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द ग्रेट पॉलीटिकल ड्रामे का सुपर परफॉर्मर है ‘अर्नब ‘

सुशील कुमार ‘नवीन’

आप सोच रहे होंगे कि आज सूरज कौन सी दिशा में जा रहा है। गलत दिशा तो नहीं पकड़ ली है। घबराइए मत। सूरज भी अपनी सही दिशा में है और हम भी। आप भी न रामलाल जी की तरह है छोटी-छोटी बातों पर गम्भीर हो जाते हो । रामलाल जी कौन है? अरे भाई। वो भी हमारे एक मित्र हैं आप लोगों की तरह। देश-दुनिया के प्रति सुबह से लेकर शाम तक फिक्रमंद रहते हैं।

खैर इस बारे में फिर बात करेंगे। आप तो आज की सुनो। बाजार की तरफ से आते हुए उनसे मुलाकात हो गई। दो दिन से अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी का मुद्दा लगातार चर्चा में है। वो कुछ बोलते इससे पहले आज हमने ही शब्दों के बाण छोड़ दिए। बोले-भाई साहब, ये अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी का क्या मामला है। कानूनी कार्रवाई कम ड्रामा ज्यादा दिख रही है। दो दिन से मामले को सही या गलत प्रमाणित करने में बुद्धि चकरा रही है। आप ही इस बारे में कुछ बताएं। हमारे कथन को उन्होंने भी बड़ी गम्भीरता से लिया।

बोले- ड्रामे देखने में तो आपकी भी पूरी रुचि है। यूं समझिए ये भी एक ड्रामा ही है। हम बोले-एक पत्रकार की गिरफ्तारी का ड्रामे से क्या मेल? समझ नहीं आया। थोड़ा विस्तार से समझाओ।बोले-अपने यहां यथार्थ की जगह अवसरवादी नाटक की प्रमुख श्रेणी हैं। इन दिनों वही नाटक खेला जा रहा है। जब से मुम्बई आया है मंगलाचरण में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रखी। मंगलाचरण में ही ये इतना समय ले लेता है कि नाटक के अन्य अंगों को उभरना तो दूर कुछ कहने तक का मौका ही नहीं मिलता। प्रधान नट के रूप में लगातार अपनी स्वयंप्रभा की प्रशंसा तब तक जारी रखता जब तक अगले के सिर में दर्द न हो। नाटक के बीच में नट, नटी सूत्रधार इत्यादि के परस्पर वार्तालाप का अवसर नाममात्र का ही छोड़ता है। कई बार तो नाटक का प्रस्ताव, वंश-वर्णन आदि विषय शून्य में विलीन होकर रह जाते हैं।

   उनका बोलना लगातार जारी था। एक जिम्मेदार श्रोता के रूप में हम भी रसास्वादन में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे। बोले-महोदय प्रासंगिक ‘इतिवृत्त’  के माहिर हैं। सो इतिवृत्त के प्रधान नायक की जिम्मेदारी भी इन्हीं के कंधे पर रहती है। अवस्थानुरुप अनुकरण या स्वांग ‘अभिनय’ है। इसमें वे आंगिक, वाचिक, आहार्य और सात्विक रूप का ये भरपूर इस्तेमाल करते है। नाटक में बीज, बिंदु, पताका, प्रकरी और कार्य इन पांचों के द्वारा प्रयोजन सिद्धि इनके नाटक से पूरी हो ही जाती है।

मैंने कहा-ये तो ठीक है पर अब आगे क्या होगा। बड़े-बड़े नेता, मंत्री भी उसके समर्थन में बोल रहे हैं। बोले-लिखवा लो, छोरा पक्का राज्यसभा में जाएगा। मैंने कहा-राजनेता वाला कोई गुण तो उसमें है ही नहीं। बोले-गुणों से तो भरा पड़ा है। पक्का मुंहफट है। इसके सामने कोई दूसरा बोलकर तो देखे। इसकी तो आवाज ही सदन में गूंजने के लिए बनी है। मैंने कहा-कोई पार्टी इसे अपने साथ कैसे लेगी। ये तो नेताओं की बहुत बेइज्जती करता है। बोले-नेता बन जाएगा, तब सब छोड़ देगा। देखा नहीं, राजनीति का चोला धारण करते ही सब रंग बदल जाते हैं। ये भी बदल लेगा। मैंने कहा-तो फिर ये समर्थन और विरोध का क्या चक्कर है। बोले-समर्थन करने वाले इसे अपनी टोली में शामिल करना चाहते हैं। विरोध वालों की मंशा है कि ये चुप्पी साध ले। 

  मैंने कहा-जरूरी तो नहीं कि वो राजनीति में आए। वो बोले- चोट खाया शेर है। ये क्या करेगा, सिर्फ यही जानता है। हालातों को देखते हुए इसकी सम्भावना ज्यादा ही है। कुछ भी हो सकता है। पर ये पक्का तय है कि द ग्रेट पॉलीटिकल ड्रामे का सुपर परफॉर्मर यही बनेगा। यह कहकर वो तो निकल गए। मेरे साथ आप भी सोचिए कि आगे क्या होगा। ये तो अभी भविष्य के गर्भ में है पर रामलाल जी की बात भी दरकिनार करने वाली नहीं है।

(नोट:लेख मात्र मनोरंजन के लिए है। इसका वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं है)

लेखक:

सुशील कुमार ‘नवीन’

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है।

96717-26237

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अनवर हुसैन की कविताएं

आजादी के दीवाने जो

आजादी के दीवानों जो
सर पर बांधे कफ़न निकले थे
लहू में मिला के अपने जो
आजादी वतन निकले थे
सरफरोशी की थी जिनकी तमन्ना
दिलों में आज भी जिंदा है
सच बताओ पाके आजादी
हम आज भी क्यूं शर्मिंदा है।

इंकलाब का दे के नारा
इंकलाब जो लाए थे
जिन के बनाए बमों से
दुश्मन भी घबराएं थे
आजादी के दीवानों की
यादें आज भी जिंदा है
सच बताओ पाके आजादी
हम आज भी क्यूं शर्मिंदा है।

भारत मां की अस्मिता जिनको,
जान से अपनी प्यारी थी
हंस के कफ़न पहनने की यारों
जिन के लहू में खुमारी थी
माटी के फरजंदो का,इंकलाब
आज भी यारों जिंदा है ।
सच बताओ पाके आजादी
हम आज भी क्यूं शर्मिंदा है।

पहने झोला वो बसंती
देते कौमी तराना बढ़ गए
हाथों में लिए तिरंगा
सूली पे हंसते चढ़ गए
राष्ट्र प्रेम की जली चिंगारी
दिलों में आज भी जिंदा है
सच बताओ पाके आजादी
हम आज भी क्यूं शर्मिंदा है।

अमर हुए मतवाले, दीवाने
पाके शहादत वतनपरस्ती में
नाम सुनहरा कर लिया
सब , दीवानों की बस्ती में
हर दिल में उन दीवानों की
जोत आज भी जिंदा है।
सच बताओ पाके आजादी,
हम आज भी क्यूं शर्मिंदा है।

  • संपर्क : सरवाड़, अजमेर, मो -8432286233



मनोरंजन तिवारी की कहानी – ‘दिवाली का उपहार’

दिवाली की तैयारियाँ चल रही है, साहब के घर पर काम बहुत बढ़ गया है। रोज रात में देर से आने के बाद “हरी” अपने पत्नी से कहता है। “अपने घर में भी दिवाली की तैयारी करनी है” उसकी पत्नी कहती, “इतने दिनों से सोच रहे हैं, घर में कोई ढंग का बर्तन नहीं है, इस धनतेरस पर बर्तन खरीदना है, तुम साहब से बोलो ना एडवांस में पैसे के लिए, वे माना नहीं करेंगे”।पर हरी उसकी हर बात को टाल जाता है।  कहता है, “वे खुद ही देंगे, महिना भी तो लग गया है, इस दिवाली पर मासिक वेतन के साथ बोनस भी देंगे तो हम बर्तन खरीद लेंगे”।

जैसे-जैसे दिवाली नजदीक आती गई, साहब के घर पर आने-जाने वालों का दिन भर ताँता लगा ही रहता है, साहब के ऑफिस का नौकर घर चला गया है, इसलिए अपने सारे काम करने के साथ-साथ लोगों को चाय-पानी और मिठाई खिलाते रात हो जाती है। इधर हरी की पत्नी ने हर साल की तरह इस बार भी धनतेरस के दिन मिट्टी के कुछ दिए और एक झाड़ू खरीद लिया।

दिवाली के दिन सबकी छुट्टी थी मगर साहब ने कहा ” हरी तुम कल सुबह आ जाना, तुम्हारी दिवाली भी तो देनी है” हरी मन ही मन बहुत प्रसन्न हुआ, घर जाकर अपने पत्नी को बोला, कल साहब ने सिर्फ मुझे बुलाया है अपने घर पर, कुछ खास दिवाली के उपहार देंगे मुझे, आदमी की परख है उन्हें, साहब इसीलिए सबसे ज्यादा मुझे मानते है।अगले दिन तड़के ही उठ कर हरी साहब के घर पर चला गया।  इधर उसके बच्चे पटाखे और मिठाई के लिए अपनी माँ को परेशान कर रहे थे। वह बच्चों को समझाती कि थोड़ी देर में ही उनके पापा आ जाएँगे तो चल कर ढेर सारी मिठाई और पटाखे खरीदेंगे।

बच्चे दिन भर अपने पिता की राह देखते रहे, इधर-उधर भटकते रहे। जब सायं ढलने लगी तब तो हरी की घरवाली भी चिंतित हो उठी, घर में पूजा का सारा काम पड़ा था, मगर उसका ध्यान सिर्फ अपने पति के राह देखने में ही लगा रहा। उधर साहब के घर पर आज रोज से भी ज्यादा लोगों का आना-जाना लगा रहा, लोग कीमती डब्बों में मिठाई और ड्राई फ्रूट उपहार में ला रहे थे। हरी उन पैकटों को समेट कर साहब के बैठके से साहब के घर में पहुंचाता रहा। मेहमानों को चाय-पानी पिलाता रहा।  मिठाई खिलाता रहा और सोचता रहा कि मासिक वेतन के साथ इसी में से कोई पैकेट साहब उसको उपहार दे दें तो कितना अच्छा हो।  ड्राई फ्रूट के पैकेट पर चढ़ी पन्नियों से सब दिखता था।  इसमें से कई ऐसे मेवें थे, जो हरी ने कभी नहीं खाए थे। लोग बैठक में बैठ कर किस्म-किस्म के बातें करने लगते।  कोई पाकिस्तान के दुनिया में अलग-थलग पड़ने की बात करता तो कोई देश की राजनीती पर बात करता।

समय बहुत तेज़ी से बीतता जा रहा था और इसके साथ ही हरी मन ही मन झुंझलाते जा रहा था। वह सोच रहा था कि ये लोग ये कैसी-कैसी बात लेकर समय बिताते जा रहे हैं। पर्व-त्यौहार का दिन है। सब जल्दी वापस जाएं ताकी साहब भी जल्दी फुरसत पाकर उसको दिवाली देकर विदा करें। पर ऐसा हुआ नहीं। शाम चार-पाँच बजे तक हरी के चेहरे का सारा उत्साह और ख़ुशी निचोड़ी जा चुकी थी। साहब उठते हुए बोले ” मैं तो बहुत थक गया हरी, तू बैठ थोड़ी देर, कोई आये तो चाय-पानी देना।  मैं एक बार नहा कर आता हूँ”।

साहब को अंदर गए करीब दो घंटे हो चुके थे।  इस बीच ,पता नहीं भूख से या किस बात से, हरी के आँखों से आँसुओं के बाँध कई बार टुट चुका था। अँधेरा हो गया था, हरी अभी भी कातर आँखों से साहब के घर के गेट को देख रहा था। आखिर जब पूजा का समय हो गया तो साहब अपने दोनों बेटों के साथ बाहर निकले। साहब के बेटों के हाथों में बड़े-बड़े पटाखों के पैकेट थे। साहब उन्हें सावधानी से पटाखे जलाने की हिदायत दे रहे थे। फिर हरी के पास आकर ऐसे बोले जैसे कुछ हुआ ही नहीं है, “अरे हरी,कोई आया तो नहीं था? मैं तो नहा कर सो गया था। नींद  आ गई थी।

हरी को कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या कहे? वह मन ही मन सोच रहा था कि अभी भी भीख माँगने पर ही साहब उसे उपहार देंगे क्या? उसके हलक के अंदर एक घुटी-घुटी सी चीख़ निकल कर होठों तक आती, फिर वापस चली जाती। किसी तरह खुद को संयत करते हुए, उसने कहा ” साहब मेरा वेतन दे देते तो… बच्चे मेरी राह देख रहे होंगे। साहब ने घर के भीतर से लाकर उसका वेतन और एक मिठाई का पैकेट पकड़ा दिया। वेतन में से तीन हजार रूपया काट लिए थे, जो हरी ने महीने के शुरू में ही एडवांस लिया था, पत्नी के दवाई के लिए।