फिर भी हम उनकी सारी बेशर्मी को दरकिनार कर उन्हें ललचाई नजरों से न केवल देखते हैं अपितु ठहाके भी लगाते हैं । क्योंकि हम भी तो बेशर्म हैं। स्वाद का नशा हम पर हावी रहता है। 

  अब वो थोड़ा नशा गांजा, कोकीन,सुल्फा आदि का कर भी लें तो कोई गुनाह थोड़े ही है। अपनी बेइज्जती करवाकर आपको हंसाना कोई सहज काम थोड़े ही है। ये तो वही काम है कि भरे बाजार मे पेटीकोट-ब्लाऊज पहना कोई आपको दौड़ने को कह दे। विवाह शादी में पत्नी की चुन्नी ओढ़ कर ठुमके तभी लगा पाते हो जब दो पैग गटके हुए हो। नागिन डांस में जमीन पर भी ऐसे लोटमलोट नहीं हो सकते। अब बेचारा कपिल हवाई उड़ान में किसी से लड़ पड़े या भारती के पास गांजा मिल जाये तो हवा में न उड़िये। नशे में हम सब हैं। क्योंकि बिना नशे के हम बेशर्म हो ही नहीं सकते। नशा न होता तो हम सबको अच्छे-बुरे सब कर्मों की फिक्र होती जो वर्तमान में हमें नहीं है। तो सबसे पहले अपने नशे की खुमारी उतारिये फिर दूसरों के नशे पर चर्चा करें।

नोट: लेख मात्र मनोरंजन के लिए है। इसका किसी के साथ व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं है। 

लेखक: 

सुशील कुमार ‘नवीन’, हिसार(हरियाणा)

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है।

96717-26237

photo; google



‘ओजोन-लेयर’ कविता में अभिव्यक्त पर्यावरण पूरक व्यंग्य

प्रो. (डॉ.) सदानंद भोसले
अध्यक्ष, हिंदी विभाग
सावित्रीबाई फुले पुणे विश्‍वविद्यालय, पुणे- 07
मोबाईल नं. 9822980668
ईमेल: [email protected]

व्यंग्य ‘सटायरिक स्पिरिट’ है, अर्थात् एक ‘व्यंग्य-भावना’। ‘व्यंग्य-भावना’ साहित्य के माध्यम से बुराइयों की गहरी खोजबीन करती है। इसकी अभिव्यक्ति प्राचीन पाश्चात्य साहित्य में, सर्व प्रथम छंदों में हुई। आरंभ में व्यंग्य पद्य में लिखा गया  किंतु वर्तमान तक आते-आते व्यंग्य विशुद्ध गद्यात्मक बन गया है। इस संदर्भ में हूग वाकर ने यहाँ तक कहा है कि, ‘‘व्यंग्यात्मक भावना गद्यात्मक है पद्यात्मक नहीं।’’1 बावजूद उसके यह बात स्‍पष्‍ट हो जानी चाहिए कि व्यंग्य अलग है और कविता उससे एकदम भिन्न साहित्य-विधा। व्यंग्य-भावना के तीन प्रमुख तत्व होते हैं- बुध्दि, हास्य और आक्रोश। साहित्यिक व्यंग्य का प्रमुख उद्देश्‍य समाज में सुधार करना होता है। इस संदर्भ में गिलबर्ट हाइट लिखते हैं, ‘‘व्यंग्य का उद्देश्‍य हँसी या निन्दाविनोद के द्वारा समाज में सुधार करके बुराई को दंडित करना है किंतु यदि यह उद्देश्‍य प्राप्त नहीं कर पाता तो वह भूलों की खिल्ली उड़ाता तथा बुराई को कड़वी घृणा का पात्र बनाकर समाज के सम्मुख उपस्थित करता है।’’2

‘ओजोन-लेयर’ अशोक चक्रधर की कविता है। वे एक संजीदा आलोचक, फिल्मकार, प्रोफेसर और कवि हैं। दूरदर्शन पर इनके साप्ताहिक कार्यक्रम ‘चले आओ चक्रधर चमन में’ ने सफलता के नए कीर्तिमान स्थापित किए। विभिन्न सामाजिक समस्याओं पर इन्होंने कई टेलीफिल्म, धारावाहिक और वृत्तचित्र बनाए। इनकी चर्चित फिल्में है- ‘गुलाबड़ी’ और ‘बिटिया’। इन्होंने कई कथाएँ एवं गीत लिखे। साठ से अधिक पुस्तकें लिखीं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए नियमित स्तंभ-लेखन किया। कई पुरस्कारों और सम्मानों से सम्मानित डॉ. अशोक चक्रधर भारत के राष्‍ट्रपति द्वारा ‘पद्म श्री’ सम्मान से भी अलंकृत किए जा चुके हैं।

 प्रस्तुत कविता में कवि ने वर्तमान भारतीय समाज के सभी क्षेत्रों में मनुष्‍य द्वारा किए जानेवाले प्रदूषण पर करारा व्यंग्य किया है। परिवार के सभी सदस्य, पड़ोसी दफ्तरों में काम करने वाले सभी कामकाजी लोग अस्वाभाविक एवं तनाव भरा जीवन जी रहे हैं और आचरण की भ्रष्‍टता का प्रदर्शन  कर रहे हैं। लोकमंगल का भाव प्रदूषित हुआ है। गाँवों, कस्बों, पहाड़ों, नगरों, और महानगरों में रहने वाले लोगों के स्वाभाविक जीवनदायी ओजोन लेयर में छेद हुआ है। परिणाम स्वरूप जमीन बंजर हुई है, नदियों की जिंदगी सूख गई है। सेठ-साहुकारों की उदारता खत्म हुई है।

जंगल काटकर सीमेंट की इमारतें खड़ी हो रही हैं और उससे लिपटी झोंपड़पट्टी भी बढ़ रही हैं। भोर के समय प्रभातियाँ गानेवाली गौरैया गुमसुम हो गयी है तथा जीव जंतुओं की और भी कई प्रजातियाँ लुप्त हो रही हैं। देश का भविष्‍य यानि बच्चे खेत-खलिहानों, मैदानों-जगलों, नदी-पहाड़ों, झरनों-तालाबों में खेलने की अपेक्षा एडल्ट मूवी  देखने में मशगूल  हैं और केबल टी वी के कार्यक्रम संस्कृति चर रहे हैं। एसी कूलर में जीवन यापन करनेवालों के प्रदूषित जीवन व्यवहार पर व्यंग्य करते हुए कवि लिखते हैं :-

‘‘ऐसी और कूलर में
खुलती नहीं हैं खिड़कियाँ,
जलाऊ लकड़ी का संकट है
इसलिए जलाई जाती हैं लड़कियां।’’3

लोक व्यवहार इतना प्रदूषित हुआ है कि आचरण की लीपा  पोती के लिए पुलिस थाने, म्यूनिसपैलिटी ऑफीस तथा अन्य पंचायतें रिश्‍वत लेकर हाजिर हैं। ईमानदारी का अकाल पड़ गया है। विकास के नाम पर कल कारखानों, उद्योगों ने कचरे से जीवनदायी सद्भाव रूपी नदी को प्रदूषित किया है। पर्यावरण संवर्धन हेतु बनाई गयी योजनाओं में भी अब भ्रष्‍टाचार हो रहा है। पर्यावरण को बचानेवाले आंदोलन भी सत्ता के साथ-साथ हाथ मिला बैठे हैं। इसी बेईमानी का पर्दाफ़ाश करते हुए कवि कहते हैं :-

‘‘कागजों पर खुद गई हैं नहरें,
ड्राइंगरूम में उठ रही हैं लहरें।
राजनीति में सदाशय अनाथ हैं,
चिपको आंदोलन
कुरसी के साथ है।’’4

आम जनता की बात को सत्ता धारियों तक पहुँचाने वाले भी भ्रष्‍ट हुए हैं। जनसंचार माध्यमों में एकता की भाषा का अकाल है। वैयक्तिक स्वार्थ ने सब को अंधा बना दिया है।  या यूँ कहिए कि उन्होंने सच्चाई से आँखें मोड़ ली है। राष्‍ट्रीय सपनों की गैर-कानूनी चराई चल रही है। समाज से सांप्रदायिक सौहर्द का भाव खत्म होता जा रहा है। धर्म के ठेकेदारों ने नफरत के रेगिस्तान का विस्तार बढ़ाया है। आबादी का आतंक बढ़ रहा है और आतंक की आबादी बढ़ रही है। इस आबादी से सामाजिक दायित्व वाले मूल्य अंतिम सांसे ले रहे हैं। एक दूसरों के प्रति भाईचारा, सद्भाव और सहजीवन आदि भावनाओं का आवेग प्रदूशित हुआ है। अब हमारी आँखें किसी दूसरे के लिए नम नहीं होती। आँखों तक का पानी प्रदूषित हुआ है। इसी यथार्थ को अभिव्यक्त करते हुए कवि लिखते हैं :-

‘‘हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई,

आपस में हैं भाई-भाई

X         X         X         X

लेकिन दिल में दरारें आ गई हैं,
आपस में भेद हो गया है,
देश की ओजोन-लेयर में
छेद हो गया है।’’ 5

कवि का मानना है कि इस तरह प्रदूषण सर्वव्यापी है। इसे स्‍पष्‍ट करते हुए वे लिखते हैं :-

‘‘घर की ओजोन-लेयर है-
कॉलोनी मोहल्ला या गाँव।
गाँव की ओजोन-लेयर है- शहर।
शहर की ओजोन-लेयर है- देश।
देश की ओजोन-लेयर है- दुनिया।
और मुझे इस बात का खेद है,
कि हर ओजोन-लेयर में छेद है।’’6

वर्तमान मनुष्‍य द्वारा किए जाने वाले प्रदूषित व्यवहार पर कवि ने मात्र व्यंग्य प्रहार ही नहीं किए हैं बल्कि कुछ उपाय भी दिए हैं। इस तरह के व्यापक प्रदूषण से यदि हमें अपने समाज को और संसार को बचाना हो तो, पर्यावरण के ओजोन-लेयर की रक्षा करनी होगी। चूंकि प्राचीन काल से प्रकृति मावनजाति की सहयोगी रही है। संसार की सभी संस्कृतियाँ और सभ्यताओं की उत्पत्ति एवं विकास पर्यावरण के सहयोग से ही संभव हुआ है। इसलिए आज हमें सभी स्वजनों को यह पाठ पढ़ाना होगा कि मनुष्‍य की हर मुश्‍किल में प्रकृति ने साथ दिया है और उसका वह संबल बनी है। इसी सच्चाई को स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं-

‘‘बावड़ी, कुएँ, तालाब और समंदर ने
मनव को हर मुष्किल से निकाला है,
पर्वतमालाओं ने हमें पाला है।
अगर हम इनका निष्छल रूप बिगाडे़ंगे,
 अपने भविश्य को गर्त में गाड़ेंगे।’’ 7

कवि का कहना है कि वक़्त रहते ही हमें यह संज्ञान लेना होगा। इस में ही मानवजाती ही भलाई है। पर्यावरण की सुरक्षा ही हमारे सारे घाव भर सकती है। आज संसार में जिस षोशण से भरी वृत्ति को हम देख रहें हैं, जिसके परिणाम स्वरूप सहजीवन में स्वाभाविकता नहीं रही है। हाल ही में दक्षिण आफ्रिका इस देष की सरकारने यह घोशणा की है कि वह देष के नागरिकों को पीने का पानी नहीं देंगे। वह दिन दूर नहीं है कि हमारे देष का भी पेयजल ख़त्म हो जाएगा। इसलिए हमें जल, जगंल, जमीन, अबोहवा, नदी, नहर, तालाब आदि प्राकृतिक तत्वों का संवर्धन करना होगा। जैवविविधताओं की रक्षा करनी होगी। हमारे संतों, भक्तोंने प्राचीनकाल से ही हमें इस ओर निर्देषित किया है। संत तुकाराम लिखते हैं- ‘‘वृक्षावल्ली आम्हा सोईरी…’’ (पेड लताएँ हमारे परिजन हैं।) इसी संदेष को उपाय के रूप में प्रस्तुत करते हुए कवि लिखते हैं-

‘‘फिर न शोषण होगा, न हिंसा, न तनाव

एक-दूसरे को न काटेंगे हम

जब पेड़ काटने पर दर्द होगा,

इनसान प्रकृति का हमदर्द होगा।

बंजर को पानी देंगे

तो धरती धानी होनी,

चैतरफा मोहब्बत की कहानी होगी।’’ 8

कविता के अंत में कवि ने वैश्विक शांति  का सूत्र पर्यावरण की सुरक्षा के रूप में बताया है। यहि हम पर्यावरण की रक्षा करते हैं, तो बुद्ध  कहलाएँगे। पर्यावरण संवर्धन करने वाले मनुष्य को कवि ने बुद्ध कहा है क्योंकि  बुद्ध शांति के दूत हैं। सात्विक हैं, सात्विक है, सात्विक प्रकृति होती है, जिसमें कहीं भी खोट नहीं होती है। इसी तरह से यही हम बुद्ध की भाँति अपने मन का दीपक जलाकर पर्यावरण की रक्षा करेंगे तो हवा, पानी एवं संपूर्ण प्रकृति शुद्ध होगी। इस बात को प्रस्तुत करते हुए कवि लिखते हैं-

‘‘उजाड़ मसान के मुरदा मरसियों पर

सिर नहीं धुनेंगे,

बल्कि बाली-बाली की ताली पर

लहराती हरियाली की

स्वर-लहरी सुनेंगे।

तब हम अपने आप बुद्ध होंगे,

क्योंकि हवा-पानी शुद्ध होंगे।’’9

निष्कर्षत: ओजोन-लेयर संसार के सभी जीवों के लिए पर्यापरण का सुरक्षा कवच है। संसार की समग्र परिस्थितियों का संरक्षण इसी कवच द्वारा होता है। समस्त सजीवों के आधिवास इसी कवच में विकसित होते हैं। शुद्ध प्राणवायु भी इसी के बदौलत मिलती है। कविता में कवि ने इस पर्यावरण कवच को प्रतीकात्मक रूप द्वारा प्रस्तुत किया है। परिवार में पति-पत्नी नन्हे पौधों जैसे बच्चों का पर्यावरण कवच हैं। काॅलोनी के पडोसियों का आपसी मित्रभाव एक दूसरों के लिए, साहुकारों की उदारता और सरपंचो की उदारता मजदूरों के लिए, जंगल के पेड़-पौधे, पशु-पंछियों के लिए, दफ्तर में काम करनेवालों के लिए ईमानदारी, युवाओं के लिए संस्कार, पुलिस, म्युनिसपैलिटी कर्मचारियों का सदाचार भरा बरताव आमजनों के लिए, कारखानों का सद्भाव भरा व्यवहार नदी के लिए, पर्यावरण संरक्षक जन आंदोलनों की ईमानदारी राष्ट्रहित के लिए, अखबारों की एकता राष्ट्रीय सपनों की पूर्ति के लिए, धर्म के ठेकेदारों की चतुराई सांप्रदायिक सौहार्द के लिए और इंसानों की हमदर्दी प्रकृति के लिए पर्यावरण कवच है।

            कविता के अंत में कवि ने यह उम्मीद जातई है कि यदि हम अपने सहजीवन के सदाचार भरा जीवन-मापन करके ओजोन-लेयर के छेद को बचाएँगे तो हम अपने आप बुद्ध  होंगे, क्योंकि हवा-पानी शुद्ध  होंगे। बुद्ध ने समस्त मानव संसार को यह संदेश दिया है कि हिंसा को अहिंसा से, असत्य को सत्य से, स्वार्थ को त्याग और दान से, क्रोध को प्रेम से जीता जा सकता है। हमें भी प्रकृति के प्रति बुद्ध की तरह भाव-संप्रक्त व्यवहार करना होगा। पर्यावरण पूरक सहजीवन जीना होगा। हमें कभी भी यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारा निर्माण पंचतत्वों के योग से पूर्ण हुआ है। ये पंचतत्व यानि प्रकृति। इसलिए प्रकृति शुद्ध रहेगी तो मानव शुद्ध रहेगा।

संदर्भ ग्रंथ :

  1. इंगलिश सटायर एण्ड सटायरिस्ट – हूग वाकर, पृष्‍ठ क्र. 54
  2. द एनॉटमी ऑफ सटायर – गिलबर्ट हाइट, पृष्‍ठ क्र. 155
  3. ‘ओजोन-लेयर’ – अशोक चक्रधर,  पृष्‍ठ क्र.71
  4. ‘ओजोन-लेयर’ – अशोक चक्रधर, पृष्‍ठ क्र. 72
  5. ‘ओजोन-लेयर’ – अशोक चक्रधर, पृष्‍ठ क्र. 73
  6. ‘ओजोन-लेयर’ – अशोक चक्रधर, पृष्‍ठ क्र. 74
  7. ‘ओजोन-लेयर’ – अशोक चक्रधर, पृष्‍ठ क्र. 74
  8. ‘ओजोन-लेयर’ – अशोक चक्रधर, पृष्‍ठ क्र. 75
  9. ‘ओजोन-लेयर’ – अशोक चक्रधर, पृष्‍ठ क्र. 75