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आओ मेघा

आओ मेघा

 डॉ. पोपट भावराव बिरारी

(सहायक प्राध्यापक)

कर्मवीर शांतारामबापू कोंडाजी वावरे कला,

विज्ञान व वाणिज्य महाविद्यालय सिडको, नासिक

मो. नं. – 9850391121

ईमेल  – [email protected]

आओ मेघा

आओ मेघा, आओ मेघा

आ बरसो इस धरा पर

पेड़-पौधे, पंछी, प्राणी

ढूँढ रहे हैं राह पर ||

        कर दो मेघा यहाँ हरियाली

        बिछा दो गंध महकानेवाली

        खिला दो पेड़-पौधों को तुम

        दे दो उन्हें नई जिंदगानी ||

बहा दो अपनी स्वर्ण जलधारा

सजा दो इस संसार को

कोयल की कुक, मेढ़क की टर-टर

सुनने आओ इस धरा पर ||

       जल रही धरा विरहाग्नि में

       शांत करों तपन मिलन कृपा से

       जीवों के दाता, धरा के प्रियतम

       भक्षक न तुम रक्षक बन जाओ ||

नाँचती बिजलियों की वह कड़कड़ाहट

गरजते बादलों की वह गड़गड़ाहट

अपूर्व तेरी लीला देखने

विकल यह जीर्ण कलेवर ||

        याचक हम पतित हैं भारी

        दाता हो आप अनमोल श्रेष्ठ अवतारी

        कृपा तुमरी हम पर करदो, यहु तन हमरा

        अनमोल पावन जल-बूँदों धुलवादो ||

बन जाओ नदी-नालों की प्यासा

हरलो अकाल की तुम भाषा

महका दो तुम उन पुष्पों को

जो हैं सदा तुम पर न्योछावर ||

        खेत बोए बीजों को लहरादो

        अनाज राशी खलिहानों सजवादो

        भूलेंगे न उपकार तुमरा यह

        बस बन जाओ वरदानी वह || 




महाराष्ट्रीय लोककला : तमाशा और लावनी

महाराष्ट्रीय लोककला : तमाशा और लावनी

                                     बिरारी पोपट भावराव

(सहायक प्राध्यापक )

                                          के.एस.के.डब्ल्यू. कला, विज्ञान व

                                          वाणिज्य महाविद्यालय सिडको, नाशिक

मोबाईल-9850391121

ईमेल – [email protected]

प्रस्तावना 

        तमाशा महाराष्ट्र के लोकनाट्य का एक प्रसिद्ध प्रकार है| तमाशा का अर्थ है “वह दृश्य अथवा कार्य जिसके देखने से मनोरंजन हो|”1 तमाशा में कई कलाकार होते है| उसमें तमाशगीर होता है; साथ ही उसमें सात-आठ या उससे भी अधिक तमाशगीरों का एक समूह रहता है| ऐसे समूह को महाराष्ट्र में ‘फड’ कहा जाता है| उसके प्रमुख को सरदार या नाईक नाम से जाना जाता है| यह नाईक अर्थात तमाशा के नाट्य दर्शन का नायक ही होता है| इसके अलावा नृत्य कुशल स्त्री वेशभूषा धारण करनेवाला ‘नर्तक’ (नाच्या), विचित्र वेशभूषा करके हास्य-विनोद करनेवाला विदूषक (सोंगाड्या), ढोलकी, तुनतुनी बजानेवाले साथीदार और पीछे खड़े होकर ‘जी जी ग जी, जी र जी’, ऐसे लावणी के चरणों के अंत में सुनाई देनेवाला सुर आदि तमाशा में आवश्यक होते है|

        तमाशा यह परंपरागत रूप से महाराष्ट्र की संस्कृति से जुड़ा लोगों का मनोरंजन करनेवाला नाट्य है| गावों में मेला एवं होली जैसे त्यौहार के समय तमाशा कार्यक्रमों का विशेष महत्व होता है| तमाशा देखने के लिए दूर-दूर से लोग इकठ्ठा होते है और उसका आनंद लेते है| तमाशा के लिए विशेष रंगमंच की आवश्यकता नहीं होती| छोटा कार्यक्रम हुआ तो किसी चौराहे पर या बड़ा हुआ तो किसी खुली बड़ी जगह पर भी आयोजित किया जा सकता है| तमाशा में मशाल जलाकर भी प्रकाश योजना तैयार की जाती है| प्रमुखतः श्रुंगार प्रधान लावनी सुनाना और उनके अनुरूप श्रुंगार हास्यात्मक मनोरंजन करना यह तमाशा का स्थूल स्वरुप है|

तमाशा का उदय :-

        तमाशा का उदय कब और किन परिस्थितियों में हुआ इसके संदर्भ में विद्वानों में मतभेद होने के बावजूद भी तमाशा को परंपरागत स्वरुप प्राप्त हुआ है; वह पेशवाई में ही इसमें संदेह नहीं| पं. महादेवशात्री का मानना है कि “विशेषत: उत्तर पेशवाईत सवाई माधवराव व दूसरा बाजीराव यांच्या कारकीर्दीत तमासगीर शाहिरांना राजाश्रय लाभल्यामुळे विशेष उत्कर्ष झाला.”2 (विशेषतः उत्तर पेशवाई में सवाई माधवराव और दूसरे बाजीराव इनके कार्यकाल में तमाशगीर शहिरों को राजाश्रय मिलने से विशेष विकास हुआ|) राम जोशी, अनंत फंदी, होनाजी बाळा, सगनभाऊ, प्रभाकर, परशुराम आदी प्रमुख शाहीर इसी कालखंड में प्रसिद्ध हुए| पेशवाई काल में तमाशा को ‘ढोलकी का तमाशा’ कहा गया| गण-गवळण लावणी और मुजरा आदि पेशवाकालीन तमाशा के प्रमुख अंगो में से एक है| ‘गण’ अर्थात गणेश वंदना के गीत है| ढोलकी-तुनतुनी बजानेवाली मंडली दर्शक वर्ग के सामने जाकर गीत गाती है| ‘गण’ के पश्चात ‘गवळण’ अर्थात कृष्ण-गोपियों के लीला गीत है| ऐसे गीतों की रचनाएँ संतो ने भी की है| तमाशा में गवळण गायन के रूप ही में प्रस्तुत नहीं की जाती अपितु वह अभिनय और संवाद के माध्यम से भी प्रस्तुत होती है| दूध-मक्खन लेकर राधा और उसकी सहेलियाँ मथुरा के हाट में जाती है तब कृष्ण और उसके दोस्त गोपियों के रास्ते में अडंगा पैदा करके उन्हें छेड़ते है| यह इस कार्यक्रम का मुख्य भाग है| गोपियाँ ‘कृष्ण’ और ‘गोप’ बालकों को अहमियत न देते हुए आगे बढती है| ऐसे समय कृष्ण राधा का आँचल पकड़ लेते है|

        तमाशा शब्द ‘अरबी’ भाषा का है| तमाशा संस्था के शिल्पकारों को शाहीर नाम की संज्ञा मिली| वह संज्ञा मूलतः शायर अथवा शाहर इस अरबी शब्द से बनी है| शाहीर शब्द ‘महिकावत’ की बखर में मिलता है| शाहीर और तमाशा का शिव काल के समय उदय हुआ और पेशवा काल में विकास हुआ| पुणे में होली के त्यौहारों पर तमाशा के कार्यक्रम आयोजित होते थे तब सरदार एवं अन्य लोग वहाँ उपस्थित होकर आनंद लेते| पेशवाओं की ओर से तमाशगीरों को अच्छा उपहार मिलता| डॉ.साधना बुरडे का कथन है कि “तमाशा कला हे महाराष्ट्रातील सांस्कृतिक लेणे आहे. आणि तिला दुसऱ्या बाजीरावापासून बरकत आली. म्हणजे राजाश्रय आणि लोकाश्रय या आधारावर ही कला जगली व वाचली पण हे जरी खरे असले तरी त्यांचे सांगोपान अस्पृशांच्या झोपडीतच झाले.”3 (तमाशा कला यह महाराष्ट्र संस्कृति का आभूषण है और उसे दूसरे बाजीराव से बरकत आयी| अर्थात राजाश्रय और लोकाश्रय इस आधारपर यह कला प्रदीप्त हुई और शेष रह गई: यह सत्य हुआ तो भी उसका पालन-पोषण अस्पृशों की कुटिया में हुआ|) तमाशगीरों की आर्थिक समस्या विकट होने पर तत्कालीन बड़ोदा के राजा ‘गायकवाड’ से राजाश्रय मिलाता| राम गोंधली, सवाई फंदी, सगनभाऊ, परशुराम, प्रभाकर, बाकेराव आदी शाहीरों को राजाश्रय मिला था| राजा की इसतरह की उदारता पर शाहीर प्रभाकर ने कृतज्ञता के उद्गार निकाले थे| सन.१८६५ के समय ‘उमा बाबुने’, ‘मोहन बटाव’ इन्होने पहला ‘वग’ लिखा और ‘तमाशा वग’ नाट्य प्रस्तुत होने लगा| लोकशाहीर ‘अण्णाभाऊ साठे’ ने तमाशा का लोकनाट्य में रूपांतरण करके ‘तमाशा’ इस लोककला को मूर्त रूप देने में योगदान दिया है|

लावनी :-

        लावनी महाराष्ट्र का लोकप्रिय नृत्य है| लावनी शब्द का अर्थ है “एक तरह का चलता गाना”4 मराठी भाषिक उसके के लिए महाराष्ट्र में ‘लावणी’ शब्द का प्रयोग करते है| ‘गवळण’ के पश्चात मुख्यतः श्रृंगारिक लावनी के गीतों का कार्यक्रम होता है| लावनी के गीत डफ बजाकर गाए जाते है| लावनी के गीत गाते समय स्त्री अथवा पुरुष रूप में नांच करनेवाला नर्तक नृत्य आभिनय से लावनी कला में जीवंत रूप देने का कार्य करते है| लावनी के नाम पर नाटक-सिनेमा के लोकप्रिय श्रुंगारिक गीत भी प्रसिद्ध होते है| ‘छक्कड़’ अर्थात नाट्य गीतों के या द्वंद्व गीतों की लावनी है| ‘पट्ठे बापूराव’ ने ऐसी छक्कड़-रचना की है| इसलिए ‘छक्कड़ तमाशा’ में छक्कड़ गीतों का प्रकार लोकप्रिय हुआ| सनातनी बुद्धिजीवी वर्ग ने ऐसे गीतों पर प्रतिकूल प्रतिक्रियाएँ दी है क्योंकि तमाशा में इन गीतों से अश्लीलता आती है| ग्राम परिवेश से जुड़े दर्शक ऐसे प्रसंगों में सीटी बजाते है तथा बीच-बीच में छलाँगे लगाते है|

तमाशा का बदलता स्वरुप :-

        समय के अनुसार ‘तमाशा’ इस लोककला में कुछ परिवर्तन अवश्य हुए है| अंग्रेज शासनकाल में तमाशगीरों को राजाश्रय मिलना कठिन हो गया था| इ.स.१८५० तक पेशवा कालिन प्रसिद्ध शाहीर नही रहें| इस कारण मनोरंजन के नए असंस्कृत युग का सूत्रपात हुआ| विद्वानों का मानना है कि “तमाशा केवळ ग्रामीण असंस्कृत जनांच्या करमणुकीचाच विषय म्हणून राहीला.”5 (तमाशा केवल ग्रामीण असंस्कृत लोगों के मनोरंजन का ही विषय बनकर रह गया|) मराठी सिनेमा के गीतों में तमाशा की लावनी-संगीत का प्रभाव पड़ा वैसे ही तमाशा में अश्लीलता बढ़ने लगी| पुरानी श्रुंगारिक लावनी के साथ नई पीढ़ी मराठी सिनेमा के लोकप्रिय श्रुंगारीक गीत गाने लगी| स्वाधीनतापूर्व काल में बम्बई सरकारने ‘तमाशा सुधारना समिति’ का गठन करके तमाशा में होनेवाले अनिष्ट प्रकारों पर पाबंदियाँ लगाने का प्रयास किया| उसके बाद ‘तमाशा परिषद संस्था’ स्थापन हुई| इस संस्था के माध्यम से तमाशा का लोकपरंपरागत स्वरुप बनाएँ रखने का प्रयास हुआ| प्रतिवर्ष इस संस्था के अधिवेशन होते है तथा शासन के प्रोत्साहन से तमाशा महोत्सव भी कई शहरों में मनाएँ गए है| तमाशा का लोगों के मन पर बढता प्रभाव केंद्र में रखकर अनेक सामाजिक एवं राजकीय संस्थाओं ने ‘तमाशा’ को प्रचार का साधन बनाकर उससे अपना स्वार्थ साधना चाहा है; इस बात को नकारा नहीं जा सकता| अतः लगभग तीन शताब्दियों से तमाशा इस लोककला में कई परिवर्तन हुए है|

निष्कर्ष:-

        ‘तमाशा’ यह महाराष्ट्र की प्रसिद्ध लोकनाट्य कला है; जिसमे महाराष्ट्र की परंपरागत प्रादेशिक संस्कृति के दर्शन होते है| ‘लावनी’ यह तमाशा से जुडी लोकनृत्य कला है| तमाशा मनोरंजन का परंपरागत माध्यम होने के बावजूद भी समसामयिक परिवेश में उसमें बदलाव हुए है| आधुनिक काल में दर्शकों की रूचि देखकर तमाशा मंडली पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित नए गीत दर्शाने लगे| ऐसे असंस्कृत गीतों का प्रयोग होने पर उन्मुक्त तमाशा मंडली को अमीरों की साथ मिली; परिणाम स्वरूप तमाशा में भद्दापन अधिक पैमाने में बढ़ता गया| किसी व्यक्ति को कोई फूहड़ गीत पसंत आनेपर नृत्य करनेवाली स्त्री को पैसे देकर दोबारा मनचाहे गीत पर नाचने के लिए कहना, लावनी पर नाचनेवाली नर्तकी को शरीर स्पर्श करना तथा बीच-बीच में उछलकर नाचना आदि बेढंगापन तमाशा में बढने लगा| अतः तमाशा में लोक परंपरागत रूप बनाएँ रखने की आवश्यकता है क्योकि उससे हमारी प्रादेशिक संस्कृति की पहचान होती है|   

संदर्भ :-

  1. श्री.नवलजी, नालन्दा विशाल शब्द सागर, पृ.४९९
  2. पं. महादेवशास्त्री जोशी, भारतीय संस्कृती कोश, खंड-४, पृ.३९
  3. डॉ. साधना बुरडे, तमाशातील स्त्री कलावंत जीवन आणि समस्या, पृ.३५
  4. डॉ. हरदेव बाहरी, राजपाल हिन्दी शब्दकोश, पृ.७२१
  5. पं. महादेवशास्त्री जोशी, भारतीय संस्कृती कोश, खंड-४, पृ.४२         



विश्व भाषा के रूप में हिंदी

विश्व भाषा के रूप में हिंदी

पोपट भावराव बिरारी

सहायक प्राध्यापक

कर्मवीर शांतारामबापू कोंडाजी वावरे कला,

विज्ञान व वाणिज्य महाविदयालय सिडको, नाशिक

ईमेल – [email protected]

मो. 9850391121

प्रस्तावना

        विश्व में अनेक भाषाएं बोली जाती हैं। व्यक्ती अपनी बात दूसरों तक पहुंचने के लिए भाषा का उपयोग करता है। जब वह एक स्थान से दूसरे स्थान जाता है तो वह अपने साथ अपनी भाषा भी ले जाता है। ऐसे बहुत सारे लोग व्यापार, नौकरी के उद्देश्य से दूसरे देशों में रह रहें है। ऐसे ही भारतीय वंश के लोग अन्य देशों में निवास कर रहें हैं और वहां अपने देश की भाषा में संवाद कर रहें हैं। जब वह अपने देश की भाषा का प्रयोग करते हैं तो उसके साथ-साथ वह अपनी संस्कति का भी प्रभाव छोड़ते हैं। भारत देश की राष्ट्रिय भाषा हिंदी का प्रचार एवं प्रसार करने में प्रवासी भारतियों की भूमिका का भी महत्वपूर्ण हैं। हिंदी का दायरा व्यापक रूप ले रहा हैं। आज वह विश्व में दो नंबर की भाषा बन गई हैं। अंतरराष्ट्रीय पटल पर हिंदी आज विश्व की प्रतिष्ठित भाषा बन गई है। साथ ही विश्व में बसे हुए भारतियों की भी संपर्क भाषा है। प्रवासी भारतीय तो उसे अपनी अस्मिता का प्रतीक मानते है। विश्व में हिंदी तकनीकी एवं परिभाषिक शब्दकोश आदि का विकास हो रहा है।

विश्व भाषा : हिंदी

        विश्व के प्रवासी भारतीय बहुत सारे देशों में भारतीय संस्कृति, धर्म, दर्शन तथा साहित्य के प्रति रुचि दिखा रहें हैं। उनकी हिंदी के प्रति निष्ठा सराहनीय है। भारत की लोक संस्कृति, साहित्य और कला की विरासत को उन देशों में सिर्फ संजोकर ही नहीं रखा बल्कि इसके प्रचार-प्रसार में भी अपना योगदान दिया हैं। प्रवासी बंधुओं ने अपनी सक्रियता दिखाई है। अपनी जमीन से जुडे रहने की कोशिश भारतीयों के लिए प्रेरक भूमिका अदा कर रही है। भूमंडलीकरण के दौर में हिंदी के विस्तार की संभावनाएं अधिक बढ़ गई है तो दूसरी ओर चुनौतियां भी है। साहित्य सदैव मनुष्य और मनुष्य की सामाजिकता के संघर्षों के इतिहास को नए रूपों में अभिव्यक्ति है। वेद-उपनिषद, जैन-बौद्ध आदि साहित्यिक परंपराएं किसी न किसी रूप में विश्व के साहित्य कला को प्रभावित कर रहीं हैं। कुछ विदेशी विद्वान भारतियों से प्रभावित है तो कुछ साहित्य विद्वान विदेशी साहित्यकारों और उनके दर्शन से भी प्रभावित हैं। अतः जो विदेशों में साहित्य सृजन हो रहा हैं उसमें भारतीय विचारधारा के साथ प्रवासी सोच हैं।

        भूमंडलीकरण ने समग्र विश्व को विश्व ग्राम में परिवर्तित किया, जहां सूचना प्राद्यौगिकी के बढ़ते कदमों के साथ सारी जानकारी एक क्षण में प्राप्त हो जाती हैं। हिंदी भाषा वैश्विक स्तर पर प्रगति की दिशा में आगे बढ़ रही है। डॉ.विजय राघव रेड्डी का कथन है कि “विश्व भाषा के रूप में हिंदी एवं राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी की प्रतिष्ठा को आज के इस भूमंडलीकरण और उदारीकरण के युग में अलग-अलग न मानते हुए अन्योंयाश्रित मानकर हमें ठोस कदम उठाने हैं।”1 प्रवासी भारतीयों के लिए हिंदी इस संस्कृति का महत्वपूर्ण संचार वाहक है। अतः हिंदी जरूरी है। हिंदी के प्रचार-प्रसार के अनेक कारण है। विश्व पत्रिका में भी हिंदी भाषा अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। कविता, कहानी जैसी मौलिक विधाओं के साथ अनूदित सामग्री एवं विज्ञापन संबंधी सूचनाएं भी इनमें छपती है। डॉ. बालशौरि रेड्डी का कथन है कि ‘भारतीय संस्कृति को दुनिया के कोने कोने में पहुंचने में हिंदी विद्वानों ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है और दे रहें हैं।’ विश्व मंच पर हिंदी की भूमिका संगीत और फिल्मों से भी जुड़ी हुई है। हिंदी की फिल्में, गाने, टी. वी. कार्यक्रमों ने विश्व में हिंदी को लोकप्रियता देने का महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

        अंतर्राष्ट्रीय पटल पर हिंदी भाषा विश्व में प्रतिष्ठा पा रही है। विश्व के विभिन्न देशों में बसे भारतीयों की वह संपर्क भाषा है। सुरेशचंद्र शुक्ल का कथन है कि “विश्व में कोई ऐसी भाषा नहीं जिसमें वर्गगत, शैलीगत भिन्नता न हो। हिंदी भाषा एक समर्थ, धनी और विकसित भाषा है जिसमें अनेक भाषाओं के शब्द, उक्तियां और बोलियों के प्रयोग को समाहित किया गया है।”2 प्रवासी भारतीय हिंदी को भारतीय का अस्मिता का प्रतीक मानकर इसकी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए निरंतर कार्यरत है लेकिन इसकी भी आवश्यकता है कि विदेशों में हिंदी शिक्षण का मूल्यांकन समय-समय पर हो और इसके विश्वव्यापी प्रचार के लिए तकनीकी एवं पारिभाषिक कोश तथा संदर्भ ग्रंथ सरलता से प्राप्त हो। साथ ही साथ हिंदी भाषा की व्यवहारिक शैली में भी सरलता लानी चाहिए। हमें सदा इस विषय को केंद्र में रखना चाहिए कि हम अपनी भाषा को उस समाज के बीच में ले जा रहे हैं जो बिल्कुल इस भाषा से संबंध नहीं है। उनकी सुविधा के लिए सरल शब्दों का ही प्रयोग उचित होगा। इतना ही नहीं उनकी भाषा एवं संस्कृति का भी आदर हमें करना चाहिए। वैश्विक स्तर पर हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में एक और रुकावट है आर्थिक विषमता। हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए आवश्यक आर्थिक संसाधनों का होना आवश्यक है। इसके लिए की जानेवाली आवश्यक पूंजी भी और बढ़ानी चाहिए। भूमंडलीकरण में हिंदी भाषा को अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है; तो तकनीकी एवं प्रौद्योगिकी दृष्टि से उसे स्वयं को सक्षम सिद्ध करना है। इसका प्रचार-प्रसार सही ढंग से विश्वविद्यालय एवं विविध प्रकार की शिक्षण संस्थाओं के माध्यम से संपन्न हो सकता है। विश्व के कई देशों में व्यापक रूप से हिंदी भाषा का प्रचार हो रहा है। आज विदेशी विश्वविद्यालयों में हिंदी भाषा का अधिक प्रयोग हो रहा है।

      विश्व में हिंदी बोलनेवालों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। हिंदी चीनी भाषा के बाद विश्व की दूसरे स्थान की भाषा है। एक शोध के अनुसार विश्व में सबसे अधिक बोलनेवाले और समझनेवाले की भाषा हिंदी है। लक्ष्मीकांत वर्मा का कथन है कि “हिंदी को एक विशाल जनसमूह के राजकाज और बातचीत को चलाना नहीं है, बल्कि उसी को शिक्षा का माध्यम बनाना है।”3 भारत के अलावा हिंदी बोलनेवाले और समझनेवाले सुरिनाम, त्रिनीडाड, दुबई, फिजी, मॉरीशस, कुबैत, संयुक्त अरब अमीरात, संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, रूस, सिंगापुर, दक्षिण अफ्रीका आदि देशों में मिलते हैं। विदेशों के अनेक देशों के विश्वविद्यालयों में हिंदी एक विषय के रूप में पढ़ाई जाती है। आज हिंदी भाषा देश के छोटे बड़े उद्यामकर्ता एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियां अंग्रेजी के साथ हिंदी को भी अपने विज्ञापनों को साधन समझ रही हैं। हिंदी भाषी राज्यों में शहरी बाजार के साथ-साथ ग्रामीण बाजारों में भी दिखाई देती है। हिंदी में स्थानीय संभावनाओं का विस्फोट हुआ है, इसे इनकार नहीं किया जा सकता। जहां हिंदी में स्थानीय संभावनाओं का विस्फोट हुआ है वहीं अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संभावनाओं के द्वार भी खुल रहें हैं।

        हिंदी के साहित्यिक और सृजनात्मक अभिव्यक्ति का एक नया आयाम उसके अंतरराष्ट्रीय पक्ष के साथ भी जुड़ता है। डॉ. शिव गोपाल मिश्र का कथन है कि “विश्व भाषा का अर्थ है विश्व की अन्य भाषाओं के समकक्ष होना, उन्हीं जैसे साहित्य का सृजन और विश्वभर में भाषा के द्वारा वृतिक या व्यवसायिक अवसर उत्पन्न करना।”4 विश्व के अनेक देशों में हिंदी के माध्यम से कविता कहानी, उपन्यास, आलोचना तथा अन्य विधाओं में साहित्य सृजन काफी मात्रा में हो रहा है। इस साहित्य में विभिन्न देशों की मातृभूमि की गंध, वहां की जीवन शैली और वहां के लोकोक्तियों का सौंदर्य प्रचुर मात्रा में मिलता है। इनकी हिंदी की व्याकरण रचना की प्रकृति चाहे भारत की हिंदी के समान है किंतु उसकी बनावट में विभिन्न देशों की सामाजिक एवं सांस्कृतिक चेतना की छाप दिखाएं देती है। कृष्ण कुमार का कथन है कि “आज यह आवश्यक हो गया है कि इन देशों में रचित हिंदी साहित्य को इतिहास लेखन और आलोचनात्मक मूल्यांकन में स्थान दिया जाए तभी हिंदी साहित्य सही अर्थों में अंतरराष्ट्रीय साहित्य का रूप ले पाएगा।”5 हिंदी विद्वानों और हिंदी साहित्यिक प्रतिभा को विश्व के सामने लाने के लिए प्रयास करने चाहिए।

        हिंदी भाषा अनेक देशों की समाज एवं संस्कृति के अंग के रूप में जुड़ी है। प्रवासी भारतीयों में हिंदी के ऐतिहासिक संबंधों की सामाजिक, सांस्कृतिक कड़ी और उनकी भावात्मक एकता का मूल आधार माना जाता है। प्रत्येक समाज में शादी-विवाह हो या तीज-त्यौहार आदि में अपनी भाषा की आवश्यकता पड़ती है, न किसी विदेशी या अन्य भाषा की भारत में जिस प्रकार धार्मिक और सांस्कृतिक अनुष्ठानों में संस्कृत भाषा का प्रयोग होता है। उसी प्रकार भारतीय मूल के देशों में और प्रवासी भारतीयों में संस्कृत भाषा का व्यवहार होता है किंतु जनभाषा भाषा के रूप में हिंदी का ही प्रयोग होता है। इस प्रकार हिंदी हिंदू धर्म और संस्कृति का अंग बनकर सामाजिक, सांस्कृतिक अस्मिता का प्रतीक बनकर उभरी है।

निष्कर्ष

        विश्व में हिंदी बोलनेवालों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है तथा अनेक विश्वविद्यालयों में हिंदी भाषा पढ़ाई जा रही है। हिंदी भाषा को समृद्ध बनाने में भी प्रवासी भारतीयों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। हिंदी भाषा जनसंचार के अनेक माध्यमों में प्रयुक्त होती है, जिससे हिंदी भाषा प्रचार-प्रसार में वृद्धि हो रही है। विज्ञापन जगत में तो हिंदी भाषा अधिक बोली जा रही है। हिंदी भाषा का साहित्य वैश्विक परिदृश्य में दिखाई दे रहा है। अन्य देशों का साहित्य हिंदी भाषा में अनुवादित हो रहा है। हिंदी बोलनेवालों की तादाद दुनिया में दूसरे स्थान पर है लेकिन हिंदी का विकास तेजी के साथ हो रहा है, इसमें कोई दो राय नहीं है।

संदर्भ ग्रंथ

  1. डॉ. बालशौरि रेड्डी, समसामयिक हिंदी साहित्य : विविध आयाम, शांति प्रकाशन, प्र. सं. 2012, पृ. 44
  2. वही, पृ. 122
  3. संपा. लक्ष्मीकांत वर्मा, हिंदी-आंदोलन, हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, प्र. सं. 1964, पृ.34
  4. डॉ. बालशौरि रेड्डी, समसामयिक हिंदी साहित्य : विविध आयाम, शांति प्रकाशन, प्र. सं. 2012, पृ. 114
  5. वही, पृ. 17

 

 

 




बाल साहित्य और मनोविज्ञान

बाल साहित्य और मनोविज्ञान

पोपट भावराव बिरारी

सहायक प्राध्यापक

कर्मवीर शांतारामबापू कोंडाजी वावरे कला,

विज्ञान व वाणिज्य महाविद्यालय सिडको, नासिक

ईमेल – [email protected]

मो.-9850391121

प्रस्तावना

        बाल साहित्य का आधार बाल मनोविज्ञान है। बालक के विकास में बाल साहित्य की भूमिका महत्वपूर्ण है। बाल साहित्य का अध्ययन करना बाल मनोविज्ञान के आधार तथ्यों की जानकारी के बगैर संभव नहीं है। बच्चों की रूचि एवं मनोवृति का सम्यक् ज्ञान बाल मनोविज्ञान के द्वारा प्राप्त होता है। बच्चों में कहानियों, गीतों एवं पुस्तकों के प्रति एक स्वाभाविक अभिरूचि होती है। बच्चों के मानसिक विकास एवं उनकी प्रगति हेतु बाल मनोविज्ञान को समझना वर्तमान समय की आवश्यकता है। यदि बाल मनोविज्ञान न होता तो बाल साहित्य का जन्म ही न हुआ होता। बच्चों में पढ़ने एवं ज्ञानार्जन करने की प्रवृत्ति ने एक अलग साहित्य विधा को जन्म दिया है; जिसको आज बाल साहित्य कहा जाता है। अनादि काल से कथा-कहानियों एवं लोरियों में बच्चों की विशेष रूचि रही हैं।

बाल साहित्य और मनोविज्ञान

        बालक की अवस्था का मनोविज्ञान कीदृष्टि से तीन प्रकार से विभाजन है- १) शिशु अवस्था (तीन से छः-सात वर्ष की आयु तक) २) बाल्यावस्था (छः-सात से तेरह-चौदह वर्ष की आयु तक) ३) किशोरावस्था (तेरह-चौदह से सत्रह-अठारह वर्ष की आयु तक) बाल साहित्य के इन अवस्थाओं के अनुसार तीन भेद किए गए है। डॉ. श्रीप्रसाद के अनुसार-‘‘१) शिशु अवस्था के लिए शिशु-साहित्य २) बाल्यावस्था के लिए बाल साहित्य और ३) किशोरावस्था के लिए । मनोविज्ञानिक दृष्टि के विकास के साथ-साथ बाल साहित्यकारों से भी यह अपेक्षा की गई कि वे इन्हीं तीनों वयवर्गों को दृष्टि में रखकर बाल साहित्य की रचना करें।’’1 प्रारंभिक समय में मनोविज्ञानिक वयवर्ग की साहित्यकारों को यथावश्यक जानकारी नहीं थीं। इसलिए साहित्यकार पूर्ण बाल जीवन को दृष्टि में रखकर साहित्य सर्जन करते थे।

        ऐसा अनुमान लगाया जाता है, कि रोते हुए बालक को मनाने की समस्या जब माता-पिता के सामने आई होंगी तब उस समस्या के समाधान हेतु कुछ गुनगुनाया गया होगा या रंग-बिरंगे पशु-पक्षियों, पेड़-पौधें, फूलों एवं रात्री के समय चाँद-तारों का आश्रय लिया होगा। अर्थात बालक को समझाने एवं उसका मनोरंजन करने हेतु विविध तरीके अपनाने की स्थिति बनी होगी तब क्रमशः उसमें विकास होकर बाल साहित्य का जन्म हुआ। प्राचीन युग विशेष का बाल साहित्य पुराण लोक कथाओं के रूप में दिखाई देता है। यह साहित्य सिर्फ बालकों के लिए नहीं अपितु मानव जीवन संघर्ष एवं सांस्कृतिक विकास का भी समायोजन है। इसमें बाल साहित्य के तत्व है। तथा अनेकानेक कहानियाँ बालोपयोगी रही है। बाल साहित्य के तत्वों का अध्ययन बाल मनोविज्ञान के अध्ययन एवं बालजीवन के निरीक्षण करने से संभव हो पाता है। इसलिए श्रेष्ठ बाल साहित्यकार बालकों के बीच रहकर उन अनुभूतियों को साहित्य में अभिव्यक्ति प्रदान करता है।

        बाल साहित्य की सीमा अत्यंत विस्तृत है। डॉ. श्रीप्रसाद का मानना है कि ‘काव्य, कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध, यात्रावृत, स्थान परिचय और रिपोतार्ज-सभी कुछ बाल साहित्य के अंतर्गत आता है और इन सभी विधाओं में बाल साहित्य की रचना होनी चाहिए।’ बाल साहित्य के अनेक उद्देश्य है। इसमें एक तरह से बाल जीवन का मनोरंजक अध्ययन होता है। बाल साहित्य का अध्ययन शिक्षाविदों के साथ-साथ बाल साहित्यकारो, बाल कल्याणकर्ताओं एवं अभिभावकों के लिए भी महत्वपूर्ण रहा है। मनोविज्ञान के अनुसार ‘‘बालकों में सभी कार्य करने की प्रवृत्तियां तो होती है, किंतु उसका स्फुरण स्वाभाविक रूप से नहीं, बल्कि दूसरों से सीखने पर होता है।’’2 बचपन में जो मुख्य प्रवृत्तियां होती है, उनके प्रति सजग होना बालक के विकास के लिए आवश्यक है। बालक में उत्सुकता, रचनात्मक प्रवृत्ति, उपार्जन प्रवृत्ति, आत्मप्रदर्शन की प्रवृत्ति, द्वंद्व की प्रवृत्ति, विनय कीप्रवृत्ति, स्पर्धा, सहानुभूति आदि प्रवृत्तियां आरंभ में प्रमुख होती है।

        हिंदी साहित्य में बच्चों के लिए प्रारंभ में ‘पंचतंत्र’, ‘कथासरित्सागर’, ‘सिंहासनबत्तीसी’, ‘बैतालपच्चीसी’, ‘अलिफलैला’ आदि की कहानियाँ मौजूद थी। लोककथाएँ, भूत-प्रेत, ठगों एवं राजा-रानी की कहानियाँ ही मौलिक कहानियों के नाम पर प्रचलित थी। बच्चों के लिए स्वतंत्र रूप से पत्रों-‘शिशु’, ‘बालसखा’, ‘बालविनोद’ एवं ‘बालक’ आदि के प्रकाशकों ने साहित्यकारों को बच्चों के लिए अधिक मौलिक एवं रोचक कहानियाँ लिखने की ओर प्रवृत्त किया। महावीरप्रसाद द्विवेदी, शेख नईमुद्दीन मास्टर, प्रेमचंद, जहूरबख्श, स्वर्णसहोदर आदि लेखको ने बच्चों के लिए कहानियाँ लिखीं। इन कथाओं से बच्चों का बहुविध मनोरंजन होता था।

        जिन लोककथाओं, परिकथाओं, पौराणिक कथाओं को आज प्रमुखतः बच्चों का साहित्य माना जाता है, वह साहित्य उस पौराणिक जीवन के चित्र दर्शाता है; जो आज के युग के लिए बच्चों को अंतर्बाह्य रूप से तैयार कर सके। डॉ. नगेंद्र का कथन है कि ‘‘हमें मनोविज्ञानिक व व्यावहारिक पृष्ठभूमि पर ऐसी कथाएं चाहिए, जो आज के धरातल पर, आज के बालपात्रों को लेकर, उनके स्वस्थ व सुखी जीवन के निर्माण के लिए रची गई हों-साथ ही वे इतनी सरल हों कि बच्चों के लिए सुगमता से ग्राह्य हो, इतनी मनोरंजक हों कि वे राक्षसों और जादूगरों की कहानियां भूल जाएं, और वे दैनिक जीवन से सामंजस्य भी स्थापित करती हों।’’3 ऐसी विचारधारा का अनेकानेक कथाकारों ने साथ दिया एवं बच्चों के लिए भावबोध की कथाएँ लिखी गई। इस दौर के उल्लेखनीय बाल कथाकारों में मनहर चौहान, महीपसिंह, अवतार सिंह, हरिकृष्ण तैलंग, शीला इंद्र, मालती जोशी, विष्णु प्रभाकर, मस्तराम कपूर, देवेश ठाकुर, हरिकृष्ण देवसरे, सत्यस्वरूप दत्त, राजेष जैन, मनोहर वर्मा, वीरकुमार अधीर, हसनजमाल घीपा, हमीदुल्लाखां आदि प्रमुख हैं। इन्होंने बच्चों के मनोविज्ञान को समझकर अपनी रचनाओं में उनकी समस्याओं को दर्शाया है तथा समस्याओं का समाधान भी प्रस्तुत किया है।

        बाल मनोविज्ञान से जुड़ी अनेक बालकथाएँ लिखी गई है। मनहर चौहान द्वारा लिखित ‘शेर बच्चा’ इस कहानी संग्रह में लिखित कथाएँ मनोवैज्ञानिक समस्याओं को लेकर लिखी गई है। ‘शेर बच्चा’ की कहानी में चोरी करने एवं न करने के बारे में बालपन के अंतर्द्वंद्व को चित्रित किया गया है। ‘मजाक से उपदेश तक’, ‘तुम दुखी हम दुखी’, ‘क्या और कितना’ आदि भी सशक्त कहानियाँ रहीं है। मालती जोशी द्वारा लिखित ‘दादा की घड़ी’ यह कथासंग्रह बच्चों की समस्याओं एवं उनके बाल मनोविज्ञान के आधारपर लिखा गया है। तथा बच्चों में अपनी पहचान बनाने की प्रवृत्ति उसमें निहित है। विष्णु प्रभाकर ने बच्चों के लिए पौराणिक, नीतिपरक एवं शिक्षाप्रद कथाएँ लिखी है, साथ ही नए भावबोध की कहानियों का भी सर्जन किया है। देवेश ठाकुर बच्चों की रचनाओं में बच्चों की सहज एवं व्यावहारिक समस्याओं को सुलझाने की ओर आग्रही रहे है।

        जैनेंद्र कुमार मनोविज्ञान पर आधारित साहित्य लेखन करनेवाले प्रसिद्ध रचनाकार है। उनकी ‘खेल’ कहानी बहुचर्चित रही है। कहानी में चित्रित बच्चों में खेलने की मनोभावना का अंकन है। जिसमें गंगा के बालुका स्थल पर एक बालक एवं बालिका विश्व के समस्त क्रियाकलाप भूलकर गंगातट के बालू और पानी के साथ आत्मीयता से एकाग्र होकर खेलते है। बालिका अपने एक पैर पर रेत जमाकर एवं उसे थोप-थोपकर एक भाड़ बनाती है। भाड़ बनाते समय बालिका के मन में उसके खेल के सहयोगी मनोहर की कल्पना घुम जाती है। अतः बच्चों के मन में संसार के प्रति जिज्ञासा एवं कौतूहल भाव अवष्य होता है किंतु उसके लिए संतुष्टि भीआवश्यक है। बगैर मनोरंजन के उन्हें आनंद प्राप्त नहीं होता है। डॉ. देवसरे का मंतव्य है कि ‘‘बालकों की जिज्ञासा इतनी प्रखर और कल्पना इतनी ऊंची होती है कि वे निरंतर कुछ न कुछ जानना चाहते है। वे स्वभाव से संवेदनशील होते है। फिर भी वे भावात्मक रूप उचित संरक्षण के आकांक्षी होते हैं। उनमें क्रियाशीलता का बाहुल्य होता है और साहसिक कार्यों तथा खेल-कूद में उन्हें बहुत आनंद आता है।’’4 गीतों में संगीतात्मकता होने के कारण बच्चे उन्हें जल्दी याद कर लेते है। यह गीत खेद-कूद के भी हो सकते है या किसी नाटक के या अभिनयगीत भी हो सकते है। गीत गाते समय अभिनय करने में बच्चे अधिक रूचि लेते है। अभिनय के द्वारा बालक की रचनात्मक कल्पना उद्देश्यपूर्ण हो जाती है तथा वह रचनात्मक कार्यों में कुशल बनता है।

        आधुनिक काल में प्रेमचंद ने नमक का दरोगा, कफन, दो बैलो की कहानी, पंच परमेश्वर, परीक्षा, प्रेरणा, ईदगाह आदि अनेक कहानियों को पढ़कर बालक आनंदित होने लगे। पौराणिक तथा धार्मिक नीति कथाओं को पढ़कर बालक ऊब उठे है; इस कारण प्रेमचंद की कहानियाँ उन्हें अधिकाधिक रोचक एवं अपनी मनोवृति के अनुकूल लगने लगी। डॉ. विजयलक्ष्मी सिन्हा का कथन है कि ‘‘प्रेरणा तो बाल समस्याओं को लेकर मनोवैज्ञानिक आधार पर लिखी पहली कहानी है जो बड़ी प्रसिद्ध हुई।’’5 ईदगाह कहानी में बच्चों की मानसिकता का मार्मिक चित्रण है। पात्रों के द्वारा भी बालको की ललक, मन की इच्छाओं को दर्शाया गया है। बच्चों के बौद्धिक स्तर को देखते हुए कहानियों का लेखन कार्य होना चाहिए। उस संदर्भ में प्रेमचंद एक सचेत साहित्यकार कहें जा सकते है। ‘बाल साहित्य सम्मान’ प्राप्त सुभद्रा कुमारी चौहान की ‘हीगवाला’ कहानी बाल मनोविज्ञान का सजीव चित्र रेखांकित करती है। साथ ही सियारामशरण गुप्त की ‘काकी’, जयशंकर प्रसाद की ‘मधुआ’ आदि कहानियाँ इसी श्रेणी में आती है। बाल उपन्यासों में पिला सुब्बाराव का ‘घर से भागा मटरू’ उपन्यास मनोवैज्ञानिक समस्याओं को लेकर लिखा गया है। इसमें शहरी परिवेश की चमक-दमक से प्रभावित होकर घर छोडनेवाले बालक की दुर्दशा का चित्र बड़ा ही मार्मिक ढ़ंग से चित्रित किया गया है। 

        विभिन्न देशों में बाल साहित्य का सर्जन हुआ है। इग्लैंड में विशेषतः सभी बड़े लेखको ने बालको के लिए कुछ न कुछ लिखा है। अमरीकी बाल साहित्य में जीवन के भावत्मक पक्ष पर कम, व्यावहारिक पक्ष पर अधिक महत्व दिया जा रहा है। उसमें काल्पनिक एवं जादूभरी कहानियों के लिए स्थान नहीं है। मशीन कैसे बनती है, हवा में कैसे उड़ती है आदि विज्ञानपरक दृष्टिकोण बाल साहित्य में रहा है। रूस में बच्चों के विकास एवं उनके जीवनमूल्यों पर विशेष ध्यान दिया गया है। उस देश के बालसाहित्य रचना का उद्देश्य नई पीढ़ी में अपनी कल्पनाओं का मार्गदर्शन करने की क्षमता उत्पन्न करना एवं उसे सही दिशा में आगे बढ़ाना है। साथ ही साम्यवादी विचारधारा को बनाए रखने के लिए प्रेरित करना है। जर्मनी में महायुद्धोपरांत बच्चों के साहित्य का स्वरूप परिवर्तित हुआ है। बालक में प्रारंभ से ऐसी विचारधारा जन्म ले जो उसे जीवनमूल्यों एवं उद्देश्यों को समझने योग्य बना सके यह उनकी सोच रही है। फ्रांस में बालसाहित्य का उद्देश्य सुखी जीवन बिताने के लिए बच्चों को हालातों सेसंघर्ष कराने की सीख देना है।

        विदेशों में बाल साहित्य की भूमिका का विश्लेषण करते है तब एक ओर जहाँ नए वैज्ञानिक वातावरण के अनुसार बालसाहित्य की रचना निर्माण हो रही है वही दूसरी ओर पौराणिक एवं परंपरागत बाल साहित्य का भी सर्जन हो रहा है। इसलिए भारतीय बच्चे दुहरी मानसिकता में जी रहे है। ऐसी स्थिति में सवाल उठता है कि आज का बालसाहित्य बच्चों के विकास में क्या सच में सही भूमिका का निर्वाह कर रहा है? आज के समाज में बच्चे किस समस्याओं से जूझ रहे है तथा उनकी कौनसी आवश्यकताएँ है; यह जब तक साहित्यकार समझ नहीं पाता तब तक वह सही मायने में बाल साहित्य की रचना नहीं कर सकता। अधिकांश बाल साहित्यकारों की ऐसी वैचारिक धारणा होती है कि उन्होंने अपने बचपन में जो देखा एवं अनुभव किया है वैसे ही आज के बच्चों की स्थितियाँ है या वैसा ही उनका माहौल है; ऐसा मानना गलत होगा है। इसलिए वर्तमान परिपेक्ष्य में बच्चों की मानसिकता को ध्यान में रखकर बाल साहित्य का लेखन करना समय की आवश्यकता है।

निष्कर्ष

        स्पष्ट है कि बालको में जिज्ञासा एवं कल्पना इतनी बलवती और विस्तृत होती है कि उनकी भावनाएँ विश्व के मानव जीवन के हर पहलुओं को छूती है। बच्चों में हमेशा नया जानने की उत्सुकता बनी रहती है। इसतरह बच्चों की रूचियाँ भी उनकी जिज्ञासा की तरह विस्तृत होती है। अतः बच्चे स्वभाव से समझदार एवं संवेदनशील होते है; फिर भी उनके लिए भावात्मक रूप से संरक्षण की विशेष आवश्यकता है। वे नज़दीक के परिवेश से अधिकआकर्षित होते है। इसलिए कुछ संकेतो के आधारपर कहानी के पात्रों के साथ तादात्म्य प्रस्थापित कर लेते हैं। अतएव बालको के मानसिक विकास के लिए बाल साहित्य उपयोगी है। इसतरह बच्चों की मनोवैज्ञानिक आधारभूमि को केद्र में रखकर किया गया लेखन कार्य बालसाहित्य की दृष्टि से अधिक प्रभावकारी सिद्ध होता है।

संदर्भ ग्रंथ :-

  1. हिन्दी बाल साहित्य की रूपरेखा, डॉ. श्रीप्रसाद, पृ. 3
  2. बालसाहित्य : एक अध्ययन, डॉ. हरिकृष्ण देवसरे, पृ. 41
  3. रचना और समीक्षा, संपा. हरिकृष्ण देवसरे, पृ. 73
  4. वही, पृ.35
  5. हिन्दी में बाल साहित्य का विकास, डॉ. विजयलक्ष्मी सिन्हा, पृ. 106



अनुवाद कला

अनुवाद कला

पोपट भावराव बिरारी

सहायक प्राध्यापक

कर्मवीर शांतारामबापू कोंडाजी वावरे कला,

विज्ञान वाणिज्य महाविदयालय सिडको, नासिक

ईमेल – [email protected]

मो. 9850391121

प्रस्तावना

        अनुवाद का वर्तमान परिप्रेक्ष्य में बहुत महत्त्व बढ़ा है। विश्व में अनेक भाषाओं का प्रचलन रहा है। इसलिए उन भाषाओं में जो विचार एवं भाव है, वह समझने के लिए वहां पर अनुवाद की आवश्यकता होती है। जिस प्रकार हर जनसमूह का भौगोलिक परिवेश अलग-अलग होता है; उसी प्रकार हर जनसमूह की भाषा भी जगह के अनुसार अलग होती है। अतः यह स्पष्ट है कि सभी भाषाओं को एक ही व्यक्ति नहीं समझ सकता है। इसलिए जो भी विचार है वह दूसरों तक प्रदर्शित करने के लिए आज अनुवाद एक साधन के रूप में काम कर रहा है। समकालीन परिप्रेक्ष्य में विभिन्न भाषाओं में अनूदित साहित्य सृजन हो रहा। उसी प्रकार वहां पर एक भाषा को दूसरी भाषा में अनूदित करने के लिए अनुवादको की भी आवश्यकता निर्माण हुई हैं। उन दोनों भाषाओं को समझनेवाले अनुवादक का महत्व अधिक बढ़ा है। अनुवाद ही वह साधन है जिसके माध्यम से व्यक्ति अपनी बात या विचार भाषा के माध्यम से दूसरे तक पहुंचा पाता हैं। भाषा ही अनुवाद की बड़ी शक्ति है जो मानव प्रत्यक्ष जीवन में उपयोग करता है। हर क्षेत्र विशेष में लोगों के रीति रिवाज के अनुसार मुहावरे, कहावतें एवं लोकगीत अलग-अलग होते है। उसी प्रकार कहने का ढंग भी अलग-अलग होता है। ऐसे में अनुवाद आवश्यक होता है। अनुवादक को दोनों भाषाओं से परिचित होना पड़ता है। तभी वह सफल अनुवाद कर पाता है। आज विज्ञान के विकास से कोई भी देश परस्पर दूर नहीं लग रहा है, बल्कि वे भूमंडलीकरण की प्रक्रिया से और भी नजदीक आ गए है। अतः अनुवाद एक कला है। इस दृष्टि से इस पर विचार होना आवश्यक है।

अनुवाद : व्युत्पत्ति एवं अर्थ

           ‘अनुवाद’ शब्द  संस्कृत के ‘वद्’ धातु से बना है। ‘वद्’ का अर्थ है ‘बोलना’ या ‘कहना’। संस्कृत के ‘वद्’ धातु में ‘घञ’ प्रत्यय जोड़ देने पर भाववाचक संज्ञा में इसका परिवर्तित रूप है ‘वाद’। ‘वाद’ का अर्थ हुआ ‘कहने की क्रिया’ या ‘कही हुई बात’। ‘वाद’ में ‘अनु’ उपसर्ग जोड़कर ‘अनुवाद’ शब्द बना है, जिसका अर्थ है ‘प्राप्त कथन को पुनः कहना’। डॉ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार अनुवाद का अर्थ है “पुनः कथन’ या ‘किसी के कहने के बाद कहना”1 ‘पुन: कथन’ में अर्थ की पुनरावृत्ति होती है, शब्दों की नहीं। हिन्दी में अनुवाद के स्थान पर प्रयुक्त होनेवाले अन्य शब्दो में छाया, टीका, उल्था, भाषान्तर आदि का प्रयोग होता हैं। अन्य भाषाओं में ‘अनुवाद’ के समानान्तर प्रयोग होनेवाले शब्द इस प्रकार से हैं- ट्रांसलेशन (अंग्रेजी), ट्रडुक्शन (फ्रेंच), भाषान्तर (संस्कृत, कन्नड़, मराठी), तर्जुमा (अरबी), मोषिये चण्र्यु (तमिल), अनुवादम् (तेलुगु), अनुवाद (हिन्दी, पंजाबी, सिंधी) आदि ।

अनुवाद की परिभाषा

(अ) भारतीय विद्वानों  के अनुसार

  1. देवेन्द्रनाथ शर्मा : ‘विचारों को एक भाषा से दूसरी भाषा में रूपान्तरित करना अनुवाद है।’
  2. भोलानाथ तिवारी : ‘किसी भाषा में प्राप्त सामग्री को दूसरी भाषा में भाषान्तरण करना अनुवाद है, दूसरे शब्दों में एक भाषा में व्यक्त विचारों को यथा सम्भव और सहज अभिव्यक्ति द्वारा दूसरी भाषा में व्यक्त करने का प्रयास ही अनुवाद है।’
  3. रीतारानी पालीवाल : ‘स्रोत-भाषा में व्यक्त प्रतीक व्यवस्था को लक्ष्य-भाषा की सहज प्रतीक व्यवस्था में रूपान्तरित करने का कार्य अनुवाद है।’

आ) पाश्चात्त्य विद्वानों के अनुसार

  1. नाइडा : ‘अनुवाद का तात्पर्य है स्रोत-भाषा में व्यक्त सन्देश के लिए लक्ष्य-भाषा में निकटतम सहज समतुल्य सन्देश को प्रस्तुत करना। यह समतुल्यता पहले तो अर्थ के स्तर पर होती है फिर शैली के स्तर पर।’
  2. कैटफोड : ‘एक भाषा की पाठ्य सामग्री को दूसरी भाषा की समानार्थक पाठ्य सामग्री से प्रतिस्थापना ही अनुवाद है।’ 1.मूल-भाषा (भाषा) 2. मूल भाषा का अर्थ (संदेश) 3. मूल भाषा की संरचना (प्रकृति)
  3. सैमुएल जॉनसन : ‘मूल भाषा की पाठ्य सामग्री के भावों की रक्षा करते हुए उसे दूसरी भाषा में बदल देना अनुवाद है।’

अनुवाद की प्रक्रिया

           अनुवाद की एक प्रक्रिया होती है। रीतारानी पालीवाल का कथन है कि “अनुवाद चाहे वैज्ञानिक हो अथवा साहित्यिक, उसमें सृजनात्मकता की प्रक्रिया हर स्थिति में अंतर्निहित रहती हैं।”2 अनुवाद-प्रक्रिया को नाइडा, न्यूमार्क और बाथगेट इन तीनों विद्वानों ने अपने – अपने ढंग से प्रस्तुत किया गया है। वास्तव में अनुवाद करते हुए स्त्रोत भाषा के पाठ के अर्थ को लक्ष्य भाषा में अर्थ के सबसे नजदीकी बिन्दु तक बदलने की कोशिश की जाती है। नाइडा ने अनुवाद-प्रक्रिया में निम्नलिखित तीन सोपानों का उल्लेख किया है : 1) विश्लेषण (Analysis) 2) अन्तरण (Transference) 3) पुनर्गठन (Restructuring)

        नाइडा ने पहले सोपान में अनुवादक मूल-पाठ या स्रोत-भाषा का विश्लेषण दर्शाया है। यह विश्लेषण भाषा के दोनों स्तर, बाह्य संरचना पक्ष तथा आभ्यन्तर अर्थपक्ष पर होता है, जिसमें मूल-पाठ का शाब्दिक अनुवाद तैयार हो जाता है। विश्लेषण से प्राप्त अर्थबोध का लक्ष्य-भाषा में अन्तरण अनुवाद का दूसरा सोपान होता है। तीसरे सोपान में लक्ष्य-भाषा की अभिव्यक्ति प्रणाली और कथन रीति के अनुसार उसका निर्माण होता है।

अनुवादक के गुण

        अनुवादक (translator) स्रोतभाषा के पाठ को अर्थपूर्ण रूप से लक्ष्य भाषा में अनूदित करने का कार्य करता है। अनुवाद कार्य के लिए अनुवादक  में आवश्यक गुण होने चाहिए। अनुवादक के गुण निम्नलिखित है – 1) भाषाओं का समुचित ज्ञान, 2)  सम्बन्धित विषय का सम्पूर्ण ज्ञान, 3) स्वतंत्र विचार शक्ति, 4)  लोकोत्तर मेधा और आनंद कौशल, 5) अनुवाद विधा का ज्ञान, 6)  व्याकरण का ज्ञान, 7)  प्रामाणिक्ता और मौलिकता

अनुवाद का क्षेत्र

         वर्तमान समय के परिप्रेक्ष्य में अनुवाद का क्षेत्र बहुत व्यापक हो गया है। आधुनिक काल में अनुवाद का प्रयोग बड़े पैमाने पर हो रहा है, क्योंकि विश्व में कई भाषाएं बोली जाती है; एक भाषा के भावों या विचारों की अभिव्यक्ति दूसरे भाषी व्यक्ति तक पहुंचे इसलिए अनुवाद कार्य बड़ी तेजी से हो रहा है। अनुवाद के क्षेत्र निम्नलिखित रुप से प्रस्तुत है – सरकारी कार्यालय, न्यायालय, शिक्षा, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, अंतरराष्ट्रीय संबंध, संस्कृति, साहित्य, जनसंचार माध्यम।

अनुवाद : वर्गीकरण

        डॉ. भोलानाथ तिवारी ने ‘अनुवाद की व्यावहारिक समस्याएं’ इस ग्रंथ में अनुवाद के भेद या प्रकारों के मुख्य चार आधार बताए हैं। वह निम्नलिखित रुप से है –

अ) अनुवाद के गद्यपद्य होने के आधार पर

१) गद्यानुवाद २) पद्यानुवाद ३) मुक्तछंदानुवाद

) साहित्यिक विधा के आधार पर

१) काव्यानुवाद २) नाटकानुवाद ३) कथानुवाद

इ) विषय के आधार पर

१) सरकारी रिकार्डो का अनुवाद २) गेजेटियरों का अनुवाद ३) पत्रकारिता से संबंध अनुवाद ४) विधि का अनुवाद ५) ऐतिहासिक साहित्य का अनुवाद ६) धार्मिक साहित्य का अनुवाद ७) ललित साहित्य का अनुवाद

ई) अनुवाद की प्रकृति के आधार पर

१) मूलनिष्ठ अनुवाद २) मूलमुक्त अनुवाद

अनुवाद के प्रकार

        डॉ. भोलानाथ तिवारी ने अनुवाद की प्रकृति के आधार पर अनुवाद के कुछ अन्य भेद या प्रकारों का भी उल्लेख किया है। जो तत्वतः मूलनिष्ठ और मूलमुक्त से भिन्न नहीं है। यह अन्य प्रकार अधोलिखित है –

1) शब्दानुवाद : प्रत्येक शब्द के बदले प्रतिशब्द देने के कारण इसे शब्दानुवाद कहा जाता है। स्रोत-भाषा के शब्द तथा शब्द क्रम को उसी प्रकार लक्ष्य-भाषा में रूपान्तरित करना शब्दानुवाद है। अनुवादक का लक्ष्य मूल-भाषा के विचारों को रूपान्तरित करने से अधिक शब्दों का ज्यों का त्यों अनुवाद करने से होता है। शब्द एवं शब्द क्रम की प्रकृति हर भाषा में भिन्न होती है।

2) भावानुवाद : साहित्यिक रचनाओं के बारे में भावानुवाद का विशेष महत्त्व होता है। इस अनुवाद में मूल-भाषा के भावों, विचारों एवं संवेदनाओं को लक्ष्य-भाषा में रूपान्तरित किया जाता है। भोलानाथ तिवारी के अनुसार “इस प्रकार के अनुवाद में मूल शब्द,वाक्यांश, वाक्य आदि पर ध्यान न देकर भाव अर्थ या विचार पर ध्यान दिया जाता है।”3 भावानुवाद में सम्प्रेषणीयता सबसे महत्त्वपूर्ण होती है। इसमें अनुवादक का लक्ष्य स्रोत-भाषा में अभिव्यक्त भावों, विचारों एवं अर्थों का लक्ष्य-भाषा में रूपांरित करना होता है। संस्कृत साहित्य में लिखित कुछ ललित निबन्धों के हिन्दी में अनुवाद बहुत ही प्रभावी सिद्ध हुए हैं।

3) छायानुवाद : “छाया’ संस्कृत का बहुत पुराना शब्द है और इसका प्रयोग नाटकों में यत्र-तत्र दृष्टिगत होता है। संस्कृत पाठ की छाया जब हिंदी पाठ पर होती है तो उसे छायानुवाद कहा जाता है।”4 अनुवाद सिद्धान्त में छाया शब्द का प्रयोग बहुत पुराना है। इसमें मूल-पाठ की अर्थ छाया को ग्रहण करके अनुवाद किया जाता है। छायानुवाद में शब्दों तथा भावों के संकलित प्रभाव को लक्ष्य-भाषा में रूपान्तरित किया जाता है। संस्कृत में लिखा कालिदास का नाटक ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’  हिन्दी अनुवाद का उत्कृष्ट उदाहरण रहा है।

4) सारानुवाद : किसी भी विस्तृत विचार अथवा सामग्री का संक्षेप में अनुवाद प्रस्तुत करना सारानुवाद है। लम्बी रचनाओं, राजनैतिक भाषणों, प्रतिवेदनों आदि व्यावहारिक कार्य के अनुवाद के लिए सारानुवाद बहुत उपयोगी सिद्ध होता है। रीतारानी पालीवाल का कथन है कि “भाषणों, संसद में दिए गए वक्तव्यों तथा बहसों का अनुवाद इसी कोटि में आता है।”5 इसतरह के अनुवाद में मूल-भाषा के कथ्य को सुरक्षित रखते हुए लक्ष्य-भाषा में उसका रूपान्तरण किया जाता है।

5) व्याख्यानुवाद : व्याख्यानुवाद को भाष्यानुवाद के नाम से भी जाना जाता है। इस अनुवाद में अनुवादक मूल सामग्री के साथ-साथ उसकी व्याख्या भी प्रस्तुत करता है। व्याख्यानुवाद में अनुवादक का व्यक्तित्व महत्त्वपूर्ण हो जाता है। बाल गंगाधर तिलक द्वारा किया गया ‘गीता’ का अनुवाद इसी का परिचायक है।

6) सहज अनुवाद : यह अनुवाद का आदर्श प्रकार है। जिसमें अनुवादक स्रोत भाषा की मूल सामग्री का अनुवाद अर्थ तथा अभिव्यक्ति सहित लक्ष्य भाषा में निकटतम और स्वाभाविक समानार्थी द्वारा करता है। इस अनुवाद में अनुवादक तटस्थ भूमिका निभाता है। अनुवाद में अनुवादक के भाव तथा विचार आदि की छाया अनुवादित सामग्री पर नहीं पड़ती है। इसे स्वाभाविक सटीक अनुवाद भी कहा जाता है। अनुवादक यथासंभव अपना व्यक्तित्व नहीं आने देता है, अनुवादक का प्रयास यह होता है कि मूल को पढ़ या सुनकर स्रोत भाषा भाषी जो ग्रहण करें, अनुवाद को सुनकर लक्ष्य भाषा भाषी भी ठीक वही ग्रहण करें।

 अनुवाद का महत्व

  1. अनुवाद तकनीकी के विकास में सहायक है। जब हम एक अंतरिक्षीय भाषा की खोज में लगे हैं, उसके पूर्व अनुवाद को माध्यम बनाकर समस्त तकनीकी ज्ञान को विकासात्मक स्थिति में एकात्मक दिशा देने के लिए अनुवाद सहायक सिद्ध होता है।
  2. प्रशासन संबंधी जानकारी प्राप्त करने का स्त्रोत उस देश की भाषा के अनुवादों द्वारा ही संभव है। अपने देश की शासन प्रणाली संबंधित तथ्य के लिए अनुवाद साधन के रूप में सिद्ध होता है।
  3. आज के युग में नित्य नवीन शब्दों का विकास हो रहा है, इन शब्दों की जानकारी का माध्यम अनुवाद ही हो सकता है।
  4. वैश्वीकरण के प्रचार के कारण अनेक भाषाओं का ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से अनुवाद अत्यंत उपयोगी सिद्ध होता है। भिन्न-भिन्न भाषी देशों की राजनीतिक, कूटनीतिक, आर्थिक नीतियों के लिए आशु अनुवाद से विभिन्न नीतियों का आदान प्रदान संभव हो जाता है।
  5. विश्व मैत्री के लिए आज के संदर्भ में अनुवाद अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। माननीय अधिकारियों की जानकारी , परस्पर आदान-प्रदान करनेवाले भाव से मैत्री स्थापना, शिष्ट मंडलों के प्रति उदारता आदि के विकास में अनुवाद सहायक सिद्ध होता हैं।
  6. अनुवाद विज्ञान के अध्ययन से कैरियर निर्माण की दिशा की ओर भी बढ़ा जा सकता है। पर्यटन, व्यापार, तकनीकी आदि के क्षेत्र में सदैव ही अनुवाद की आवश्यकता होती हैं।
  7. संचार माध्यमों में अनुवाद का महत्व बढ़ा है। दूरदर्शन, फिल्मो, सीरियलों, पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से विश्व के कार्यकलापों, गतिविधियों आदि की जानकारी अनुवाद के माध्यम से प्राप्त होती है। भाषाओं की कला- चेतन के बारे में अनुवाद ही परिचित कराता है।
  8. एक भाषा की प्रतिभा का परिचय अनुवाद द्वारा सफलता से प्राप्त किया जा सकता है। हमारे देश के कालिदास, सूरदास, तुलसीदास, बिहारी एवं प्रेमचंद आदि साहित्यकारों का साहित्य अनुवाद के स्रोतों द्वारा ही विदेशों में सम्मान प्राप्त कर रहा हैं। उस साहित्य से ही हमारी संस्कृति एवं सभ्यता के दर्शन होते हैं, वह अनुवाद द्वारा व्यापक धरातल तक पहुंच पाए हैं।

अनुवाद की समस्याएँ

        एक भाषा में अभिव्यक्त विषयों, भावनाओं और संवेदनाओं को जहाँ तक संभव हो सके उसी की प्रयुक्त भाषा-शैली में दूसरी भाषा में रूपांतरित करना अनुवाद कहलाता है। फिर भी यह कार्य जितना सरल दिखाई देता है उतना वास्तव में है नहीं ; क्योंकि हर भाषा की भाषिक संरचना में कुछ अंतर होता है। अनुवाद की समस्याएँ निम्नांकित हैं –          

  1. शब्द प्रयोग की समस्या – कभी-कभी एक ही भाषाओं के दो शब्द मिल जाते है जिसका अर्थ अलग-अलग होता है। जैसे-मराठी में ‘नवरा’ का अर्थ पति है जबकि गुजराती में निठल्ले को ‘नवरा’ कहते है।
  2. मुहावरो एवं कहावतो से संबंधित समस्या – मुहावरे एवं कहावते मनुष्य जीवन के अनुभावों को प्रभावशाली रूप में अभिव्यक्त करते हैं। परन्तु हर मुहावरे या कहावते एक जैसे नहीं हो सकते। अनुवादक को यदि लोक परंपरागत रीति-रिवाजों का प्रादेशिक ज्ञान नहीं है तो वह कहावतों का सफल अनुवाद नहीं के सकेगा।
  3. अलंकार की समस्या – एक भाषा के अलंकार उस भाषा के शब्द को सौन्दर्य प्रदान करते है। “कनक-कनक” में यमक अलंकार दुहरे अर्थ में प्रयोग अनुवाद के लिए एक गंभीर समस्या बन जाती है।
  4. शैली की समस्या – हर भाषा की अपनी शैली होती है। परन्तु अगर एक भाषा में उपलब्ध शैली विशेषताएँ दूसरी में न मिले तो अनुवाद करने में बड़ी परेशानी होती है।

निष्कर्ष

        उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि एक भाषा की सामग्री दूसरी भाषा में ले जाना अनुवाद है। अनुवाद में मूल कथ्य का भाव सुरक्षित रखना पड़ता है। भाषाओं की प्रकृति भिन्न-भिन्न होने के कारण शत-प्रतिशत अनुवाद कार्य संभव नहीं हो पाता लेकिन मूल अर्थ के अधिक से अधिक निकट जाने का प्रयास अवश्य किया जाता है। दोनों भाषाओं की प्रकृति जितनी समान होती है उतना ही अनुवाद कार्य आसान हो जाता है। अनुवाद आधुनिक जीवन की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, वैज्ञानिक, प्रौद्योगिकी तथा सांस्कृतिक क्षेत्रों में राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक रूप धारण कर चुका है। संचार माध्यमों ने जिस प्रकार विश्व को एक देहातों में बदला हुआ देखा। उसी प्रकार अनुवाद कार्य ने विश्व संस्कृति को विविधता में एकता का अनुभव करा दिया है। अनुवाद के अनेकानेक व्यवहारिक उपयोग है। उसी तरह सैद्धांतिक ज्ञान और सांस्कृतिक उपलब्धि के रूप में भी महत्वपूर्ण है। न्यायालय, सरकारी कार्यालय, विज्ञान, प्रौद्योगिकी, शिक्षा, पत्रकारिता, साहित्य एवं सांस्कृतिक सम्बन्ध आदि क्षेत्रों में अनुवाद उपादेय सिद्ध होता है। देश-विदेश के विभिन्न क्षेत्रों में अनुवाद महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।

संदर्भ ग्रंथ

1) डॉ. भोलानाथ तिवारी, अनुवाद विज्ञान, अमर प्रिंटिंग प्रेस नई दिल्ली, प्र.सं. 1972, पृ. 9

2) डॉ.रीतारानी पालीवाल, अनुवाद प्रक्रिया, ललित प्रकाशन दिल्ली, प्र. सं. 1982, पृ.17

3) डॉ.भोलानाथ तिवारी, अनुवाद विज्ञान, अमर प्रिंटिंग प्रेस नई दिल्ली, प्र.सं.1972, पृ.28

4) डॉ.रीतारानी पालीवाल, अनुवाद प्रक्रिया, ललित प्रकाशन दिल्ली, प्र.सं.1982, पृ. 26

5) वही, पृ. 26




अनन्य है

अनन्य है

रात के आगोश में  जब छिपा चला जाता है मन

तो धीरे से हवा का झोंका बन यूँ जगा जाना अनन्य है।

 

अश्कों के झरनों से जब लबालब हो जाती हैं आँखें तो

 तृषित हिरनी की तरह तुम्हारा उनसे प्यास मिटाना अनन्य है।

 

कौतुहल से जब पूछ रहा होता हूँ प्रश्न कभी

तो तुम्हारा इशारों में समझाना अनन्य है।

 

जब नफरतों की पृष्टभूमि पर क्षणिक जीवन की भी आस न हो

तो तुम्हारा प्यार की हरियाली उपजाना अनन्य है।

 

दूर तक चल रही भीड़ में जब हाथ तुम्हारा पकड़

चलता हूँ तो दुनिया में वो खुशनसीबी अनन्य है।

 

दुखों के बोझे को जब अकेला उठा रहा होता हूँ

तो तुम्हारा हिम्मत बँधाना अनन्य है।

 

तुम्हारी आँखों में आँखें डालने से सकुचाता हूँ जरा भी

तो तुम्हारा पास आकर नजरें मिलाना अनन्य है।

 

तुम्हारी हर बात अनन्य है।

तुम्हारा हर साथ अनन्य है।।

नेमीचंद मावरी “निमय”

बूंदी, राजस्थान




आज की सच्चाई

आज की सच्चाई

वक़्त बदला मगर वक्त पे नहीं,

चाल बदनाम है या नाम की चाल बद है,

 

नाज है बेवफ़ाई वफ़ा है,

हर सगे की कहना सिर्फ़ दगा है,

नैमित्य है जो अब निमित्त ना रहा,

झूठ के पैरों में रुन्ध, सच अब सफा है।

 

सपौले अनगिनत हैं जहर की पोटली में,

अंधेरा भी बंद है अंधेरी सी कोठरी में,

बदल डाली है दुनिया रख जादुई टोकरी में।

नेमीचंद मावरी “निमय”

बूंदी, राजस्थान

 

 




युवाशक्ति

 युवाशक्ति

ना सूरज की तपन से जल पाए, ना मारुत कहीं उड़ा ले जाए,

ना सरिता कभी बहा सके, ना सागर इसको डूबा पाए,

ना रोक सकेगा तूफां कोई, ना बादल गर्जन से डरा पाए,

जो हुँकार भरे युवा शक्ति मिलकर, ये भूमंडल डगमगा जाए

ये ब्रह्मांड डगमगा जाए।

 

हे ऐसी अगन, हे ऐसी तपन, पत्थर को पिघला जलजला ला दे,

बंजर सी भूमि में उपजा सोना, मरुधर में गंगा बहा दे।

इस यौवन की ललकार को सुन, शैतान भी काँप उठे थर- थर,

जो मन में ठान ले गर युवा, तो ख़ुशियों से भर जाये हर घर।

 

इन पर गर्व करे जग सारा, कोई ना समझे खुद को हीन।

इस यौवन की ज्वाला को, व्यर्थ में ना ठण्डा होने देना।

मुखमंडल के ओज- तेज को, जीवन में ना मंदा होने देना।

 

नेमीचंद मावरी “निमय”

बूंदी, राजस्थान