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सुभाष चंद्र झा ‘अकेला’ की कहानी – ‘कोरोना और मध्यम वर्ग’

” सुनो जी ! आटा खत्म हो गया है। चावल भी दो दिन और चलेंगे। राशन लाना ही पड़ेगा अब तो। कब तक ऐसा चलेगा। ताज़ी हरी सब्जियां तो लाते नहीं, चार-पाँच आलू बचे हैं , वो भी नाश्ते में पूरे हो जाएंगे।और मकान मालिक ने कल किराए के लिए फोन किया था। बोल रहा था, पिछले पांच महीने का किराया देना पड़ेगा। मकान खाली करने की धमकी दे रहा था। सुन रहे हो ना। “

रसोई से आ रही पत्नी सुलेखा की आवाज़ रमेश को विचलित कर रही थी । बिस्तर पर बार-बार करवट ले रहा था । चाहकर भी अनसुना नही कर सकता था सुलेखा की बातों को । लगातार बोले जा रही थी ।

” अरे हाँ , बच्चे कह रहे थे कि मोबाइल का नेट पैक भी आज पूरा हो जाएगा। फिर ऑनलाइन क्लास भी बंद हो जाएंगी । बाजार जाते समय रिचार्ज करवा देना। स्कूल की फीस भी जमा करनी है दो दिनों में । “

रमेश को समझ नही आ रहा था कि क्या करे । पूरी रात सो नही पाया था । बुखार और बदन दर्द ने आंखों से नींद गायब कर दी थी। दिनभर के काम-काज से थकी पत्नी की नींद में खलल नही डालना चाहता था इसलिए उसे बताया नही था ।

” अब उठोगे भी या पलंग हीं तोड़ते रहोगे। बस एक हीं काम रह गया है तुम्हारा। खाओ और पड़े रहो । लॉकडाउन क्या हुआ , तुम लोगों के तो मौज हो गई । नौकरानी की तरह सुबह से उठकर काम करती रहती हूँ । पूजा-पाठ , नहाना-खाना भी सही समय पर नही कर पाती हूँ । दिनचर्या हीं बदल कर रख दी है इस कोरोना ने।”

पिछले चार-पाँच महीनों से कोई भी दिन ऐसा ना गया होगा कि सुलेखा ने इन बातों को दोहराया ना हो । रमेश के कान भी आदी हो गए थे सुन-सुनकर । बात भी सही थी । जब से कोरोना महामारी के कारण सम्पूर्ण देश में सरकार द्वारा लॉकडाउन लगा था , सुलेखा की दिनचर्या सच में अस्त-व्यस्त हो गई थी । सुबह उठते ही घर के काम-काज में लग जाती थी और आराम तो सच में हराम हो गया था उसका । स्कूल बंद हो जाने के कारण अब तो सारा समय बच्चे भी घर पर ही थे । दिनभर उनकी फरमाइशें। । रमेश की भी नौकरी छूट गई थी लॉकडाउन में तो ऐसे में समय घर में ही गुजरता था । सुलेखा का काम तो बढ़ हीं गया था । ऐसे में खाने-पीने का कोई निश्चित समय नही था । थकान भी साफ-साफ झलकती थी चेहरे पर । डाइबिटीज़ की दवा भी तो खतम हो गई थी दो महीने पहले । लॉकडाउन से कुछ दिन कुछ दिन पहले हीं अचानक तबियत खराब हो गई तो डॉक्टर के पास गई थी । कुछ जाँच भी लिखी थी डॉक्टर ने। उसी जाँच में डाइबिटीज़ की पुष्टि हुई थी । पहले तो बच्चों के स्कूल और रमेश के नौकरी पर चले जाने के बाद सुलेखा को थोड़ा बहुत आराम करने का समय मिल भी जाता था ।

रमेश ने करवट बदला देखा तो सुलेखा कमरे में झाड़ू लगा रही थी और पता नही साथ हीं धीमे स्वर में कुछ बड़बड़ाती जा रही थी । एक बार तो रमेश के मन में ये बात आई कि सुलेखा से कह दे कि उसे बुखार है।आज उसे ऐसे ही लेटे रहने दे। मग़र अगले हीं पल उसे लगा कि बेवज़ह परेशान हो जाएगी। सुलेखा ने सोने के कंगन निकालकर ड्रेसिंग टेबल पर रख दिए । आभूषण के नाम पर केवल एक जोड़ी कंगन ही रह गए थे सुलेखा के खजाने में । पिछले महीने हीं तो बेटी की कॉलेज फीस भरने के कारण आभूषणों का खज़ाना खाली हो गया था । कितना प्यार था उसे अपने गहनों से मग़र मजबूरी में बेचना पड़ा था ।

” उठो अब ! दस बज रहें हैं । नहा लो । नाश्ता बना कर रख दिया है । बाजार भी जाना है ना तुम्हें । दो दिन से पूजा-पाठ भी ना कर पाई हूँ । कपड़े भी धोने हैं।आज कुछ ज्यादा हीं थकान लग रही है। शायद शुगर लेवल बढ़ गया है। अब उठो भी।”

सुलेखा की बातों पर प्रतिक्रिया देना रमेश के बस में ना था । बुखार से शरीर तप रहा था फिर भी बिना कुछ कहे वह उठा और बरामदे में लगी कुर्सी पर बैठ गया। अचानक से उसे चक्कर सा महसूस हुआ था । शायद प्रेशर के कारण । रमेश ब्लड प्रेशर का मरीज़ था । उसकी भी दवा खत्म हो गई थी दस दिन पहले । सुलेखा उसे रोज़ हीं याद दिलाती रहती थी दवा लाने के लिए मग़र रमेश हर बार टाल जाता था । 

बुखार के कारण शरीर भी साथ नही दे रहा था । रमेश को कुछ समझ नही आ रहा था कि क्या करे । सुलेखा ने जरूरतों के लिस्ट में इतना कुछ गिना दिया था। जो भी जमा-पूंजी थी निकल गई थी । आज तो फूटी कौड़ी भी नही थी जेब में। पिछले महीने तो कर्ज लिया था वो भी निकल गया घर खर्च के नाम पर । फिर कुछ सोचते हुए रमेश उठा और बाथरूम की तरफ धीरे-धीरे चल पड़ा । कुछ ना कुछ तो चल रहा था उसके दिमाग में ।

नाश्ता खत्म करने के बाद बुखार के लिए दवा ली फिर तैयार होने लगा बाजार निकलने के लिए । कमरे में अकेला हीं था इस वक़्त । ड्रेसिंग टेबल के पास खड़े होकर बाल ठीक करते-करते , उसकी निगाहें वहाँ पड़े सोने के कंगन पर जमी हुई थी । फिर अचानक से झुका और दोनों कंगन उठाकर जेब में रख लिया । रमेश जब भी घर से बाहर जाता था सुलेखा को आवाज़ देकर हीं निकलता था मग़र आज उसने ना सुलेखा को पुकारा ना हीं बच्चों से दरवाज़ा बंद करने को कहा । चुपचाप निकल पड़ा । चेहरे पर बहुत दिनों के बाद चमक झलक रही थी। कंगन उसे हर मर्ज की दवा से लगे। कम से कम एक महीने का घर खर्च तो इससे निकल हीं जाएगा। आगे की आगे सोचेंगे। मध्यम वर्ग से था ना, उसे वर्तमान में जीना था, भविष्य तो उसके लिए सपना भर ही था। जिसे रोज देख रहा था सुबह टूटते हुए।

-सुभाष चंद्र झा ‘अकेला




चाँदनी समर की कहानी – ‘अपना-अपना चाँद’

उस बड़े से बँगले के बाहर वो रोड लैम्प। जिसके नीचे रोज़ ही झोपड़पट्टी का एक बच्चा आ बैठता है। मगर आज वहाँ एक और बच्चा है। पहले बच्चे ने उसे आश्चर्य से देखा- आह! कितना सुंदर है ये। लगता है किसी दूसरी दुनिया से आया है। उसने सुंदर कपड़े पहन रखे थे। आँखों में सम्पन्नता और चेहरे पर थोड़ा सा क्रोध। झोपड़पट्टी का बच्चा उसे यूँ ही ताकता रहा, कुछ बोलने की हिम्मत नहीं हुई। पता नहीं वो उसकी भाषा समझ भी पायेगा या नहीं। सुंदर बालक भी उसे आश्चर्य से देख रहा था। फटे कपड़े, नंगे पांव, आँखों मे दरिद्रता । कुछ देर गौर से उसे देखते हुए पूछा कौन हो तुम??
जी, मैं विकास हूँ। ग़रीब लड़के ने थोड़ा झिझकते हुए कहा
कहाँ रहते हों? सुंदर बालक ने पुनः पूछा
जी, मैं सड़कों पे रहता हूँ। मेरा मतलब है सड़क किनारे झोपड़पट्टी में । तुम कौन हो? कहाँ रहते हो?  ग़रीब लड़के ने भी पूछा
मैं, मैं स्वप्न हूँ। बंगले में रहता हूँ।
अच्छा .. तुम्हें पहले कभी यहाँ नहीं देखा। विकास ने पूछा
मैं यूँही सड़को पर नहीं निकलता। अपने बँगले में ही रहता हूँ। स्वप्न ने उत्तर दिया।
अच्छा तो आज यहाँ कैसे??
बस छुप के भाग आया हूँ। मम्मी खाने के पीछे पड़ी रहती है। भला कितना खाउँ । स्वप्न ने मुँह फुलाते हुए कहा।
अच्छा ! तुम्हें बहुत खाने को मिलता है? विकास चकित होकर पूछा
हाँ, बहुत….
क्या क्या…
ब्रेड, बटर, पिज़्ज़ा, पास्ता, मिल्क, फ्रूट, चिकन, बिरयानी
विकास आश्चर्य से उसका मुँह ताक रहा था। कुछ ना समझ कर उसने सीधे पूछा-रोटी मिलती है क्या?
रोटी? हाँ। मगर मैं रोटी नहीं खाता। मुझे पसंद नहीं।
क्या.. विकास की आँखें आश्चर्य से फटी रह गई।
हाँ। इतना खाना भला कौन खा सकता है… मोटा हो जाऊँगा । मेरे स्कूल में वो बंटी है ना, बहुत मोटा है वो। वैसा नहीं बनना चाहता। सोचता हूँ चाचू के साथ जिम ज्वाइन कर लूँ। कुछ बॉडी बन जाएगी।
स्वप्न अपनी धुन में अपने मन की बात सुनता रहा जबकि विकास का ध्यान तो अब भी रोटी पर थ| सुबह से एक भी जो न मिली थी। कुछ देर बाद जब स्वप्न चुप हुआ तो विकास सन्न था
उसे तो उसकी कोई बात समझ न आई सो वो कुछ न बोला।
फिर दोनोंबच्चे चाँद की ओर देखने लगे ।
मम्मी कहती है मुझे चाँद को पाना है। मुझे भी चाँद बहुत पसंद है। एकदिन मैं चाँद को पा के रहूँगा।। स्वप्न ने प्रसन्नता भरे स्वर में कहा।
विकास भी चाँद को देख रहा था खोये स्वर में बोला
हाँ मुझे भी चाँद चाहिए। पर आधा नहीं पूरा। मां जब तवे पर पकाती है तो कितना सुंदर लगता है ना। फूली- फूली ,गोल-गोल। मगर आधा ही देती है। आधा छुटकी को दे देती है।
कितना सुंदर है ना ये चाँद।
एक दिन मैं ऐस्ट्रोनेट बनूँगा और तब इसे पा लूंगा। स्वप्न ने दृढ़ता भरे स्वर में कहा
हाँ,मुझे भी चाँद चाहिए। फूली फूली गोल गोल। विकास खोए खोए स्वर में बोला ।
दोनों अपने-अपने चाँद को देख रहे थे | सामने के बँगले से चौकीदार निकला
बाबा, आप यहाँ बैठे हैं। मैडम जी आपको कबसे ढूंढ रही हैं। चलिए घर चलिए।
स्वप्न उठा। उसने विकास को अपने साथ चलने को कहा तो वाचमैन ने टोका
नहीं बाबा, ये आपके साथ नहीं चल सकता। आप दोनों के रास्ते अलग हैं।
फिर दोनों अपने-अपने रास्ते निकल गए। स्वप्न बँगले की ओर, और विकास सड़कों की ओर।

-चाँदनी समर




हेतराम हरिराम भार्गव की कविता- ‘मैं वही तुम्हारा मित्र हूं..’

मैं वही तुम्हारा मित्र हूं…

मैं धर्म निभाता मानवता का,
मैं सत्य धर्मी का मित्र हूँ
न्याय उचित में सदा उपस्थित
मैं धर्म प्रेम का चरित्र हूँ
मैं सदा मित्र धर्म निभाने वाला
मैं वही तुम्हारा मित्र हूँ।

मैं मित्रता को रखता नयन
मैं ईश्वर का आभार मानकर
मैं सत्य और विश्वास निभाता
अपना सौभाग्य जानकर
मैं मित्रता के बिंदु का चित्र हूँ
मैं वही तुम्हारा मित्र हूं।

सुनता नहीं मित्रता विरूद्ध,
जो कोई आवाज उठाता है
जहाँ मित्र जुड़े हो स्नेह में,
वहाँ शीश मेरा झुक जाता है
मैं मित्रता भावनाओं में पवित्र हूँ
मैं वही तुम्हारा मित्र हूँ।

मैं निश्छल मन मानस से
मैं मित्रता प्रेम का दर्पण हूँ
मेरी हार, मेरी जीत मित्रता है
मैं मित्रता का अर्पण हूँ
मित्रों की मित्रता से रचित्र हूँ
मैं वही तुम्हारा मित्र हूँ।

स्वाभिमान प्रेम से सदा
मित्रता के निर्णय लेते आऊंगा
सदा विश्वास बांटकर मित्रता
मित्रों की सदा निभाऊंगा
मैं तुच्छ श्रेष्ठ मित्रों का जनित्र हूँ
मैं वही तुम्हारा मित्र हूँ।

                                                                                 -हेतराम हरिराम भार्गव ”हिन्दी जुड़वाँ”




‘स्वादु’ जैसा स्वाद लिए है ये ‘साडनफ्रोइडा’

सामयिक लेख: शब्द अनमोल

सुशील कुमार ‘नवीन’

दुनिया जानती है हम हरियाणावाले हर क्षण हर व्यक्ति वस्तु और स्थान में ‘संज्ञा’ कम ‘स्वाद’ ज्यादा ढूंढते हैं। ‘सर्वनाम’ शब्दों का प्रयोग करना भी कोई हमसे सीखे। और उनकी विशेषता बताने वाले ‘विशेषण’ शब्दों के प्रयोग के क्या कहने। वैसे हमें ‘प्रविशेषण’ शब्दों में भी महारत हासिल है पर हम उनकी जगह लठमार कहावत (देसी बोल) का प्रयोग करना ज्यादा सहज महसूस करते हैं। ‘सन्धि,संधि-विच्छेद, समास विग्रह’ सब हमें आता है। आता नही तो बस घुमा-फिराकर बोलना। मुंहफट है जो बोलना हो सीधा बोल देते हैं।इस पर चाहे कोई नाराज हो, तो हो। हमारा तो यही स्टाइल है और यही टशन। आप भी सोच रहे होंगे कि आज न तो हरियाणा दिवस है और न ही ही हरियाणा से जुड़ा कोई प्रसंग। फिर आज हम ‘हरियाणा पुराण’ क्यों सुनाने बैठ गए। थोड़ा इंतजार कीजिए, सब समझ मे आ जायेगा। उससे पहले आप आज हरियाणवीं चुटकुले सुनें।

     हरियाणा में कोई एक व्यक्ति किसी काम के सिलसिले में आया हुआ था। सूटेड-बूटेड वह सज्जन पुरुष चौराहे के पास की एक दुकान पर कुछ देर धूम्रपान करने को रूक गया। इसी दौरान उस रास्ते से एक शवयात्रा का आना हो गया। दुकानदार ने फौरन दुकान का शटर नीचे किया और दोनों हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। शवयात्रा निकलने के बाद उस सज्जन पुरुष ने दुकानदार से कहा-कोई मर गया दिखता है। दुकानदार ने सहज भाव से उतर दिया-ना जी भाई साहब। ये आदमी तो जिंदा है। इसे मरने में बड़ा ‘स्वाद’ आता है। इसलिये हफ्ते-दस दिन में ये लोग एक बार इसे ऐसे ही श्मशान घाट तक ले जाते हैं और वहां के दर्शन कराकर घर वापिस ले आते हैं। सज्जन पुरुष बोला-ये क्या बात है। मरने का भी कोई ‘स्वाद’ होता है। आप भी अच्छा मजाक कर रहे हो। दुकानदार बोला-शुरुआत किसने की थी। तुम्हारी आंखें फूटी हुई है क्या। जो सब कुछ देखकर जानकर ऐसी बात कर रहे हो। शवयात्रा तो मरने के बाद ही निकलती है, जिंदा की थोड़े ही। सज्जन पुरुष बिना कुछ कहे चुपचाप वहां से निकल गए।

       इसी तरह आधी रात को एक शहरी युवक ने अपने हरियाणवीं मित्र को फोन करने की गलती कर दी । हरियाणवीं मित्र गहरी नींद में सोया हुआ था। आधी रात को फोन की घण्टी बजने से उसे बड़ा गुस्सा आया। नींद में फोन उठाते ही बोला- किसका ‘बाछडु’ खूंटे पाडकै भाजग्या, किसकै घर म्ह ‘आग लाग गी ‘। जो आधी रात नै ‘नींद का मटियामेट’  कर दिया। इस तरह के सम्बोधन से शहरी सकपका सा गया। बात को बदलते हुए बोला-क्या बात सोए पड़े थे क्या। हरियाणवीं बोला-ना, भाई ‘सोण का ड्रामा’ कर रहया था।मैं तो तेरे ए फोन की ‘उकस-उकस’ की बाट देखण लाग रहया था। बोल, इब किसका घर फूंकना सै। किसकी हुक्के की चिलम फोड़नी सै। मित्र से कुछ बोलते नहीं बन रहा था। हिम्मत कर के बोला-यार, आज तुम्हारी याद आ गई। इसलिए फोन मिला लिया। हरियाणवीं बोला-मैं कै हेमामालिनी सूं, जो बसन्ती बन गब्बरसिंह के आगे डांस करया करूं। या विद्या बालन सूं। जो ‘तुम्हारी सुलु’ बन सबका अपनी मीठी बाता तै मन बहलाया करै। शहरी बोला-यार एक पत्रिका के लिए लेख लिख रहा था। आजकल एक शब्द ‘ साडनफ्रोइडा ‘ बड़ा ट्रेंड में चल रहा है। तुम लोगों के शब्द सबके सीधे समझ आ जाते हैं। इसलिये उसका हरियाणवीं रुपांतरण चाहिए था।

हरियाणा और हरियाणवीं के सम्मान की बात पर अब जनाब का मूड बदल गया। बोला- यो तो वो ए शब्द है ना, जो आपरले याड़ी ट्रम्प के साथ ट्रेंड में चल रहया सै। सुना है 50 हजार से भी ज्यादा लोग शब्द को सर्च कर चुके हैं। बोल, सीधा अर्थ बताऊं कि समझाऊं। शहरी भी कम नहीं था। बोला-समझा ही दो। हरियाणवीं बोला- हिंदी में तो इसका अर्थ ‘दूसरों की परेशानी में खुशी ढूंढना’ है। हरियाणवीं में इसे ‘ स्वादु’ कह सकते हैं। यो ट्रम्प म्हारे जैसा ही है। सारी अमरीका कोरोना के चक्कर में मरण की राह चाल रहयी सै। अर यो बैरी खुले सांड ज्यूं घूमदा फिरै था। इसने इसे म्ह ‘स्वाद’ आ रहया था। यो तो वोये आदमी सै। जो दूसरा के घरा म्ह आग लागी देख कै उस नै बुझाने की जगहा खड़े-खड़े स्वाद लिए जाया करे। वा ए आग थोड़ी देर में इसका भी घर फूंकगी। लापरवाही में पति-पत्नी,स्टाफ सब कोरोना के फेर में आ लिए।

इतने शानदार तरीके से ‘ साडनफ्रोइडा’ शब्द की विवेचना पर युवक मित्र अपनी हंसी नहीं रोक पाया। बोला-मान गए गुरू । ‘स्वाद’ लेने का आप लोग कोई मौका नहीं छोड़ते। वाकयी आप लोग पूरे ‘ साडनफ्रोइडा ‘ मेरा मतलब ‘स्वादु’ हो। अच्छा भाई ‘स्वाद भरी’ राम-राम। यह कहकर उसने फोन काट दिया। अब हमारे पास भी दोबारा सोने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। सो चादर से मुंह ढंक फिर गहरी नींद में सो गए।

(नोट- लेख मात्र मनोरंजन के लिए है। इसे किसी संदर्भ से जोड़ अपने दिमाग का दही न करें।

लेखक:

सुशील कुमार ‘नवीन’

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद हैं।

9671726237




आदित्य तिवारी की कविता – ‘समर्पण’

ये जीवन जितनी बार मिले
माता तुझको अर्पण है
इस जीवन का हर क्षण ,हर पल
माता तुझको अर्पण है।

यही जन्म नहीं, सौ जन्म भी
माता तुझ वारूँ मैं
इस धरती का मोल चुकाने
मेरा सब कुछ अर्पण है।

तन अर्पण, यह मन अर्पण है
रक्त मेरा समर्पण है
निज राष्ट्र धर्म की रक्षा में
मेरा जीवन अर्पण है।

मेरा तरुण प्रसून अर्पण
घर का कण-कण अर्पण है
तोड़ कर सारे सम्बन्धों को
मेरा हीय समर्पण है।

संपर्क : ग्राम- पटनी, डाक- हाटा, जिला- कुशीनगर, उत्तर प्रदेश, भारत, मोबाईल : 7380975319




सबकुछ नम्बर वन तो जीरो नम्बर क्यों लें जनाब !

सामयिक व्यंग्य: पावर ऑफ टाइम

सुशील कुमार ‘नवीन’

राजा नम्बर वन, मंत्री-सभासद नम्बर वन। प्रजा नम्बर वन,प्रजातन्त्र नम्बर वन। प्रचार नम्बर वन, प्रचारक नम्बर वन। प्रोजेक्ट नम्बर वन, प्रोजेक्टर नम्बर वन। मोटिव नम्बर वन, मोटिवेटर नम्बर वन। ज्ञान नम्बर वन, ज्ञानी नम्बर वन। राग नम्बर वन, रागी नम्बर वन। व्यापार नम्बर वन, व्यापारी नम्बर वन। किसान नम्बर वन ,किसानी नम्बर वन। जब सब कुछ नम्बर वन हैं तो आंकलन और आंकलनकर्ता भी नम्बर वन ही होना चाहिए। सामयिक मुद्दा कृषि विधेयकों का है। ये किसान विरोधी हैं या नहीं इसकी सटीक विवेचना करने वाले दूर-दूर तक नहीं दिख रहे हैं। जो विशेषज्ञ सामने आ रहे हैं उनके अपने-अपने स्वार्थ हैं। सत्ता पक्ष के विशेषज्ञों को हर हाल में इसी बात पर अडिग रहना है कि ये किसानों के लिए सरकार का तोहफा है तो विपक्ष से जुड़ें विशेषज्ञों को तो इसमें मीनमेख निकालनी ही निकालनी है। ऐसे में किसान किसे सही मानें। पर जिस तरह बवाल हो रहा है उससे तो उन्हें पुराना सिस्टम ही उचित सा लगने लगा है। खैर छोड़िए इसे। ये लड़ाई अभी लम्बी चलनी है। आप तो बस एक कहानी सुनें और आनन्द लें।

 विदेश यात्रा गए राजा साहब को वहां दो घोड़े पसन्द आ गए। राजा ने घोड़ों के मालिक से मोलभाव किया पर वह उन्हें बेचने को तैयार नहीं था। राजा साहब मुंहमांगे दाम पर भी लेने पर अड़े थे। घोड़ा मालिक का तर्क था कि ये आपके लायक नहीं हैं।ये सुंदर हैं, मनभावन हैं पर आरामपरस्त हैं। कल को इन्हें युद्ध आदि में भी प्रयोग करना चाहोगे तब काम नहीं आएंगे। दूसरे आपके यहां गर्मी बहुत है, ये ठंडे मौसम के आदी हैं। बीमार हो जाएंगे। जान का भी जोखिम अलग से रहेगा। इन्हें छोड़ आप आपके देश के अनुरूप घोड़े ले जाएं। हठ पर घोड़ा मालिक ने इस शर्त पर राजा को घोड़े दे दिए कि इन्हें धूप तक नहीं लगनी चाहिए । राजा विशेष व्यवस्था कर घोड़ों को अपने राज्य में ले आया। उनके लिए विशेष अस्तबल तैयार करवाया गया। देखभाल के लिए कर्मचारी नियुक्त कर दिए गए। विदेश से विशेष घोड़ों को लाने की खबर प्रजा तक भी जा पहुंची। हर कोई इन्हें देखना चाहता था पर राजा के अलावा अस्तबल में जाने की किसी को इजाजत तक नहीं थी।

एक दिन राजसभा में मंत्री ने राजा से उन घोड़ों की खूबियों के बारे में पूछा तो राजा ने कहा-एक नम्बर के घोड़े हैं। उनका मुकाबला कोई नहीं कर सकता। सुंदरता में, कदकाठी में, चाल में सब एक नम्बर है। मंत्री ने कहा-जी ऐसे है तो प्रजा को भी इन्हें एक बार देखने का मौका मिलना चाहिए। मौसम ठीक जान एक दिन राजा ने आमजन के लिए घोड़ों के दर्शन कराने का निर्णय लिया। मुनादी के बाद तय समय पर मंत्री, सभासद व आमजन राजमहल के बाहर खुले मैदान में जमा हो गए। दुदम्भी की ध्वनि के साथ घोषणा की गई कि सभी दिल थाम कर बैठें। सुंदरता में नम्बर एक, कदकाठी में नम्बर एक, चाल में नम्बर एक राजसी घोड़े जो कभी न देखे होंगे,न उनके बारे में सुना होगा। जल्द सामने आ रहे हैं।

फूलों से सजे वाहन में दोनों घोड़ों को बाहर लाया गया। देखते ही घोड़े सबके मन को भा गए। बाहर की हवा लगते ही घोड़े जोर-जोर से हिनहिनाये। प्रजा ने मधुर आवाज पर तालियां बजाई। वो फिर हिनहिनाये। तालियां फिर बजने लगी। पर ये क्या, घोड़ों के हिनहिनाने की आवाज रुकने का ही नाम नहीं ले रही थी। हिनहिनाने के साथ घोड़ों ने वाहन में ही उछलकूद शुरू कर दी। लात मार कर्मचारी भगा दिए। रस्सी से अपने आपको आजाद करवाकर अस्तबल की ओर दौड़ लगा दी। थोड़ी सी दूरी के बाद ही दोनों गिर पड़े और अचेत हो गए। पशुवैद्य ने जांच उन्हें शीघ्र अस्तबल में ले जाने की कही। वहां जाते ही घोड़ों ने आराम महसूस किया। घण्टे भर में वो सामान्य हो गए। राजा को आकर पशुवैद्य ने आकर जानकारी दी की अब वो सामान्य हैं। इसके बाद राजा ने उन घोड़ों को बाहर नहीं निकाला।

उधर, वो एक नम्बरी घोड़े प्रजा के लिए फिर चर्चा का विषय बन गए। एक बोला-भाई, राजा के घोड़े हैं तो एक नम्बर के। दूसरे ने भी हामी भरी।बोला-बिल्कुल, देखते ही मन भा गए। तीसरे का जवाब भी कुछ ऐसा ही था।

चौथा चुपचाप उनकी बात सुन रहा था। सबने घोड़ों पर उसकी भी राय जानी। बोला- घोड़े एक नम्बर के हैं, इसमें कोई दो राय नहीं है। पर राजा के तो जीरो नम्बर हो गए। सब बोले- घोड़े एक नम्बर के तो राजा के जीरो नम्बर क्यों। राजा ही तो अपनी बुद्धिमानी से इन्हें छांटकर खरीदकर लाया है, ऐसे में राजा ने भी तो एक नम्बर का ही काम किया है। उसने कहा-जरूर, राजा एक नम्बर, सभा-सभासद सब एक नम्बर,काम भी एक नम्बर। राजा का सलेक्शन भी एक नम्बर का है। पर ऐसे घोड़ों का क्या फायदा। जिन्हें न राजा किसी को दिखा सकता है,न सवारी कर सकता है। न सेना में शामिल कर सकता है, न किसी को उपहार में दे सकता है। बोलो, हैं ना। ये जीरो नम्बर का काम। 

    उसकी बात सबको उचित सी लगी। बोले-तुम ही बताओ, राजा को क्या करना चाहिए। बोला-जब यहां के वातावरण के अनुसार ये हैं ही नहीं तो राजा क्यों इन्हें मारने पर तुला है। जहां से इन्हें लाया गया, वहीं इन्हें भिजवा दें। जो उपयोगी नहीं, उसे लौटाना ही ठीक। बात राजा तक भी पहुंच गई। उसने सोचा जब मेरे पास पहले से सबकुछ एक नम्बर है तो इन घोड़ों के चक्कर में अपने नम्बर क्यूं कम करवाऊं। राजा ने घोड़े ठंडे प्रदेश में वापस लौटा दिए। विदेशी नम्बर वन घोड़ों के चक्कर में राजा ने अपने नम्बर जीरो करवा लिए थे। अब राजा का टारगेट प्रजा में अपने जीरो नम्बर को फिर से एक नम्बर में बदलने का हो गया। आगे क्या हुआ, ये फिर कभी बताऊंगा। आज के लिए इतना ही काफी….।

(नोट-कहानी मात्र मनोरंजन के लिए है। इसे अपने दिमाग से किसी के साथ जोड़ ज्यादा स्वाद लेने का काम कदापि न करें। ये स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है।)

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है। संपर्क : 96717 26237




बचे रहेंगे किसान, तभी तो होगा नफा-नुकसान…..

सामयिक लेख: कृषि विधेयक    सुशील कुमार ‘नवीन’

पिछले एक पखवाड़े से देशभर में किसान और सरकार आमने-सामने हैं। मामला नये कृषि विधेयकों का है। सरकार और सरकारी तंत्र लगातार इन विधेयकों को किसान हितैषी करार देने में जुटा है वहीं किसान इसे ‘अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना ‘ जैसा बता लगातार मुखर हैं। किसानों पर लाठीचार्ज हो चुका है, राज्यसभा में हंगामा हो चुका है। 8 सांसद निलंबित किये जा चुके हैं। यहां तक विपक्ष दोनों सदनों का बहिष्कार भी कर चुका है। पर सरकार आगे बढ़े कदम किसी भी हालत में पीछे लौटाने को तैयार नहीं दिख रही। कुल मिलाकर स्थिति विकट है। मैं भी इस मामले पर कुछ लिखने की तीन-चार दिन से सोच रहा था, पर लिखूं क्या यही ऊहापोह की स्थिति में था। किसानों के समर्थन पर लिखूं या सरकार के समर्थन पर। समझ मे ही नहीं आ रहा था। सुबह-सुबह आज घर के आगे कुर्सी डाल चाय की चुस्की ले रहा था। इसी दौरान गांव में नाते में चाचा लगने वाले प्रताप सिंह का आना हो गया। गांव के बड़े सम्मानित व्यक्ति हैं वो। किसान और किसानी पर उनसे कितना ही लम्बा वार्तालाप कर लो। पीछे नहीं हटते। किसान सम्बंधित हर आंदोलन में अग्रणी रहते है। इतनी सुबह गांव से उनका आना मुझे थोड़ा असहज सा लगा

जलपान के बाद औपचारिकवश मैंने आने का प्रयोजन पूछा तो बोले-सब सरकार की माया है। कहीं धूप-कहीं छाया है। मैंने कहा-चाचा, बड़ी कविताई कर रहे हो। माजरा क्या है? बोले- दो दिन से तेरे भायले(मित्र) के साथ मंडी में बाजरा बेचने आया हुआ हूं। सब फ्री का माल समझते हैं। हमारी तो मेहनत का कोई मोल नहीं। ज्यादा नहीं तो कम से कम सरकारी रेट तो मिल जाए, पर सब के सब मुनाफाखोर लूटन नै लार टपकाई खड़े हैं। उम्मीद थी कि इस बार 3000 रुपये क्विंटल का भाव मिल जाएगा, पर यहां तो आधे ही मुश्किल से मिल रहे हैं।

मैंने कहा- यह तो गलत बात है। आप बेचो ही मत, कम दाम पर। सरकार ने अब तो किसानों के लिए कई बिल पास कर दिए हैं। अगली बार से तो आपको फायदा ही फायदा है। बोले-बेटा, किसानों को कभी फायदा नहीं होना। किसान तो सिर्फ सपने देखने के लिए होते हैं। इस बार बढ़िया दाम मिलेंगे यह सोचकर  छह महीने जी-तोड़ मेहनत करते हैं।और जब फसल निकालकर मंडी की राह पकड़ते हैं उसी समय ये सपने एक-एककर टूटते चले जाते हैं। किसान तो सदा यूं ही मरने हैं। मैंने कहा- चाचा, आगे से ऐसा नहीं होगा। सरकार ने किसानों को पूरी आजादी दे दी है। फसल का स्टोर कर समय पर बेहतर दाम ले सकेंगे। बढ़िया दाम मिलते हो तो विदेश में भी फसल बेच सकेंगे।आढ़ती-बिचोलिये सब लाइन पर लगा दिए हैं।

मेरी बात सुन चाचा खूब जोर से हंसे और फिर गम्भीर होकर बोले- एक बात बता बेटा! तुम्हारे कितनी जमीन है। मैने कहा-2 एकड़ है। बोले-इस बार इसमें गेहूं बो दे। आगली बार बढ़िया भाव मिलेंगे। मैंने कहा-चाचा, ये किसानी हमारे बस की नहीं है, एक बार की थी। खर्चा हुआ 50 हजार और आमदनी 30 हजार। 20 हजार का सीधा नुकसान। बोले-बस, एक बार में ही हार गया। हमारे साथ तो सदा से ही ऐसा होता आया है। कभी ओले पड़ जाते हैं कभी तूफान आ जाता है। रही सही कसर हर साल फसलों की नई बीमारी पूरी कर देती है। दिखता कुछ और मिलता कुछ है। आगे अच्छा होगा, सोचकर फिर हल उठा लेते हैं।

बोले- रही बात, विदेश में फसल बेचने की। फसल तो तब बिकेगी जब उसे विदेश तक ले जाने की हमारी हिम्मत हो। गाड़ी का भाड़ा तो शहर की मंडी तक लाने का नहीं जाता है। विदेश जाने में तो खुड(खेत) बिक जाएंगे। फसल निकले नहीं, उससे पहले खेत में ही बीज, खाद,राशन का हिसाब करने व्यापारी पहुंच जाते है। आधी से ज्यादा तो वहीं बिन मोल बिक जाती है। शेष आधी लेकर मंडी की राह करते हैं तो कभी नमी, कभी कचरा ज्यादा कहकर उसमें से और काटा मार लिया जाता है। आखिर में जब हिसाब लगाते है तो नफा कम नुकसान ज्यादा दिखता है। अब सुन ले इन बिलों के फायदे की। फायदा सदा जमाखोरों को हुआ है और आगे भी होगा। खेती में खर्चे इतने बढ़ लिए कि स्टोर हम कर सकते नहीं। बाहर फसल बेचने की हिम्मत नहीं है। खेती की जमीन सिकुड़ती जा रही है। गांवों में भी कालोनी कटने लगी हैं। किसान और किसानी तो खत्म होने की राह पर है। मान लिया बिल सारे किसानों की भलाई के है। पर किसान बचे रहेंगे तभी तो इनका लाभ मिलेगा। यह कहकर चाचा उठ लिए। बोले-बेटा, ये इंद्रजाल है। इसे समझदार लोग समझ सकते है, हमारे जैसे नहीं। चाचा मुझे भी इस मामले में ‘सही कौन’ की प्रश्नावस्था में छोड़ ‘आच्छया बेटा, राम-राम’ कह निकल लिए।

(नोट:लेख मात्र मनोरंजन के लिए है, इसे किसी अन्य विषय-वस्तु न जोड़ कर न देखें)

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है। संपर्क : 96717 26237

 
 
 
 



सपना नेगी की कविता – ‘धन्यवाद कोरोना!’

कोरोना ! तुमने हमें बहुत कुछ स्मरण करवा दिया
पश्चिमीकरण की चकाचौंध में फंसकर
अपनी पुरातन संस्कृति भूल गए थे हम

तुमने ही हमारा परिचय पुन: संस्कृति से करवाया।

देशी भोजन को छोड़ बर्गर, पिज्जा,
लेग पीस के पीछे भागने वालों को

पुन: शुद्ध देशी भोजन से अवगत कराया।

होटल, रेस्टोरेंट से नयी-नयी डिश मंगवाने की

आदी हो चुकी महिलाओं को

तुमने ही नए-नए डिश बनाना सीखा दिया।

जिव्हा के स्वाद में डूबे नये-नये मसालों का इस्तेमान करने वालों को
जिन्होंने कभी ध्यान ही नहीं दिया,
नए के चक्कर में फंसकर पुरानों को भुला दिया
उनको तुमने उन्हीं पुराने मसालों के करीब ला दिया।

नमस्ते वाली पुरातन रीति छोड़
हाथ मिलाना, गले लगना हमारा फैशन बन गया था

तुमने ही नमस्ते वाली संस्कृति को पुन: अपनाना सिखा दिया।

हमारी संस्कृति ने ही तो सिखलाया था
जब भी बाहर से आओ
हाथ, पैरों को साफ़ कर अच्छी तरह अंदर आओ
फिर कैसे हम अपनी संस्कृति की बातें भूलते चले गए
कोरोना ने आकर हमें एहसास कराया
संस्कृति को भूलो मत
जो पहले करते थे, वही दुबारा करो ना।

तुमने आकर सबको एकता का पाठ पढ़ा दिया

दिखला दिया बिमारी जात-पात

रंग-रूप, ऊँच-नीच, धर्म को देखकर नहीं आती।
तुमने शहरों में रहने वालों को उनकी औकात दिखा दी
जो ख़ुद को माडर्न और गाँव के लोंगों को गंवार समझते थे
तुमने ही आज उनको गाँवों का रास्ता दिखा दिया
उनकी आँखों पर पड़ी अहंकार की पट्टी को हटा दिया।

कल तक जो स्वार्थी बनकर केवल पैसों के पीछे भागते थे
तुमने ही उनको रिश्तों का असली मोल सिखा दिया
अपनों के साथ बैठ चंद लम्हे बिताने का
सुनहरा मौका दिया।

जिम के पीछे भागने वालों को

तुमने ही पुन: योग का महत्त्व समझाया।

दिल्ली तक को प्रदूषण रहित कर
न केवल हमें साँसों का मोल बताया
पर्यावरण के संदर्भ में कई उदाहरण
हमारे लिए छोड़ गए।

जिन डॉक्टर, पुलिस वालों के फर्ज़ को कभी समझा ही नहीं हमने
कोरोना संकट में उन्हीं ने अपने परिवार को भुला

हम सबका ध्यान रखा
परिवार से पहले अपना फर्ज़ निभाया

तुमने आकर ही, लोगों को उनका मान, सम्मान सिखा दिया।

जिसके बारे में हमने कभी सोचा नहीं

ऐसे नए-नए शब्द देखो तुमने आकर जोड़ दिए
कोरोनटाइन, आइसोलेशन, जनता कर्फ्यू, लॉक डाउन
तुम्हारे ही कारण इन शब्दों का मोल हम समझ पाएँ।

हमें हमारी संस्कृति से पुन: जोड़ दिया।

तुम्हारा धन्यवाद, कोरोना!

(शोधार्थी), हिंदी-विभाग, पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़-160014

मोबाइल नं: 9354258143, ईमेल पता : [email protected]




नरसिंह यादव की कविता – “रेप की सजा फांसी”

लहरों को देखा आज यूं ही लहराते हुए
हवाओं को भी देखा गुलछर्रे उड़ाते हुए
बादल घूम रहा अकेले इधर उधर आज
मिट्टी में मिली खुद जीवन सभालते हुए।

खूब घोट लो सत्य का गला घोंटने वाले
किसी बात पे अपनी बात जोतने वाले
क्या हो रहा आज छुपकर कहा सो रहे
कहां खोए समाधि पे फुल चढ़ाने वाले।

अहिंसा के पुजारी दांत दिखाते हुए
अपने ही कामों को मुंह चिढ़ाते हुए
बोल रहे बढ़ चढ़ के उन्हीं के हत्यारे
फिर आ जाओ हमें ये सिखाते हुए।

जिंदा हैं बहू बेटियों को यूं डराते हुए
घूम रहे इज्जत को तार तार करते हुए
भूल गए वहीं आज नारा लगाया जो
जी रहे सरकार का मौज उड़ाते हुए।

आ गया वहीं दो अक्टूबर फिर आज
आए दो फुल चढ़ा वो समाधि पे आज
पूरा करके दिखा दिया सरकारी कोरम
मिले जो सच को सच से ही छुपाते हुए।

सब मौन हैं पर कह रहे मिलकर आपसे
सुना जो नहीं वहीं गुजर गया जो पास से
बने एक विधान नियम हो जाए फांसी जो
वो भूल जाए बाला का रेप करना आज से।




बुद्धि सागर गौतम के दोहे

अभिमान

जीवन में अभिमान तुम, कभी न करना भाय।
अभिमानी इस जगत में, चैन कभी ना पाय।

मानव का अभिमान ही, बहुत बड़ा है दोष।
अभिमानी मानव सदा, दे दूजे का दोष।

अहंकार अभिमान है, दोनों एक समान।
मानव जो इसको तजे, मिले उसी को मान।

अभिमानी जो होत है, करें बुरा ही काम।
करता अनहित देश का, सदा बिगाड़े काम।

अभिमान करें किस चीज का, तन है राख समान।
क्षण भर में उड़ जाएगा, सुगना हवा समान।

रचनाकार ✍️ – बुद्धि सागर गौतम
( मौलिक व स्वरचित रचना )
💐 🙏🏻🙏🏻 💐✍️✍️✍️✍️✍️
स्थायी पता – ग्राम इटहर, पोस्ट सोनखर,
जिला बस्ती, उत्तर प्रदेश, भारत – 272178.

वर्तमान पता – नौसढ़, जनपद – गोरखपुर,
उत्तर प्रदेश, भारत – 273016.
दूरभाष संख्या – 9412646123.