1

हम क्या थे, क्या हो गये हैं और क्या होंगे अभी

अभी कुछ ही महीनों पहले कोविड-19 महामारी के कारण उद्योग-धंधों के बंद होने की वजह से दिल्ली, मुम्बई, बेंगलुरू, सूरत, पुणे आदि महानगरों में काम करने वाले प्रवासी कामगारों की रोजी-रोटी पर प्रतिकुल असर पड़ा जिनमें अधिकांश बिहार और उत्तर प्रदेश के रहने वाले थे । फलस्वरूप, आजादी के समय देश के बंटवारे के कारण हुए बड़े पैमाने पर पलायन के बाद देश में लाखों की संख्या में लोगों के पलायन की दूसरी सबसे बड़ी त्रासदी हुई जब इन कामगारों के किसी भी तरह अपनी-अपनी जड़ों की ओर लौटने के भयावह और दर्दनाक दृश्यों और घटनाओं को न सिर्फ भारत के लोगों ने देखा और दुःखी हुए वरन् पूरी दुनिया ने भी यह सब कुछ देखा, सुना । पलायन की इस त्रासदी ने बिहार के आर्थिक और सामाजिक खोखलेपन और राज्य सरकार के वर्षों के कुशासन की पोल खोल कर रख दी । देश की आजादी के कुछ वर्षों पूर्व से लेकर उसके करीब एक दशक बाद बिहार में पैदा हुए, पले-बढ़े लोग जिन्होंने अपनी धरती के अतीत को पढ़ा है, उसके साक्ष्यों को देखा है, जो इसकी समृद्ध संस्कृति का कभी हिस्सा रह चुके हैं, जिनकी सांसों में अब भी उसी मिट्टी की खुशबू बरकरार है जो अकसर उन्हें वहां खींच ले जाती है लेकिन जो अब भारत के दूसरे महानगरों में या विदेशों में प्रवासी हो गए हैं, उन्हें अपने प्रदेश की वर्तमान दुर्दशा देखकर दुःख और अवसाद होता है । प्रवासी बिहारियों की दूसरी, तीसरी पीढ़ी यानि जिनका जन्म, पालन-पोषण और कार्यक्षेत्र बिहार से बाहर हुआ, जो अपने प्रवास के प्रदेश या देश के इतिहास और संस्कृति से ज्यादा रू-ब-रू हैं और जिन्हें अपने मूल प्रदेश के गौरवशाली इतिहास के बारे में उतनी जानकारी नहीं है, जिन्होंने अपनी मूल संस्कृति को करीब से देखा नहीं, महसूस नहीं किया, उनके सामने पलायन की यह त्रासदी प्रश्न पैदा करती है कि क्या उनके पिता, दादा या पूर्वजों की भूमि ऐसी ही थी और है जहाँ इतनी गरीबी है, आर्थिक विपन्नता है, सामाजिक कुरीतियां हैं, राजनीतिक भ्रष्टाचार है, कुशासन है, जो भारत के सबसे पिछड़े राज्यों में एक है, जहां से लाखों लोग रोजी-रोटी की तलाश में दूर प्रदेशों में जाने को विवश  हैं ? क्या बिहार हमेशा ऐसा ही रहा है ?

          हैदराबाद में लगभग पांच दशकों से रह रहीं पहली पीढ़ी की प्रवासी बिहारी एवं हिन्दी तथा मैथिली की देश की जानी-मानी साहित्यकार डा. अहिल्या मिश्र की भी वही टीस है, उनके सामने भी वही सारे प्रश्न उठ खड़े होते हैं – जब हम हरेक क्षेत्र में इतने समृद्ध हुआ करते थे तो वर्त्तमान में दशा इतनी क्यों बदल गई ? हमारे अन्दर ऐसी कौन-सी कमजोरी आ गई जिससे हम अपने अतीत को चाह कर भी नहीं दुहरा पा रहे हैं ? क्या वर्त्तमान बिहार सामाजिक, आर्थिक एवं बौद्धिक विकास की चुनौती स्वीकार करने को तैयार नहीं है ? बिहार के लोगअपने प्रदेश से बाहर जाकर अपने कार्य में पहले स्थान को प्राप्त करने की कोशिश करते हैं और सफल भी होते हैं तो अपने राज्य में क्यों नहीं ? अहिल्या जी ही नहीं वरन् हरेक बिहारवासियों को यह यक्ष प्रश्न हमेशा कुरेदता रहता है कि बिहार के ही लाखों लोग दूसरे प्रदेशों में मजदूरी करने क्यों जाते हैं, गुजरात, महाराष्ट्र या पंजाब के लोग बिहार में मजदूरी करने क्यों नहीं आते ? बिहार के शिक्षित युवा देश और दुनिया में उत्कृष्ट कार्य कर रहे हैं तो क्या वे अपने प्रदेश में अवसर मिलने पर नहीं कर सकते ?

            डा. अहिल्या मिश्र के मन-प्राण में बिहार की मिट्टी की सोंधी खुशबू बसी हुई है । वे बिहारवासियों की क्षमताओं से भी वाकिफ हैं । इसलिए क्षमताओं से भरपूर होने के बावजूद बिहार की वर्तमान दशा-दिशा से उनका व्यथित होना स्वाभाविक है । इसी पृष्ठभूमि में डा. अहिल्या मिश्र के द्वारा सद्यः प्रकाशित पुस्तक बिहार : साहित्यिक – सांस्कृतिक विरासत (गीता प्रकाशन, हैदरबाद) एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है जिसके शोधपूर्ण निबंधों / उद्घाटित तथ्यों का उद्देश्य है अपनी मिट्टी की सुगंध को फैलाना तथा पाठकों एवं अपने प्रदेश से दूर सभी प्रवासी बिहारवासियों को गौरवयुक्त शांति दिलाना ।  नई पीढ़ी जो बिहार से बाहर पल, बढ़ रही है उन्हें भी बिहारी होने का भान हो । उनकी पीढ़ी की तरह भावी पीढ़ी के लिए बिहारी होना एक प्रेरणा स्रोत बने और प्रदेश के अतीत के गौरव से हम गौरवान्वित रहें ।

               मैथिलीशरण गुप्त की ये पंक्तियां बिहार के लिए काफी समीचीन लगती हैं कि उन्नत रहा होगा कभी जो हो रहा अवनत अभी / जो हो रहा अवनत अभी, उन्नत रहा होगा कभी (भारत भारती) । इतिहास साक्षी है कि बिहार का न केवल भारत में बल्कि विश्व के पटल पर एक गौरवशाली अतीत रहा है । बिहार की अपनी समृद्ध संस्कृति और विरासत है ।  यहाँ के लोगों का हजारों साल पूर्व से लेकर आधुनिक भारत के विभिन्न क्षेत्रों में विशिष्ट योगदान रहा    है । इस विस्तृत विरासत को डा. अहिल्या मिश्र ने अपनी कृति                बिहार : साहित्यिक – सांस्कृतिक विरासत को चार खंडों में विभाजित किया है, यथा (1) बिहार : सभ्यता एवं संस्कृति का दर्पण, (2) बिहार : वाह्य एवं आंतरिक समीकरण का आकाश, (3) बिहार कुछ विशेष व्यक्तित्व, उनकी प्रेरणा एवं उनके कृतित्व पर दृष्टिपात एवं (4) आधुनिक हिन्दी साहित्य तथा पत्रकारिता के विकास में बिहार के साहित्यकारों व पत्रकारों का योगदान । इन चार खंडों में छठी शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर आधुनिक समय तक  दो हजार छः सौ वर्षों के वृहत काल में विश्व एवं राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति, धर्म, साहित्य, शिक्षा, विज्ञान, कला, संगीत व पत्रकारिता के क्षेत्रों में बिहारवासियों के महत्वपूर्ण योगदान के झरोखे से बिहार की समृद्ध व गौरवशाली विरासत का दिग्दर्शन कराया गया है । साथ ही, बिहार की उन सदियों पुराने रीति-रिवाज, खान-पान, संस्कारों को भी उजागर किया गया है जो आज भी न केवल बिहार में प्रचलित हैं वरन् विभिन्न प्रदेशों एवं देशों में रह रहे प्रवासी बिहारियों के बीच भी जीवित हैं । वास्तव में, किसी भी क्षेत्र का इतने विस्तृत कालखंड के विभिन्न आयामों की एक जगह मात्र ढाई सौ पृष्ठों में शोधपूर्ण प्रस्तुति एक महती कार्य है जिसे डा. अहिल्या मिश्र ने बखूबी निभाया है ।

               विदेह कुमारी और भगवान श्री राम की पत्नी देवी सीता के जन्म और याज्ञवल्क्य, विश्वामित्र, वाल्मिकी आदि महर्षियों से पवित्र बिहार की धरती पर ही भारत ही नहीं वरन् संभवतः विश्व का पहला गणराज्य ‘वज्जि संघ’ छठी शताब्दी ईसा पूर्व में वैशाली में स्थापित हुआ जिसमें तत्कालीन विदेह, मगध और अंग राज्य सम्मिलित थे । चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में मौर्य वंश की स्थापना भी बिहार के राजगृह (वर्तमान राजगीर और पटना) में हुई जिसने इस देश को चंद्रगुप्त मौर्य और अशोक जैसे दो महान सम्राट दिए । प्राचीन भारतीय इतिहास के जिस काल को स्वर्णकाल माना जाता है वह गुप्तकाल भी बिहार की धरती पर ही आया जिस वंश के समुद्रगुप्त समेत कई अन्य सम्राटों ने पाटलिपुत्र को अपनी राजधानी बनाया (चंद्रगुप्त द्वितीय और उनके बाद इस वंश के शासकों की राजधानी उज्जैनी हो गई) । आधुनिक काल में भी अंग्रेजों के खिलाफ सन् 1857 में भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में बिहार के बाबू कुँवर सिंह के योगदान को भला कौन भुला सकता है जिन्होंने अस्सी वर्ष की आयु में अंग्रेजों के विरूद्ध तलवार उठा लिया था । स्वतंत्रता संग्राम के परवर्त्ती एवं निर्णायक चरण के महानायक महात्मा गांधी द्वारा नीलहे किसानों की समस्या को लेकर अंग्रेजों के विरूद्ध आन्दोलन की शुरूआत भी बिहार के चम्पारण से ही हुई जो विश्व में सत्य व अहिंसा के बल पर आजादी हासिल करने की पहली प्रयोगशाला बनी । देश की आजादी की लड़ाई में बिहार के डा. राजेन्द्र प्रसाद (जो स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने), जयप्रकाश नारायण, खुदीराम बोस, राम बाबू आदि का योगदान सदैव याद   किया जाएगा । स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सत्ता के शीर्ष पर बढ़ते अधिनायकवाद के विरूद्ध संपूर्ण क्रान्ति का देशव्यापी बिगुल भी बिहार की ही धरती से जयप्रकाश नारायण ने फूंका ।

               कपिलवस्तु के राजकुमार सिद्धार्थ गौतम को वर्तमान बिहार के बोधगया में ही ज्ञान (बुद्धत्व) प्राप्त हुआ और यहाँ से गौतम बुद्ध बनकर उन्होंने बौद्ध धर्म का प्रवर्तन किया जो आज विश्व के कई देशों का एक प्रमुख धर्म है । आधुनिक जैन धर्म के प्रतिष्ठापक वर्धमान महावीर का जन्म और निर्वाण भी बिहार में ही हुआ । सिख धर्म के दसवें और अंतिम गुरू गोविन्द सिंह का जन्म भी पटना के निकट वर्तमान पटना साहेब में हुआ । पटना के ही निकट मनेर के हजरत मखदूम शाह याहिया ने सूफी परम्परा का प्रचार-प्रसार किया ।

               शताब्दियों पूर्व ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में जब भारत पूरे विश्व की अगुवाई कर रहा था तब इसके दो अग्रणी केन्द्र – नालन्दा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय बिहार में ही थे । मौर्य वंश की स्थापना के सूत्रधार और चंद्रगुप्त मौर्य के प्रधान मंत्री विष्णुगुप्त चाणक्य की कर्मस्थली बिहार का मगध क्षेत्र ही रही और यहीं चाणक्य (जिन्हें कौटिल्य भी कहा गया) ने अपनी विश्व प्रसिद्ध कृति ‘अर्थशास्त्र’ का प्रणयन किया । गणित में शून्य का आविष्कार और दशमलव पद्धति प्रतिपादित करने वाले महान गणितज्ञ एवं खगोलविद आर्यभट्ट बिहार के ही थे । वैद्य सुश्रुत और शल्य चिकित्सक चरक भी बिहार की ही धरती पर ही जन्मे ।

               बिहार के साहित्यकारों का शताब्दियों से संस्कृत, हिन्दी व मैथिली साहित्य के क्षेत्र में भी अमूल्य योगदान रहा है । प्राचीन समय में जहां याज्ञवल्क्य, वाल्मीकि, मंडन मिश्र, गार्गी आदि ने संस्कृत साहित्य को समृद्ध किया, मध्य काल में संस्कृत में बाणभट्ट, पंडित वाचस्पति मिश्र और मैथिली साहित्य में महाकवि विद्यापति एवं पंडित भवनाथ झा आदि ने योगदान दिया तो आधुनिक काल में हिन्दी व संस्कृत में आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री तथा हिन्दी साहित्य में रामधारी सिंह ‘दिनकर’, नागार्जुन, शिवपूजन सहाय, राजा राधिका रमण सिंह, गोपाल सिंह नेपाली, रामवृक्ष बेनीपुरी, फणीश्वर नाथ ‘रेणु’, केदार नाथ मिश्र ‘प्रभात’, डा. लक्ष्मी नारायण सुधांशु, आचार्य नलिन विलोचन शर्मा आदि अनेक साहित्यकारों का राष्ट्रीय स्तर पर अमूल्य योगदान रहा है । वर्त्तमान में हिन्दी और मैथिली साहित्य के क्षेत्र में राष्ट्रीय स्तर के साहित्यकार उषा किरण खान, अरूण कमल, अनामिका, मृदुला सिन्हा आदि बिहार की ही धरती से उपजे हैं । पत्रकारिता के क्षेत्र में भी बिहार उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से लेकर वर्त्तमान में ढेरों पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन के द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर अपनी अहम भूमिका निभा रहा है । इनमें बिहार बंधु, हिमालय, कर्मवीर, योगी आदि पत्रिकाओं ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान आजादी का अलख जगाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया ।

               मधुबनी की चित्रकारी जहाँ विश्व में बिहार का प्रतिनिधित्व करती है वहीं डुमरांव के बिसमिल्ला खां (बाद में वे वाराणसी चले गए) की शहनाई एवं बिहार कोकिला शारदा सिन्हा के लोकगीतों की गूंज देश- विदेश में सुनाई देती  है । बिहार के भिखारी ठाकुर का लोक गीतकार व नाटककार के रूप में अपनी एक विशिष्ट पहचान है । 

               महाभारत काल से चला आ रहा सूर्य की आराधना का महापर्व छठ बिहार का ब्रान्ड अम्बेसडर बनकर न केवल भारत में वरन् विश्व के कई हिस्सों में जहाँ प्रवासी बिहारी हैं, प्रदेश की सांस्कृतिक पताका फहरा रहा है । बिहार का विशिष्ट खान-पान लिट्टी-चोखा एवं चूड़ा (चिड़वा)-दही अब पूरे देश में आम हो गया है ।

            वास्तव में, डा. अहिल्या मिश्र ने अपनी इस पुस्तक में ढाई हजार वर्षों से ज्यादा लम्बे काल के विशाल कैनवास पर बिहार के विविध आयामों के जो चित्र उकेरे हैं, वह निश्चित ही बिहारवासियों को गौरवान्वित करने वाला  है । अहिल्या जी चाहती हैं कि आज के बिहार की जो विसंगतियां उसकी छवि को धुमिल कर रही हैं, उनका निराकरण हो और उनकी मिट्टी का गौरव पुनः लौटे । उनकी यह आकांक्षा सम्पूर्ण बिहारवासियों की आवाज बनकर उभरती है । इसके लिए वे बिहारवासियों और प्रवासी बिहारियों का आह्वान करती हैं कि इस गौरवशाली अतीत पर वर्तमान का महल बनाएं एवं भविष्य का खूँटा गाड़ें । सच में, इस आह्वान का जमीनी क्रियान्वयन आज के बिहार के धुमिल चित्र को साफ कर उसे अतीत की तरह चमकदार और गौरवशाली बना सकता है । बस जरूरत है यह विचारने की कि हम क्या थे, क्या हो गये हैं और क्या होंगे अभी / आओ, विचारें आज मिलकर ये समस्याएं सभी (भारत-भारती, मैथिलीशरण गुप्त)




अबकै ही तो आई खुशियों वाली दिवाली

सुशील कुमार ‘नवीन’

गांव के पूर्व मुखिया बसेशर लाल और उनकी पत्नी राधा के कदम जमीन पर नहीं पड़ रहे। शहर जा बसे दोनों बेटे अपने परिवार के साथ गांव में आ रहे हैं। वो भो एक-दो दिन के लिए नहीं। जब तक लोकडाउन और कोरोना महामारी से राहत नहीं मिलेगी, वो यहीं रहेंगे। छोटे बेटे रमन ने जब से फोन कर यह सूचना दी है। दोनों की खुशी का कोई ठिकाना नहीं है। 

तीन दिन से घर की साफ सफाई चल रही है। खुद बसेशर लाल पास खड़े होकर अपने पुराने हवेलीनुमा मकान की लिपाई-पुताई करवाने में जुटे हैं तो राधा पड़ोस की श्यामा के साथ मिठाई और नमकीन बनवाने में जुटी है। तिकोनी मठ्ठी, मटर,सूखी मसालेदार कचोरी बनाई जा चुकी है। श्यामा साथ के मकान की पुत्रवधु है। वह राधा को बोली कि इतनी नमकीन का क्या करेंगे। राधा का जवाब था- अरे बहु-बेटे बच्चों के साथ आ रहे है। कोई कमी नही रहनी चाहिए। 

श्यामा बोली-अम्मा, आते तो वो हमेशा ही है। एक-दो दिन में वापस चले जाएंगे। उसके लिए इतना सामान क्यों बनवा रही हो। वो साथ भी नहीं ले जाएंगे। बांटोगी भी कितना। बाद में इन्हें गायों को खिलाना पड़ेगा। हर बार यही तो होता है। श्यामा की बात गलत भी नहीं थी पर ममता अपनी जगह थी। जीत तो उसी की होनी थी। उधर, बसेशर लाल अपने हिसाब से काम में लगे थे। बढ़ई को बुला तीन पुराने पलंगों और दोनों तख्तों को ठीक करवाया जा चुका था। राधा के पुराने सन्दूक से निकली गई नई बेडशीटों ने उन्हें ढक बैठक को अलग ही रूप दे दिया था। 

   आज वो दिन आ ही गया। राधा ने सुबह श्यामा की बेटी सुनहरी और उसकी एक सहेली विद्या के सहयोग से घर के बाहर बड़ी सी रंगोली बनवा दी। कोई उसके ऊपर से गुजर इसे खराब न कर दे। इसके लिए घर के गेट पर लाठी लेकर खुद बैठी हुई है। आज तो दोपहर का भोजन भी वही किया। शाम 7 बजे तक उनके पहुंचने की उम्मीद थी। अन्धेरा होते ही राधा ने मुंडेर दीयों से रोशन कर दी।सारा घर दिवाली ज्यों जगमग कर रहा था। साढ़े 7 बजे एक बड़ी गाड़ी घर के आगे आकर रुकी। आवाज सुनते ही राधा पूजा की थाली लेकर गेट पर पुहंच गई। पहले सबके तिलक किया फिर आरती उतारी। बहु-बेटों ने पैर छू आशीर्वाद लिया और घर में प्रवेश किया। राधा दोनों पोतों के साथ बातों में मग्न हो गई।

बड़ा बेटा वीरेन और छोटा रमन हैरान थे कि आज न तो दिवाली है न कोई और त्योहार। फिर घर आज इस तरह रोशन क्यों है। दोनों बहुएं रीना और माधवी भी इस प्रश्न का जवाब जानना चाहती थी पर बाबूजी से पूछने की हिम्मत किसी की नहीं हो रही थी। रमन के बेटे राहुल के पूछे गए सवाल ने सबके कान खड़े कर दिए। वह बोला-दादा, आज दिवाली है क्या। दादा हंसे। पहले राधा की तरफ देखा फिर बेटे बहुओं की तरफ। सब एकटक उनके जवाब की बाट जोह रहे थे।

 बसेशर लाल को अपने पोते से इस तरह के प्रश्न की उम्मीद नहीं थी पर अब जवाब तो देना ही था। बोले-हां, बेटा आज दिवाली ही है। तभी तो घर दीयों से जगमगा रहा है। अब दूसरे पोते राघव ने सवाल दाग दिया। बोला-दादा जी, दिवाली है तो पटाखे क्यों नहीं बज रहे। इस बार चुप बैठी राधा ने जवाब दिया। बोलीं-तुम दोनों जब से आये हो तब से अपनी प्यारी बोली से पटाखे ही तो बजा रहे है। खुशियों की फुलझड़ियां छूट रही है। खिलखिलाहट के अनार फूट रहे हैं। सब साथ तभी दिवाली। सब नहीं तो कैसी दिवाली। राधा के ये कहते ही सब समझ गए कि असली दिवाली तो आज ही है। बहुएं बोलीं-अम्मा अबके ये दिवाली तो लंबी चलेगी। रात को सोते समय बसेशर लाल राधा से बोले-होगी किसी के लिए ये महामारी। हमारे लिए तो ये वरदान बनकर आई है। किसी को फुर्सत ही नहीं थी। भगवान भी न अपनों को जोड़ने का कोई न कोई बहाना बना ही देते हैं। राधा बोली-अब सो जाओ, कल से तुम्हारी वही खुशियों वाली सुबह शुरू होने वाली है।

लेखक: 

सुशील कुमार ‘नवीन’

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है।

96717-26237