डॉ. मजीद मियां
सहायक प्रोफेसर
सार
भाषा साहित्य एवं जीवन के बीच एक सेतु का काम करता है। साहित्यकार उस भाषा रूपी सेतु का निर्माता है, जो व्यक्ति और समाज का यथार्थ जीवन से रिश्ता कायम करता है तथा उचित-अनुचित का ज्ञान एवं रिश्ते की ओर ले जाता है। इसके साथ ही अपने मूर्त रूप में यह विचार विनिमय का साधन भी होता है। भोलानाथ तिवारी ने इसकी परिभाषा देते हुए कहा है – “भाषा मानव-उच्चारना वयवों से उच्चारित यादृच्छिक ध्वनि-प्रतिकों की वह संरचना है, जिसके द्वारा समाज के लोग आपस में विचार-विनिमय करते हैं और साथ ही लेखक, कवि या वक्ता रूप वे में अपने अनुभवों एवं भावों आदि को व्यक्त करते हैं तथा अपने वैयक्तिक और सामाजिक व्यक्तित्व विशिष्टता तथा अस्मिता के सम्बंध में जाने-अंजाने जानकारी भी देते हैं।1 हिन्दी के वर्तमान स्वरूप को आत्मसात करने पर सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के कविताओं में व्यक्त चिंता को मजबूत आधार प्रदान हो जाता है, जिससे एक तरफ लोक बोली से भाषा बनकर वैश्विक राह पर व्यावहारिक हिन्दी के प्रति आभारी ही सही लेकिन यथार्थ का नया चेहरा उजागर होता है, तो दूसरी तरफ धूमिल होते रूप के प्रति आकर्षक शक्ति को महसूस किया जा सकता है। इस प्रकार हिन्दी भक्तों के लिए इसके स्वरूप का पुनः निर्धारण एक आवश्यक पहलू बन जाता है। इसी कारण यथा स्थितिवाद से गुजरते हुए हिन्दी की वास्तविक खोज एवं जानकारी संभव है। राष्ट्रिय स्तर पर देखा जाए तो अपने ही घर में बेगानी बनी हिन्दी के प्रति साधारण दृष्टिकोण की परख के बाद ही अन्तराष्ट्रीय लेखा-जोखा प्रस्तुत किया जा सकता है। वर्तमान समय मे आज भी देखे तो हिन्दी की छाती पर अँग्रेजी को जबरन लादा जाता है। नागार्जुन ने 25 नवंबर 1982 को ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित अपने लेख में भी लिखा था कि, “अँग्रेजी का मोह हमारी रग-रग में भरा हुआ है। हम अँग्रेजी को ही देश की एकता और केन्द्रीय प्रशासन के साथ-साथ विश्व मानव संपर्क का एकमात्र माध्यम मान बैठे हैं। लार्ड मेकाले के अनुयाईओ में अँग्रेजी के प्रति आजादी से पहले उतना उत्साह नहीं रहा होगा जितना स्वाधीनता हासिल कर लेने के बाद हमारे देश के कुछ आंचलिकता के स्वार्थ में पड़कर उफान खाने लगा है”।2 इतना ही नहीं, नागार्जुन जी भाषा समस्या को जन-सामान्य से जोड़ते हुए आगे लिखते हैं कि – ‘वस्तुतः यह संकट अमुक या अमुक भाषा के हटाने या रखने का संकट नहीं है। यह संकट है जन-सामान्य को हमेशा के लिए ‘अछूत एवं नीच’ मानकर शासन के मंदिरों में जमे हुए उच्च वर्ग के स्पर्श-दोष से बचाने और संजोने का। जिनका संस्कार अँग्रेजी के माध्यम से ही गढा गया हैं और जिसे हुकूमत का चस्का लग चुका है। वे क्या चाहेंगे कि अँग्रेजी हटे? उनका मानना है कि अंग्रेजी जैसी अखिल भारतीय भाषा को हटाकर हम क्या फिर से प्राकृत-अपभ्रंश की गुफाओं में लौट जाएंगे? ऐसा कहकर कुछ लोग अंग्रेजों की ही तरह आज भी अँग्रेजी का रसायन हमे पीला रही है। कभी-कभी लगता है कि वाकई अंग्रेज़ यहाँ से चले गए! वर्तमान समय में आंचलिकता के साथ-साथ बहुत सारे समस्याओं के कारण आज हिन्दी अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ रही है इसमे विदेशी प्रभाव को नहीं माना जा सकता, क्योंकि वैश्वीकरण के कारण विदेशी सरकार एवं वहाँ की कम्पनियां अपने लोगों को हिन्दी सिखा रहे हैं. परन्तु हमारे यहाँ ठीक इसके उलटे रोजगार का माध्यम लोग अंग्रेजी को मानते हुए अधिक से अधिक अंग्रेजी पर जोर देते नजर आ रहे हैं. जिससे अपने ही देश में हिन्दी आज प्रवासिनी बनी हुई है. इसके लिए मैं उदाहरण देना चाहूँगा “जैसे एक पहिला अपने ललाट पर आईने के सामने खडी होकर बिंदी लगाती है और फिर वह उस बिंदी के सुन्दरता को नहीं देख पाती है. परन्तु दुसरे उस बिंदी की सुन्दरता को देख पाता है. उसी प्रकार भारत देश ने विश्व को हिन्दी की बिंदी देकर विश्व को सुन्दर बना दिया है पर आईने के अभाव में आज हमारा देश खुद उस सुन्दरता को नहीं देख पा रहा है. अगर भारतीयों को वर्तमान समय में हिन्दी की सुन्दरता को देखना ही है तो उन्हें फिर से उस आईने के सामने आना होगा तभी वह हिन्दी की सुन्दरता को देख पाएगा.
प्रसंगतः प्रो. सुधीश पचौरी का कथन न केवल हिन्दी के वर्तमानकालिक यथार्थ को सिद्ध करता है अपितु इससे आजादी के सात दशक बीत जाने के बाद भी उपर्युक्त विचार की जीवनतता प्रमाणित होती है। उन्होने हिन्दी दिवस के अवसर पर ‘हिन्दी को खतरा हिन्दी वालों से है’ शीर्षक अपने लेख में स्पष्ट कहा कि “हिन्दी के उद्धार के नाम पर हमे तमाशा नहीं बनाना चाहिए। सरकार और रचनाकार जो हिन्दी के लिए रोना-धोना करते हैं उनसे मैं कभी सहमत था और ना ही सहमत हूँ। सरकार भाषाओं को नहीं बचाती बल्कि साधारण प्रयोग करने वाली जनता ही बचाती है। हमारे हिन्दी के बुद्धिजीवी सामाजिक विषयों पर तो खूब बोलते हैं लेकिन भाषा को बढ़ाने के लिए उनके हलक से एक आवाज तक नहीं निकलती है, वे हमेशा न जाने क्यो मौन रहते हैं? आज भुमन्डलीकरण के दौड मे हिंदी कमाई की भाषा बन गई है लेकिन इसकी कमाई खाती अँग्रेजी है। आज हमारे देश मे ऐसी बड़ी संख्या मे लोग है जो खाती हिन्दी की है पर गाती अँग्रेजी की है”।3 अतः 21वीं सदी में भारत एक तरफ जहॉ राष्ट्रिय स्तर पर आर्थिक संवृद्धि की चरमावस्था को प्रकट करने का प्रयास कर रहा है तो दूसरी तरफ राष्ट्रिय अस्मिता की जन-भाषा हिंदी को स्थायित्व प्रदान करने में भरपूर सहयोग नहीं कर पा रहा है। हिन्दी के सर्वव्यापी अस्तित्व और सर्वेश्वर चरित्र को हितग्राही बनाने में सबसे प्रमुख बाधा है, अँग्रेजी का बढ़ता प्रकोप। यहाँ तक कि ‘अँग्रेजी’ के द्वारा नए-नए तर्क-वितरकों एवं दृष्टिकोणों का जन्म, अपने आप में अशुभ संकेत का घोतक है। संसार की निगाहों में हमारी यह अँग्रेजी भक्ति भारतीय जनता की मानसिक पंगुता का चटकीला विज्ञापन साबित हो रहा है। यहॉ स्वामी रामदेव महाराज का कथन सठिक प्रतीत होता है कि – ‘विदेशी भाषाओं का ज्ञान होना उत्तम बात है, क्योंकि संवाद, संपर्क, व्यापार एवं व्यवहार के लिए यह आवश्यक है परन्तु अन्य देश की भाषा का हमारे देश मे राष्ट्रभाषा के रूप में प्रयोग करना, घोर अपमान और शर्म की बात है’। विश्व का कोई भी सभ्य देश अपने नागरिकों को विदेशी भाषा में शिक्षा नहीं देता। परन्तु विदेशी भाषा में शिक्षा देने वाला देश विश्व में केवल भारतवर्ष ही है जो जनता का अंग्रेजी के मोह के कारण ही संभव हो सका है. साथ ही यह भी सच्चाई है कि जन साधारण की इसी शक्ति के कारण ही आज वर्तमान समय मे उदारीकरण और उपभोक्तावादी संस्कृति से हिन्दी का अंतरसंबंध स्थापित हुआ है। आज हिन्दी, मनोरंजन, सूचना और उपभोग का जबर्दस्त माध्यम बन गया है और साथ-साथ बाजार में ऐसी पकड़ जमा ली है कि, बड़ी से बड़ी बहुराष्ट्रीय उपभोक्ता कम्पनी व्यापार के लिए, हिन्दी को अपनाने के लिए मजबूर है. परंतु इन सभी के बावजुद भी लम्बे समय से हिंदी आज़ भी अपने ही जन्म भूमि भारत में संघर्षरत है. हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी अपने देश में ही आज – राजभाषा, संपर्कभाषा, व्यापार भाषा या फिर मात्र अनुवाद की भाषा बनकर रह गया है! पर आज हतभाग्य हिन्दी के अस्तित्व और उसके भविष्य के स्वरूप में सबसे बड़ी चुनौती आठवीं अनुसूची में सम्मिलित होने को अधीर उसकी प्राण बोलियाँ ही खड़ी कर सकती है।
वर्तमान समय का हम आकलन करें तो हमारी वर्तमान पीढ़ी बाजारवाद और आंचलिक राजनीति के झांसे में पड़कर जिस प्रकार अंग्रेजी के मोह में पड़े हैं, उससे हिन्दी के समसामयिक बोध के स्वरूप को छिन्न-भिन्न करने में कोई कसर नहीं छोर रहे हैं। परंतु इन सब के बावजूद भी आज हिन्दी अपनी लचीलेपन और रचनाधर्मिता के कारण भारतीय संस्कृति की संवाहक बनकर हमारे समक्ष खड़ी है। क्योंकि किसी भी भाषा की सर्वमान्य मापदंड उसकी रचनाधर्मिता, संवेदनशीलता और लचीलापन होती है। अपने इस गुणों के कारण ही विश्व स्तर पर हिन्दी का भविष्य उज्ज्वल है क्योंकि संसार की उन्नत भाषाओं में हिन्दी सबसे अधिक व्यवस्थित, सरल, लचीली, नवीन शंब्द रचना में समर्थ एवं आम जनता से जुड़ी भाषा है। हिन्दी आज विश्व भाषा बन चुकी है क्योंकि दुनिया के हर देश में हिन्दी भाषी अपनी उपस्थिती दर्ज करा रहे हैं। वह उपस्थिती चाहे आर्थिक क्षेत्र में हो या राजनीतिक क्षेत्र में हो अथवा सामाजिक क्षेत्र में। भारतीयों ने आज अपने को कमोबेश ही सही पर अंग्रेजी के चंगुल से निकल कर अपना एक अलग पहचान बनाया है, जिसकी गूँज विश्व के हर एक कोने में सुनी जा सकती है। लेकिन इन सभी पहलुओं के बावजूद सम्पूर्ण भारत में भाषा-विवाद एवं इसके नवीन राजनैतिक गतिशीलता ने हिन्दी की स्वाभाविकता पर अनेको प्रश्न खड़े करते हैं। आजादी के इतने दिनों बाद भी आज तक भाषा का सवाल आखिर सुलझा क्यों नहीं? पर पिछले एक दशक से इस प्रश्न का एक नया आवाम जुड़ गया है। गैर हिन्दी प्रेदेशों में खासकर महाराष्ट्र और पूर्वोत्तर राज्यों में, हिन्दी को लेकर विरोध तेज हुए है, पहले विरोध दक्षिण तक सीमित थी। हिन्दी भाषी राज्यों में तेजी से हो रहे बेरोजगारी के प्रश्न ने हिन्दी विरोध को तेज कर दिया है। परिणामस्वरूप आपसी कटुता, द्वेष, विरोध के स्वर फूटने लगे हैं। इसकी परिणति वस्तुतः एकता और अखंडता के सर्वमान्य सिद्धान्त की क्षणभंगुरता में निहित हो सकती है। भले ही भाषायी अल्पसंख्यक, बंगला, उर्दु, मराठी, कन्नड़, तमिल, तेलेगु, आसामी, मणिपुरी इत्यादि भाषाओं के द्वारा हिन्दी विरोध को स्वर देने का प्रयास किया जा रहा है परन्तु इसका गंभीर दुष्परिणाम होगा।
दक्षिण भारत के कुछ राजनेता आंचलिकता की राजनीति चलाकर भले ही हिन्दी को राजनीति का अमली जामा पहनाकर कूटनीतिक जीत हासिल कर ली हो परन्तु राष्ट्रिय स्तर पर दक्षिण भारतीय हिन्दी प्रचार सभा, कर्नाटक हिन्दी प्रचार सभा, कर्नाटक महिला हिन्दी सेवा समिति इत्यादि ने हिन्दी को अन्तराष्ट्रिय पहचान बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दे रही है। साथ ही हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हिन्दी की सार्वभौमिकता को हिंदीतर आत्माओं ने बहुत पहले ही पहचान लिया था इसी कारण स्वामी विवेकानंद, महर्षि दयानंद सरस्वती, महात्मा गांधी और सुभाष चन्द्र बोस जैसे महापुरुषुओं ने मुक्त कंठ से हिन्दी की वकालत की। इस संदर्भ में पूर्व प्रधानमंत्री श्री देवगौड़ा ने 14 सितंबर 1996 को हिन्दी दिवस के अवसर पर कहा था कि – “विदेशी भाषा केवल सेठों-पूँजीपतियों एवम बड़े-बड़े लोगों और अफसरों को जोड़ती है लेकिन क्या राष्ट्र यही समाप्त हो जाता है? क्या कृषक, श्रमिक, ग्राम्य जन, पिछड़े वर्ग, अल्पसंख्यक भारत के अभिन्न अंग नहीं है? क्या ये भारत माँ के संताने नहीं है? इन्हे जोड़ने की जरूरत नहीं है? इन करोड़ो लोगों कों आखिर कौन जोड़ेगा? क्या इन्हे विदेशी भाषा जोड़ सकती है? इन्हे जोड़ने वाली भाषा तो एक ही है और उसका नाम है, राष्ट्रभाषा हिन्दी जो सम्पुर्ण राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोने का कार्य करती है”।4
वर्तमान समय में हिन्दी की स्थिति एवं प्रगति की बात करें तो, हिंदी नदी की निर्मल धारा की तरह अपने पथ पर अग्रसर है. हिन्दी के भविष्य की बात करें तो इसके अन्तः स्वप्नों की कल्पना भारतीय सिनेमा, मीडिया और जन संचार माध्यमों विशेषतः अंतर्जाल से करना अतिशयोक्ति नहीं होगा। अक्सर इस बात की चर्चा होती है कि हिन्दी को गति प्रदान करने में हिन्दी सिनेमा का महत्वपूर्ण योगदान रहा है, संचार माध्यमों विशेषकर इन्टरनेट पर हिन्दी का प्रसार साहित्यिक परिदृश्य को नवीन आयाम प्रस्तुत करती है। इसके समर्थन में सिनेमा को उद्योग मानने पर जीविकोपार्जन हेतु किए जा रहे प्रयासों को आत्मसात किया जा सकता है। बक़ौल टेरी इगल्टन के अनुसार- ‘साहित्य एक कला की वस्तु हो सकती है, सामाजिक चेतना का उत्पादन हो सकता है, एक विश्वदृष्टि हो सकता है, लेकिन इसी के साथ-साथ यह उद्योग भी है। किताबे सिर्फ अर्थ की संरचनाएँ नहीं है, वे एक उत्पाद भी है, जिन्हें प्रकाशक लाभ के लिए बाजार में बेचता है। नाटक सिर्फ एक साहित्यिक पाठ का समुच्चय नहीं है, वह एक पूंजीवादी व्यापार भी है, जिसमे कई तरह के आदमी लगे होते हैं। वह भी एक उत्पाद है, जिसे दर्शकों द्वारा देखा जाता है और इस प्रक्रिया में लाभ कमाया जाता है”।5 लेकिन फिल्मों के संदर्भ में ऐसे विमर्श उचित प्रतीत नहीं होते। उदाहरण के लिए कवि निराला के कथन को प्रस्तुत कर सकते हैं- “हमे फिल्मों मे इतने उपदेश मिलते हैं कि जी ऊब जाता है। यह काम हम केवल हितकरण तथा भाषण-कौशल से निकाल सकते हैं। इतनी मारपी होती है कि यथार्थ शौर्य का भाव दूर होता है। प्रेम मे कामुकता इतनी होती है कि सुकुमारता नष्ट हो जाती है। कथोपकथन ऐसे गिरे हुए होते हैं कि इनमे मुश्किल से कहीं साहित्यिक छटा मिलती है”। इस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से भले ही भारतीय सिनेमा हिन्दी के अस्तित्व को बचाए रखे हैं लेकिन प्रत्यक्ष का दृष्टिगत संवेदन साहित्यिक हिन्दी को कटघरे मे लाकर खड़ा कर देता है। वस्तुतः अभी भी नाटक और रंगमंच से हिन्दी आश्वस्त है जिसका उदाहरण महानगरों एवं छोटे-छोटे कस्बों में नियमित तौर पर हो रहे रंगमंच की प्रस्तुति से सहज ही मिल जाता है। सूचना प्रौद्योगिकी की क्रांति ने सम्पूर्ण जनजीवन को मशीन बनाने को बाध्य किया है, जिससे हिन्दी भाषा अछूती नहीं है। अशोक चक्रधर यह मानते हैं कि – “विश्व भाषा के समक्ष हताश हो रही हिन्दी के मायूसी को हटाने की एकमात्र समर्थ शक्ति है- इन्टरनेट। यह निर्विदाद है कि इन्टरनेट ने हिंदी वैश्विक पहचान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा किया है। ओम निश्चल के कथन को उधार लेकर प्रस्तुत करने की हिम्मत जुटाता हूँ तो उपर्युक्त कथन स्वतः सिद्ध हो जाता है। बक़ौल ओम निश्चल के अनुसार – आधुनिक युग में इन्टरनेट ने दुनिया को बहुत छोटा कर दिया है। बटन दबाते ही हम विश्व की सारी जनकरियाँ पा सकते हैं एक दौर था जब हमारे देश का युवा प्रधानमंत्री इस देश को 21वीं सदी में ले जाने की बात करता था तो हम आश्चर्य और कुतूहल से भर उठते थे। वह 21वीं सदी को सूचना प्रौद्योगिकी और कम्प्यूटर से जोड़कर देखता था। लोग सोंचते थे, यह किसी शेख-चिल्ली का सपना भर है। किन्तु आज जब हम एक विकसित राष्ट्र के रूप में दूसरे राष्ट्रों के हम कदम हैं, हम देखते हैं कि देखते ही देखते उस शख्स का सपना साकार ही नहीं हुआ है बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में अपनी मौजूदगी दर्ज करा चुका है”।6 ऐसी परिस्थिति में हुई भाषिक क्रान्ति महत्वपूर्ण है, जिसमे सोशल मीडिया के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। इसमे प्रयुक्त भाषा को ओम निश्चल जी ने सेंथेटिक भाषा की संज्ञा दी है।
प्रसंगतः इन सब के बावजूद यह प्रश्न स्वाभाविक है कि- सोशल मीडिया पर हिन्दी का दबदबा कितना कारगर है? क्या हिन्दी के इस वैश्विक स्वरूप का अस्तित्व सचमुच खतरे में है? प्रथम प्रश्न का निर्बल एवं सबल पक्ष की पहचान करते हुए अनंत विजयजी लिखते हैं कि – “अगर साहित्य के लिहाज से देखें तो सोशल मीडिया का श्वेत और श्याम पक्ष दोनों है। इसकी तात्कालिकता और सतहीपन इसकी खास कमिया है। मनगढ़ंत और काल्पनिक भ्रम, अफवाह, विकृति और विद्रूपता फैलाने में भी इसकी नकारात्मक भूमिका बहुधा उजागर होती है। सोशल मीडिया खासकर फेसबुक ने दो काम किए हैं। एक तो महत्वपूर्ण है कि- इसने तमाम हिन्दी जानने वालों को रचनाकार बना दिया है”।7 लेकिन इसका सबल पक्ष हिन्दी के प्रसार में ही देखा जा सकता है। इसे मानने वाले तो यह तर्क देते हैं कि-सोशल मीडिया अभिव्यक्ति का बेहतर माध्यम है। यह अपने आपको उद्घाटित करने का एक बेहतर मंच है। इसी की वजह से हिन्दी वृहत्तर पाठक वर्ग तक पहुँच रही है। साथ ही इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि, अनेक ऐसे ब्लॉग भी है, जिसमे स्तरीय साहित्यिक रचनाएँ हो रही है। अनंत विजय मानते हैं कि- कोई भी चीज पक्का होने के पहले कच्चा ही होता है। इसी तरह से सोशल मीडिया पर साहित्य इस वक्त अपने कच्चेपन के साथ मौजूद है, लेकिन तकनीक का इस्तेमाल हमेशा से भाषा के हित में रहा है। इसका एक और उज्ज्वल पक्ष है- विमर्श और संवाद का बेहतरीन मंच। इससे निःसंदेह हिन्दी भाषा को नई पचान मिल रही है। परन्तु गैर मानकीकृत टेक्स्ट इनपुट हिन्दी के लिए एक ऐसी चुनौती प्रस्तुत कर रहा है, जिसकी भरपाई समय की मांग है। इसके लिए रोमन के तरीके में हिन्दी लिखना भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से प्रयोजन की सिद्धि में सहायक तो हो ही सकता है। अतः बालेंदु दाधीच का कथन उचित है कि- “तकनीकी शक्ति एक दुधारी तलवार है। अगर आम उपयोगकर्ता अपनी-अपनी युक्तियों पर गैर-मानकीकृत भाषा, गैर-मानकीकृत चिन्हों, की-बोर्डो आदि का प्रयोग करेंगे तो इस इन्टरनेट-दूरसंचार-सक्षम युग में उसका प्रसार भी इस रफ्तार से होगा कि उस पर नियंत्रण कर पाना मुश्किल हो जाएगा परन्तु धीरे-धीरे ये विकृतियाँ भाषा के मूल रूप को भी प्रदूषित करेंगी। सच तो यह है कि वे ऐसा करने लगा भी है”।8
ऐसी विषम परिस्थिति में मानक भाषा हेतु क्रांतिकारी परिवर्तन आवश्यक पहलू बन जाता है, हिन्दी के वैश्विक स्वरूप को समझे बिना अन्तिम निष्कर्ष पर पहुँच पाना बेमानी है। भले ही आज के कुछेक बिलियमों द्वारा भ्रम फैलाया जा रहा है कि वैश्वीकरण, उत्तर आधुनिकता एवं ज्ञान-विज्ञान से युक्त तकनीकी के दौर में हिन्दी के द्वारा विकास नहीं हो सकता। लेकिन यह निर्विदाद सत्य है कि- आधुनिक संचार ने हिन्दी का स्वरूप बदल दिया है। वर्तमान युग मे आज हिन्दी घूँघट से बाहर आ चुकी है। इसने नए सौंदर्यशास्त्र को अपनाया है। इसने विश्व को उसी भाषा में जवाब देने के लिए, नए रूप में तैयारी की है। वरिष्ठ आलोचक शम्भूनाथ का स्पष्ट अभिमत है कि – “मैं एक ऐसा विश्वग्राम देख रहा हूँ जिसमें होरी की गोशाला की जगह सुपरसोनिक विमान कंकार्ड खड़ा है। चौपाल पर डालर की दुकान है, जहाँ पान-सिगरेट भी उपलब्ध है। विश्व बैंक में झींगुरी सिंह बैठा है। दुलारी सहुआइन ने सुपर बाजार खोल रखा है, जिसमे सब कुछ बिकता है। दाताजी भव्य राम मंदिर के निर्माण में लगे हैं और पंद्रह मिनट की दूरी पर विज्ञान भवन में हरखू अपनी जाति का विश्व सम्मेलन कर रहा है। विश्वविद्यालय विश्व व्यापार संगठन के क्लब में बदल गए हैं, राय साहब ने इस बार मेडोना कों बुलाया है। अब प्रहसन नहीं होता। गन्ना और मटर के खेत मे आलू के चिप्स बनाए जा रहे हैं। टमाटर के एक समान पौधों पर सौंस की बोतले लटक रही है। किनारे के खड़े आम के पेड़ों पर अरब देशों के छोकड़े चढ़े हुए है। इंग्लैंड के प्रधानमंत्री ने बेलारी की चौड़ी सड़क पर हाथ मे कुदाल लिए बेकार बैठे होरी को देखकर ‘हाय’ किया है और कुछ की जेब में कंप्यूटर प्रशिक्षण का प्रमाणपत्र भी है अपनी नागरिकता भुलाकर सुन्न पड़े हैं। टीवी के कुछ केमरे उन पर गिद्ध की तरह मंडरा रहे हैं”।9
इस तरह निःसंदेह समाज में आए परिवर्तन को हिन्दी भाषा से जोड़कर देखा जा सकता है। इसे मूर्धन्य आलोचक विजय बहादुर सिंह ने स्पस्ट किया है कि, “समाज के चौराहे पर खड़ी हिन्दी’ के रूप को आत्मसात करते हुए चिंता जाहीर की है कि, “हिन्दी के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती है कि वह अपने समाज की प्रतिभा को कैसे अपनी ओर आकृष्ट करे? हमारा जन-समाज, लोकतान्त्रिक सरकार, विद्या-संस्थान परस्पर मिल-बैठकर इस चुनौती से धीरे-धीरे निपट सकते हैं, ध्यान बस इतना रखना होगा कि हमे इसके लिए अपने परिचित शब्द खोजने के लिए उस अवरुद्ध विद्याक्षेत्र और लोकविज्ञान क्षेत्र से मार्गदर्शन लेना होगा, जो सामाजिक जीवन को समझने और उससे आगे का संकेत पाने मे हमारी मदद करे”।10 साथ ही जैसे आज विश्व की सारी बड़ी भाषाओं के पास इन्टरनेट पर ई-लर्निंग के एक से एक बेहतर कार्यक्रम है, सॉफ्टवेयर एवं हार्डवेयर की भाषाओं मे एकरूपता है वैसी एकरूपता हिन्दी मे भी आवश्यक है तभी हिन्दी का परिपक्क स्वरूप सामने आ सकता है। आवश्यकता इस बात की है कि इसके परिपक्क स्वरूप हेतु ठोस कदम उठाया जाए। इसके निमित एक राय यह भी हो सकती है कि भारत सरकार के विभिन्न संस्थाओं एवं विश्वविद्यालयों की ओर से ई-लर्निंग का अंतरसंबंधित पाठ बनाया जाए तथा भविष्य में हिन्दी के स्वरूप का निर्धारण नए-नए विकसित सोफ्टवेयरों से किया जाए। उपरयुक्त माध्यम मे सबसे बड़ा कारगर हथियार है- मौलिकता। इसके अभाव में हिन्दी भाषा का वास्तविक पुनर्मूल्यांकन कठिन हो जाएगा। चाहे लेख हो, आलेख हो, या ग्रंथ, उसकी सहज स्वाभाविक स्थिति इसी पर आधारित है। इस प्रकार हिन्दी अपने घर में, परिवार में, पड़ोस में और अंततः सम्पूर्ण विश्व में अपने यथार्थवादी नजरियों से आकर्षित करने में सक्षम होगी। यही हिन्दी का अभिष्ठ है, जिसके निमित जनभागीदारी जरूरी कदम हो सकते हैं।
संदर्भ सूची :
1) भोलानाथ तिवारी-भाषा विज्ञान, किटब्महलेजेंसी, इलाहवाद, छतीसवा संस्कारण, पृष्ठ-5
2) क्षोभकन-नागार्जुन रचनावली-6, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.,नई दिल्ली, पेपरबाइक संस्कारण,पृष्ठ-216
3) पत्रिका, डाइनिका समाचार पत्र, संपादकीय, दिनांक-14।/09/2015
4) जय श्री शुक्ला, राजेश चतुर्वेदी-हिन्दी: संघर्ष और आयाम, विकास पब्लिकेशन, कानपुर, प्रथम संस्कारण ;1996, पृष्ठ-106
5) आजकल, सितंबर 2010, प्रकाशन विभाग, सूचना भवन, लोदी रो, नई दिल्ली, पृष्ठ-10
6) ओम निश्चल-साक्षात्कार का विश्व हिन्दी सम्मेलन अंक 2015 से साभार
7) नया ज्ञानोदय, अन-सितंबर 2015, संपादक-लीलाधार मंडलोई, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, पृष्ठ-67
8) नया ज्ञानोदय, अंक-सितंबर 2015, संपादक-लीलाधार मंडलोई, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, पृष्ठ-57
9) शम्भूनाथ-संस्कृति की आत्मकथा, पृष्ठ-57
10) नयी दुनिया, दैनिक समाचार पत्र, संपादकिया, 12 सितंबर 2015, पृष्ठ-04
राजभाषा हिन्दी : दशा एवं दिशा