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डॉ. नानासाहेब जावळे की कविता – “समाज और व्यक्ति”

व्यक्ति और समाज का संबंध

है पेड़ और भूमि जैसा 

व्यक्तित्व रूपी पेड़ समाज रूपी भूमि पर

खूब फूलता-फलता हो जैसा। 

व्यक्ति और समाज 

हैं दोनों पारस्परिक 

एक दूसरे के बिना 

हैं दोनों का अस्तित्व मुश्किल। 

नहीं होता व्यक्ति के बिना 

समाज का कोई अस्तित्व अपना 

और नहीं रह सकता है व्यक्ति 

समाज के बिना कभी सुरक्षित। 

व्यक्ति के अपने दो हाथों के सिवा 

होते हैं उसके पीछे खड़े हजारों हाथ 

वे व्यक्ति का जीवन हैं संवारते

उसका जीवन स्वस्थ बनाते। 

सुबह से लेकर देर रात तक 

करते हैं जो हमारी आवश्यकता पूर्ति 

वही समाज के देनदार 

सही मायने में हमारे समधी। 

होगा कोई डॉक्टर, पुलिस या सैनिक 

अथवा होगा दूधवाला, सब्जीवाला या दुकानदार 

अगर बंद कर दे यह सारे अपना काम

इनके बिना जीवन होगा दुश्वार। 

जीवन एक शास्त्र, कला और धर्म है 

उसे जीते-जीते हम सीख जाते हैं 

जियो और जीने दो के तत्वानुसार 

हम सुखी-समृद्ध जीवन बनाते हैं। 

व्यक्ति बना रहे इंसान 

अन्यों से बनाए रखे सुसंवाद 

जनहित देखे स्वांत सुख के परे 

तब कहलाए वह नर का नारायण। 

लेकिन व्यक्ति, खोकर अपनी विवेक शक्ति 

हो धर्मांध या घिनौनी राजनीति से प्रभावित 

कार्य करें मानवता विरोधी 

तब कहलाए वह स्वार्थी-पाखंडी। 

अनेक बार निष्ठा के नाम पर व्यक्ति 

गिरवी रखकर अपनी प्रज्ञा शक्ति 

छोड़ दे राह इंसानियत की 

खूब हानि होती है मानवता की। 

निश्चित ही व्यक्ति 

इकाई है, समाज की 

फिर भी स्वाभाविक विशेषताएं उसकी 

बनाती है पहचान उसके अस्तित्व की। 

भूल न जाए व्यक्ति अपना स्वत्व 

खो न दे वह अपना अस्तित्व 

कर जीवन मूल्यों का स्वीकार 

करता रहे मानवता का प्रचार-प्रसार।

लेकिन आज समाज में 

व्यक्ति का आदर होता है तब तक 

उसके पास बहुत सारा 

पैसा होता है जब तक। 

अतः अब व्यक्ति का लक्ष्य 

बन गया है मात्र पैसा 

भौतिक संपन्नता के पीछे 

देखो भाग रहा है, वह कैसा? 

आज पैसा ही समाज का 

ईश्वर बन जाने के कारण 

सच्चे समाज हितैषी, जीवन मूल्यों के निर्माता 

उपेक्षित बन गए हैं, यह सब जन।

समाज जिसे आदर्श मानेगा 

व्यक्ति उसका अनुसरण करेगा 

मानवता की भलाई के लिए 

दोनों को ही बदलना होगा।

अतः स्वार्थ, धर्मांध, कूटनीतिज्ञों से बचकर 

हमें मानव बने रहना होगा 

व्यक्तिगत लाभ-हानि का त्यागकर 

मानवता को महत्व देना होगा।

सहयोगी प्राध्यापक, सुभाष बाबुराव कुल कला, वाणिज्य व विज्ञान महाविद्यालय केडगांव, तहसील – दौंड, जिला – पुणे, महाराष्ट्र, भारत

संपर्क : E-mail- [email protected]दूरभाष 7588952404




हिन्दी कीं दशा और दिशा

डॉ. मजीद मियां
सहायक प्रोफेसर

सार

भाषा साहित्य एवं जीवन के बीच एक सेतु का काम करता है। साहित्यकार उस भाषा रूपी सेतु का निर्माता है, जो व्यक्ति और समाज का यथार्थ जीवन से रिश्ता कायम करता है तथा उचित-अनुचित का ज्ञान एवं रिश्ते की ओर ले जाता है। इसके साथ ही अपने मूर्त रूप में यह विचार विनिमय का साधन भी होता है। भोलानाथ तिवारी ने इसकी परिभाषा देते हुए कहा है – “भाषा मानव-उच्चारना वयवों से उच्चारित यादृच्छिक ध्वनि-प्रतिकों की वह संरचना है, जिसके द्वारा समाज के लोग आपस में विचार-विनिमय करते हैं और साथ ही लेखक, कवि या वक्ता रूप वे में अपने अनुभवों एवं भावों आदि को व्यक्त करते हैं तथा अपने वैयक्तिक और सामाजिक व्यक्तित्व विशिष्टता तथा अस्मिता के सम्बंध में जाने-अंजाने जानकारी भी देते हैं।1 हिन्दी के वर्तमान स्वरूप को आत्मसात करने पर सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के कविताओं में व्यक्त चिंता को मजबूत आधार प्रदान हो जाता है, जिससे एक तरफ लोक बोली से भाषा बनकर वैश्विक राह पर व्यावहारिक हिन्दी के प्रति आभारी ही सही लेकिन यथार्थ का नया चेहरा उजागर होता है, तो दूसरी तरफ धूमिल होते रूप के प्रति आकर्षक शक्ति को महसूस किया जा सकता है। इस प्रकार हिन्दी भक्तों के लिए इसके स्वरूप का पुनः निर्धारण एक आवश्यक पहलू बन जाता है। इसी कारण यथा स्थितिवाद से गुजरते हुए हिन्दी की वास्तविक खोज एवं जानकारी संभव है। राष्ट्रिय स्तर पर देखा जाए तो अपने ही घर में बेगानी बनी हिन्दी के प्रति साधारण दृष्टिकोण की परख के बाद ही अन्तराष्ट्रीय लेखा-जोखा प्रस्तुत किया जा सकता है। वर्तमान समय मे आज भी देखे तो हिन्दी की छाती पर अँग्रेजी को जबरन लादा जाता है। नागार्जुन ने 25 नवंबर 1982 को ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित अपने लेख में भी लिखा था कि, “अँग्रेजी का मोह हमारी रग-रग में भरा हुआ है। हम अँग्रेजी को ही देश की एकता और केन्द्रीय प्रशासन के साथ-साथ विश्व मानव संपर्क का एकमात्र माध्यम मान बैठे हैं। लार्ड मेकाले के अनुयाईओ में अँग्रेजी के प्रति आजादी से पहले उतना उत्साह नहीं रहा होगा जितना स्वाधीनता हासिल कर लेने के बाद हमारे देश के कुछ आंचलिकता के स्वार्थ में पड़कर उफान खाने लगा है”।2 इतना ही नहीं, नागार्जुन जी भाषा समस्या को जन-सामान्य से जोड़ते हुए आगे लिखते हैं कि – ‘वस्तुतः यह संकट अमुक या अमुक भाषा के हटाने या रखने का संकट नहीं है। यह संकट है जन-सामान्य को हमेशा के लिए ‘अछूत एवं नीच’ मानकर शासन के मंदिरों में जमे हुए उच्च वर्ग के स्पर्श-दोष से बचाने और संजोने का। जिनका संस्कार अँग्रेजी के माध्यम से ही गढा गया हैं और जिसे हुकूमत का चस्का लग चुका है। वे क्या चाहेंगे कि अँग्रेजी हटे? उनका मानना है कि अंग्रेजी जैसी अखिल भारतीय भाषा को हटाकर हम क्या फिर से प्राकृत-अपभ्रंश की गुफाओं में लौट जाएंगे? ऐसा कहकर कुछ लोग अंग्रेजों की ही तरह आज भी अँग्रेजी का रसायन हमे पीला रही है। कभी-कभी लगता है कि वाकई अंग्रेज़ यहाँ से चले गए! वर्तमान समय में आंचलिकता के साथ-साथ बहुत सारे समस्याओं के कारण आज हिन्दी अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ रही है इसमे विदेशी प्रभाव को नहीं माना जा सकता, क्योंकि वैश्वीकरण के कारण विदेशी सरकार एवं वहाँ की कम्पनियां अपने लोगों को हिन्दी सिखा रहे हैं. परन्तु हमारे यहाँ ठीक इसके उलटे रोजगार का माध्यम लोग अंग्रेजी को मानते हुए अधिक से अधिक अंग्रेजी पर जोर देते नजर आ रहे हैं. जिससे अपने ही देश में हिन्दी आज प्रवासिनी बनी हुई है. इसके लिए मैं उदाहरण देना चाहूँगा “जैसे एक पहिला अपने ललाट पर आईने के सामने खडी होकर बिंदी लगाती है और फिर वह उस बिंदी के सुन्दरता को नहीं देख पाती है. परन्तु दुसरे उस बिंदी की सुन्दरता को देख पाता है. उसी प्रकार भारत देश ने विश्व को हिन्दी की बिंदी देकर विश्व को सुन्दर बना दिया है पर आईने के अभाव में आज हमारा देश खुद उस सुन्दरता को नहीं देख पा रहा है. अगर भारतीयों को वर्तमान समय में हिन्दी की सुन्दरता को देखना ही है तो उन्हें फिर से उस आईने के सामने आना होगा तभी वह हिन्दी की सुन्दरता को देख पाएगा.

प्रसंगतः प्रो. सुधीश पचौरी का कथन न केवल हिन्दी के वर्तमानकालिक यथार्थ को सिद्ध करता है अपितु इससे आजादी के सात दशक बीत जाने के बाद भी उपर्युक्त विचार की जीवनतता प्रमाणित होती है। उन्होने हिन्दी दिवस के अवसर पर ‘हिन्दी को खतरा हिन्दी वालों से है’ शीर्षक अपने लेख में स्पष्ट कहा कि “हिन्दी के उद्धार के नाम पर हमे तमाशा नहीं बनाना चाहिए। सरकार और रचनाकार जो हिन्दी के लिए रोना-धोना करते हैं उनसे मैं कभी सहमत था और ना ही सहमत हूँ। सरकार भाषाओं को नहीं बचाती बल्कि साधारण प्रयोग करने वाली जनता ही बचाती है। हमारे हिन्दी के बुद्धिजीवी सामाजिक विषयों पर तो खूब बोलते हैं लेकिन भाषा को बढ़ाने के लिए उनके हलक से एक आवाज तक नहीं निकलती है, वे हमेशा न जाने क्यो मौन रहते हैं? आज भुमन्डलीकरण के दौड मे हिंदी कमाई की भाषा बन गई है लेकिन इसकी कमाई खाती अँग्रेजी है। आज हमारे देश मे ऐसी बड़ी संख्या मे लोग है जो खाती हिन्दी की है पर गाती अँग्रेजी की है”।3 अतः 21वीं सदी में भारत एक तरफ जहॉ राष्ट्रिय स्तर पर आर्थिक संवृद्धि की चरमावस्था को प्रकट करने का प्रयास कर रहा है तो दूसरी तरफ राष्ट्रिय अस्मिता की जन-भाषा हिंदी को स्थायित्व प्रदान करने में भरपूर सहयोग नहीं कर पा रहा है। हिन्दी के सर्वव्यापी अस्तित्व और सर्वेश्वर चरित्र को हितग्राही बनाने में सबसे प्रमुख बाधा है, अँग्रेजी का बढ़ता प्रकोप। यहाँ तक कि ‘अँग्रेजी’ के द्वारा नए-नए तर्क-वितरकों एवं दृष्टिकोणों का जन्म, अपने आप में अशुभ संकेत का घोतक है। संसार की निगाहों में हमारी यह अँग्रेजी भक्ति भारतीय जनता की मानसिक पंगुता का चटकीला विज्ञापन साबित हो रहा है। यहॉ स्वामी रामदेव महाराज का कथन सठिक प्रतीत होता है कि – ‘विदेशी भाषाओं का ज्ञान होना उत्तम बात है, क्योंकि संवाद, संपर्क, व्यापार एवं व्यवहार के लिए यह आवश्यक है परन्तु अन्य देश की भाषा का हमारे देश मे राष्ट्रभाषा के रूप में प्रयोग करना, घोर अपमान और शर्म की बात है’। विश्व का कोई भी सभ्य देश अपने नागरिकों को विदेशी भाषा में शिक्षा नहीं देता। परन्तु विदेशी भाषा में शिक्षा देने वाला देश विश्व में केवल भारतवर्ष ही है जो जनता का अंग्रेजी के मोह के कारण ही संभव हो सका है. साथ ही यह भी सच्चाई है कि जन साधारण की इसी शक्ति के कारण ही आज वर्तमान समय मे उदारीकरण और उपभोक्तावादी संस्कृति से हिन्दी का अंतरसंबंध स्थापित हुआ है। आज हिन्दी, मनोरंजन, सूचना और उपभोग का जबर्दस्त माध्यम बन गया है और साथ-साथ बाजार में ऐसी पकड़ जमा ली है कि, बड़ी से बड़ी बहुराष्ट्रीय उपभोक्ता कम्पनी व्यापार के लिए, हिन्दी को अपनाने के लिए मजबूर है. परंतु इन सभी के बावजुद भी लम्बे समय से हिंदी आज़ भी अपने ही जन्म भूमि भारत में संघर्षरत है. हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी अपने देश में ही आज – राजभाषा, संपर्कभाषा, व्यापार भाषा या फिर मात्र अनुवाद की भाषा बनकर रह गया है! पर आज हतभाग्य हिन्दी के अस्तित्व और उसके भविष्य के स्वरूप में सबसे बड़ी चुनौती आठवीं अनुसूची में सम्मिलित होने को अधीर उसकी प्राण बोलियाँ ही खड़ी कर सकती है।

वर्तमान समय का हम आकलन करें तो हमारी वर्तमान पीढ़ी बाजारवाद और आंचलिक राजनीति के झांसे में पड़कर जिस प्रकार अंग्रेजी के मोह में पड़े हैं, उससे हिन्दी के समसामयिक बोध के स्वरूप को छिन्न-भिन्न करने में कोई कसर नहीं छोर रहे हैं। परंतु इन सब के बावजूद भी आज हिन्दी अपनी लचीलेपन और रचनाधर्मिता के कारण भारतीय संस्कृति की संवाहक बनकर हमारे समक्ष खड़ी है। क्योंकि किसी भी भाषा की सर्वमान्य मापदंड उसकी रचनाधर्मिता, संवेदनशीलता और लचीलापन होती है। अपने इस गुणों के कारण ही विश्व स्तर पर हिन्दी का भविष्य उज्ज्वल है क्योंकि संसार की उन्नत भाषाओं में हिन्दी सबसे अधिक व्यवस्थित, सरल, लचीली, नवीन शंब्द रचना में समर्थ एवं आम जनता से जुड़ी भाषा है। हिन्दी आज विश्व भाषा बन चुकी है क्योंकि दुनिया के हर देश में हिन्दी भाषी अपनी उपस्थिती दर्ज करा रहे हैं। वह उपस्थिती चाहे आर्थिक क्षेत्र में हो या राजनीतिक क्षेत्र में हो अथवा सामाजिक क्षेत्र में। भारतीयों ने आज अपने को कमोबेश ही सही पर अंग्रेजी के चंगुल से निकल कर अपना एक अलग पहचान बनाया है, जिसकी गूँज विश्व के हर एक कोने में सुनी जा सकती है। लेकिन इन सभी पहलुओं के बावजूद सम्पूर्ण भारत में भाषा-विवाद एवं इसके नवीन राजनैतिक गतिशीलता ने हिन्दी की स्वाभाविकता पर अनेको प्रश्न खड़े करते हैं। आजादी के इतने दिनों बाद भी आज तक भाषा का सवाल आखिर सुलझा क्यों नहीं? पर पिछले एक दशक से इस प्रश्न का एक नया आवाम जुड़ गया है। गैर हिन्दी प्रेदेशों में खासकर महाराष्ट्र और पूर्वोत्तर राज्यों में, हिन्दी को लेकर विरोध तेज हुए है, पहले विरोध दक्षिण तक सीमित थी। हिन्दी भाषी राज्यों में तेजी से हो रहे बेरोजगारी के प्रश्न ने हिन्दी विरोध को तेज कर दिया है। परिणामस्वरूप आपसी कटुता, द्वेष, विरोध के स्वर फूटने लगे हैं। इसकी परिणति वस्तुतः एकता और अखंडता के सर्वमान्य सिद्धान्त की क्षणभंगुरता में निहित हो सकती है। भले ही भाषायी अल्पसंख्यक, बंगला, उर्दु, मराठी, कन्नड़, तमिल, तेलेगु, आसामी, मणिपुरी इत्यादि भाषाओं के द्वारा हिन्दी विरोध को स्वर देने का प्रयास किया जा रहा है परन्तु इसका गंभीर दुष्परिणाम होगा।

दक्षिण भारत के कुछ राजनेता आंचलिकता की राजनीति चलाकर भले ही हिन्दी को राजनीति का अमली जामा पहनाकर कूटनीतिक जीत हासिल कर ली हो परन्तु राष्ट्रिय स्तर पर दक्षिण भारतीय हिन्दी प्रचार सभा, कर्नाटक हिन्दी प्रचार सभा, कर्नाटक महिला हिन्दी सेवा समिति इत्यादि ने हिन्दी को अन्तराष्ट्रिय पहचान बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दे रही है। साथ ही हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हिन्दी की सार्वभौमिकता को हिंदीतर आत्माओं ने बहुत पहले ही पहचान लिया था इसी कारण स्वामी विवेकानंद, महर्षि दयानंद सरस्वती, महात्मा गांधी और सुभाष चन्द्र बोस जैसे महापुरुषुओं ने मुक्त कंठ से हिन्दी की वकालत की। इस संदर्भ में पूर्व प्रधानमंत्री श्री देवगौड़ा ने 14 सितंबर 1996 को हिन्दी दिवस के अवसर पर कहा था कि – “विदेशी भाषा केवल सेठों-पूँजीपतियों एवम बड़े-बड़े लोगों और अफसरों को जोड़ती है लेकिन क्या राष्ट्र यही समाप्त हो जाता है? क्या कृषक, श्रमिक, ग्राम्य जन, पिछड़े वर्ग, अल्पसंख्यक भारत के अभिन्न अंग नहीं है? क्या ये भारत माँ के संताने नहीं है? इन्हे जोड़ने की जरूरत नहीं है? इन करोड़ो लोगों कों आखिर कौन जोड़ेगा? क्या इन्हे विदेशी भाषा जोड़ सकती है? इन्हे जोड़ने वाली भाषा तो एक ही है और उसका नाम है, राष्ट्रभाषा हिन्दी जो सम्पुर्ण राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोने का कार्य करती है”।4

वर्तमान समय में हिन्दी की स्थिति एवं प्रगति की बात करें तो, हिंदी नदी की निर्मल धारा की तरह अपने पथ पर अग्रसर है. हिन्दी के भविष्य की बात करें तो इसके अन्तः स्वप्नों की कल्पना भारतीय सिनेमा, मीडिया और जन संचार माध्यमों विशेषतः अंतर्जाल से करना अतिशयोक्ति नहीं होगा। अक्सर इस बात की चर्चा होती है कि हिन्दी को गति प्रदान करने में हिन्दी सिनेमा का महत्वपूर्ण योगदान रहा है, संचार माध्यमों विशेषकर इन्टरनेट पर हिन्दी का प्रसार साहित्यिक परिदृश्य को नवीन आयाम प्रस्तुत करती है। इसके समर्थन में सिनेमा को उद्योग मानने पर जीविकोपार्जन हेतु किए जा रहे प्रयासों को आत्मसात किया जा सकता है। बक़ौल टेरी इगल्टन के अनुसार- ‘साहित्य एक कला की वस्तु हो सकती है, सामाजिक चेतना का उत्पादन हो सकता है, एक विश्वदृष्टि हो सकता है, लेकिन इसी के साथ-साथ यह उद्योग भी है। किताबे सिर्फ अर्थ की संरचनाएँ नहीं है, वे एक उत्पाद भी है, जिन्हें प्रकाशक लाभ के लिए बाजार में बेचता है। नाटक सिर्फ एक साहित्यिक पाठ का समुच्चय नहीं है, वह एक पूंजीवादी व्यापार भी है, जिसमे कई तरह के आदमी लगे होते हैं। वह भी एक उत्पाद है, जिसे दर्शकों द्वारा देखा जाता है और इस प्रक्रिया में लाभ कमाया जाता है”।5 लेकिन फिल्मों के संदर्भ में ऐसे विमर्श उचित प्रतीत नहीं होते। उदाहरण के लिए कवि निराला के कथन को प्रस्तुत कर सकते हैं- “हमे फिल्मों मे इतने उपदेश मिलते हैं कि जी ऊब जाता है। यह काम हम केवल हितकरण तथा भाषण-कौशल से निकाल सकते हैं। इतनी मारपी होती है कि यथार्थ शौर्य का भाव दूर होता है। प्रेम मे कामुकता इतनी होती है कि सुकुमारता नष्ट हो जाती है। कथोपकथन ऐसे गिरे हुए होते हैं कि इनमे मुश्किल से कहीं साहित्यिक छटा मिलती है”। इस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से भले ही भारतीय सिनेमा हिन्दी के अस्तित्व को बचाए रखे हैं लेकिन प्रत्यक्ष का दृष्टिगत संवेदन साहित्यिक हिन्दी को कटघरे मे लाकर खड़ा कर देता है। वस्तुतः अभी भी नाटक और रंगमंच से हिन्दी आश्वस्त है जिसका उदाहरण महानगरों एवं छोटे-छोटे कस्बों में नियमित तौर पर हो रहे रंगमंच की प्रस्तुति से सहज ही मिल जाता है। सूचना प्रौद्योगिकी की क्रांति ने सम्पूर्ण जनजीवन को मशीन बनाने को बाध्य किया है, जिससे हिन्दी भाषा अछूती नहीं है। अशोक चक्रधर यह मानते हैं कि – “विश्व भाषा के समक्ष हताश हो रही हिन्दी के मायूसी को हटाने की एकमात्र समर्थ शक्ति है- इन्टरनेट। यह निर्विदाद है कि इन्टरनेट ने हिंदी वैश्विक पहचान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा किया है। ओम निश्चल के कथन को उधार लेकर प्रस्तुत करने की हिम्मत जुटाता हूँ तो उपर्युक्त कथन स्वतः सिद्ध हो जाता है। बक़ौल ओम निश्चल के अनुसार – आधुनिक युग में इन्टरनेट ने दुनिया को बहुत छोटा कर दिया है। बटन दबाते ही हम विश्व की सारी जनकरियाँ पा सकते हैं एक दौर था जब हमारे देश का युवा प्रधानमंत्री इस देश को 21वीं सदी में ले जाने की बात करता था तो हम आश्चर्य और कुतूहल से भर उठते थे। वह 21वीं सदी को सूचना प्रौद्योगिकी और कम्प्यूटर से जोड़कर देखता था। लोग सोंचते थे, यह किसी शेख-चिल्ली का सपना भर है। किन्तु आज जब हम एक विकसित राष्ट्र के रूप में दूसरे राष्ट्रों के हम कदम हैं, हम देखते हैं कि देखते ही देखते उस शख्स का सपना साकार ही नहीं हुआ है बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में अपनी मौजूदगी दर्ज करा चुका है”।6 ऐसी परिस्थिति में हुई भाषिक क्रान्ति महत्वपूर्ण है, जिसमे सोशल मीडिया के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। इसमे प्रयुक्त भाषा को ओम निश्चल जी ने सेंथेटिक भाषा की संज्ञा दी है।

प्रसंगतः इन सब के बावजूद यह प्रश्न स्वाभाविक है कि- सोशल मीडिया पर हिन्दी का दबदबा कितना कारगर है? क्या हिन्दी के इस वैश्विक स्वरूप का अस्तित्व सचमुच खतरे में है? प्रथम प्रश्न का निर्बल एवं सबल पक्ष की पहचान करते हुए अनंत विजयजी लिखते हैं कि – “अगर साहित्य के लिहाज से देखें तो सोशल मीडिया का श्वेत और श्याम पक्ष दोनों है। इसकी तात्कालिकता और सतहीपन इसकी खास कमिया है। मनगढ़ंत और काल्पनिक भ्रम, अफवाह, विकृति और विद्रूपता फैलाने में भी इसकी नकारात्मक भूमिका बहुधा उजागर होती है। सोशल मीडिया खासकर फेसबुक ने दो काम किए हैं। एक तो महत्वपूर्ण है कि- इसने तमाम हिन्दी जानने वालों को रचनाकार बना दिया है”।7 लेकिन इसका सबल पक्ष हिन्दी के प्रसार में ही देखा जा सकता है। इसे मानने वाले तो यह तर्क देते हैं कि-सोशल मीडिया अभिव्यक्ति का बेहतर माध्यम है। यह अपने आपको उद्घाटित करने का एक बेहतर मंच है। इसी की वजह से हिन्दी वृहत्तर पाठक वर्ग तक पहुँच रही है। साथ ही इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि, अनेक ऐसे ब्लॉग भी है, जिसमे स्तरीय साहित्यिक रचनाएँ हो रही है। अनंत विजय मानते हैं कि- कोई भी चीज पक्का होने के पहले कच्चा ही होता है। इसी तरह से सोशल मीडिया पर साहित्य इस वक्त अपने कच्चेपन के साथ मौजूद है, लेकिन तकनीक का इस्तेमाल हमेशा से भाषा के हित में रहा है। इसका एक और उज्ज्वल पक्ष है- विमर्श और संवाद का बेहतरीन मंच। इससे निःसंदेह हिन्दी भाषा को नई पचान मिल रही है। परन्तु गैर मानकीकृत टेक्स्ट इनपुट हिन्दी के लिए एक ऐसी चुनौती प्रस्तुत कर रहा है, जिसकी भरपाई समय की मांग है। इसके लिए रोमन के तरीके में हिन्दी लिखना भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से प्रयोजन की सिद्धि में सहायक तो हो ही सकता है। अतः बालेंदु दाधीच का कथन उचित है कि- “तकनीकी शक्ति एक दुधारी तलवार है। अगर आम उपयोगकर्ता अपनी-अपनी युक्तियों पर गैर-मानकीकृत भाषा, गैर-मानकीकृत चिन्हों, की-बोर्डो आदि का प्रयोग करेंगे तो इस इन्टरनेट-दूरसंचार-सक्षम युग में उसका प्रसार भी इस रफ्तार से होगा कि उस पर नियंत्रण कर पाना मुश्किल हो जाएगा परन्तु धीरे-धीरे ये विकृतियाँ भाषा के मूल रूप को भी प्रदूषित करेंगी। सच तो यह है कि वे ऐसा करने लगा भी है”।8

ऐसी विषम परिस्थिति में मानक भाषा हेतु क्रांतिकारी परिवर्तन आवश्यक पहलू बन जाता है, हिन्दी के वैश्विक स्वरूप को समझे बिना अन्तिम निष्कर्ष पर पहुँच पाना बेमानी है। भले ही आज के कुछेक बिलियमों द्वारा भ्रम फैलाया जा रहा है कि वैश्वीकरण, उत्तर आधुनिकता एवं ज्ञान-विज्ञान से युक्त तकनीकी के दौर में हिन्दी के द्वारा विकास नहीं हो सकता। लेकिन यह निर्विदाद सत्य है कि- आधुनिक संचार ने हिन्दी का स्वरूप बदल दिया है। वर्तमान युग मे आज हिन्दी घूँघट से बाहर आ चुकी है। इसने नए सौंदर्यशास्त्र को अपनाया है। इसने विश्व को उसी भाषा में जवाब देने के लिए, नए रूप में तैयारी की है। वरिष्ठ आलोचक शम्भूनाथ का स्पष्ट अभिमत है कि – “मैं एक ऐसा विश्वग्राम देख रहा हूँ जिसमें होरी की गोशाला की जगह सुपरसोनिक विमान कंकार्ड खड़ा है। चौपाल पर डालर की दुकान है, जहाँ पान-सिगरेट भी उपलब्ध है। विश्व बैंक में झींगुरी सिंह बैठा है। दुलारी सहुआइन ने सुपर बाजार खोल रखा है, जिसमे सब कुछ बिकता है। दाताजी भव्य राम मंदिर के निर्माण में लगे हैं और पंद्रह मिनट की दूरी पर विज्ञान भवन में हरखू अपनी जाति का विश्व सम्मेलन कर रहा है। विश्वविद्यालय विश्व व्यापार संगठन के क्लब में बदल गए हैं, राय साहब ने इस बार मेडोना कों बुलाया है। अब प्रहसन नहीं होता। गन्ना और मटर के खेत मे आलू के चिप्स बनाए जा रहे हैं। टमाटर के एक समान पौधों पर सौंस की बोतले लटक रही है। किनारे के खड़े आम के पेड़ों पर अरब देशों के छोकड़े चढ़े हुए है। इंग्लैंड के प्रधानमंत्री ने बेलारी की चौड़ी सड़क पर हाथ मे कुदाल लिए बेकार बैठे होरी को देखकर ‘हाय’ किया है और कुछ की जेब में कंप्यूटर प्रशिक्षण का प्रमाणपत्र भी है अपनी नागरिकता भुलाकर सुन्न पड़े हैं। टीवी के कुछ केमरे उन पर गिद्ध की तरह मंडरा रहे हैं”।9

इस तरह निःसंदेह समाज में आए परिवर्तन को हिन्दी भाषा से जोड़कर देखा जा सकता है। इसे मूर्धन्य आलोचक विजय बहादुर सिंह ने स्पस्ट किया है कि, “समाज के चौराहे पर खड़ी हिन्दी’ के रूप को आत्मसात करते हुए चिंता जाहीर की है कि, “हिन्दी के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती है कि वह अपने समाज की प्रतिभा को कैसे अपनी ओर आकृष्ट करे? हमारा जन-समाज, लोकतान्त्रिक सरकार, विद्या-संस्थान परस्पर मिल-बैठकर इस चुनौती से धीरे-धीरे निपट सकते हैं, ध्यान बस इतना रखना होगा कि हमे इसके लिए अपने परिचित शब्द खोजने के लिए उस अवरुद्ध विद्याक्षेत्र और लोकविज्ञान क्षेत्र से मार्गदर्शन लेना होगा, जो सामाजिक जीवन को समझने और उससे आगे का संकेत पाने मे हमारी मदद करे”।10 साथ ही जैसे आज विश्व की सारी बड़ी भाषाओं के पास इन्टरनेट पर ई-लर्निंग के एक से एक बेहतर कार्यक्रम है, सॉफ्टवेयर एवं हार्डवेयर की भाषाओं मे एकरूपता है वैसी एकरूपता हिन्दी मे भी आवश्यक है तभी हिन्दी का परिपक्क स्वरूप सामने आ सकता है। आवश्यकता इस बात की है कि इसके परिपक्क स्वरूप हेतु ठोस कदम उठाया जाए। इसके निमित एक राय यह भी हो सकती है कि भारत सरकार के विभिन्न संस्थाओं एवं विश्वविद्यालयों की ओर से ई-लर्निंग का अंतरसंबंधित पाठ बनाया जाए तथा भविष्य में हिन्दी के स्वरूप का निर्धारण नए-नए विकसित सोफ्टवेयरों से किया जाए। उपरयुक्त माध्यम मे सबसे बड़ा कारगर हथियार है- मौलिकता। इसके अभाव में हिन्दी भाषा का वास्तविक पुनर्मूल्यांकन कठिन हो जाएगा। चाहे लेख हो, आलेख हो, या ग्रंथ, उसकी सहज स्वाभाविक स्थिति इसी पर आधारित है। इस प्रकार हिन्दी अपने घर में, परिवार में, पड़ोस में और अंततः सम्पूर्ण विश्व में अपने यथार्थवादी नजरियों से आकर्षित करने में सक्षम होगी। यही हिन्दी का अभिष्ठ है, जिसके निमित जनभागीदारी जरूरी कदम हो सकते हैं।

संदर्भ सूची :
1) भोलानाथ तिवारी-भाषा विज्ञान, किटब्महलेजेंसी, इलाहवाद, छतीसवा संस्कारण, पृष्ठ-5
2) क्षोभकन-नागार्जुन रचनावली-6, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.,नई दिल्ली, पेपरबाइक संस्कारण,पृष्ठ-216
3) पत्रिका, डाइनिका समाचार पत्र, संपादकीय, दिनांक-14।/09/2015
4) जय श्री शुक्ला, राजेश चतुर्वेदी-हिन्दी: संघर्ष और आयाम, विकास पब्लिकेशन, कानपुर, प्रथम संस्कारण ;1996, पृष्ठ-106
5) आजकल, सितंबर 2010, प्रकाशन विभाग, सूचना भवन, लोदी रो, नई दिल्ली, पृष्ठ-10
6) ओम निश्चल-साक्षात्कार का विश्व हिन्दी सम्मेलन अंक 2015 से साभार
7) नया ज्ञानोदय, अन-सितंबर 2015, संपादक-लीलाधार मंडलोई, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, पृष्ठ-67
8) नया ज्ञानोदय, अंक-सितंबर 2015, संपादक-लीलाधार मंडलोई, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, पृष्ठ-57
9) शम्भूनाथ-संस्कृति की आत्मकथा, पृष्ठ-57
10) नयी दुनिया, दैनिक समाचार पत्र, संपादकिया, 12 सितंबर 2015, पृष्ठ-04
राजभाषा हिन्दी : दशा एवं दिशा




“शोर न करें, चुपके से दबा दें डिसलाइक का बटन”

 – सुशील कुमार ‘नवीन’ 

फिलहाल एक प्रसिद्ध आभूषण निर्माता कंपनी का विज्ञापन इन दिनों खूब चर्चा में है। हो भी न क्यों हो। सौ करोड़ से भी ज्यादा आबादी वाले हिन्दू धर्म के लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ थोड़े ही न सहन की जाएगी । तलवारें खींच जाएंगी, तलवारें…। सब कुछ सहन कर लेंगे पर ये सहन नहीं करेंगे। ये तो भला हो उन कम्पनी वालों का जिन्होंने तथाकथित धर्म ठेकेदारों से भयभीत होकर विज्ञापन वापस लेने के साथ-साथ माफी भी मांग ली। अन्यथा न जाने क्या से क्या हो जाता।आप भी सोच रहे होंगे कि आज व्यंग्य में आक्रमकता कहां से आ गई। नदी उलटी दिशा में क्यों बहने लगी। सुप्तप्राय रहने वाली भावनाओं का समुन्द्र क्यों उफान लेने लगा। ऐसा कोई पहली बार थोड़े ही न हुआ है। फिर उबाल क्यों। तो सुनें मनोस्थिति के विकराल रूप धरने की वजह।

     सुबह-सुबह हमारे एक धर्मप्रेमी मित्र रामखिलावन जी का फोन आ गया। हर धार्मिक पर्व पर उनके सन्देश स्वभाविक रूप से हमारे पास आते रहते हैं। एक बड़ी धार्मिक संस्था में पदाधिकारी भी हैं। सम्बोधन भी सदा जय सियाराम से ही करते हैं। घर-परिवार की कुशलक्षेम के बाद बोले- जी,एक बात आपसे कहनी थी। मेरे बोले बिना ही फिर शुरू हो गए। बोले-इस बार धनतेरस पर…..ज्वेलर्स से कोई खरीदी मत करना।

मैंने कहा-इस बार तो पत्नी को कंगन की हामी भरी हुई है। ये तो मुश्किल हो जाएगा। खैर आपका मान रख भी लेंगे पर वजह तो बताओ। बड़ा ब्रांड है, विश्वसनीयता है। अचानक ये विरोध क्यों। बोले-बड़ा ब्रांड है इसका मतलब ये थोड़े ही है कि वो हमारी भावनाओं से खेलें। राम जी की कसम, उसका ये कदम कईयों को सीख दे जाएगा। देखना इस बार उनके वर्कर मक्खियां उड़ाते नजर आएंगे।

पूरा मामला जान आदतन मुझसे भी रहा न गया। मैं बोला-बुरा न मानें तो मैं भी कुछ कहूं। धर्म के प्रति हम खुद कितने ही समर्पित हैं। बोले-हम तो पूरा समर्पित हैं। मैंने कहा-खाक समर्पित है। धर्म के नाम का बस खाली चोला लिए फिरते हैं। न जाने कितनी बार देवताओं की प्रतिमाओं पर प्रहार किया गया है। पेंटिंग के बहाने अंग वस्त्रों के साथ हमारे दैवीय स्वरूप दिखा कलाकारी की वाहवाही लूटी गई है। फिल्मों में हमारी आस्था को ढोंग रूप में दिखा हमसे ही ताली बजवाई गई।

   मुझे आक्रमक होते देख बोले- बात तो आपकी सही है पर विरोध न करें तो कल कोई और ऐसा करेगा। मैं फिर शुरू हो गया। हमारे साथ ऐसा कोई पहली बार थोड़े ही न हुआ है। न जाने कितनी बार हमारे देवी-देवताओं की तस्वीरें शराब की बोतलों पर चिपकी दिखाई दी हैं। गणेश जी को मांस की टेबल पर बैठे दिखाया गया। सारे देवी-देवता एक सैलून का प्रचार करते तक दिखाए जा चुके हैं। महादेव को (शिव) बीड़ी का ब्रांड बना रखा हैं। गजानन को (गणेश) जर्दा खैनी की जिम्मेदारी दी रखी है। ऑनलाइन वेबसाइटों पर देवताओं के चित्र वाले सोफ़ा कवर, टॉयलेट शीट तक बेची जा चुकी हैं। रामजी, चाट भंडार,पशु आहार खोले बैठे हैं।

दुर्गा पूजा, गणेश चतुर्थी पर गाजे-बाजे के साथ देव प्रतिमा घर लाते हैं। पूजन के बाद बाकायदा उनका विसर्जन भी करते हैं। बाद में वे ही प्रतिमाएं खंडित रूप में समुन्द्र, नदी, नहर किनारे पड़ीं मिलती हैं। घर पर कोई पूजन सामग्री, धार्मिक कलेंडर,खंडित मूर्ति हो तो उसे बहते पानी में बहा अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। बाद में सफाई के दौरान वही सब चीजें नहर-नदी किनारे बिखरी नजर आती है। खुशियों के पर्व दिवाली पर पटाखे छोड़ें तो प्रदूषण का स्तर बढ़ जाता है। होली पर औरों के साथ साथ हम भी पानी बचाने की अपील करने लग जाते हैं। तब कहां होता है हमारा धर्म। 

वो बोले- तो क्या करें? मैने कहा- सिस्टम को सुधारना है तो पहले खुद सुधरें फिर दूसरों से उम्मीद करें। किसी को मौका ही न दें ऐसे माहौल को क्रिएट करने का। उन्हें तो प्रचार चाहिए होता है और वो हम फ्री में कर देते है। लाइक के साथ डिसलाइक का बटन भी होता है जनाब। खामोशी के साथ उसका प्रयोग करें और देखें। अपने आप मुहंतोड़ जवाब मिल जाएगा।

अब रामखिलावन जी सहमत से दिखे। बोले- जी धन्य हैं प्रभु आप। पूरा गीता ज्ञान दे दिया। जरूर विचार करेंगे। कहकर फोन काट दिया। मेरी भावनाओं का वेग अभी भी चरम पर था। अचानक आंख खुल गई। पत्नी चाय लिए खड़ी थी। बोलीं- उठ जाओ, धर्म के ठेकेदार। नींद में भी दो-दो करेक्टर निभाना कोई आपसे सीखे। दिन के साथ अब रात को भी जनता की अदालत लगने लगी हैं। अब तो चाय पीकर चुप रहने को सर्वोपरि धर्म मानने में ही मेरी भलाई थी।

(नोट:लेख मात्र मनोरंजन के लिए है, इसे किसी सन्दर्भ में न जोड़ें)

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है।

9671726237




मत बन तू अंजान, मना!

बड़े नाम के पीछे की तू खुद सच्चाई जान, मना!
परदे के पीछे है क्या तू खुद ही पहचान, मना!
उठती लहरों की भी उल्टी हवाओं से सीना जोरी है,
ख़ुद में उठते झंझावातों को, तू खुद अब थाम, मना।

जिधर भी देखो ईर्ष्या,द्वेष का है बड़ा कद इस दुनिया में,
छोटे पौधों ने सही मार सदा जब कंटीला पौधा पनपा बगिया में,
खून से लथपथ होंगे पग, आदी हो जाएँगे काँटों में चलने के,
तुझको ही तो पाना है, फिर फूलों सा सम्मान, मना!

छीन- छीन कर खाने की इस दुनिया की फितरत है,
भद्दे को भी सजाने की कहते आज जरूरत हैं,
वक्त से हुई हाथापाई तो दोष किसे कोई अब दे,
दगेबाजों की है इक कंदरा, तू बन उसका दरबान, मना!

नीर नहीं अब बादल में फ़िर भी गड़गड़ाहट काबिज़ है,
थोथेपन की सच्चाई से कौन भला नहीं वाक़िफ़ है?
बनी बवंडर जब एक पवन तो हुए दरख़्त कई धाराशायी,
है बदलाव का तू ही पुरोधा, अब तू मत बन अंजान, मना!
– मवारी निमय 




ऐसे तो महंगा पड़ जाएगा ‘फ्री’ का हरी मिर्च और धनिया

सामयिक व्यंग्य : नफा-नुकसान – सुशील कुमार ‘नवीन’

सुबह-सुबह घर के आगे बैठ अखबार की सुर्खियां पढ़ रहा था। इसी दौरान हमारे एक पड़ोसी धनीराम जी का आना हो गया। मिलनसार प्रवृत्ति के धनीराम जी शासकीय कर्मचारी हैं। हर किसी को अपना बनाते वे देर नहीं लगाते हैं। रेहड़ी-खोमचे वाले से लेकर जिसे भी इनके घर के आगे से गुजरना हो, इनकी राम-राम और बदले में राम-राम देना बेहद टोल टैक्स अदा करने जैसा जरूरी होता है। यही वजह है कि मोहल्ले में वो धनीराम के नाम से कम और राम-राम के नाम से ज्यादा प्रसिद्ध हैं। इनकी राम-राम से जुड़ा एक मजेदार किस्सा फिर किसी लेख के संदर्भ में सुनाऊंगा। आज तो आप वतर्मान का ही मजा लें।

पास आने पर आज उनके कहने से पहले ही हमने राम-राम बोल दिया। मुस्कराकर उन्होंने भी राम-राम से जवाब दिया। घर-परिवार की कुशलक्षेम पूछने के बाद मैंने यों ही पूछ लिया कि आज सुबह-सुबह थैले में क्या भर लाए। बोले-थैले में नीरी राम-राम हैं। कहो, तो कुछ तुम्हें भी दे दूं। मैंने भी हंसकर कहा -क्या बात, आज तो मजाकिया मूड में हो।

बोले-कई बार आदमी का स्वभाव ही उसके मजे ले लेता है। मेरे मन में भी उत्सुकता जाग गई कि मिलनसार स्वभाव वाले धनीराम जी के साथ ऐसा क्या हो गया कि वो अपने इसी स्वभाव को ही मजाक का कारण मान रहे हैं। पूछने पर बोले-आज का अखबार पढ़ा है। नहीं पढा हो तो पढ़ लो। बिल्कुल आज मेरे साथ वैसा ही हुआ है। मैंने कहा-घुमाफिरा कर कहने की जगह आज तो आप सीधा समझाओ।

बोले-सुबह आज तुम्हारी भाभी ने सब्जी लाने को मंडी भेज दिया। वहां एक जानकार सब्जी वाला मिल गया। राम-राम होने के बाद अब दूसरी जगह तो जाना बनना ही नहीं था। जानकार निकला तो मोलभाव भी नहीं होना था। उसी से सौ रुपये की सब्जी ले ली। धनिया-मिर्च उसके पास नहीं था। दूसरे दुकानदार के पास गया तो बोला-सब्जी खरीदो, तभी मिलेगा। अब धनिया-मिर्ची के चक्कर में उससे भी वो सब्जी खरीदनी पड़ गई, जिसकी जरूरत ही नही थी। फ्री के धनिया-मिर्च के चक्कर में सुबह-सुबह पचास रुपये की फटाक बेवजह लग गई। मैंने कहा-कोई बात नहीं सब्जी ही है,काम आ जाएगी। बोले-बात तुम्हारी सही है, आलू,प्याज उसके पास होते तो कोई दिक्कत नहीं थी। पर उसके पास भी पालक, सरसों ही थे। जो पहले ही ले रखे थे। अब एक टाइम की सब्जी तो खराब होनी ही होनी। पहले वाले से राम-राम नहीं की होती तो दूसरे से ही सब्जी खरीद लेता। नुकसान तो नहीं होता। मैंने कहा-चलो, राम-राम वाली पालक-सरसों मेरे पास छोड़ जाओ।हंसकर बोले-आप भी राम-राम के ऑफर की चपेट में आ ही गए। मैंने कहा-मुझे तो वैसे भी आज ये लानी ही थी। आप तो ये बताओ कि अखबार की कौन सी खबर का ये उदाहरण था।

बोले-खजाना मंत्री ने कर्मचारियों को आज दो तोहफे दिए। दोनों फ्री के धनिया-मिर्च जैसे हैं। पर इन्हें लेने के लिए महंगे भाव के गोभी-कद्दू लेने पड़ेंगे। बिना इन्हें खरीदे ये नहीं मिलेंगे। मैंने कहा-आपकी बात समझ में नहीं आई। बोले-कर्मचारियों को चार साल में एक बार एलटीसी मिलती है। अब तक एक माह के वेतन के बराबर एलटीसी मिलती थी। अब कह रहे हैं तीन गुना खर्च करोगे तो पूरी राशि मिलेगी। खर्च भी जीएसटी लगे उत्पादों पर करना होगा।  अब ये बताओ ऐसा कौन होगा जो 10 हजार के फ्री ओवन के चक्कर में 40 हजार की वाशिंग मशीन खरीदेगा। या डीटीएच फ्री सर्विस के लिए 30हजार की एलईडी खरीद अपना बजट बिगाड़ेगा। जब काम 10 हजार की वाशिंग मशीन और 10 हजार की एलईडी से चल रहा है तो ऐसा ऑफर लेना तो मूर्खता ही है।

मैंने कहा-ये ऑफर का गणित मेरे समझ में नहीं आया। बोले- दो दिन रूक जाओ, सारे कर्मचारी बिलबिलाते देखोगे। महानुभाव, फेस्टिवल ऑफर का नुकसान का आकलन हमेशा खरीद के समय नहीं, बाद में होता है। पालक-सरसों के रुपये जब देने लगा तो बोले-ये भाईचारे का ऑफर है, फेस्टिवल का नहीं। यह कह हंसकर निकल लिए। मुझे भी उनकी बात में गम्भीरता लगी। ऐसे तो महंगा पड़ जाएगा, ये फ्री का मिर्च और धनिया। भला 100 रुपये की शर्त जीतने के चक्कर में पांच सौ का नोट फाड़कर थोड़े ही दिखाएंगे।

(नोट : लेख मात्र मनोरंजन के लिए है, इसे अपने किसी सन्दर्भ में न जोड़ें)

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है)  

संपर्क : 9671726237




डॉ. उर्वशी भट्ट की कविता – ‘मनुष्यता’

डॉ.उर्वशी भट्ट की यह कविता कोरोना के इस संकट के समय में ‘ मनुष्यता ‘ के विमर्श को अहम मानती हुई, मनुष्यता के वरण को ही मनुष्य का एकमात्र सरोकार मानती है। – नरेश शांडिल्य, सह संपादक – काव्य, सृजन ऑस्ट्रेलिया

मनुष्यता

दुर्दान्त होता है कभी कभी
नियति का वार
स्तब्ध कर देने की हद तक
अप्रत्याशित !
पर निष्प्रयोज्य नहीं।

वार से उपजा आघात
क्षमाप्रार्थी बना देता है
उस तुच्छता के लिए
जिसने कभी हमें
निहित अर्थ में
“मनुष्य” ना होने दिया।

मनुष्यता  की कोख से ही
प्रार्थनाओं का
जन्म होना था
“सेवा परमो धर्म ” को
अभीष्ट कर्म मानना था
उन पीड़ितों हेतु
जो जीवित तो थे किन्तु
जीवन से असहाय थे
पर हमारा कथित ज्ञान
उलझ गया
निर्रथक प्रश्नों के उत्तर देने में
बेतुके विषयों पर विवाद करने में।

अब जब बचाने योग्य
कुछ नहीं दिखता है
अपराधबोध हमें
अकथ्य पीड़ा से भर देता है।

वही पीड़ा
जिसकी दाह में
देह मनुष्यता का वरण करती है।

                   –  डॉ उर्वशी भट्ट

संपर्क : डूंगरपुर,  राजस्थान, 9950846222, ईमेल पता : [email protected]




नरेश शांडिल्य के दोहे

जागा  लाखों करवटें, भीगा अश्क हज़ार
तब जा कर मैंने किए, काग़ज काले चार।

छोटा हूँ तो क्या हुआ, जैसे आँसू एक
सागर जैसा स्वाद है, तू चखकर तो देख।

मैं खुश हूँ औज़ार बन, तू ही बन हथियार
वक़्त करेगा फ़ैसला, कौन हुआ बेकार।

तू पत्थर की ऐंठ है, मैं पानी की लोच
तेरी अपनी सोच है, मेरी अपनी सोच।

मैं ही मैं का आर है, मैं ही मैं का पार
मैं को पाना है अगर, तो इस मैं को मार।

ख़ुद में ही जब है ख़ुदा, यहाँ-वहाँ क्यों जाय
अपनी पत्तल छोड़ कर, तू जूठन क्यों खाय।

पाप न धोने जाउँगा, मैं गंगा के तीर
मजहब अगर लकीर है, मैं क्यों बनूँ फ़क़ीर।

सब-सा दिखना छोड़कर, ख़ुद-सा दिखना सीख
संभव है सब हों ग़लत, बस तू ही हो ठीक।

ख़ाक जिया तू ज़िंदगी, अगर न छानी ख़ाक
काँटे बिना गुलाब की, क्या शेखी क्या धाक।

बुझा-बुझा सीना लिए, जीना है बेकार
लोहा केवल भार है, अगर नहीं है धार।

सोने-चाँदी से मढ़ी, रख अपनी ठकुरात
मेरे देवी-देवता, काग़ज-क़लम-दवात।

अपनी-अपनी पीर का, अपना-अपना पीर
तुलसी की अपनी जगह, अपनी जगह कबीर।

वो निखरा जिसने सहा, पत्थर-पानी-घाम
वन-वन अगर न छानते, राम न बनते राम।

पिंजरे से लड़ते हुए, टूटे हैं जो पंख
यही बनेंगे एक दिन, आज़ादी के शंख।

जुगनू बोला चाँद से, उलझ न यूँ बेकार
मैंने अपनी रौशनी, पाई नहीं उधार।

बस मौला ज़्यादा नहीं, कर इतनी औक़ात
सर ऊँचा कर कह सकूँ, मैं मानुष की ज़ात।

पानी में उतरें चलो, हो जाएगी माप
किस मिट्टी के हम बने, किस मिट्टी के आप।

अपने में ज़िंदा रखो, कुछ पानी कुछ आग
बिन पानी बिन आग के, क्या जीवन का राग।

शबरी जैसी आस रख, शबरी जैसी प्यास
चल कर आएगा कुआँ, ख़ुद ही तेरे पास।

जो निकला परवाज़ पर, उस पर तनी गुलेल
यही जगत का क़ायदा, यही जगत का खेल।

कटे हुए हर पेड़ से, चीखा एक कबीर
मूरख कल को आज की, आरी से मत चीर।

भूखी-नंगी झोंपड़ी, मन ही मन हैरान
पिछवाड़े किसने लिखा, मेरा देश महान।

हर झंडा कपड़ा फ़क़त, हर नारा इक शोर
जिसको भी परखा वही, औना-पौना चोर।

सब कुछ पलड़े पर चढ़ा, क्या नाता क्या प्यार
घर का आँगन भी लगे, अब तो इक बाज़ार।

हम भी औरों की तरह, अगर रहेंगे मौन
जलते प्रश्नों के कहो, उत्तर देगा कौन।

भोगा उसको भूल जा, होगा उसे विचार
गया-गया क्या रोय है, ढूँढ नया आधार।

लौ से लौ को जोड़कर, लौ को बना मशाल
क्या होता है देख फिर, अंधियारों का हाल।

 – नरेश शांडिल्य,  9868303565

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नरेश शांडिल्य : संक्षिप्त साहित्यिक परिचय
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कवि नाम : नरेश शांडिल्य

शिक्षा : एम ए (हिंदी साहित्य)

कवि-दोहाकार-रंगकर्मी-संपादक-समीक्षक

प्रकाशन :
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7 कविता संग्रह प्रकाशित।
3 पुस्तकों का सम्पादन।

सम्मान :
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* हिंदी अकादमी , दिल्ली सरकार का साहित्यिक कृति सम्मान (1996)
* वातायन ( लंदन ) का अंतरराष्ट्रीय कविता सम्मान (2005)
* कविता का प्रतिष्ठित ‘परम्परा ऋतुराज सम्मान’ (2010)

काव्य पाठ :
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दिल्ली के प्रतिष्ठित लालकिला कवि सम्मेलन , श्रीराम कविसम्मेलन आदि में काव्यपाठ। इसके अतिरिक्त भारत के लगभग सभी प्रमुख शहरों में काव्यपाठ।

आकाशवाणी और दूरदर्शन के अनेक चैनलों पर काव्यपाठ। बी बी सी और कई विदेशी रेडियो चैनलों पर काव्यपाठ।

भोपाल में आयोजित 10वें विश्व हिंदी सम्मेलन में भागीदारी।

विदेश यात्रा :
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इंग्लैंड के सभी प्रमुख शहरों में सन् 2000 और सन् 2005 में काव्यपाठ।

जोहान्सबर्ग ( साउथ अफ्रीका ) के 9वें विश्व हिन्दी सम्मेलन में काव्यपाठ।

10 जनवरी 2017 विश्व हिंदी दिवस पर बैंकॉक ( थाईलैंड ) में मुख्य अतिथि के नाते भागीदारी।

नुक्कड़ नाटकों में फैलोशिप :
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20 नुक्कड़ नाटकों की 500 से अधिक प्रस्तुतियों में अभिनय और 100 से अधिक नुक्कड़-गीतों का लेखन।
नुक्कड़ नाटकों में भारत सरकार के संस्कृति विभाग से सीनियर फैलोशिप।

संपादन :
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साहित्य की अंतरराष्ट्रीय त्रैमासिक पत्रिका ‘अक्षरम संगोष्ठी’ का 12 वर्षों तक संपादन

सलाहकार :
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सलाहकार सदस्य : फ़िल्म सेंसर बोर्ड , सूचना व प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार।

संपर्क : सत्य सदन , ए 5 , मनसा राम पार्क, संडे बाज़ार लेन, उत्तम नगर, नई दिल्ली 110059
9711714960
9868303565 (whatsapp)
Email :
[email protected]

[email protected]




योगिता ‘ज़ीनत’ की दो ग़ज़लें

1

एक  एहसान  तुम अगर  करदो
सारे   इल्ज़ाम  मेरे   सर  कर दो।

जानवर  आ  गए   हैं  बस्ती   में
मेरा  जंगल में,  कोई घर  कर दो।

बीज सी  हूँ,  जड़ें  जमा  लूँगी
मुझको मिट्टी में  तुम अगर कर दो।

सारी ख़ुशियाँ तुम्हें  मुबारक हों
इक नज़र लुत्फ़ की इधर  कर दो।

दूर   मन्ज़िल  है  रास्ते  दुश्वार
मेरी आसान रहगुज़र  कर दो।

फ़ौज वो जुगनुओं  की ले आया
जाके सूरज को  ये ख़बर कर दो।

गुम  न  हो  जाऊँ  मैं  अँधेरों  में
मेरी  रातों  को  अब सहर कर दो।

लेके  सबकी  दुआएँ  तुम ‘ज़ीनत’
बद्दुआओं  को   बे असर  कर दो।

  *
2

अक़्स कह दें कि आइना  कह दें
सोचते हैं कि तुमको क्या कह दें।

रहनुमाओं  सी  बात   करते  हो
तुम  कहो तो  तुम्हें  ख़ुदा कह दें।

ख़्वाब आँखों  में  रख  लिए  तेरे
आ कभी करके  हौसला  कह दें।

मेरी   ख़ामोशियाँ   समझते   हो
क्या तुम्हें अपना हमनवा कह दें।

दर्द   में   भी    क़रार   देते   हो
दर्दे – दिल की  तुम्हें दवा कह दें।

बातों – बातों में  रूठना ‘ ज़ीनत ‘
क्या  इसे आपकी  अदा  कह  दें।

           – योगिता ‘ज़ीनत’

संपर्क :  प्लाट नंबर – 846, रामनगर , शास्त्री नगर, जयपुर ( राजस्थान ),  पिन कोड – 302016, दूरभाष – 9352835381, ईमेल पता : [email protected]




‘बिहार में का बा’ छोड़िए, ‘देश में का बा’ सोचिए जनाब !

सुशील कुमार ‘नवीन’

हमारे एक जानकार हैं। नाम है रामेश्वर। नाम के अनुरूप ही दुनिया की हर समस्या उनकी है। किसी को उनकी चिंता हो न हो,पर उन्हें सब की चिंता रहती है। कड़वा जरूर बोलते हैं पर ताल ठोककर बोलते हैं। मजाल क्या, कोई उनकी बात को काट दे। तर्क ही ऐसे देते हैं कि सुनने वाले को उनकी बात पर सोचना ही पड़ता है। दिन में जब तक पांच-सात लोगों से मिल मन की भड़ास न निकाल लें तब तक उनके पेट का अफारा(गैस) ही नहीं मिटता। आज सुबह-सुबह हम उनके फंस गए। उम्र में बड़े है सो उनसे आंख भी नहीं फेर सकते थे। अब तो उनको सुनना और बाद में उसे मनन करना हमारी मजबूरी थी।

राम-राम के बाद वो अपने मूड में आ गए। बोले-आजकल तो कुछ भी हो सकता है। मैने कहा-क्या हो गया चाचा। आज सुबह-सुबह किस झंझावात ने तुम्हें झिंझोर दिया। दुनिया उलट-पुलट हो गई क्या। बोले-तुम्हें तो हर चीज में स्वाद लेने की आदत है। बातों की गम्भीरता को भी समझा करो। तुम्हें पता है आजकल क्या हो रहा है। मेरे जवाब का इंतजार किए बिना ही वो फिर शुरू हो गए।

बोले-आजकल वो हो रहा है जो नहीं होना चाहिए। उत्सुकतावश मैंने भी पूछा-चचा, हो क्या रहा है?ये तो बताओ। बोले-जो काम दिन में होते थे अब वो रातों को होने लगे हैं। न्याय के दरवाजे तक रातों को खुल रहे हैं। बस आपकी बात और जेब दोनों में दम होना चाहिए। कोर्ट का काम खबरिया चैनल कर रहे हैं। किसी गवाह और साक्ष्य की उन्हें कोई जरूरत ही नहीं है। खुद ही जज बन फैसला सुना रहे हैं। हर एक रिपोर्टर और एंकर काला कोट पहन अपनी ही अदालत में वकील और जज का रोल निभाते दिख रहे हैं। जैसे सबकुछ बदलने का ठेका अब इनके पास ही है। मैंने कहा-तो इसमें दिक्कत क्या है। वो अपना काम कर रहे हैं। करने दीजिए। हमारे इतना कहते ही वो सीधा हम पर शब्दों के बाण लेकर बरस पड़े।

बोले-तुम्हें कोई दिक्कत नहीं है। क्यों तुम विदेशी हो। बाहर मुल्क के हो। बड़े आए, हमें कोई दिक्कत नहीं कहने वाले। सोचो, जरा सोचो। आज देश मे कोरोना से मरने वालों की संख्या एक लाख पार कर गई है। वैक्सीन का अभी तक कोई अता-पता नहीं। डोनाल्ड ट्रम्प और उसकी घरबारन मेलिनिया को कोरोना हो गया,इसकी तो चिंता है तुम्हें। नहीं है तो देश के लोगों की। इस मुए कोरोना ने लाखों लोग बेरोजगार कर घर बैठा दिए और दावा हो रहा है कि बेरोजगारी की दर घट गई है। कह रहे हैं कि बेरोजगारी की यह दर पिछले 18 माह के निचले स्तर की है। तुम ही बताओ, बेरोजगारी की दर घट रही है तो लोग क्यों रो रहे हैं। देश भर के युवा राष्ट्रीय बेरोजगार दिवस तक मना राजतंत्र को जगाने का प्रयास कर चुके हैं।….आईपीएल में कोहली की खराब फार्म चिंता का विषय हो सकती है, पर देश के किसान की बदहाल फार्म के बारे में सोचने का वक्त तुम्हारे पास थोड़े ही है। बस तुमने तो विधेयक बना दिए हैं। इसका किसे फायदा होना है, सब जानते हैं। किसान तो सदा लुटेगा, मुनाफाखोर सदा मजे लेते आए हैं और आगे भी लेते रहेंगे। बस इनके चेहरे बदल जाएंगे। पर तुम्हे समझाने का क्या फायदा, तुम्हें तो ‘बिहार में का बा’ की फिक्र है। अरे ‘देश में का बा’ इस पर भी कभी विचार करो।

वो आगे कुछ कहते इससे पहले बेटी ने पानी के गिलासों से भरी ट्रे उनके आगे कर दी। खुश रहो बेटा, कह गटागट चार गिलास पी गए। पानी पीकर एक लंबी सांस ली और अच्छा बेटा, राम राम कहकर चल दिए। उनके जाने के बाद ट्रे में बचे दो गिलास का पानी पीया तब जान में जान आई। आधे एक घण्टा यदि चाचा को और सुनना पड़ जाता तो देश की चिंता में बीपी लो होना पक्का था। आपको क्या लगा? चाचा कुछ गलत कह रहे थे। मेरे अनुसार चाचा जैसे यदि देश में सब हो जाएं तो हर सोया इंसान जाग जाएगा। अच्छा,राम राम।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है। मोबाईल : 96717 26237




विकास संबंधी विचारों पर विचार-विमर्श के क्षेत्र में गाँधीजी का योगदान

श्वेता पांडे (रिसर्च स्कॉलर)

जयोति विद्यापीठ महिला विश्वविद्यालय, जयपुर (भारत)

ईमेल: [email protected], (M) 9826012739

सार

शिक्षा का कार्य आदर्श नागरिकों का निर्माण करना है। आदर्श का अर्थ है एक व्यक्ति सद्गुणों से अभिभूत है और हमेशा अच्छा व्यवहार करता है। आदर्श नागरिक सुसंगत और व्यापक विकास के लिए पूर्व अपेक्षित हैं। श्रेष्ठ नागरिकों का उत्पादन करने की शिक्षा का अर्थ है लोगों के दिलों की शिक्षा। यह लोगों के दिलों को बदलने के लिए शिक्षा की उम्मीद करता है। वास्तविक शिक्षा का अर्थ बताते हुए महात्मा गांधीजी कहते हैं, “वास्तविक शिक्षा में बहुत सारी जानकारी और संख्याओं को ध्यान में रखना शामिल नहीं है और न ही यह कई पुस्तकों को पढ़कर परीक्षा पास करने में निहित है, लेकिन यह विकासशील चरित्र में निहित है। यह एक वास्तविक शिक्षा है जो मानव में आंतरिक गुणों (मूल्यों) को विकसित करती है। यदि आप ऐसे गुणों को विकसित कर सकते हैं, तो यह सबसे अच्छी शिक्षा होगी “” शिक्षा सबसे अच्छी चीजों के व्यापक विकास की एक प्रक्रिया है (बिंदु) , भागों) बच्चों या पुरुषों के मन और आत्मा में पड़े हुए हैं और उन्हें बाहर ला रहे हैं। गांधीजी ने हमें और दुनिया के लिए उदात्त सद्गुणों और दैनिक जीवन अभ्यास का निरीक्षण करने और उन्हें लागू करने के लिए शाही रास्ता दिखाया है। अपने दैनिक जीवन की गतिविधियों में उन आदर्शों का अभ्यास करें। मूल्य शिक्षा का अर्थ है वह शिक्षा जो सद्गुणों और मूल्यों को व्यवहार में लाना सिखाती है, गांधीजी ने शांतिनिकेतन, के में शैक्षिक प्रयोग किया। दक्षिण-अफ्रीका से लौटने के बाद, आश्रम साबरमती आश्रम और गुजरात विद्यापीठ, और 1937 में राष्ट्र के सामने “वर्धा शैक्षिक योजना” रखकर शिक्षा जगत को शिक्षा का एक नया दर्शन (दर्शन) दिया। “वर्धा शिक्षा योजना 1937 की रिपोर्ट” कवर) केवल शिक्षा का प्राथमिक चरण। लेकिन 1945 में, गांधीजी ने “राष्ट्र के समक्ष व्यापक बुनियादी शिक्षा (समागम नई तालीम) प्रशिक्षण” की अवधारणा रखी। एनपीई 1986 (1) स्वच्छता (2) सत्यवादिता (3) कड़ी मेहनत (4) समानता और (5) बुनियादी शिक्षा संचालन में सह-विकसित राष्ट्रीय पंचशील के शीर्षक के तहत प्रस्तुत पांच राष्ट्रीय मूल्य स्वाभाविक रूप से प्रमुख शब्द हैं: शिक्षा , व्यक्तिगत विकास, गांधीजी के विचार, आदर्श नागरिक।

परिचय

मोहनदास करमचंद गांधी: – मोहनदास करमचंद गांधी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 को पोरबंदर (जो कि सुदामापुरी के नाम से भी जाना जाता है) में एक भारतीय गुजराती हिंदू मोद बनिया परिवार में हुआ था, जो काठेश्वर प्रायद्वीप के एक तटीय शहर और फिर पोरबंदर की छोटी रियासत का हिस्सा था। काठियावाड़। शिक्षा, जैसे विवाह, धर्म कानून और राजनीति समाज की महत्वपूर्ण संस्था है जो महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है और सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखती है (टंडन, 2016)। गांधीजी का शिक्षा में योगदान इस संवेदना में अद्वितीय है क्योंकि उन्होंने ब्रिटिशइंडिया में शिक्षा की स्वदेशी योजना विकसित करने का पहला प्रयास किया। भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के लागू होने के साथ ही साम्राज्यिक शिक्षा की एक विदेशी प्रणाली शुरू की गई थी, जो भारत की पुरानी अनोखी और सभी समावेशी समग्र शिक्षा प्रणाली के विपरीत थी। इसने लंबे समय में न केवल भारत की शिक्षा को अपूरणीय क्षति पहुंचाई है, बल्कि सभी प्रकार के अंतर वर्गों की संख्या भी पैदा की है – चेतना कभी पश्चिमी भौतिकवादी जीवन शैली के लिए बढ़ती लालसा आदि। गांधीजी की शिक्षा पर अधिकांश महत्वपूर्ण लेखन को संकलित और संपादित किया गया है। दो पुस्तकों में भरत कुमारप्पा। बुनियादी शिक्षा (1951) और नई शिक्षा की ओर (1953)। ये लेखन ज्यादातर विविध अक्षरों से मिलकर बना है। भाषण किताब से और जल्द ही निकलते हैं, लेकिन साथ में उन्हें गांधीजी के अनुसार एक सुसंगत दर्शन का गठन करने के लिए लिया जा सकता है। कहने की जरूरत नहीं है कि मनुष्य के जीवन में शिक्षा के महत्व को शब्दों में वर्णित नहीं किया जा सकता है। इसके अलावा, सभी प्राचीन धर्मग्रंथों, विद्वानों के संदेश और ख्याति के विचारकों ने हमेशा मानव जीवन में शिक्षा के महत्व को स्पष्ट रूप से उजागर किया है। शिक्षा और शांति के बीच आपसी संबंध को चित्रित करके, उन्होंने शिक्षा को शांति का साधन और आधार भी घोषित किया है। इसके अलावा, वे लोगों को जीवन के सभी क्षेत्रों में शिक्षा के महत्व से अवगत कराते हैं, विशेष रूप से, मौजूदा जीवन समृद्ध परिस्थितियों में बनाने और शांतिपूर्ण बनाने में इसकी भूमिका। इसके अलावा, सच्ची शिक्षा की अनुपस्थिति में निहितार्थ, विशेष रूप से विवाद और संघर्ष का माहौल बनाने के लिए जांच की जाती है। इस संबंध में एक प्राचीन हिंदू ग्रंथ से निम्नलिखित श्लोक यहाँ उद्धृत करने योग्य है:

“माताशत्रुवितालयियननबलोनपाठित: नशोभतेशभमध्येहंसमध्येवकोयथा”

माता शत्रु पीता वल्लरी येन बालो न पथितः, न शोभते सभा मधये हंस मधये वाको यथा [अर्थ: जो माता-पिता अपने बच्चे को पढ़ाई के लिए सुविधा और मार्गदर्शन नहीं करते वे बच्चे के सबसे बड़े दुश्मन के समान हैं। शिक्षित लोगों की कंपनी में एक अशिक्षित व्यक्ति की उपस्थिति हंसों की कंपनी में एक हंस की तरह है।] जीवन के सभी क्षेत्रों में सभी स्तरों पर शिक्षा की उपयोगिता, महत्व और महत्व अपरिहार्य है। यह मानव जीवन के सबसे सुंदर और मूल्यवान आभूषण के रूप में विकसित होता है। अब, शिक्षा और शांति के बीच आपसी संबंधों के बारे में आगे की चर्चा से पहले, हमें शिक्षा और शांति दोनों के अर्थ और उद्देश्य को अलग-अलग समझना चाहिए। गांधीवादी दृष्टिकोण पर विशेष रूप से जोर देने के लिए ऐसा करना महत्वपूर्ण है और इस लेख के लिए विवेकपूर्ण दृष्टिकोण पर विचार करें। शिक्षा: शिक्षा के लिए अंग्रेजी का अर्थ लैटिन शब्द ‘एडुकारे’ से लिया गया है, जो आगे अभिव्यक्ति या अभिव्यक्ति का प्रतीक ‘एडुकारे’ से संबंधित है। यह परिभाषा मनुष्य की आंतरिक क्षमता को प्रकट करती है जो उसे विभिन्न स्तरों पर निरंतर मार्गदर्शन करती है। पूरी प्रक्रिया, जो मन, चरित्र और शारीरिक शक्ति पर प्रभाव छोड़ती है, मानव विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह बुद्धि, ज्ञान और मूल्यों को निरंतरता प्रदान करता है, जो शिक्षा का आधार और गुंजाइश प्रदान करता है।

“शिक्षा बच्चों या पुरुषों के दिमाग और आत्मा में पड़ी सबसे अच्छी चीजों (बिंदु, भागों) के व्यापक विकास की एक प्रक्रिया है” 1 गांधीजी ने हमें और दुनिया को निरीक्षण करने और लागू करने के लिए शाही रास्ता दिखाया है। अपने दैनिक जीवन के कार्यकलापों में उन आदर्शों का अभ्यास करने के लिए स्वयं का उदाहरण स्थापित करके उदात्त गुण और दैनिक जीवन अभ्यास। मूल्य शिक्षा का अर्थ है वह शिक्षा जो सद्गुणों और मूल्यों को व्यवहार में लाना सिखाती है। गांधीजी, गुरुदेव टैगोर, डॉ। राधाकृष्णन, महर्षि, अरविंद, स्वामी विवेकानंद और राष्ट्रीय शिक्षा आयोग और एनईपी 1986 द्वारा प्रस्तुत मूल्यों जैसे महान भारतीय विचारकों द्वारा मूल्य शिक्षा की अवधारणा के अनुसार, यह स्पष्ट किया जाता है कि मूल्य शिक्षा का अर्थ है-

  • नैतिकता, समानता, सहानुभूति और आध्यात्मिक विकास शिक्षा।
  • सादगी, स्वतंत्रता, श्रमशीलता, सौंदर्य बोध आदि जैसे गुणों के विकास की शिक्षा।
  • सत्य और अहिंसा जैसे सार्वभौमिक मूल्यों की शिक्षा।
  • अच्छे आचरण, अच्छे आचरण और दिल के परिवर्तन द्वारा बुनियादी विकास की अभिव्यक्ति के लिए शिक्षा।
  • शिक्षा व्यापक मानसिकता, निडरता सेवाशीलता (निर्भीकता), ईमानदारी, भक्ति, सम्मान, सीओ- ऑपरेशन, जिम्मेदारी की भावना आदि।
  • अखंडता और लोकतांत्रिक भावना विकास के लिए शिक्षा। बुनियादी शिक्षा में विकसित करने के लिए उपरोक्त सभी मूल्यों का अवसर निहित है

शिक्षा की परिभाषा

गांधी ने एक बार कहा था: शिक्षा का अर्थ है, बच्चे और मनुष्य में सर्वश्रेष्ठ दौर से बाहर की ओर आकर्षित होना – शरीर, मन और स्वभाव। नैतिक और नैतिक ज्ञान पहला बिंदु है जिस पर महात्मा गांधीजी की मूल्य शिक्षा की अवधारणा आधारित है। कोई भी शिक्षा प्रणाली, जिसमें इन दोनों का अभाव है, को अच्छा नहीं कहा जा सकता है।

महात्मा गांधी जी : – “शिक्षा से मेरा तात्पर्य है और मनुष्य के मन और आत्मा में सर्वश्रेष्ठ दौर से बाहर होने वाले सभी दौर”।

साक्षरता शिक्षा का अंत नहीं है और न ही इसकी शुरुआत। यह केवल उन साधनों में से एक है, जहां पुरुषों और महिलाओं द्वारा अपनी स्वयं की शिक्षा में साक्षरता को शिक्षित किया जा सकता है। इसलिए, मैं बच्चे की शिक्षा को एक उपयोगी हस्तकला सिखाकर शुरू करूँगा और यह उस प्रशिक्षण से उत्पन्न होने वाले आंदोलन से उत्पादन करने में सक्षम होगा। जब किसी व्यक्ति के पास अपने क्रेडिट के लिए एक निश्चित मैनुअल प्रशिक्षण होता है, तो स्कूल छोड़ने के बाद संयुक्त राष्ट्र के रोजगार का कोई सवाल ही नहीं है। वह खुद को व्यस्त कर सकता था और मैनुअल काम करके अपना बचपन जी सकता था। किसी को शारीरिक व्यायाम मिलता है, और शरीर मजबूत और स्वस्थ हो जाता है। यह स्वावलंबी शिक्षा युवा मन पर सही दृष्टिकोण का विकास करती है। उनकी अवधारणा में “मन का सर्वांगीण विकास तभी हो सकता है जब वह शारीरिक और आध्यात्मिक संकाय और व्यक्ति की शिक्षा के साथ PARIPASSU को आगे बढ़ाए। गांधी चरित्र निर्माण पर बहुत जोर देते हैं, साक्षरता प्रशिक्षण से स्वतंत्र हैं। ” गांधीजी ने कहा कि “साक्षरता अपने आप में कोई शिक्षा नहीं है” लेकिन उन्होंने विषय और प्रक्रिया की गुणवत्ता को नहीं समझा। जब कोई व्यक्ति निश्चित स्तर तक की डिग्री प्राप्त करता है, तो हम इसे शिक्षा नहीं कहते हैं, यह बहुत ही संवेदी है और यह कहता है कि व्यक्ति ने मास्टर स्तर तक शिक्षा प्राप्त की है, यह एक व्यवस्थित प्रक्रिया है। हालांकि जो या एक वयस्क ज्ञान प्राप्त करता है। अनुभव, कौशल और ध्वनि दृष्टिकोण शिक्षा का एकमात्र मतलब है कि इसका लक्ष्य एक व्यक्ति को पूर्ण समाज बनाना है जो शिक्षा को महत्व देता है क्योंकि यह सभी बुराइयों के लिए रामबाण है। यह जीवन की विभिन्न समस्याओं को हल करने की कुंजी है। उनके जैसा एक आदर्श नागरिक बनने के लिए भारत की स्वतंत्रता को नुकसान पहुंचाने वाली किसी भी चीज़ के खिलाफ खड़े होने के लिए बहुत प्रयास, वीरता और शक्ति चाहिए। वह हमेशा से चाहते थे कि हिंदुओं को एक साथ सद्भाव से रहना चाहिए ताकि एक आदर्श नागरिक को अपने देश से पहले अपने कर्तव्यों को करने के लिए धैर्य और सहनशीलता होनी चाहिए। मैं एक आदर्श नागरिक बन सकता हूं क्योंकि महात्मा गांधी मेरे साथी आदमी के प्रति दयालु थे। गांधी ने नागरिकों से कानून की भावना का सम्मान करने का आग्रह किया, भले ही इसका मतलब कुछ अन्यायपूर्ण कानूनों का उल्लंघन हो। मैं वैसे ही कानून का सम्मान करूंगा और कानून का पालन करने वाला नागरिक बनूंगा। हालांकि, मैं दमनकारी कानूनों के खिलाफ एक स्टैंड ले लूंगा। विरोधी कानून प्रतिगामी हैं, और वे उन्हें आगे बढ़ाने के बजाय एक देश को पीछे खींचते हैं। जिन दमनकारी कानूनों के खिलाफ मैं संघर्ष करूंगा उनमें से एक भारत में जाति व्यवस्था, विकलांगों और जातिवाद का भेदभाव है। मैं समय पर अपने करों का भुगतान करके एक आदर्श नागरिक बन सकता हूं। कर राज्य को अस्पताल, भोजन, सड़क और स्कूल जैसी आवश्यक सेवाएं प्रदान करने में मदद करते हैं। गांधी का तर्क है कि भारतीय समुदाय में निचली जातियों को ऊंची जाति के सदस्यों के समान अधिकार प्राप्त हैं। मैं आपातकाल के दौरान सहायता राशि देकर और पीड़ितों की सहायता के लिए स्वेच्छा से एक आदर्श नागरिक बन सकता हूं।

गांधीजी का शैक्षिक विचार

गांधीजी की मूल शिक्षा उनकी शिक्षा के दर्शन का व्यावहारिक अवतार थी। उनकी बुनियादी शिक्षा युवा शिक्षार्थियों को व्यक्तिगत रूप से स्वतंत्रता, सामाजिक रूप से रचनात्मक, आर्थिक रूप से उत्पादक और जिम्मेदार भविष्य के नागरिक बनने के लिए तैयार करने का चुनौतीपूर्ण कार्य करती है जो हल करने में मददगार साबित हो सकती है। युवाओं को कौशल प्रशिक्षण देकर बेरोजगार करने की समस्या। गांधीजी ने स्वयं को बच्चे और मनुष्य के शरीर मन और आत्मा में सर्वश्रेष्ठ की शिक्षा द्वारा समझाया है। साक्षरता न तो शिक्षा का प्रारंभ है और न ही अंत है। यह केवल एक साधन है जिसके माध्यम से पुरुष या महिला को शिक्षित किया जा सकता है। शिक्षा के बुनियादी सिद्धांतों में शामिल हैं।

  1. सात से चौदह वर्ष की आयु तक, प्रत्येक बच्चे की शिक्षा मुफ्त, अनिवार्य और सार्वभौमिक होनी चाहिए
  2. शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होना चाहिए।
  3. शिक्षा के साथ मात्र साक्षरता की बराबरी नहीं की जा सकती। शिक्षा को कुछ शिल्प को शिक्षा के माध्यम के रूप में नियोजित करना चाहिए ताकि बच्चा अपने जीवन के लिए आर्थिक आत्मनिर्भरता हासिल कर सके।
  4. शिक्षा से बच्चे में मानवीय मूल्यों का विकास होना चाहिए।
  5. शिक्षा को उपयोगी, जिम्मेदार और गतिशील नागरिक बनाना चाहिए। शिक्षा के द्वारा बच्चे की सभी छिपी हुई शक्तियों का विकास उस समुदाय के अनुसार होना चाहिए जिसका वह एक अभिन्न अंग है।
  6. शिक्षा को बच्चे के शरीर, मन, हृदय और आत्मा के सामंजस्यपूर्ण विकास को प्राप्त करना चाहिए
  7. सभी शिक्षा कुछ उत्पादक शिल्प या उद्योग के माध्यम से प्रदान की जानी चाहिए और उस उद्योग के साथ एक उपयोगी सहसंबंध स्थापित किया जाना चाहिए। उद्योग ऐसा होना चाहिए कि बच्चा व्यावहारिक कार्य के माध्यम से लाभकारी कार्य अनुभव प्राप्त करने में सक्षम हो
  8. कुछ उत्पादक कार्यों के माध्यम से शिक्षा को स्वावलंबी बनाया जाना चाहिए। शिक्षा से आजीविका के लिए आर्थिक स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता पैदा होनी चाहिए।

उनके शिक्षण की विधि में निम्नलिखित सिद्धांतों का महत्व,

  1. मानसिक विकास प्राप्त करने के लिए इंद्रियों और शरीर के कुछ हिस्सों का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए
  2. पढ़ना लेखन के शिक्षण से पहले होना चाहिए।
  3. करने से सीखने के लिए और अधिक अवसर दिए जाने चाहिए।
  4. अनुभव द्वारा सीखने को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।
  5. शिक्षण विधियों और शिक्षण विशेषज्ञता में सहसंबंध स्थापित किया जाना चाहिए।

बुनियादी शिक्षा के माध्यम से विकास मूल्य

गांधी जी एक महान क्रांतिकारी व्यक्ति थे। उन्होंने जीवन के सभी पहलुओं (कारकों) पर गहराई से विचार किया था। वह सार्वभौमिक मानवीय मूल्यों को सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर पर रखकर संपूर्ण विश्व की समस्याओं के समाधान के लिए एक नया मार्ग दिखा रहा था।

दक्षिण अफ्रीका में ट्रेन यात्रा के दौरान पोलाक द्वारा दिए गए रस्किन की “अनटो द लास्ट” को गांधीजी ने पढ़ा। गांधीजी पर इसका प्रभाव चमत्कारी था। गांधीजी ने इस पुस्तक से सार्वभौमिक कल्याण (सर्वोदय) के तीन सिद्धांत पाए। वे इस प्रकार हैं।

  1. सभी का कल्याण (सार्वभौमिक कल्याण) हमारा कल्याण है।
  2. एक नाई और वकील का काम समानता का होना चाहिए क्योंकि आजीविका का अधिकार सभी के लिए समान है।
  3. किसान का सरल और श्रमसाध्य जीवन ही वास्तविक जीवन है ”

गांधी जी ने दैनिक व्यवहार में इन सिद्धांतों को लागू करने के लिए दक्षिण अफ्रीका में फीनिक्स आश्रम (धर्मोपदेश) की स्थापना की। उन्होंने शिक्षा के प्रयोग किए, इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि शैक्षिक विचारों के बीज दक्षिण अफ्रीका के गांधीजी में थे। उन्होंने दक्षिण-अफ्रीका में फीनिक्स आश्रम और टॉल्स्टॉय वाडी (गार्डन) में शैक्षिक प्रयोग किया।

इसमें शामिल है:

  • चरित्र निर्माण, शिक्षा के लिए शिक्षा मातृभाषा।
  • शिक्षा और सह शिक्षा में मैनुअल काम का स्थान।
  • छात्रावास निवास और सामुदायिक जीवन।

“वर्धा एजुकेशन शमे -1937 की रिपोर्ट में शिक्षा का केवल प्राथमिक चरण शामिल है (शामिल है) लेकिन 1945 में, गांधीजी ने” व्यापक बुनियादी शिक्षा (समागम नई तालीम) प्रशिक्षण की अवधारणा को राष्ट्र के समक्ष रखा। एनपीई 1986 (1) स्वच्छता (2) सत्यता (3) हार्डवर्क (3) समानता और (5) सह-संचालन में राष्ट्रीय पंचशील का शीर्षक स्वाभाविक रूप से बुनियादी शिक्षा में विकसित किया गया है।

बुनियादी शिक्षा में, विभिन्न त्यौहार जैसे राष्ट्रीय त्यौहार, जयंती, पुण्यतिथि, माता-पिता (अभिभावक) दिवस, स्व-शिक्षा दिवस, पर्यावरण दिवस, विश्व जनसंख्या दिवस और ऐसे अन्य दिवस मनाए जाते हैं। ऐसे अवसरों पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। इसके अलावा, गाँधीजी द्वारा दिए गए रचनात्मक कार्यक्रम जैसे गाँव की सफाई, अस्पृश्यता की रोकथाम, साम्प्रदायिक एकता, मद्यनिषेध (मादक पेय), खादी की गतिविधियाँ, प्रौढ़ शिक्षा, महिला उत्थान, स्वास्थ्य शिक्षा, कुष्ठरोगियों की नर्सिंग, व्यसन मुक्ति आदि। स्कूलों के साथ-साथ समुदाय और छात्रावासों में। ये सभी बच्चों के बीच नैतिक मूल्यों, आध्यात्मिक मूल्यों, सामाजिक मूल्यों, राष्ट्रीय मूल्यों, सांस्कृतिक मूल्यों और व्यक्तिगत मूल्यों को स्वाभाविक रूप से विकसित करने में मदद करते हैं, इस प्रकार बुनियादी शिक्षा एक ऐसा माध्यम है जिसके माध्यम से बच्चों के लिए जीवन के लिए उपयोगी मूल्य स्वाभाविक रूप से विकसित होते हैं।

शिक्षा का उद्देश्य

हमारे देश में शिक्षा की अवधारणा के लिए हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के पास बहुत अच्छी योजनाएँ थीं। गांधीजी ने शिक्षा के आधार पर वास्तविक जीवन को कैसे महत्व दिया, यह जानने के लिए इस लेख को देखें। गांधीजी एक महान शिक्षाविद थे। उन्होंने महसूस किया कि किसी देश की सामाजिक, नैतिक और आर्थिक प्रगति अंततः शिक्षा पर निर्भर करती है। उनकी राय में शिक्षा का सर्वोच्च उद्देश्य आत्म – बोध है। वह कहते थे, “सभी ज्ञान का अंत चरित्र का निर्माण करना होगा।” गांधी के विचार में चरित्र निर्माण छात्रों के बीच सबसे महत्वपूर्ण है। उनका मानना ​​था कि बेसिक शिक्षा जीवन के लिए और जीवन के माध्यम से शिक्षा है। शिक्षा का उद्देश्य शिक्षा का निर्माण कर रहा है। सामाजिक व्यवस्था शोषण और हिंसा से मुक्त है। बेसिक शिक्षा का उद्देश्य बच्चे के कुल व्यक्तित्व का विकास है। उनके विचारों में उच्च शिक्षा ने आत्म समर्थन किया। उन्होंने हाथ, दिल और सिर के प्रशिक्षण पर जोर दिया। उन्होंने कहा, “शारीरिक व्यायाम। एक स्कूल में हस्तशिल्प जरूरी है। ”शिक्षा दिल की संपूर्ण पवित्रता की खेती में मदद करती है। वह प्रत्येक छात्र को ब्रह्मचारी मानते थे। उनकी राय में उच्च शिक्षा को स्वावलंबी होना चाहिए। उन्होंने किताबों की तुलना में पर्यावरण पर अधिक जोर दिया। गांधीजी फ्रोबेल के साथ पूरी तरह से सहमत थे कि शिक्षा का उद्देश्य कई अविकसित क्षमताओं से भरा है और यह शिक्षा के विकास के लिए है। उन्होंने यह भी महसूस किया कि बच्चे को वास्तविक काम के माध्यम से सीखना चाहिए। उनकी राय में शिक्षकों की भूमिका बच्चे को प्रेरित करने के लिए है और बच्चे को यह जानने के लिए उत्सुक होना चाहिए कि उनके आसपास क्या हो रहा है। वह नहीं चाहते थे कि शिक्षा लड़कों और लड़कियों के बीच अंतर करे। उन्होंने स्कूलों में सह-शिक्षा पर ध्यान केंद्रित किया। उन्होंने मैनुअल कौशल के महत्व पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि छात्रों को स्कूल में किए गए काम में भाग लेना चाहिए। उन्होंने महसूस किया कि शिक्षा के लिए काम और खेल महत्वपूर्ण हैं।

निष्कर्ष

शिक्षा की आधुनिक प्रणाली उपभोक्तावाद, भौतिकवाद, अनुचित प्रतिस्पर्धा और हिंसा के मूल्य को बढ़ाने के लिए एक उपकरण के रूप में कार्य करती है। नैतिक मूल्य गांधी के क्षरण पर बढ़ती चिंता आधी सदी पहले इस तरह के संभावित विकास को दूर कर सकती थी और बुनियादी शिक्षा के एक नए विकल्प की वकालत कर सकती थी। (शाह, 2017) किस पाठ्यक्रम के माध्यम से, शिल्प के माध्यम से सीखने पर जोर बरकरार रखा जा सकता है, लेकिन शायद समय के अनुकूल। शिक्षा के माध्यम से युवा दिमाग में एक कौशल, समुदाय और समाज उन्मुख जागरूकता शामिल हैं। वे ही सही मायने में देश का विकास संभव हो सकता है।

संदर्भ

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