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विवेक का गीत- “हर मोड़ पर जिसके लिये, ख़ुद को जलाया है…”

हमने हर मोड़ पर जिसके लिये, ख़ुद को जलाया है।

उसी ने छोड़कर हमको, किसी का घर बसाया है।।

किया है जिसके एहसासों नेमेरी रात को रोशन।

सुबह उसकी अदावत ने, मेरी रूह को जलाया है।।

मुहब्बत के थे दिन ऐसे, दुआ बस ये निकलती है।

ख़ुशी से चहके वो हरपल, मुझे जिसने रुलाया है।।

चुराया जिसने आसमाँ से, मेरे आफताब को।

वही रक़ीब उन हाथों की, लकीरों में आया है।।

सताती हैं वो तेरे प्यार की बातेंख्यालों में।

तेरी इस बेरुख़ी ने मुझको, पत्थरदिल बनाया है।।

किया फिर याद तुझको आज, मैंने अपने अश्क़ों से।

तेरे एहसास की जुंबिश ने, फिर इनको बहाया है।।

कि तूने छोड़कर हमको, किसी का घर बसाया है।

हमने हर मोड़ पर तेरे लिये, ख़ुद को जलाया है।।

हमने हर मोड़ पर जिसके लिये, ख़ुद को जलाया है।

उसी ने छोड़कर हमको, किसी का घर बसाया है।।

किया है जिसके एहसासों नेमेरी रात को रोशन।

सुबह उसकी अदावत ने, मेरी रूह को जलाया है।।

मुहब्बत के थे दिन ऐसे, दुआ बस ये निकलती है।

ख़ुशी से चहके वो हरपल, मुझे जिसने रुलाया है।।

चुराया जिसने आसमाँ से, मेरे आफताब को।

वही रक़ीब उन हाथों की, लकीरों में आया है।।

सताती हैं वो तेरे प्यार की बातेंख्यालों में।

तेरी इस बेरुख़ी ने मुझको, पत्थरदिल बनाया है।।

किया फिर याद तुझको आज, मैंने अपने अश्क़ों से।

तेरे एहसास की जुंबिश ने, फिर इनको बहाया है।।

कि तूने छोड़कर हमको, किसी का घर बसाया है।

हमने हर मोड़ पर तेरे लिये, ख़ुद को जलाया है।।




पवन जांगड़ा का गीत, – “बेटी नाम कमावैगी”

बेटी की क्यूट स्माइल नै,

देख लाडो की प्रोफाइल नै

यो पापा होग्या फैन.

यो पापा होग्या फैन।

र बेटी धूम मचावैगी, र बेटी नाम कमावैगी..

र बेटी धूम मचावैगी, र बेटी नाम कमावैगी।

घर में जिसके होवै बेटी,रौनक घर में आवे।

प्यारी-प्यारी लागे बेटी,सबका मन हर्षावे। 

घर में जिसके होवै बेटी,रौनक घर में आवे।

प्यारी-प्यारी लागे बेटी,सबका मन हर्षावे। 

तन्नै बेटे कर दिए फ़ैल..

तन्नै बेटे कर दिए फ़ैल.

र बेटी धूम मचावैगी, र बेटी नाम कमावैगी..

र बेटी धूम मचावैगी, र बेटी नाम कमावैगी।


भ्रूण-हत्या की इस प्रथा में बेटी कर री फाइट,

घटती दिखे कद्र देश म्ह,, यो किसने दे दिया राईट!

भ्रूण-हत्या की इस प्रथा में बेटी कर री फाइट,

घटती दिखे कद्र देश म्ह,, यो किसने दे दिया राईट।

तन्नै बेटे कर दिए फ़ैल..

तन्नै बेटे कर दिए फ़ैल।

र बेटी धूम मचावैगी, र बेटी नाम कमावैगी..

र बेटी धूम मचावैगी, र बेटी नाम कमावैगी।

शिक्षा हो या खेल-जगत,सबमें बेटी नाम कमावै,

देख के फ़ोटो फ्रंट पेज प, मन में खुशियाँ छावै, 

शिक्षा हो या खेल-जगत,सबमें बेटी नाम कमावै,

देख के फ़ोटो फ्रंट पेज प, मन में खुशियाँ छावै।

बढ़ता मान पिता का, होती कद्र माता की गैल.

बढ़ता मान पिता का, होती कद्र माता की गैल।

र बेटी धूम मचावैगी, र बेटी नाम कमावैगी..

र बेटी धूम मचावैगी, र बेटी नाम कमावैगी..

पवन जांगड़ा कुलेरी आळा, मन में इच्छा ठारया,

जुग-जुग जीवै बेटी घर म्ह, या ही रीत चला रया,

तन्नै बेटे कर दिए फ़ैल..

तन्नै बेटे कर दिए फ़ैल।

र बेटी धूम मचावैगी, र बेटी नाम कमावैगी..

र बेटी धूम मचावैगी, र बेटी नाम कमावैगी।

     




सुभाष चंद्र झा ‘अकेला’ की कहानी – ‘कोरोना और मध्यम वर्ग’

” सुनो जी ! आटा खत्म हो गया है। चावल भी दो दिन और चलेंगे। राशन लाना ही पड़ेगा अब तो। कब तक ऐसा चलेगा। ताज़ी हरी सब्जियां तो लाते नहीं, चार-पाँच आलू बचे हैं , वो भी नाश्ते में पूरे हो जाएंगे।और मकान मालिक ने कल किराए के लिए फोन किया था। बोल रहा था, पिछले पांच महीने का किराया देना पड़ेगा। मकान खाली करने की धमकी दे रहा था। सुन रहे हो ना। “

रसोई से आ रही पत्नी सुलेखा की आवाज़ रमेश को विचलित कर रही थी । बिस्तर पर बार-बार करवट ले रहा था । चाहकर भी अनसुना नही कर सकता था सुलेखा की बातों को । लगातार बोले जा रही थी ।

” अरे हाँ , बच्चे कह रहे थे कि मोबाइल का नेट पैक भी आज पूरा हो जाएगा। फिर ऑनलाइन क्लास भी बंद हो जाएंगी । बाजार जाते समय रिचार्ज करवा देना। स्कूल की फीस भी जमा करनी है दो दिनों में । “

रमेश को समझ नही आ रहा था कि क्या करे । पूरी रात सो नही पाया था । बुखार और बदन दर्द ने आंखों से नींद गायब कर दी थी। दिनभर के काम-काज से थकी पत्नी की नींद में खलल नही डालना चाहता था इसलिए उसे बताया नही था ।

” अब उठोगे भी या पलंग हीं तोड़ते रहोगे। बस एक हीं काम रह गया है तुम्हारा। खाओ और पड़े रहो । लॉकडाउन क्या हुआ , तुम लोगों के तो मौज हो गई । नौकरानी की तरह सुबह से उठकर काम करती रहती हूँ । पूजा-पाठ , नहाना-खाना भी सही समय पर नही कर पाती हूँ । दिनचर्या हीं बदल कर रख दी है इस कोरोना ने।”

पिछले चार-पाँच महीनों से कोई भी दिन ऐसा ना गया होगा कि सुलेखा ने इन बातों को दोहराया ना हो । रमेश के कान भी आदी हो गए थे सुन-सुनकर । बात भी सही थी । जब से कोरोना महामारी के कारण सम्पूर्ण देश में सरकार द्वारा लॉकडाउन लगा था , सुलेखा की दिनचर्या सच में अस्त-व्यस्त हो गई थी । सुबह उठते ही घर के काम-काज में लग जाती थी और आराम तो सच में हराम हो गया था उसका । स्कूल बंद हो जाने के कारण अब तो सारा समय बच्चे भी घर पर ही थे । दिनभर उनकी फरमाइशें। । रमेश की भी नौकरी छूट गई थी लॉकडाउन में तो ऐसे में समय घर में ही गुजरता था । सुलेखा का काम तो बढ़ हीं गया था । ऐसे में खाने-पीने का कोई निश्चित समय नही था । थकान भी साफ-साफ झलकती थी चेहरे पर । डाइबिटीज़ की दवा भी तो खतम हो गई थी दो महीने पहले । लॉकडाउन से कुछ दिन कुछ दिन पहले हीं अचानक तबियत खराब हो गई तो डॉक्टर के पास गई थी । कुछ जाँच भी लिखी थी डॉक्टर ने। उसी जाँच में डाइबिटीज़ की पुष्टि हुई थी । पहले तो बच्चों के स्कूल और रमेश के नौकरी पर चले जाने के बाद सुलेखा को थोड़ा बहुत आराम करने का समय मिल भी जाता था ।

रमेश ने करवट बदला देखा तो सुलेखा कमरे में झाड़ू लगा रही थी और पता नही साथ हीं धीमे स्वर में कुछ बड़बड़ाती जा रही थी । एक बार तो रमेश के मन में ये बात आई कि सुलेखा से कह दे कि उसे बुखार है।आज उसे ऐसे ही लेटे रहने दे। मग़र अगले हीं पल उसे लगा कि बेवज़ह परेशान हो जाएगी। सुलेखा ने सोने के कंगन निकालकर ड्रेसिंग टेबल पर रख दिए । आभूषण के नाम पर केवल एक जोड़ी कंगन ही रह गए थे सुलेखा के खजाने में । पिछले महीने हीं तो बेटी की कॉलेज फीस भरने के कारण आभूषणों का खज़ाना खाली हो गया था । कितना प्यार था उसे अपने गहनों से मग़र मजबूरी में बेचना पड़ा था ।

” उठो अब ! दस बज रहें हैं । नहा लो । नाश्ता बना कर रख दिया है । बाजार भी जाना है ना तुम्हें । दो दिन से पूजा-पाठ भी ना कर पाई हूँ । कपड़े भी धोने हैं।आज कुछ ज्यादा हीं थकान लग रही है। शायद शुगर लेवल बढ़ गया है। अब उठो भी।”

सुलेखा की बातों पर प्रतिक्रिया देना रमेश के बस में ना था । बुखार से शरीर तप रहा था फिर भी बिना कुछ कहे वह उठा और बरामदे में लगी कुर्सी पर बैठ गया। अचानक से उसे चक्कर सा महसूस हुआ था । शायद प्रेशर के कारण । रमेश ब्लड प्रेशर का मरीज़ था । उसकी भी दवा खत्म हो गई थी दस दिन पहले । सुलेखा उसे रोज़ हीं याद दिलाती रहती थी दवा लाने के लिए मग़र रमेश हर बार टाल जाता था । 

बुखार के कारण शरीर भी साथ नही दे रहा था । रमेश को कुछ समझ नही आ रहा था कि क्या करे । सुलेखा ने जरूरतों के लिस्ट में इतना कुछ गिना दिया था। जो भी जमा-पूंजी थी निकल गई थी । आज तो फूटी कौड़ी भी नही थी जेब में। पिछले महीने तो कर्ज लिया था वो भी निकल गया घर खर्च के नाम पर । फिर कुछ सोचते हुए रमेश उठा और बाथरूम की तरफ धीरे-धीरे चल पड़ा । कुछ ना कुछ तो चल रहा था उसके दिमाग में ।

नाश्ता खत्म करने के बाद बुखार के लिए दवा ली फिर तैयार होने लगा बाजार निकलने के लिए । कमरे में अकेला हीं था इस वक़्त । ड्रेसिंग टेबल के पास खड़े होकर बाल ठीक करते-करते , उसकी निगाहें वहाँ पड़े सोने के कंगन पर जमी हुई थी । फिर अचानक से झुका और दोनों कंगन उठाकर जेब में रख लिया । रमेश जब भी घर से बाहर जाता था सुलेखा को आवाज़ देकर हीं निकलता था मग़र आज उसने ना सुलेखा को पुकारा ना हीं बच्चों से दरवाज़ा बंद करने को कहा । चुपचाप निकल पड़ा । चेहरे पर बहुत दिनों के बाद चमक झलक रही थी। कंगन उसे हर मर्ज की दवा से लगे। कम से कम एक महीने का घर खर्च तो इससे निकल हीं जाएगा। आगे की आगे सोचेंगे। मध्यम वर्ग से था ना, उसे वर्तमान में जीना था, भविष्य तो उसके लिए सपना भर ही था। जिसे रोज देख रहा था सुबह टूटते हुए।

-सुभाष चंद्र झा ‘अकेला




चाँदनी समर की कहानी – ‘अपना-अपना चाँद’

उस बड़े से बँगले के बाहर वो रोड लैम्प। जिसके नीचे रोज़ ही झोपड़पट्टी का एक बच्चा आ बैठता है। मगर आज वहाँ एक और बच्चा है। पहले बच्चे ने उसे आश्चर्य से देखा- आह! कितना सुंदर है ये। लगता है किसी दूसरी दुनिया से आया है। उसने सुंदर कपड़े पहन रखे थे। आँखों में सम्पन्नता और चेहरे पर थोड़ा सा क्रोध। झोपड़पट्टी का बच्चा उसे यूँ ही ताकता रहा, कुछ बोलने की हिम्मत नहीं हुई। पता नहीं वो उसकी भाषा समझ भी पायेगा या नहीं। सुंदर बालक भी उसे आश्चर्य से देख रहा था। फटे कपड़े, नंगे पांव, आँखों मे दरिद्रता । कुछ देर गौर से उसे देखते हुए पूछा कौन हो तुम??
जी, मैं विकास हूँ। ग़रीब लड़के ने थोड़ा झिझकते हुए कहा
कहाँ रहते हों? सुंदर बालक ने पुनः पूछा
जी, मैं सड़कों पे रहता हूँ। मेरा मतलब है सड़क किनारे झोपड़पट्टी में । तुम कौन हो? कहाँ रहते हो?  ग़रीब लड़के ने भी पूछा
मैं, मैं स्वप्न हूँ। बंगले में रहता हूँ।
अच्छा .. तुम्हें पहले कभी यहाँ नहीं देखा। विकास ने पूछा
मैं यूँही सड़को पर नहीं निकलता। अपने बँगले में ही रहता हूँ। स्वप्न ने उत्तर दिया।
अच्छा तो आज यहाँ कैसे??
बस छुप के भाग आया हूँ। मम्मी खाने के पीछे पड़ी रहती है। भला कितना खाउँ । स्वप्न ने मुँह फुलाते हुए कहा।
अच्छा ! तुम्हें बहुत खाने को मिलता है? विकास चकित होकर पूछा
हाँ, बहुत….
क्या क्या…
ब्रेड, बटर, पिज़्ज़ा, पास्ता, मिल्क, फ्रूट, चिकन, बिरयानी
विकास आश्चर्य से उसका मुँह ताक रहा था। कुछ ना समझ कर उसने सीधे पूछा-रोटी मिलती है क्या?
रोटी? हाँ। मगर मैं रोटी नहीं खाता। मुझे पसंद नहीं।
क्या.. विकास की आँखें आश्चर्य से फटी रह गई।
हाँ। इतना खाना भला कौन खा सकता है… मोटा हो जाऊँगा । मेरे स्कूल में वो बंटी है ना, बहुत मोटा है वो। वैसा नहीं बनना चाहता। सोचता हूँ चाचू के साथ जिम ज्वाइन कर लूँ। कुछ बॉडी बन जाएगी।
स्वप्न अपनी धुन में अपने मन की बात सुनता रहा जबकि विकास का ध्यान तो अब भी रोटी पर थ| सुबह से एक भी जो न मिली थी। कुछ देर बाद जब स्वप्न चुप हुआ तो विकास सन्न था
उसे तो उसकी कोई बात समझ न आई सो वो कुछ न बोला।
फिर दोनोंबच्चे चाँद की ओर देखने लगे ।
मम्मी कहती है मुझे चाँद को पाना है। मुझे भी चाँद बहुत पसंद है। एकदिन मैं चाँद को पा के रहूँगा।। स्वप्न ने प्रसन्नता भरे स्वर में कहा।
विकास भी चाँद को देख रहा था खोये स्वर में बोला
हाँ मुझे भी चाँद चाहिए। पर आधा नहीं पूरा। मां जब तवे पर पकाती है तो कितना सुंदर लगता है ना। फूली- फूली ,गोल-गोल। मगर आधा ही देती है। आधा छुटकी को दे देती है।
कितना सुंदर है ना ये चाँद।
एक दिन मैं ऐस्ट्रोनेट बनूँगा और तब इसे पा लूंगा। स्वप्न ने दृढ़ता भरे स्वर में कहा
हाँ,मुझे भी चाँद चाहिए। फूली फूली गोल गोल। विकास खोए खोए स्वर में बोला ।
दोनों अपने-अपने चाँद को देख रहे थे | सामने के बँगले से चौकीदार निकला
बाबा, आप यहाँ बैठे हैं। मैडम जी आपको कबसे ढूंढ रही हैं। चलिए घर चलिए।
स्वप्न उठा। उसने विकास को अपने साथ चलने को कहा तो वाचमैन ने टोका
नहीं बाबा, ये आपके साथ नहीं चल सकता। आप दोनों के रास्ते अलग हैं।
फिर दोनों अपने-अपने रास्ते निकल गए। स्वप्न बँगले की ओर, और विकास सड़कों की ओर।

-चाँदनी समर




हेतराम हरिराम भार्गव की कविता- ‘मैं वही तुम्हारा मित्र हूं..’

मैं वही तुम्हारा मित्र हूं…

मैं धर्म निभाता मानवता का,
मैं सत्य धर्मी का मित्र हूँ
न्याय उचित में सदा उपस्थित
मैं धर्म प्रेम का चरित्र हूँ
मैं सदा मित्र धर्म निभाने वाला
मैं वही तुम्हारा मित्र हूँ।

मैं मित्रता को रखता नयन
मैं ईश्वर का आभार मानकर
मैं सत्य और विश्वास निभाता
अपना सौभाग्य जानकर
मैं मित्रता के बिंदु का चित्र हूँ
मैं वही तुम्हारा मित्र हूं।

सुनता नहीं मित्रता विरूद्ध,
जो कोई आवाज उठाता है
जहाँ मित्र जुड़े हो स्नेह में,
वहाँ शीश मेरा झुक जाता है
मैं मित्रता भावनाओं में पवित्र हूँ
मैं वही तुम्हारा मित्र हूँ।

मैं निश्छल मन मानस से
मैं मित्रता प्रेम का दर्पण हूँ
मेरी हार, मेरी जीत मित्रता है
मैं मित्रता का अर्पण हूँ
मित्रों की मित्रता से रचित्र हूँ
मैं वही तुम्हारा मित्र हूँ।

स्वाभिमान प्रेम से सदा
मित्रता के निर्णय लेते आऊंगा
सदा विश्वास बांटकर मित्रता
मित्रों की सदा निभाऊंगा
मैं तुच्छ श्रेष्ठ मित्रों का जनित्र हूँ
मैं वही तुम्हारा मित्र हूँ।

                                                                                 -हेतराम हरिराम भार्गव ”हिन्दी जुड़वाँ”




‘स्वादु’ जैसा स्वाद लिए है ये ‘साडनफ्रोइडा’

सामयिक लेख: शब्द अनमोल

सुशील कुमार ‘नवीन’

दुनिया जानती है हम हरियाणावाले हर क्षण हर व्यक्ति वस्तु और स्थान में ‘संज्ञा’ कम ‘स्वाद’ ज्यादा ढूंढते हैं। ‘सर्वनाम’ शब्दों का प्रयोग करना भी कोई हमसे सीखे। और उनकी विशेषता बताने वाले ‘विशेषण’ शब्दों के प्रयोग के क्या कहने। वैसे हमें ‘प्रविशेषण’ शब्दों में भी महारत हासिल है पर हम उनकी जगह लठमार कहावत (देसी बोल) का प्रयोग करना ज्यादा सहज महसूस करते हैं। ‘सन्धि,संधि-विच्छेद, समास विग्रह’ सब हमें आता है। आता नही तो बस घुमा-फिराकर बोलना। मुंहफट है जो बोलना हो सीधा बोल देते हैं।इस पर चाहे कोई नाराज हो, तो हो। हमारा तो यही स्टाइल है और यही टशन। आप भी सोच रहे होंगे कि आज न तो हरियाणा दिवस है और न ही ही हरियाणा से जुड़ा कोई प्रसंग। फिर आज हम ‘हरियाणा पुराण’ क्यों सुनाने बैठ गए। थोड़ा इंतजार कीजिए, सब समझ मे आ जायेगा। उससे पहले आप आज हरियाणवीं चुटकुले सुनें।

     हरियाणा में कोई एक व्यक्ति किसी काम के सिलसिले में आया हुआ था। सूटेड-बूटेड वह सज्जन पुरुष चौराहे के पास की एक दुकान पर कुछ देर धूम्रपान करने को रूक गया। इसी दौरान उस रास्ते से एक शवयात्रा का आना हो गया। दुकानदार ने फौरन दुकान का शटर नीचे किया और दोनों हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। शवयात्रा निकलने के बाद उस सज्जन पुरुष ने दुकानदार से कहा-कोई मर गया दिखता है। दुकानदार ने सहज भाव से उतर दिया-ना जी भाई साहब। ये आदमी तो जिंदा है। इसे मरने में बड़ा ‘स्वाद’ आता है। इसलिये हफ्ते-दस दिन में ये लोग एक बार इसे ऐसे ही श्मशान घाट तक ले जाते हैं और वहां के दर्शन कराकर घर वापिस ले आते हैं। सज्जन पुरुष बोला-ये क्या बात है। मरने का भी कोई ‘स्वाद’ होता है। आप भी अच्छा मजाक कर रहे हो। दुकानदार बोला-शुरुआत किसने की थी। तुम्हारी आंखें फूटी हुई है क्या। जो सब कुछ देखकर जानकर ऐसी बात कर रहे हो। शवयात्रा तो मरने के बाद ही निकलती है, जिंदा की थोड़े ही। सज्जन पुरुष बिना कुछ कहे चुपचाप वहां से निकल गए।

       इसी तरह आधी रात को एक शहरी युवक ने अपने हरियाणवीं मित्र को फोन करने की गलती कर दी । हरियाणवीं मित्र गहरी नींद में सोया हुआ था। आधी रात को फोन की घण्टी बजने से उसे बड़ा गुस्सा आया। नींद में फोन उठाते ही बोला- किसका ‘बाछडु’ खूंटे पाडकै भाजग्या, किसकै घर म्ह ‘आग लाग गी ‘। जो आधी रात नै ‘नींद का मटियामेट’  कर दिया। इस तरह के सम्बोधन से शहरी सकपका सा गया। बात को बदलते हुए बोला-क्या बात सोए पड़े थे क्या। हरियाणवीं बोला-ना, भाई ‘सोण का ड्रामा’ कर रहया था।मैं तो तेरे ए फोन की ‘उकस-उकस’ की बाट देखण लाग रहया था। बोल, इब किसका घर फूंकना सै। किसकी हुक्के की चिलम फोड़नी सै। मित्र से कुछ बोलते नहीं बन रहा था। हिम्मत कर के बोला-यार, आज तुम्हारी याद आ गई। इसलिए फोन मिला लिया। हरियाणवीं बोला-मैं कै हेमामालिनी सूं, जो बसन्ती बन गब्बरसिंह के आगे डांस करया करूं। या विद्या बालन सूं। जो ‘तुम्हारी सुलु’ बन सबका अपनी मीठी बाता तै मन बहलाया करै। शहरी बोला-यार एक पत्रिका के लिए लेख लिख रहा था। आजकल एक शब्द ‘ साडनफ्रोइडा ‘ बड़ा ट्रेंड में चल रहा है। तुम लोगों के शब्द सबके सीधे समझ आ जाते हैं। इसलिये उसका हरियाणवीं रुपांतरण चाहिए था।

हरियाणा और हरियाणवीं के सम्मान की बात पर अब जनाब का मूड बदल गया। बोला- यो तो वो ए शब्द है ना, जो आपरले याड़ी ट्रम्प के साथ ट्रेंड में चल रहया सै। सुना है 50 हजार से भी ज्यादा लोग शब्द को सर्च कर चुके हैं। बोल, सीधा अर्थ बताऊं कि समझाऊं। शहरी भी कम नहीं था। बोला-समझा ही दो। हरियाणवीं बोला- हिंदी में तो इसका अर्थ ‘दूसरों की परेशानी में खुशी ढूंढना’ है। हरियाणवीं में इसे ‘ स्वादु’ कह सकते हैं। यो ट्रम्प म्हारे जैसा ही है। सारी अमरीका कोरोना के चक्कर में मरण की राह चाल रहयी सै। अर यो बैरी खुले सांड ज्यूं घूमदा फिरै था। इसने इसे म्ह ‘स्वाद’ आ रहया था। यो तो वोये आदमी सै। जो दूसरा के घरा म्ह आग लागी देख कै उस नै बुझाने की जगहा खड़े-खड़े स्वाद लिए जाया करे। वा ए आग थोड़ी देर में इसका भी घर फूंकगी। लापरवाही में पति-पत्नी,स्टाफ सब कोरोना के फेर में आ लिए।

इतने शानदार तरीके से ‘ साडनफ्रोइडा’ शब्द की विवेचना पर युवक मित्र अपनी हंसी नहीं रोक पाया। बोला-मान गए गुरू । ‘स्वाद’ लेने का आप लोग कोई मौका नहीं छोड़ते। वाकयी आप लोग पूरे ‘ साडनफ्रोइडा ‘ मेरा मतलब ‘स्वादु’ हो। अच्छा भाई ‘स्वाद भरी’ राम-राम। यह कहकर उसने फोन काट दिया। अब हमारे पास भी दोबारा सोने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। सो चादर से मुंह ढंक फिर गहरी नींद में सो गए।

(नोट- लेख मात्र मनोरंजन के लिए है। इसे किसी संदर्भ से जोड़ अपने दिमाग का दही न करें।

लेखक:

सुशील कुमार ‘नवीन’

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद हैं।

9671726237