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पूरे रोहतकी स्वाद लिए है ‘कांटेलाल एंड संस ‘

सुशील कुमार ‘नवीन’

न्यूं कै दीदे पाड़कै देखण लाग रहया सै, इसा मारूंगी दोनूं आंख बोतल के ढक्कन ज्यूं लिकड़कै पड़ ज्यांगी। आया म्हारा गाम्म का …ला। किसे मामलै ने उलझाकै राखण की मेरी बाण ना सै, हाथ की हाथ सलटा दिया करूं। या हरियाणा रोडवेज की बस ना सै कै अंगोछा धरते सीट तेरी हो ज्यागी, या मेरी सीट सै। बैठना तो दूर इस कानी लखाय भी ना, तो मार-मार कै मोर बना दयूंगी। मीची आंख्या आलै, आडै कै तेरी बुआ कै ब्याह म्ह आया था। घणा डीसी ना पाकै,इसा मारूंगी सारी मरोड़ कान्ध कै चिप ज्यागी। तेरे जिसे म्हारी भैंस चराया करैं, आया बिना नाड़ का चौधरी। चाल्या जा, आज तेरा भला बख्त सै, जै मेरा संतोषी माता का बरत ना होता ना, तै तेरी सारी रड़क काढ़ देती….।

चकराइये मत। दिक्कत वाली कोई बात नहीं है। दिल और दिमाग दोनों दुरस्त हैं। सोचा आज आपको स्वाद का नया कलेवर भेंट कर दूं। रोज-रोज आम का अचार खाकर बोरियत हो ही जाती है। बीच-बीच में तीखी मिर्च के आस्वादन की बात ही कुछ और होती है। ठेठ हरियाणवी बोली और वो भी रोहतकी। तीखी मिर्च से कम थोड़े ही न है। सुनने वाले के सिर में यदि झनझनाहट ही ना हो तो फिर इसका क्या फायदा। 

  ठीक इसी तरह का स्वाद लिए सब टीवी पर एक नया सीरियल सोमवार से शुरू हुआ है ‘कांटेलाल एन्ड संस’। पूरी तरह से रोहतकी कलेवर के रंग में रंगे इस सीरियल की शुरुआत प्रभावी दिखी है। हरियाणवी को किसी सीरियल या फ़िल्म में सही रूप में बनाए रखना सरल कार्य नहीं है। और यदि इसमें रोहतक को प्रमुख केंद्र बना दिया तो गले में रस्सी बांधकर कुएं में लटकने जैसा है। ‘एक रोहतकी सौ कौतकी’ ऐसे ही थोड़े ना कहा जाता है। इनके मुख से निकला हर शब्द ‘ब्रह्मास्त्र’ होता है, वार खाली जाता ही नहीं। एक रोहतकी के शब्दों के बाणों का मुकाबला दूसरा रोहतकी ही कर सकता है और कोई नहीं। दिल्ली से रोहतक होकर गुजरने वाली बसों और ट्रेनों में बैठे यात्री रोहतक जाने के बाद ऐसा महसूस करते हैं जैसे कई महीनों की जेल से पीछा छूटा हो।

   आग्गै नै मर ले, आडै तेरी बुआ का लोग (फूफा) बैठेगा। 50 रपिये दर्जन केले तेरी मां का लोग (पिता) खरीदेगा, परे न तेरी बेबे का लोग(जीजा) 40 रपिये दर्जन देण लाग रहया सै। ओए दस रपिया की दाल म्हारे कानी भी करिए, नींबू निचोड़ दे इसमै, इननै कै घर के बाहर टांगण खातर ल्या रहया सै। ओ रे कंडेक्टर, एक टिकट सांपले तांईं की दे दे,कै कहया बाइपास जाग्गी, भीतरनै कै थारे बुड़कै भर लेंगे। तड़के आइए फेर बतावांगे। और कंडक्टर भी रोहतक का मिला तो पूरी बस का मनोरंजन फ्री हो जाता है। खिड़की कानी होले, ना तै रोहतक जाकै गेरूँगा, फेर या मरोड़ झोले म्ह लिए हांडे जाइये। बस ड्राइवर भी रोहतक का मिल जाये तो फिर क्या कहने। दो-चार डायलॉग लगे हाथ वो भी मार जाएगा। आ ज्यां सै, तड़के तड़क सुल्फा पीकै। या बस थारे  बटेऊ की ना सै,कै जड़े चाहो ब्रेक लगवा ल्यो। इब तो या रोहतक भी बाइपास जाग्गी। जो किम्मे करणा हो वा करलियो। सतबीरे, मारदे लाम्बी सीटी।

कहने की बात ये है कि हास्य का अलग ही अंदाज लिए होते हैं रोहतकी बोल। गाली भी इस तरह दे जाते हैं कि सामने वाला महसूस करके भी चुप्पी साधना भलाई समझता है। तो ‘कांटेलाल एंड संस’ हरियाणवीं रंग को कितना बरकरार रख पाएगा, ये तो समय ही बताएगा। पर सुशीला, गरिमा के साथ छोटे भाई घनश्याम की तिकड़ी की हरकतों पर ठहाके लगना पक्का है।शब्दों का सही फ्लो और डायलॉग डिलीवरी यूँ ही बनी रही तो टीआरपी शिखर छूते देर नहीं लगेगी। 

(नोट-लेख मात्र मनोरंजन के लिए है। इसे व्यक्तिगत न लेकर जनसाधारण के रूप में रसास्वादन करें)

लेखक: 

सुशील कुमार ‘नवीन’

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है।

96717-26237

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रीनू पाल की लघुकथा “सपनों का घरौंदा”

उत्तर प्रदेश के छोटे से गाँव की रहने वाली थी मन्नत। मन्नत अपने
माता-पिता की इकलौती संतान थी। शादी के लगभग 8 वर्ष बाद ईश्वर से बहुत मन्नतें मांगने के बाद पैदा हुई थी इसलिए बाबा ने उसका नाम मन्नत रखा था। मन्नत देखने में बहुत ही खूबसूरत और स्वभाव से शांत मिजाज की थी। हमेशा सबके साथ प्यार से पेश आती थी। वह अपने मां-बाबा की बहुत लाडली थी मन्नत के माँ – बाबा गरीब थे लेकिन उसे कभी किसी चीज की कमी महसूस नहीं होने देते थे। उन्होंने उसे बड़े ही नाजों से पाला था। अच्छी पढ़ाई, ऊंचे घराने में शादी उसके लिए लाखों सपने सँजो रखे थे। बचपन से ही उसकी शादी के लिए एक – एक पैसा जुटा रहे थे। धीरे- धीरे समय बीता। अब मन्नत बड़ी हो गई थी। आज उसे कुछ लोग देखने आने वाले थे। वे बहुत पैसे वाले और ऊंचे घराने के लोग थे। बाबा उनके स्वागत- सत्कार में कोई कमी नहीं छोड़ना चाहते थे। माँ रसोईघर में तरह- तरह के पकवान बना रही थी। मन्नत भी रसोई में अपनी माँ का हाथ बँटा रही थी। बाबा दरवाजे पर उनकी राह देख रहे थे। जब वे लोग आए तो बाबा उन्हें अपने साथ अंदर ले आए। बाबा ने उन्हें पौर में बैठाया और उनका खूब स्वागत – सत्कार किया। कुछ देर बाद मन्नत धीमें कदमों से सहमते और शर्माते हुए तश्तरी में मिठाई लेकर आई। मन्नत ने सभी को नमस्ते किया। बाबा के आँखों के इशारे को समझते हुए उनके बगल में पड़ी खाली चौकी पर बैठ गयी। मन्नत सबको एक नज़र में ही पसंद आ गई। रिश्ता तय हो गया। मन्नत के माँ – बाबा बहुत खुश थे। उन्होंने बचपन से मन्नत को एक सम्पन्न परिवार में ब्याहने का जो सपना देखा था। वह सच होने जा रहा था। मन्नत के माँ – बाबा बरसों से जिस दिन का इंतजार कर रहे थे। आखिर वह घड़ी आ ही गई।
आज मन्नत की शादी का दिन था। सब तैयारियों में जुटे थे। मन्नत का छोटा सा घर रिश्तेदारों से लबालब भरा था। पूरे घर में ढोलक और गानों का स्वर गूँज रहा था। कभी मेंहदी तो कभी हल्दी की रस्में हो रही थीं। दिन ढला गाजे – बाजे के साथ बारात आयी। बारातियों की खूब आवभगत की गयी। फिर जयमाला कार्यक्रम हुआ। तत्पश्चात फेरों और कन्यादान की बेला आयी। पंडित जी मंत्र उच्चारण करते हुए वैवाहिक रस्मों को संपन्न कर रहे थे। अब वर – वधू को फेरों के लिए खड़ा किया गया। जैसे ही एक फेरा पूर्ण हुआ। दूसरा फेरा लेने के लिए मन्नत ने पग बढ़ाया ही था तभी पीछे से एक शोर मन्नत के कानों में पड़ा घबराते हुए जैसे ही मन्नत ने पीछे मुड़कर देखा। उसकी आंखे फटी रह गयी। उसके बाबा की पगड़ी उसके होने वाले ससुर के पैरों में थी। और उसके बाबा घुटनों के बल बैठ, हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हुए, “शादी ना तोड़िये समधी जी की प्रार्थना कर रहे थे।” ससुर ऊँ चे स्वर में बोल रहे थे, “ जब तक दहेज़ पूरा नहीं मिलेगा तब तक ये शादी नहीं हो सकती। एक भी पैसा कम नहीं चलेगा।” बाबा का गला भरा हुआ था। वह लड़खड़ाती जुबान में कहते जा रहे थे, “मैं पाई-पाई चुका दूंगा कृपा करके आप ये शादी मत तोड़िये।” मन्नत शादी के रस्मों रिवाज़ की परवाह ना करते हुए मंडप से बाहर कदम बढ़ाते हुए पहुँची और अपने दोनों हाथों से सहारा दते हुए अपने बाबा को उठाया और पगड़ी को सर पर रखते हुए तेज स्वर में बोली, “आपको मेरे बाबा का अपमान करने का कोई अधिकार नहीं है। आप क्या तोड़ेंगे, मैं स्वयं तोड़ती हूँ ये शादी।” बाबा पहली बार शान्त और सरल स्वाभाव वाली अपनी मन्नत को किसी से ऊंचे स्वर में बात करते देख आश्चर्यचकित थे। किंतु अन्याय के विरुद्ध मन्नत को आवाज उठाते देख गर्व भी महसूस कर रहे थे। बारात वापस चली गयी सबकी आंखे नम थी। आज माँ – बाबा का हृदय बिलख -बिलख कर रो रहा था। उन्होंने बचपन से मन्नत के लिए तिनका – तिनका जोड़ कर जो सपनों का घरौंदा बनाया था। आज वह बिखर चुका था। आज एक बार फिर दहेज़ प्रथा जैसी कु प्रथा ने एक और परिवार को तोड़ के रख दिया था।
आज भी दहेज़ प्रथा जैसी कुप्रथा हमारे समाज में वट वृक्ष के समान अपनी जड़े पसारे है। मन्नत की तरह हम सबको इसके खिलाफ आवाज उठाने की आवश्यकता है वरना हम और हमारा समाज इससे कभी उबर नहीं पाएंगे। मन्नत के परिवार की तरह ना जाने कितने परिवार इसके शिकार होते रहेंगे। अतः यदि हम सब भी मिलकर साहसी मन्नत की तरह अपने आत्मसम्मान के किए इस कु प्रथा के विरुद्ध आवाज उठायेंगे तो यक़ीनन एक दिन इससे निजात पा सकेंगे।

रीनू पाल “रूह”
शिक्षिका
जनपद- फतेहपुर, उत्तर प्रदेश




videsho me hindi Saahitya

विदेशो मे हिन्दी शिक्षण

              सन 1998 के पूर्व, मातृभाषियो की संख्य की दृष्टि से विश्व मे सर्वाधिक बोली जानेवाली भाषओ के जो आँकडे मिलते है, उनमे हिन्दी को तीसरा स्थान दिया जाता था।

              1998 यूनेस्को, प्रध्नावली के आधार पर उन्हे महावीर सरन जैन द्वारा भेजी गई विस्तृत रिपोर्ट के बाद अब विश्व स्तर पर स्वीकृत की मातृभाषियो को सख्या की दृष्टि से संसार की भाषाओ मे चीनी भाषा के बाद हिन्दी का दूसरा स्थान है।

              विश्व के लगभग 100 देशो मे या तो जीवन के विविध श्रेत्रो मे हिन्दी का प्रयोग है। अथवा उव देशो हिन्दी के अध्ययन, अध्यापन की व्यवस्था है।

1) प्रत्येक देश के शिक्षण स्तर एंव हिन्दी पशिक्षण के लश्यो एवं उद्देश्यो को ध्यान मे रखकर हिन्दी शिक्षण के पाठ्यक्रम का निर्माण करना चाहिए। पाठ्यक्रम इतना व्यापक एवं स्पष्ट होना चाहिए जिससे शिक्षक एवं अध्येता का मार्गदर्शन हा सके।

2) विदेशो मे हिन्दी शिक्षण करने वाले शिक्षको के लिए शिक्षण-प्रशिक्षण एवं नवीकरण पाठ्यक्रमो का आयोजन एवं संचालन होना चाहिए।

3) देवनागरी लेखन तथा, हिन्दी वर्तनो व्यवस्था

4) वास्ताविक भाषा व्यवहार को आधार बनाकर व्यावहारिक हिन्दी संरचना – ध्वनि संरचना, तथा पदबंध संरचना और पाठो का निर्माण शिक्षार्थी के अधिगम की पृष्टि के लिए प्रत्येक बिन्दू पर विभिन्न अश्यासो की योजना।

              हिन्दी साहित्य का अध्ययन करने वाले विदेशी अध्येताओ के लिए हिन्दी साहित्य के इतिहास का निर्माण करते समय प्रत्येक काल की मुख्य धाराओ, प्रमुख्य प्रवृत्तियो, प्रसिद्द रचनाकारो का विवरण भारत के हिन्दी है।

               विदेशियो के लिए हिन्दी शिक्षण कार्यक्रम मे प्रशिक्ष्ति होने वाले अनेक प्रतिभागी पाठ्यक्रम को सफलता पूर्वक पूरा करने के बाद अपने अपने देशो मे जाकर विविध श्रेत्रो मे हिन्दी का प्रचार-प्रसार का कार्य कर रहे है। कुछ लोगो ने अपने देश मे हिन्दी विभाग की स्थापना की कुछ लोग रेडियो या दूरदर्शन के कार्यक्रमो के प्रसारण से जुडे है, कुछ लोग पत्रकारिता के श्रेत्र मे सकिया है, कुछ विदेशो विश्वविद्यालयो या विध्यालयो मे हिन्दी शिक्षण का कार्य कर रहे है। दिल्ली केन्द्र मे छात्रवृत्ति पर आने वाले प्रतिभागियो के लिए किराए के भवनो मे आवास की व्यवस्था करना कठिन होता जा रहा था और मुख्यालय आगरा मे छात्रावासो की सुविधा थी।

              जव विदेशी हिन्दी पाठ्यक्रम का प्रारंभ हुआ था, तब मात्र एक कक्षा की व्यवस्था थी। जब विभिन्न देशो से अलग अलग स्तर के छात्र आने लगे, तो पूरे कार्यक्रम को प्रमाण पत्र और डीप्लोमो के दो स्तरो मे बाँटा गया। उसी समय विदेशियो के चतुवर्षिय कार्यक्रम का आयोजन होता आ रहा है। उदाहरण के लिए माँरीशस मे डा भगवतशरण उपाध्याय जैसे लोगो को भेजा जाना इसी दृष्टिकोण का परिचायक था।

              अब इस पहलू पर विचार किया जाए कि विदेशो की विविध सरकारो की ओर से हिन्दी के प्रति कैसी खोया है, और किन संदर्भो मे हिन्दी की व्या स्थिति है। विश्व के इस बडे भूभाग से संर्पक करने के लिए उन्हे विदेशो मे हिन्दी की स्थिति, प्रचार तथा प्रसार को लेकर दो भिन्न दृष्टेयो से विचार करना होगा। देशो मे जहाँ की भारतवासियो लोगो की संख्या अच्छी खासी है और वह हिन्दी और भारतीय संस्कृति के लिए डाँ भगवतशरण उपाध्याय जैसे लोगो को भेजा जाना। इसी दृष्टिकोण का परियाचक या विभिन्न प्रमुख देशो की सरकारो ने अपने विश्वविध्यालय मे हिन्दी के अध्ययन अध्यापन की व्यवस्था और सुविधा की ओर ध्यान दिया। अपने छात्रो को छात्रवृत्तियो प्रदान कर हिन्दी प्रदान कर हिन्दी पढने के लिए भारत भी भेजा। जिसमे हिन्दी एक मात्र देश की राष्ट्रभाषा और संपर्क भाषा बनेगी।

              जिन विदेशी विश्व विध्यालयो मे हिन्दी अध्ययन अध्यापन की व्यवस्था है, उनकी आर्थिक व्यवस्था भेल ही सरकार भरेगी। यह रूप विश्व हिन्दी कहा जा सकता है। पर व्यवहार श्रेत्र मे हिन्दी की एक अपनी दुनिया है। आइए हिन्दी की इस दुनिया का विश्व हिन्दी का नही अपितु हिन्दी विश्व का रूप देखे।

              भारत मे हिन्दी बोलने वालो की सख्या निरंतर बढ रही है। भारत के किसी भी भाग जाइए मिलन की संपर्क भाषा प्रायः हिन्दी मिलेगी। सेनिक जीवन मे रेल यात्राओ मे तीर्य स्थानो मे छात्र सम्मेलन मे प्राकृतिक ऐतिहासिक दर्शनिय स्थ्लो मे बाज़ारो मे आपको इस हिन्दी विश्व को क्षमता और उपयोगीता का पता चल सकेगा। हिन्दी को व्यवहारिक जीवन मे उपयोग करने वालो की सख्य निरंतर बढ रही है।

              तीसरे वर्ग मे यूरोप अमरिका आदि वे विकसित राष्ट्र जा सकते है, जहाँ बहुत बडी सख्यो मे भारत के लोग बस भी गए है और अस्थायी रूप से जा भी रहे है। उदाहरण के तौर पर अमरिका, कनाडा मे गुजराति भाषी काफी संख्या मे बसे है। भारत के उच्च और उच्च भासी वर्गो की संपर्क भाषा अंग्रेजी है। जिनकी सख्या 3 प्रतिशत से अधिक नही है, हिन्दी जानने वाले व्यक्ति को इस फैली हुई हिन्दी की दुनिया मे अंग्रेजी न जानने पर भी कोइ कठिनाई नही होती। हिन्दी उनके लिए माहयम का काम कर रही है।

              हिन्दी मानवीय मूल्यो की भाषा के रूप मे विकसित हुई है। उसमे मानवीय संस्कृति के उदार मूल्यो और प्रेम करूण और उदारता के गीत गाने की वृत्ति रही है। जिन विरो और संतो ने जिन भक्तो और महात्माओ ने इसे पनपाया और फैलाया है, धर्म, जाती, प्रांत, ऊँच, नीच, पूंजी प्रशासन सबकी छाया से मुक्य उदात्त चेतनाओ ने हिन्दी को खडा किया। एक भाषा खडी करने के लिए नही उदात्त मानवीय मूल्यो के रूपायन के लिए, हिन्दी मे आज भी वह शक्ति आत्मा के रूप मे प्रतिष्ठित है, मानवता के कल्याण के लिए उसका प्रसार, प्रचार आज के अकेले भारत के लिए नही विश्व के अपने हित मे है।

              हिन्दी को उठाने की माँग करते समय हिन्दी विश्व भारत मे ही नही, विदेशो मे भी हिन्दी विश्व इस उत्तरदादित्व की भाषा का संयोजन है। विश्व हिन्दी की इस भावना को भारत मे भी विकसित करना होगा और विदेशो मे भी। विदेशो मे हिन्दी के प्रचार प्रसार की बात करने समय इस बात की और प्रमुख ध्यान देकर चलना होगा।

              हिन्दी भारतीय हृदय की वाणी है। यह भारत भारती है। जिसमे भारतीय आत्मा मुखरित है। इसमे हिन्दीतर अनेक भाषाओ इसमे मुखरित हो। यही हमारा द्रुढ संकल्प होना चाहिए। हमे इस सिद्दि की प्राप्ति के लिए तन, मन, धन से प्रयत्न करना चाहिए।

              मूल रूप मे विदेशो मे हिन्दी शिक्षण का एक ही प्रमुख कारण होसकता है। कहा कारण चही है कि भारतवासी अलग अलग कारणो से विदेश मे जाकर बसता है। वहाँ जाने के उपरान्त किसी हाल मे भारत से नाता तोडना नही चाहता वही एक अपनापन प्यार, स्नेह, वहा भाषा के ऊपर दिखाता है, अपनी भाषा को न भूलते हुए वहाँ जाकर धीरे धीरे भाषाओ का आदर सम्मान बढाने के लिए संघ की स्थापना करते है, वही संघो मे भाषा की जन्म, उत्पत्ति, बढना, जान प्राप्त ही एक मूल उद्देश्य बनता है, इस तरह विदेशो मे केवल हिन्दी भाषा की उन्न्ति के साथ साथ, कन्नड, तेलूगू, तमिल, सभी भाषाओ की बढाव हो रहा है।

              यही एक मूल जड है भाषाको बढावा देना संघो की माँग से विदेश की विश्वविध्यालयो मे हर एक भाषा का एक एक छोटा विभाग़ का जन्म है। भाषा विभागध्यक्ष अनिर्वाय रूप से भारतीय ही हो सकता भाषा विभागध्याक्ष का मूल उद्देश्य, भाषा का प्रसार, प्रचार के साथ, भाषा की प्रति अपनापन और प्रेम जताना है पढता है। इससे ही भाषा का वेग और उन्न्ति तथा टिकाऊ विर्भर है। अगर विदेशो मे भी हिन्दी भाषा का बढाव बहुत दीर्घ से बहुत उन्न्ति हो रहा उसका नीव हर एक भारतीय सदस्य पर निर्भर है।

              यह बात इन पर निर्भर करती है, मूल रूप से अनुवासि भारतीयो के लिए है, वे वही भसते है, अनेक के लिए यहा डर बना रहता है कि कही भी जाय मगर अपना मूल्य नही भूले अपनी पेहचान, अपनी चरित्र केवल भाषा है, भाषा से चरित्र, चरित्र से साहित्य साहित्य से पहेचान पहेचान से यश मिलता वह यश और द्रिडता को पाने के लिए, अपना नीव को मजबूत कर लेता है। पहेला शिक्षा को सीखता है सीखकर दूसरो को सीखाता है, शिक्षा मे कितने सारे मुस्किल आने दिजिए वह अपने को विदेशो मे मजबूत बनाने के लिए साधारण पाठशाला से विश्व विध्यालय तक पहुँचता है।

              शिक्षा के श्रेत्र मे होने दीजिए, संस्कृति के श्रेत्र मे होने दिजीए अपना बढाव के लिए वही से ही जुडता है, और वहाँ के सरकार से जुडकर भाषा का एक विभाग़ का निर्माण करता है। तभी सरकार यहा बातो से सहमत रहती है, भाषा के अर्शित कितने सख्या मे अनुचायी है, वह जानकारि देखकर ही सरकार सहमती बरकार करती है।

              अंत यही बात कहेना चाहते है, अमेरिका जपान, योरूप, रूस जैसे बडे बडे राष्ट्रो मे हिन्दी का विभाग जीवित है, उसेक अनुवासि भारतीयो को यह महसूस कराते की वहा कही नही है भारत देश मे ही है। अपनी भाषा संस्कृति, साहित्य का एहसास दिलाते है कि हम भारतीय है, भारतीय ही बन कर रहेंगे। साहित्यकारो का यही कहना है कि मजबूरी वह थी कि हम यहाँ आके बसे मगर हमारा रिश्ता मरते दम तक देश की उन्नती लहराती हुई झण्डा से है।