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आदित्य तिवारी की कविता – ‘समर्पण’

ये जीवन जितनी बार मिले
माता तुझको अर्पण है
इस जीवन का हर क्षण ,हर पल
माता तुझको अर्पण है।

यही जन्म नहीं, सौ जन्म भी
माता तुझ वारूँ मैं
इस धरती का मोल चुकाने
मेरा सब कुछ अर्पण है।

तन अर्पण, यह मन अर्पण है
रक्त मेरा समर्पण है
निज राष्ट्र धर्म की रक्षा में
मेरा जीवन अर्पण है।

मेरा तरुण प्रसून अर्पण
घर का कण-कण अर्पण है
तोड़ कर सारे सम्बन्धों को
मेरा हीय समर्पण है।

संपर्क : ग्राम- पटनी, डाक- हाटा, जिला- कुशीनगर, उत्तर प्रदेश, भारत, मोबाईल : 7380975319




सबकुछ नम्बर वन तो जीरो नम्बर क्यों लें जनाब !

सामयिक व्यंग्य: पावर ऑफ टाइम

सुशील कुमार ‘नवीन’

राजा नम्बर वन, मंत्री-सभासद नम्बर वन। प्रजा नम्बर वन,प्रजातन्त्र नम्बर वन। प्रचार नम्बर वन, प्रचारक नम्बर वन। प्रोजेक्ट नम्बर वन, प्रोजेक्टर नम्बर वन। मोटिव नम्बर वन, मोटिवेटर नम्बर वन। ज्ञान नम्बर वन, ज्ञानी नम्बर वन। राग नम्बर वन, रागी नम्बर वन। व्यापार नम्बर वन, व्यापारी नम्बर वन। किसान नम्बर वन ,किसानी नम्बर वन। जब सब कुछ नम्बर वन हैं तो आंकलन और आंकलनकर्ता भी नम्बर वन ही होना चाहिए। सामयिक मुद्दा कृषि विधेयकों का है। ये किसान विरोधी हैं या नहीं इसकी सटीक विवेचना करने वाले दूर-दूर तक नहीं दिख रहे हैं। जो विशेषज्ञ सामने आ रहे हैं उनके अपने-अपने स्वार्थ हैं। सत्ता पक्ष के विशेषज्ञों को हर हाल में इसी बात पर अडिग रहना है कि ये किसानों के लिए सरकार का तोहफा है तो विपक्ष से जुड़ें विशेषज्ञों को तो इसमें मीनमेख निकालनी ही निकालनी है। ऐसे में किसान किसे सही मानें। पर जिस तरह बवाल हो रहा है उससे तो उन्हें पुराना सिस्टम ही उचित सा लगने लगा है। खैर छोड़िए इसे। ये लड़ाई अभी लम्बी चलनी है। आप तो बस एक कहानी सुनें और आनन्द लें।

 विदेश यात्रा गए राजा साहब को वहां दो घोड़े पसन्द आ गए। राजा ने घोड़ों के मालिक से मोलभाव किया पर वह उन्हें बेचने को तैयार नहीं था। राजा साहब मुंहमांगे दाम पर भी लेने पर अड़े थे। घोड़ा मालिक का तर्क था कि ये आपके लायक नहीं हैं।ये सुंदर हैं, मनभावन हैं पर आरामपरस्त हैं। कल को इन्हें युद्ध आदि में भी प्रयोग करना चाहोगे तब काम नहीं आएंगे। दूसरे आपके यहां गर्मी बहुत है, ये ठंडे मौसम के आदी हैं। बीमार हो जाएंगे। जान का भी जोखिम अलग से रहेगा। इन्हें छोड़ आप आपके देश के अनुरूप घोड़े ले जाएं। हठ पर घोड़ा मालिक ने इस शर्त पर राजा को घोड़े दे दिए कि इन्हें धूप तक नहीं लगनी चाहिए । राजा विशेष व्यवस्था कर घोड़ों को अपने राज्य में ले आया। उनके लिए विशेष अस्तबल तैयार करवाया गया। देखभाल के लिए कर्मचारी नियुक्त कर दिए गए। विदेश से विशेष घोड़ों को लाने की खबर प्रजा तक भी जा पहुंची। हर कोई इन्हें देखना चाहता था पर राजा के अलावा अस्तबल में जाने की किसी को इजाजत तक नहीं थी।

एक दिन राजसभा में मंत्री ने राजा से उन घोड़ों की खूबियों के बारे में पूछा तो राजा ने कहा-एक नम्बर के घोड़े हैं। उनका मुकाबला कोई नहीं कर सकता। सुंदरता में, कदकाठी में, चाल में सब एक नम्बर है। मंत्री ने कहा-जी ऐसे है तो प्रजा को भी इन्हें एक बार देखने का मौका मिलना चाहिए। मौसम ठीक जान एक दिन राजा ने आमजन के लिए घोड़ों के दर्शन कराने का निर्णय लिया। मुनादी के बाद तय समय पर मंत्री, सभासद व आमजन राजमहल के बाहर खुले मैदान में जमा हो गए। दुदम्भी की ध्वनि के साथ घोषणा की गई कि सभी दिल थाम कर बैठें। सुंदरता में नम्बर एक, कदकाठी में नम्बर एक, चाल में नम्बर एक राजसी घोड़े जो कभी न देखे होंगे,न उनके बारे में सुना होगा। जल्द सामने आ रहे हैं।

फूलों से सजे वाहन में दोनों घोड़ों को बाहर लाया गया। देखते ही घोड़े सबके मन को भा गए। बाहर की हवा लगते ही घोड़े जोर-जोर से हिनहिनाये। प्रजा ने मधुर आवाज पर तालियां बजाई। वो फिर हिनहिनाये। तालियां फिर बजने लगी। पर ये क्या, घोड़ों के हिनहिनाने की आवाज रुकने का ही नाम नहीं ले रही थी। हिनहिनाने के साथ घोड़ों ने वाहन में ही उछलकूद शुरू कर दी। लात मार कर्मचारी भगा दिए। रस्सी से अपने आपको आजाद करवाकर अस्तबल की ओर दौड़ लगा दी। थोड़ी सी दूरी के बाद ही दोनों गिर पड़े और अचेत हो गए। पशुवैद्य ने जांच उन्हें शीघ्र अस्तबल में ले जाने की कही। वहां जाते ही घोड़ों ने आराम महसूस किया। घण्टे भर में वो सामान्य हो गए। राजा को आकर पशुवैद्य ने आकर जानकारी दी की अब वो सामान्य हैं। इसके बाद राजा ने उन घोड़ों को बाहर नहीं निकाला।

उधर, वो एक नम्बरी घोड़े प्रजा के लिए फिर चर्चा का विषय बन गए। एक बोला-भाई, राजा के घोड़े हैं तो एक नम्बर के। दूसरे ने भी हामी भरी।बोला-बिल्कुल, देखते ही मन भा गए। तीसरे का जवाब भी कुछ ऐसा ही था।

चौथा चुपचाप उनकी बात सुन रहा था। सबने घोड़ों पर उसकी भी राय जानी। बोला- घोड़े एक नम्बर के हैं, इसमें कोई दो राय नहीं है। पर राजा के तो जीरो नम्बर हो गए। सब बोले- घोड़े एक नम्बर के तो राजा के जीरो नम्बर क्यों। राजा ही तो अपनी बुद्धिमानी से इन्हें छांटकर खरीदकर लाया है, ऐसे में राजा ने भी तो एक नम्बर का ही काम किया है। उसने कहा-जरूर, राजा एक नम्बर, सभा-सभासद सब एक नम्बर,काम भी एक नम्बर। राजा का सलेक्शन भी एक नम्बर का है। पर ऐसे घोड़ों का क्या फायदा। जिन्हें न राजा किसी को दिखा सकता है,न सवारी कर सकता है। न सेना में शामिल कर सकता है, न किसी को उपहार में दे सकता है। बोलो, हैं ना। ये जीरो नम्बर का काम। 

    उसकी बात सबको उचित सी लगी। बोले-तुम ही बताओ, राजा को क्या करना चाहिए। बोला-जब यहां के वातावरण के अनुसार ये हैं ही नहीं तो राजा क्यों इन्हें मारने पर तुला है। जहां से इन्हें लाया गया, वहीं इन्हें भिजवा दें। जो उपयोगी नहीं, उसे लौटाना ही ठीक। बात राजा तक भी पहुंच गई। उसने सोचा जब मेरे पास पहले से सबकुछ एक नम्बर है तो इन घोड़ों के चक्कर में अपने नम्बर क्यूं कम करवाऊं। राजा ने घोड़े ठंडे प्रदेश में वापस लौटा दिए। विदेशी नम्बर वन घोड़ों के चक्कर में राजा ने अपने नम्बर जीरो करवा लिए थे। अब राजा का टारगेट प्रजा में अपने जीरो नम्बर को फिर से एक नम्बर में बदलने का हो गया। आगे क्या हुआ, ये फिर कभी बताऊंगा। आज के लिए इतना ही काफी….।

(नोट-कहानी मात्र मनोरंजन के लिए है। इसे अपने दिमाग से किसी के साथ जोड़ ज्यादा स्वाद लेने का काम कदापि न करें। ये स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है।)

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है। संपर्क : 96717 26237




बचे रहेंगे किसान, तभी तो होगा नफा-नुकसान…..

सामयिक लेख: कृषि विधेयक    सुशील कुमार ‘नवीन’

पिछले एक पखवाड़े से देशभर में किसान और सरकार आमने-सामने हैं। मामला नये कृषि विधेयकों का है। सरकार और सरकारी तंत्र लगातार इन विधेयकों को किसान हितैषी करार देने में जुटा है वहीं किसान इसे ‘अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना ‘ जैसा बता लगातार मुखर हैं। किसानों पर लाठीचार्ज हो चुका है, राज्यसभा में हंगामा हो चुका है। 8 सांसद निलंबित किये जा चुके हैं। यहां तक विपक्ष दोनों सदनों का बहिष्कार भी कर चुका है। पर सरकार आगे बढ़े कदम किसी भी हालत में पीछे लौटाने को तैयार नहीं दिख रही। कुल मिलाकर स्थिति विकट है। मैं भी इस मामले पर कुछ लिखने की तीन-चार दिन से सोच रहा था, पर लिखूं क्या यही ऊहापोह की स्थिति में था। किसानों के समर्थन पर लिखूं या सरकार के समर्थन पर। समझ मे ही नहीं आ रहा था। सुबह-सुबह आज घर के आगे कुर्सी डाल चाय की चुस्की ले रहा था। इसी दौरान गांव में नाते में चाचा लगने वाले प्रताप सिंह का आना हो गया। गांव के बड़े सम्मानित व्यक्ति हैं वो। किसान और किसानी पर उनसे कितना ही लम्बा वार्तालाप कर लो। पीछे नहीं हटते। किसान सम्बंधित हर आंदोलन में अग्रणी रहते है। इतनी सुबह गांव से उनका आना मुझे थोड़ा असहज सा लगा

जलपान के बाद औपचारिकवश मैंने आने का प्रयोजन पूछा तो बोले-सब सरकार की माया है। कहीं धूप-कहीं छाया है। मैंने कहा-चाचा, बड़ी कविताई कर रहे हो। माजरा क्या है? बोले- दो दिन से तेरे भायले(मित्र) के साथ मंडी में बाजरा बेचने आया हुआ हूं। सब फ्री का माल समझते हैं। हमारी तो मेहनत का कोई मोल नहीं। ज्यादा नहीं तो कम से कम सरकारी रेट तो मिल जाए, पर सब के सब मुनाफाखोर लूटन नै लार टपकाई खड़े हैं। उम्मीद थी कि इस बार 3000 रुपये क्विंटल का भाव मिल जाएगा, पर यहां तो आधे ही मुश्किल से मिल रहे हैं।

मैंने कहा- यह तो गलत बात है। आप बेचो ही मत, कम दाम पर। सरकार ने अब तो किसानों के लिए कई बिल पास कर दिए हैं। अगली बार से तो आपको फायदा ही फायदा है। बोले-बेटा, किसानों को कभी फायदा नहीं होना। किसान तो सिर्फ सपने देखने के लिए होते हैं। इस बार बढ़िया दाम मिलेंगे यह सोचकर  छह महीने जी-तोड़ मेहनत करते हैं।और जब फसल निकालकर मंडी की राह पकड़ते हैं उसी समय ये सपने एक-एककर टूटते चले जाते हैं। किसान तो सदा यूं ही मरने हैं। मैंने कहा- चाचा, आगे से ऐसा नहीं होगा। सरकार ने किसानों को पूरी आजादी दे दी है। फसल का स्टोर कर समय पर बेहतर दाम ले सकेंगे। बढ़िया दाम मिलते हो तो विदेश में भी फसल बेच सकेंगे।आढ़ती-बिचोलिये सब लाइन पर लगा दिए हैं।

मेरी बात सुन चाचा खूब जोर से हंसे और फिर गम्भीर होकर बोले- एक बात बता बेटा! तुम्हारे कितनी जमीन है। मैने कहा-2 एकड़ है। बोले-इस बार इसमें गेहूं बो दे। आगली बार बढ़िया भाव मिलेंगे। मैंने कहा-चाचा, ये किसानी हमारे बस की नहीं है, एक बार की थी। खर्चा हुआ 50 हजार और आमदनी 30 हजार। 20 हजार का सीधा नुकसान। बोले-बस, एक बार में ही हार गया। हमारे साथ तो सदा से ही ऐसा होता आया है। कभी ओले पड़ जाते हैं कभी तूफान आ जाता है। रही सही कसर हर साल फसलों की नई बीमारी पूरी कर देती है। दिखता कुछ और मिलता कुछ है। आगे अच्छा होगा, सोचकर फिर हल उठा लेते हैं।

बोले- रही बात, विदेश में फसल बेचने की। फसल तो तब बिकेगी जब उसे विदेश तक ले जाने की हमारी हिम्मत हो। गाड़ी का भाड़ा तो शहर की मंडी तक लाने का नहीं जाता है। विदेश जाने में तो खुड(खेत) बिक जाएंगे। फसल निकले नहीं, उससे पहले खेत में ही बीज, खाद,राशन का हिसाब करने व्यापारी पहुंच जाते है। आधी से ज्यादा तो वहीं बिन मोल बिक जाती है। शेष आधी लेकर मंडी की राह करते हैं तो कभी नमी, कभी कचरा ज्यादा कहकर उसमें से और काटा मार लिया जाता है। आखिर में जब हिसाब लगाते है तो नफा कम नुकसान ज्यादा दिखता है। अब सुन ले इन बिलों के फायदे की। फायदा सदा जमाखोरों को हुआ है और आगे भी होगा। खेती में खर्चे इतने बढ़ लिए कि स्टोर हम कर सकते नहीं। बाहर फसल बेचने की हिम्मत नहीं है। खेती की जमीन सिकुड़ती जा रही है। गांवों में भी कालोनी कटने लगी हैं। किसान और किसानी तो खत्म होने की राह पर है। मान लिया बिल सारे किसानों की भलाई के है। पर किसान बचे रहेंगे तभी तो इनका लाभ मिलेगा। यह कहकर चाचा उठ लिए। बोले-बेटा, ये इंद्रजाल है। इसे समझदार लोग समझ सकते है, हमारे जैसे नहीं। चाचा मुझे भी इस मामले में ‘सही कौन’ की प्रश्नावस्था में छोड़ ‘आच्छया बेटा, राम-राम’ कह निकल लिए।

(नोट:लेख मात्र मनोरंजन के लिए है, इसे किसी अन्य विषय-वस्तु न जोड़ कर न देखें)

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है। संपर्क : 96717 26237

 
 
 
 



सपना नेगी की कविता – ‘धन्यवाद कोरोना!’

कोरोना ! तुमने हमें बहुत कुछ स्मरण करवा दिया
पश्चिमीकरण की चकाचौंध में फंसकर
अपनी पुरातन संस्कृति भूल गए थे हम

तुमने ही हमारा परिचय पुन: संस्कृति से करवाया।

देशी भोजन को छोड़ बर्गर, पिज्जा,
लेग पीस के पीछे भागने वालों को

पुन: शुद्ध देशी भोजन से अवगत कराया।

होटल, रेस्टोरेंट से नयी-नयी डिश मंगवाने की

आदी हो चुकी महिलाओं को

तुमने ही नए-नए डिश बनाना सीखा दिया।

जिव्हा के स्वाद में डूबे नये-नये मसालों का इस्तेमान करने वालों को
जिन्होंने कभी ध्यान ही नहीं दिया,
नए के चक्कर में फंसकर पुरानों को भुला दिया
उनको तुमने उन्हीं पुराने मसालों के करीब ला दिया।

नमस्ते वाली पुरातन रीति छोड़
हाथ मिलाना, गले लगना हमारा फैशन बन गया था

तुमने ही नमस्ते वाली संस्कृति को पुन: अपनाना सिखा दिया।

हमारी संस्कृति ने ही तो सिखलाया था
जब भी बाहर से आओ
हाथ, पैरों को साफ़ कर अच्छी तरह अंदर आओ
फिर कैसे हम अपनी संस्कृति की बातें भूलते चले गए
कोरोना ने आकर हमें एहसास कराया
संस्कृति को भूलो मत
जो पहले करते थे, वही दुबारा करो ना।

तुमने आकर सबको एकता का पाठ पढ़ा दिया

दिखला दिया बिमारी जात-पात

रंग-रूप, ऊँच-नीच, धर्म को देखकर नहीं आती।
तुमने शहरों में रहने वालों को उनकी औकात दिखा दी
जो ख़ुद को माडर्न और गाँव के लोंगों को गंवार समझते थे
तुमने ही आज उनको गाँवों का रास्ता दिखा दिया
उनकी आँखों पर पड़ी अहंकार की पट्टी को हटा दिया।

कल तक जो स्वार्थी बनकर केवल पैसों के पीछे भागते थे
तुमने ही उनको रिश्तों का असली मोल सिखा दिया
अपनों के साथ बैठ चंद लम्हे बिताने का
सुनहरा मौका दिया।

जिम के पीछे भागने वालों को

तुमने ही पुन: योग का महत्त्व समझाया।

दिल्ली तक को प्रदूषण रहित कर
न केवल हमें साँसों का मोल बताया
पर्यावरण के संदर्भ में कई उदाहरण
हमारे लिए छोड़ गए।

जिन डॉक्टर, पुलिस वालों के फर्ज़ को कभी समझा ही नहीं हमने
कोरोना संकट में उन्हीं ने अपने परिवार को भुला

हम सबका ध्यान रखा
परिवार से पहले अपना फर्ज़ निभाया

तुमने आकर ही, लोगों को उनका मान, सम्मान सिखा दिया।

जिसके बारे में हमने कभी सोचा नहीं

ऐसे नए-नए शब्द देखो तुमने आकर जोड़ दिए
कोरोनटाइन, आइसोलेशन, जनता कर्फ्यू, लॉक डाउन
तुम्हारे ही कारण इन शब्दों का मोल हम समझ पाएँ।

हमें हमारी संस्कृति से पुन: जोड़ दिया।

तुम्हारा धन्यवाद, कोरोना!

(शोधार्थी), हिंदी-विभाग, पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़-160014

मोबाइल नं: 9354258143, ईमेल पता : [email protected]




नरसिंह यादव की कविता – “रेप की सजा फांसी”

लहरों को देखा आज यूं ही लहराते हुए
हवाओं को भी देखा गुलछर्रे उड़ाते हुए
बादल घूम रहा अकेले इधर उधर आज
मिट्टी में मिली खुद जीवन सभालते हुए।

खूब घोट लो सत्य का गला घोंटने वाले
किसी बात पे अपनी बात जोतने वाले
क्या हो रहा आज छुपकर कहा सो रहे
कहां खोए समाधि पे फुल चढ़ाने वाले।

अहिंसा के पुजारी दांत दिखाते हुए
अपने ही कामों को मुंह चिढ़ाते हुए
बोल रहे बढ़ चढ़ के उन्हीं के हत्यारे
फिर आ जाओ हमें ये सिखाते हुए।

जिंदा हैं बहू बेटियों को यूं डराते हुए
घूम रहे इज्जत को तार तार करते हुए
भूल गए वहीं आज नारा लगाया जो
जी रहे सरकार का मौज उड़ाते हुए।

आ गया वहीं दो अक्टूबर फिर आज
आए दो फुल चढ़ा वो समाधि पे आज
पूरा करके दिखा दिया सरकारी कोरम
मिले जो सच को सच से ही छुपाते हुए।

सब मौन हैं पर कह रहे मिलकर आपसे
सुना जो नहीं वहीं गुजर गया जो पास से
बने एक विधान नियम हो जाए फांसी जो
वो भूल जाए बाला का रेप करना आज से।




बुद्धि सागर गौतम के दोहे

अभिमान

जीवन में अभिमान तुम, कभी न करना भाय।
अभिमानी इस जगत में, चैन कभी ना पाय।

मानव का अभिमान ही, बहुत बड़ा है दोष।
अभिमानी मानव सदा, दे दूजे का दोष।

अहंकार अभिमान है, दोनों एक समान।
मानव जो इसको तजे, मिले उसी को मान।

अभिमानी जो होत है, करें बुरा ही काम।
करता अनहित देश का, सदा बिगाड़े काम।

अभिमान करें किस चीज का, तन है राख समान।
क्षण भर में उड़ जाएगा, सुगना हवा समान।

रचनाकार ✍️ – बुद्धि सागर गौतम
( मौलिक व स्वरचित रचना )
💐 🙏🏻🙏🏻 💐✍️✍️✍️✍️✍️
स्थायी पता – ग्राम इटहर, पोस्ट सोनखर,
जिला बस्ती, उत्तर प्रदेश, भारत – 272178.

वर्तमान पता – नौसढ़, जनपद – गोरखपुर,
उत्तर प्रदेश, भारत – 273016.
दूरभाष संख्या – 9412646123.




डॉ. नानासाहेब जावळे की कविता – “समाज और व्यक्ति”

व्यक्ति और समाज का संबंध

है पेड़ और भूमि जैसा 

व्यक्तित्व रूपी पेड़ समाज रूपी भूमि पर

खूब फूलता-फलता हो जैसा। 

व्यक्ति और समाज 

हैं दोनों पारस्परिक 

एक दूसरे के बिना 

हैं दोनों का अस्तित्व मुश्किल। 

नहीं होता व्यक्ति के बिना 

समाज का कोई अस्तित्व अपना 

और नहीं रह सकता है व्यक्ति 

समाज के बिना कभी सुरक्षित। 

व्यक्ति के अपने दो हाथों के सिवा 

होते हैं उसके पीछे खड़े हजारों हाथ 

वे व्यक्ति का जीवन हैं संवारते

उसका जीवन स्वस्थ बनाते। 

सुबह से लेकर देर रात तक 

करते हैं जो हमारी आवश्यकता पूर्ति 

वही समाज के देनदार 

सही मायने में हमारे समधी। 

होगा कोई डॉक्टर, पुलिस या सैनिक 

अथवा होगा दूधवाला, सब्जीवाला या दुकानदार 

अगर बंद कर दे यह सारे अपना काम

इनके बिना जीवन होगा दुश्वार। 

जीवन एक शास्त्र, कला और धर्म है 

उसे जीते-जीते हम सीख जाते हैं 

जियो और जीने दो के तत्वानुसार 

हम सुखी-समृद्ध जीवन बनाते हैं। 

व्यक्ति बना रहे इंसान 

अन्यों से बनाए रखे सुसंवाद 

जनहित देखे स्वांत सुख के परे 

तब कहलाए वह नर का नारायण। 

लेकिन व्यक्ति, खोकर अपनी विवेक शक्ति 

हो धर्मांध या घिनौनी राजनीति से प्रभावित 

कार्य करें मानवता विरोधी 

तब कहलाए वह स्वार्थी-पाखंडी। 

अनेक बार निष्ठा के नाम पर व्यक्ति 

गिरवी रखकर अपनी प्रज्ञा शक्ति 

छोड़ दे राह इंसानियत की 

खूब हानि होती है मानवता की। 

निश्चित ही व्यक्ति 

इकाई है, समाज की 

फिर भी स्वाभाविक विशेषताएं उसकी 

बनाती है पहचान उसके अस्तित्व की। 

भूल न जाए व्यक्ति अपना स्वत्व 

खो न दे वह अपना अस्तित्व 

कर जीवन मूल्यों का स्वीकार 

करता रहे मानवता का प्रचार-प्रसार।

लेकिन आज समाज में 

व्यक्ति का आदर होता है तब तक 

उसके पास बहुत सारा 

पैसा होता है जब तक। 

अतः अब व्यक्ति का लक्ष्य 

बन गया है मात्र पैसा 

भौतिक संपन्नता के पीछे 

देखो भाग रहा है, वह कैसा? 

आज पैसा ही समाज का 

ईश्वर बन जाने के कारण 

सच्चे समाज हितैषी, जीवन मूल्यों के निर्माता 

उपेक्षित बन गए हैं, यह सब जन।

समाज जिसे आदर्श मानेगा 

व्यक्ति उसका अनुसरण करेगा 

मानवता की भलाई के लिए 

दोनों को ही बदलना होगा।

अतः स्वार्थ, धर्मांध, कूटनीतिज्ञों से बचकर 

हमें मानव बने रहना होगा 

व्यक्तिगत लाभ-हानि का त्यागकर 

मानवता को महत्व देना होगा।

सहयोगी प्राध्यापक, सुभाष बाबुराव कुल कला, वाणिज्य व विज्ञान महाविद्यालय केडगांव, तहसील – दौंड, जिला – पुणे, महाराष्ट्र, भारत

संपर्क : E-mail- [email protected]दूरभाष 7588952404




हिन्दी कीं दशा और दिशा

डॉ. मजीद मियां
सहायक प्रोफेसर

सार

भाषा साहित्य एवं जीवन के बीच एक सेतु का काम करता है। साहित्यकार उस भाषा रूपी सेतु का निर्माता है, जो व्यक्ति और समाज का यथार्थ जीवन से रिश्ता कायम करता है तथा उचित-अनुचित का ज्ञान एवं रिश्ते की ओर ले जाता है। इसके साथ ही अपने मूर्त रूप में यह विचार विनिमय का साधन भी होता है। भोलानाथ तिवारी ने इसकी परिभाषा देते हुए कहा है – “भाषा मानव-उच्चारना वयवों से उच्चारित यादृच्छिक ध्वनि-प्रतिकों की वह संरचना है, जिसके द्वारा समाज के लोग आपस में विचार-विनिमय करते हैं और साथ ही लेखक, कवि या वक्ता रूप वे में अपने अनुभवों एवं भावों आदि को व्यक्त करते हैं तथा अपने वैयक्तिक और सामाजिक व्यक्तित्व विशिष्टता तथा अस्मिता के सम्बंध में जाने-अंजाने जानकारी भी देते हैं।1 हिन्दी के वर्तमान स्वरूप को आत्मसात करने पर सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के कविताओं में व्यक्त चिंता को मजबूत आधार प्रदान हो जाता है, जिससे एक तरफ लोक बोली से भाषा बनकर वैश्विक राह पर व्यावहारिक हिन्दी के प्रति आभारी ही सही लेकिन यथार्थ का नया चेहरा उजागर होता है, तो दूसरी तरफ धूमिल होते रूप के प्रति आकर्षक शक्ति को महसूस किया जा सकता है। इस प्रकार हिन्दी भक्तों के लिए इसके स्वरूप का पुनः निर्धारण एक आवश्यक पहलू बन जाता है। इसी कारण यथा स्थितिवाद से गुजरते हुए हिन्दी की वास्तविक खोज एवं जानकारी संभव है। राष्ट्रिय स्तर पर देखा जाए तो अपने ही घर में बेगानी बनी हिन्दी के प्रति साधारण दृष्टिकोण की परख के बाद ही अन्तराष्ट्रीय लेखा-जोखा प्रस्तुत किया जा सकता है। वर्तमान समय मे आज भी देखे तो हिन्दी की छाती पर अँग्रेजी को जबरन लादा जाता है। नागार्जुन ने 25 नवंबर 1982 को ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित अपने लेख में भी लिखा था कि, “अँग्रेजी का मोह हमारी रग-रग में भरा हुआ है। हम अँग्रेजी को ही देश की एकता और केन्द्रीय प्रशासन के साथ-साथ विश्व मानव संपर्क का एकमात्र माध्यम मान बैठे हैं। लार्ड मेकाले के अनुयाईओ में अँग्रेजी के प्रति आजादी से पहले उतना उत्साह नहीं रहा होगा जितना स्वाधीनता हासिल कर लेने के बाद हमारे देश के कुछ आंचलिकता के स्वार्थ में पड़कर उफान खाने लगा है”।2 इतना ही नहीं, नागार्जुन जी भाषा समस्या को जन-सामान्य से जोड़ते हुए आगे लिखते हैं कि – ‘वस्तुतः यह संकट अमुक या अमुक भाषा के हटाने या रखने का संकट नहीं है। यह संकट है जन-सामान्य को हमेशा के लिए ‘अछूत एवं नीच’ मानकर शासन के मंदिरों में जमे हुए उच्च वर्ग के स्पर्श-दोष से बचाने और संजोने का। जिनका संस्कार अँग्रेजी के माध्यम से ही गढा गया हैं और जिसे हुकूमत का चस्का लग चुका है। वे क्या चाहेंगे कि अँग्रेजी हटे? उनका मानना है कि अंग्रेजी जैसी अखिल भारतीय भाषा को हटाकर हम क्या फिर से प्राकृत-अपभ्रंश की गुफाओं में लौट जाएंगे? ऐसा कहकर कुछ लोग अंग्रेजों की ही तरह आज भी अँग्रेजी का रसायन हमे पीला रही है। कभी-कभी लगता है कि वाकई अंग्रेज़ यहाँ से चले गए! वर्तमान समय में आंचलिकता के साथ-साथ बहुत सारे समस्याओं के कारण आज हिन्दी अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ रही है इसमे विदेशी प्रभाव को नहीं माना जा सकता, क्योंकि वैश्वीकरण के कारण विदेशी सरकार एवं वहाँ की कम्पनियां अपने लोगों को हिन्दी सिखा रहे हैं. परन्तु हमारे यहाँ ठीक इसके उलटे रोजगार का माध्यम लोग अंग्रेजी को मानते हुए अधिक से अधिक अंग्रेजी पर जोर देते नजर आ रहे हैं. जिससे अपने ही देश में हिन्दी आज प्रवासिनी बनी हुई है. इसके लिए मैं उदाहरण देना चाहूँगा “जैसे एक पहिला अपने ललाट पर आईने के सामने खडी होकर बिंदी लगाती है और फिर वह उस बिंदी के सुन्दरता को नहीं देख पाती है. परन्तु दुसरे उस बिंदी की सुन्दरता को देख पाता है. उसी प्रकार भारत देश ने विश्व को हिन्दी की बिंदी देकर विश्व को सुन्दर बना दिया है पर आईने के अभाव में आज हमारा देश खुद उस सुन्दरता को नहीं देख पा रहा है. अगर भारतीयों को वर्तमान समय में हिन्दी की सुन्दरता को देखना ही है तो उन्हें फिर से उस आईने के सामने आना होगा तभी वह हिन्दी की सुन्दरता को देख पाएगा.

प्रसंगतः प्रो. सुधीश पचौरी का कथन न केवल हिन्दी के वर्तमानकालिक यथार्थ को सिद्ध करता है अपितु इससे आजादी के सात दशक बीत जाने के बाद भी उपर्युक्त विचार की जीवनतता प्रमाणित होती है। उन्होने हिन्दी दिवस के अवसर पर ‘हिन्दी को खतरा हिन्दी वालों से है’ शीर्षक अपने लेख में स्पष्ट कहा कि “हिन्दी के उद्धार के नाम पर हमे तमाशा नहीं बनाना चाहिए। सरकार और रचनाकार जो हिन्दी के लिए रोना-धोना करते हैं उनसे मैं कभी सहमत था और ना ही सहमत हूँ। सरकार भाषाओं को नहीं बचाती बल्कि साधारण प्रयोग करने वाली जनता ही बचाती है। हमारे हिन्दी के बुद्धिजीवी सामाजिक विषयों पर तो खूब बोलते हैं लेकिन भाषा को बढ़ाने के लिए उनके हलक से एक आवाज तक नहीं निकलती है, वे हमेशा न जाने क्यो मौन रहते हैं? आज भुमन्डलीकरण के दौड मे हिंदी कमाई की भाषा बन गई है लेकिन इसकी कमाई खाती अँग्रेजी है। आज हमारे देश मे ऐसी बड़ी संख्या मे लोग है जो खाती हिन्दी की है पर गाती अँग्रेजी की है”।3 अतः 21वीं सदी में भारत एक तरफ जहॉ राष्ट्रिय स्तर पर आर्थिक संवृद्धि की चरमावस्था को प्रकट करने का प्रयास कर रहा है तो दूसरी तरफ राष्ट्रिय अस्मिता की जन-भाषा हिंदी को स्थायित्व प्रदान करने में भरपूर सहयोग नहीं कर पा रहा है। हिन्दी के सर्वव्यापी अस्तित्व और सर्वेश्वर चरित्र को हितग्राही बनाने में सबसे प्रमुख बाधा है, अँग्रेजी का बढ़ता प्रकोप। यहाँ तक कि ‘अँग्रेजी’ के द्वारा नए-नए तर्क-वितरकों एवं दृष्टिकोणों का जन्म, अपने आप में अशुभ संकेत का घोतक है। संसार की निगाहों में हमारी यह अँग्रेजी भक्ति भारतीय जनता की मानसिक पंगुता का चटकीला विज्ञापन साबित हो रहा है। यहॉ स्वामी रामदेव महाराज का कथन सठिक प्रतीत होता है कि – ‘विदेशी भाषाओं का ज्ञान होना उत्तम बात है, क्योंकि संवाद, संपर्क, व्यापार एवं व्यवहार के लिए यह आवश्यक है परन्तु अन्य देश की भाषा का हमारे देश मे राष्ट्रभाषा के रूप में प्रयोग करना, घोर अपमान और शर्म की बात है’। विश्व का कोई भी सभ्य देश अपने नागरिकों को विदेशी भाषा में शिक्षा नहीं देता। परन्तु विदेशी भाषा में शिक्षा देने वाला देश विश्व में केवल भारतवर्ष ही है जो जनता का अंग्रेजी के मोह के कारण ही संभव हो सका है. साथ ही यह भी सच्चाई है कि जन साधारण की इसी शक्ति के कारण ही आज वर्तमान समय मे उदारीकरण और उपभोक्तावादी संस्कृति से हिन्दी का अंतरसंबंध स्थापित हुआ है। आज हिन्दी, मनोरंजन, सूचना और उपभोग का जबर्दस्त माध्यम बन गया है और साथ-साथ बाजार में ऐसी पकड़ जमा ली है कि, बड़ी से बड़ी बहुराष्ट्रीय उपभोक्ता कम्पनी व्यापार के लिए, हिन्दी को अपनाने के लिए मजबूर है. परंतु इन सभी के बावजुद भी लम्बे समय से हिंदी आज़ भी अपने ही जन्म भूमि भारत में संघर्षरत है. हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी अपने देश में ही आज – राजभाषा, संपर्कभाषा, व्यापार भाषा या फिर मात्र अनुवाद की भाषा बनकर रह गया है! पर आज हतभाग्य हिन्दी के अस्तित्व और उसके भविष्य के स्वरूप में सबसे बड़ी चुनौती आठवीं अनुसूची में सम्मिलित होने को अधीर उसकी प्राण बोलियाँ ही खड़ी कर सकती है।

वर्तमान समय का हम आकलन करें तो हमारी वर्तमान पीढ़ी बाजारवाद और आंचलिक राजनीति के झांसे में पड़कर जिस प्रकार अंग्रेजी के मोह में पड़े हैं, उससे हिन्दी के समसामयिक बोध के स्वरूप को छिन्न-भिन्न करने में कोई कसर नहीं छोर रहे हैं। परंतु इन सब के बावजूद भी आज हिन्दी अपनी लचीलेपन और रचनाधर्मिता के कारण भारतीय संस्कृति की संवाहक बनकर हमारे समक्ष खड़ी है। क्योंकि किसी भी भाषा की सर्वमान्य मापदंड उसकी रचनाधर्मिता, संवेदनशीलता और लचीलापन होती है। अपने इस गुणों के कारण ही विश्व स्तर पर हिन्दी का भविष्य उज्ज्वल है क्योंकि संसार की उन्नत भाषाओं में हिन्दी सबसे अधिक व्यवस्थित, सरल, लचीली, नवीन शंब्द रचना में समर्थ एवं आम जनता से जुड़ी भाषा है। हिन्दी आज विश्व भाषा बन चुकी है क्योंकि दुनिया के हर देश में हिन्दी भाषी अपनी उपस्थिती दर्ज करा रहे हैं। वह उपस्थिती चाहे आर्थिक क्षेत्र में हो या राजनीतिक क्षेत्र में हो अथवा सामाजिक क्षेत्र में। भारतीयों ने आज अपने को कमोबेश ही सही पर अंग्रेजी के चंगुल से निकल कर अपना एक अलग पहचान बनाया है, जिसकी गूँज विश्व के हर एक कोने में सुनी जा सकती है। लेकिन इन सभी पहलुओं के बावजूद सम्पूर्ण भारत में भाषा-विवाद एवं इसके नवीन राजनैतिक गतिशीलता ने हिन्दी की स्वाभाविकता पर अनेको प्रश्न खड़े करते हैं। आजादी के इतने दिनों बाद भी आज तक भाषा का सवाल आखिर सुलझा क्यों नहीं? पर पिछले एक दशक से इस प्रश्न का एक नया आवाम जुड़ गया है। गैर हिन्दी प्रेदेशों में खासकर महाराष्ट्र और पूर्वोत्तर राज्यों में, हिन्दी को लेकर विरोध तेज हुए है, पहले विरोध दक्षिण तक सीमित थी। हिन्दी भाषी राज्यों में तेजी से हो रहे बेरोजगारी के प्रश्न ने हिन्दी विरोध को तेज कर दिया है। परिणामस्वरूप आपसी कटुता, द्वेष, विरोध के स्वर फूटने लगे हैं। इसकी परिणति वस्तुतः एकता और अखंडता के सर्वमान्य सिद्धान्त की क्षणभंगुरता में निहित हो सकती है। भले ही भाषायी अल्पसंख्यक, बंगला, उर्दु, मराठी, कन्नड़, तमिल, तेलेगु, आसामी, मणिपुरी इत्यादि भाषाओं के द्वारा हिन्दी विरोध को स्वर देने का प्रयास किया जा रहा है परन्तु इसका गंभीर दुष्परिणाम होगा।

दक्षिण भारत के कुछ राजनेता आंचलिकता की राजनीति चलाकर भले ही हिन्दी को राजनीति का अमली जामा पहनाकर कूटनीतिक जीत हासिल कर ली हो परन्तु राष्ट्रिय स्तर पर दक्षिण भारतीय हिन्दी प्रचार सभा, कर्नाटक हिन्दी प्रचार सभा, कर्नाटक महिला हिन्दी सेवा समिति इत्यादि ने हिन्दी को अन्तराष्ट्रिय पहचान बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दे रही है। साथ ही हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हिन्दी की सार्वभौमिकता को हिंदीतर आत्माओं ने बहुत पहले ही पहचान लिया था इसी कारण स्वामी विवेकानंद, महर्षि दयानंद सरस्वती, महात्मा गांधी और सुभाष चन्द्र बोस जैसे महापुरुषुओं ने मुक्त कंठ से हिन्दी की वकालत की। इस संदर्भ में पूर्व प्रधानमंत्री श्री देवगौड़ा ने 14 सितंबर 1996 को हिन्दी दिवस के अवसर पर कहा था कि – “विदेशी भाषा केवल सेठों-पूँजीपतियों एवम बड़े-बड़े लोगों और अफसरों को जोड़ती है लेकिन क्या राष्ट्र यही समाप्त हो जाता है? क्या कृषक, श्रमिक, ग्राम्य जन, पिछड़े वर्ग, अल्पसंख्यक भारत के अभिन्न अंग नहीं है? क्या ये भारत माँ के संताने नहीं है? इन्हे जोड़ने की जरूरत नहीं है? इन करोड़ो लोगों कों आखिर कौन जोड़ेगा? क्या इन्हे विदेशी भाषा जोड़ सकती है? इन्हे जोड़ने वाली भाषा तो एक ही है और उसका नाम है, राष्ट्रभाषा हिन्दी जो सम्पुर्ण राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोने का कार्य करती है”।4

वर्तमान समय में हिन्दी की स्थिति एवं प्रगति की बात करें तो, हिंदी नदी की निर्मल धारा की तरह अपने पथ पर अग्रसर है. हिन्दी के भविष्य की बात करें तो इसके अन्तः स्वप्नों की कल्पना भारतीय सिनेमा, मीडिया और जन संचार माध्यमों विशेषतः अंतर्जाल से करना अतिशयोक्ति नहीं होगा। अक्सर इस बात की चर्चा होती है कि हिन्दी को गति प्रदान करने में हिन्दी सिनेमा का महत्वपूर्ण योगदान रहा है, संचार माध्यमों विशेषकर इन्टरनेट पर हिन्दी का प्रसार साहित्यिक परिदृश्य को नवीन आयाम प्रस्तुत करती है। इसके समर्थन में सिनेमा को उद्योग मानने पर जीविकोपार्जन हेतु किए जा रहे प्रयासों को आत्मसात किया जा सकता है। बक़ौल टेरी इगल्टन के अनुसार- ‘साहित्य एक कला की वस्तु हो सकती है, सामाजिक चेतना का उत्पादन हो सकता है, एक विश्वदृष्टि हो सकता है, लेकिन इसी के साथ-साथ यह उद्योग भी है। किताबे सिर्फ अर्थ की संरचनाएँ नहीं है, वे एक उत्पाद भी है, जिन्हें प्रकाशक लाभ के लिए बाजार में बेचता है। नाटक सिर्फ एक साहित्यिक पाठ का समुच्चय नहीं है, वह एक पूंजीवादी व्यापार भी है, जिसमे कई तरह के आदमी लगे होते हैं। वह भी एक उत्पाद है, जिसे दर्शकों द्वारा देखा जाता है और इस प्रक्रिया में लाभ कमाया जाता है”।5 लेकिन फिल्मों के संदर्भ में ऐसे विमर्श उचित प्रतीत नहीं होते। उदाहरण के लिए कवि निराला के कथन को प्रस्तुत कर सकते हैं- “हमे फिल्मों मे इतने उपदेश मिलते हैं कि जी ऊब जाता है। यह काम हम केवल हितकरण तथा भाषण-कौशल से निकाल सकते हैं। इतनी मारपी होती है कि यथार्थ शौर्य का भाव दूर होता है। प्रेम मे कामुकता इतनी होती है कि सुकुमारता नष्ट हो जाती है। कथोपकथन ऐसे गिरे हुए होते हैं कि इनमे मुश्किल से कहीं साहित्यिक छटा मिलती है”। इस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से भले ही भारतीय सिनेमा हिन्दी के अस्तित्व को बचाए रखे हैं लेकिन प्रत्यक्ष का दृष्टिगत संवेदन साहित्यिक हिन्दी को कटघरे मे लाकर खड़ा कर देता है। वस्तुतः अभी भी नाटक और रंगमंच से हिन्दी आश्वस्त है जिसका उदाहरण महानगरों एवं छोटे-छोटे कस्बों में नियमित तौर पर हो रहे रंगमंच की प्रस्तुति से सहज ही मिल जाता है। सूचना प्रौद्योगिकी की क्रांति ने सम्पूर्ण जनजीवन को मशीन बनाने को बाध्य किया है, जिससे हिन्दी भाषा अछूती नहीं है। अशोक चक्रधर यह मानते हैं कि – “विश्व भाषा के समक्ष हताश हो रही हिन्दी के मायूसी को हटाने की एकमात्र समर्थ शक्ति है- इन्टरनेट। यह निर्विदाद है कि इन्टरनेट ने हिंदी वैश्विक पहचान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा किया है। ओम निश्चल के कथन को उधार लेकर प्रस्तुत करने की हिम्मत जुटाता हूँ तो उपर्युक्त कथन स्वतः सिद्ध हो जाता है। बक़ौल ओम निश्चल के अनुसार – आधुनिक युग में इन्टरनेट ने दुनिया को बहुत छोटा कर दिया है। बटन दबाते ही हम विश्व की सारी जनकरियाँ पा सकते हैं एक दौर था जब हमारे देश का युवा प्रधानमंत्री इस देश को 21वीं सदी में ले जाने की बात करता था तो हम आश्चर्य और कुतूहल से भर उठते थे। वह 21वीं सदी को सूचना प्रौद्योगिकी और कम्प्यूटर से जोड़कर देखता था। लोग सोंचते थे, यह किसी शेख-चिल्ली का सपना भर है। किन्तु आज जब हम एक विकसित राष्ट्र के रूप में दूसरे राष्ट्रों के हम कदम हैं, हम देखते हैं कि देखते ही देखते उस शख्स का सपना साकार ही नहीं हुआ है बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में अपनी मौजूदगी दर्ज करा चुका है”।6 ऐसी परिस्थिति में हुई भाषिक क्रान्ति महत्वपूर्ण है, जिसमे सोशल मीडिया के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। इसमे प्रयुक्त भाषा को ओम निश्चल जी ने सेंथेटिक भाषा की संज्ञा दी है।

प्रसंगतः इन सब के बावजूद यह प्रश्न स्वाभाविक है कि- सोशल मीडिया पर हिन्दी का दबदबा कितना कारगर है? क्या हिन्दी के इस वैश्विक स्वरूप का अस्तित्व सचमुच खतरे में है? प्रथम प्रश्न का निर्बल एवं सबल पक्ष की पहचान करते हुए अनंत विजयजी लिखते हैं कि – “अगर साहित्य के लिहाज से देखें तो सोशल मीडिया का श्वेत और श्याम पक्ष दोनों है। इसकी तात्कालिकता और सतहीपन इसकी खास कमिया है। मनगढ़ंत और काल्पनिक भ्रम, अफवाह, विकृति और विद्रूपता फैलाने में भी इसकी नकारात्मक भूमिका बहुधा उजागर होती है। सोशल मीडिया खासकर फेसबुक ने दो काम किए हैं। एक तो महत्वपूर्ण है कि- इसने तमाम हिन्दी जानने वालों को रचनाकार बना दिया है”।7 लेकिन इसका सबल पक्ष हिन्दी के प्रसार में ही देखा जा सकता है। इसे मानने वाले तो यह तर्क देते हैं कि-सोशल मीडिया अभिव्यक्ति का बेहतर माध्यम है। यह अपने आपको उद्घाटित करने का एक बेहतर मंच है। इसी की वजह से हिन्दी वृहत्तर पाठक वर्ग तक पहुँच रही है। साथ ही इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि, अनेक ऐसे ब्लॉग भी है, जिसमे स्तरीय साहित्यिक रचनाएँ हो रही है। अनंत विजय मानते हैं कि- कोई भी चीज पक्का होने के पहले कच्चा ही होता है। इसी तरह से सोशल मीडिया पर साहित्य इस वक्त अपने कच्चेपन के साथ मौजूद है, लेकिन तकनीक का इस्तेमाल हमेशा से भाषा के हित में रहा है। इसका एक और उज्ज्वल पक्ष है- विमर्श और संवाद का बेहतरीन मंच। इससे निःसंदेह हिन्दी भाषा को नई पचान मिल रही है। परन्तु गैर मानकीकृत टेक्स्ट इनपुट हिन्दी के लिए एक ऐसी चुनौती प्रस्तुत कर रहा है, जिसकी भरपाई समय की मांग है। इसके लिए रोमन के तरीके में हिन्दी लिखना भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से प्रयोजन की सिद्धि में सहायक तो हो ही सकता है। अतः बालेंदु दाधीच का कथन उचित है कि- “तकनीकी शक्ति एक दुधारी तलवार है। अगर आम उपयोगकर्ता अपनी-अपनी युक्तियों पर गैर-मानकीकृत भाषा, गैर-मानकीकृत चिन्हों, की-बोर्डो आदि का प्रयोग करेंगे तो इस इन्टरनेट-दूरसंचार-सक्षम युग में उसका प्रसार भी इस रफ्तार से होगा कि उस पर नियंत्रण कर पाना मुश्किल हो जाएगा परन्तु धीरे-धीरे ये विकृतियाँ भाषा के मूल रूप को भी प्रदूषित करेंगी। सच तो यह है कि वे ऐसा करने लगा भी है”।8

ऐसी विषम परिस्थिति में मानक भाषा हेतु क्रांतिकारी परिवर्तन आवश्यक पहलू बन जाता है, हिन्दी के वैश्विक स्वरूप को समझे बिना अन्तिम निष्कर्ष पर पहुँच पाना बेमानी है। भले ही आज के कुछेक बिलियमों द्वारा भ्रम फैलाया जा रहा है कि वैश्वीकरण, उत्तर आधुनिकता एवं ज्ञान-विज्ञान से युक्त तकनीकी के दौर में हिन्दी के द्वारा विकास नहीं हो सकता। लेकिन यह निर्विदाद सत्य है कि- आधुनिक संचार ने हिन्दी का स्वरूप बदल दिया है। वर्तमान युग मे आज हिन्दी घूँघट से बाहर आ चुकी है। इसने नए सौंदर्यशास्त्र को अपनाया है। इसने विश्व को उसी भाषा में जवाब देने के लिए, नए रूप में तैयारी की है। वरिष्ठ आलोचक शम्भूनाथ का स्पष्ट अभिमत है कि – “मैं एक ऐसा विश्वग्राम देख रहा हूँ जिसमें होरी की गोशाला की जगह सुपरसोनिक विमान कंकार्ड खड़ा है। चौपाल पर डालर की दुकान है, जहाँ पान-सिगरेट भी उपलब्ध है। विश्व बैंक में झींगुरी सिंह बैठा है। दुलारी सहुआइन ने सुपर बाजार खोल रखा है, जिसमे सब कुछ बिकता है। दाताजी भव्य राम मंदिर के निर्माण में लगे हैं और पंद्रह मिनट की दूरी पर विज्ञान भवन में हरखू अपनी जाति का विश्व सम्मेलन कर रहा है। विश्वविद्यालय विश्व व्यापार संगठन के क्लब में बदल गए हैं, राय साहब ने इस बार मेडोना कों बुलाया है। अब प्रहसन नहीं होता। गन्ना और मटर के खेत मे आलू के चिप्स बनाए जा रहे हैं। टमाटर के एक समान पौधों पर सौंस की बोतले लटक रही है। किनारे के खड़े आम के पेड़ों पर अरब देशों के छोकड़े चढ़े हुए है। इंग्लैंड के प्रधानमंत्री ने बेलारी की चौड़ी सड़क पर हाथ मे कुदाल लिए बेकार बैठे होरी को देखकर ‘हाय’ किया है और कुछ की जेब में कंप्यूटर प्रशिक्षण का प्रमाणपत्र भी है अपनी नागरिकता भुलाकर सुन्न पड़े हैं। टीवी के कुछ केमरे उन पर गिद्ध की तरह मंडरा रहे हैं”।9

इस तरह निःसंदेह समाज में आए परिवर्तन को हिन्दी भाषा से जोड़कर देखा जा सकता है। इसे मूर्धन्य आलोचक विजय बहादुर सिंह ने स्पस्ट किया है कि, “समाज के चौराहे पर खड़ी हिन्दी’ के रूप को आत्मसात करते हुए चिंता जाहीर की है कि, “हिन्दी के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती है कि वह अपने समाज की प्रतिभा को कैसे अपनी ओर आकृष्ट करे? हमारा जन-समाज, लोकतान्त्रिक सरकार, विद्या-संस्थान परस्पर मिल-बैठकर इस चुनौती से धीरे-धीरे निपट सकते हैं, ध्यान बस इतना रखना होगा कि हमे इसके लिए अपने परिचित शब्द खोजने के लिए उस अवरुद्ध विद्याक्षेत्र और लोकविज्ञान क्षेत्र से मार्गदर्शन लेना होगा, जो सामाजिक जीवन को समझने और उससे आगे का संकेत पाने मे हमारी मदद करे”।10 साथ ही जैसे आज विश्व की सारी बड़ी भाषाओं के पास इन्टरनेट पर ई-लर्निंग के एक से एक बेहतर कार्यक्रम है, सॉफ्टवेयर एवं हार्डवेयर की भाषाओं मे एकरूपता है वैसी एकरूपता हिन्दी मे भी आवश्यक है तभी हिन्दी का परिपक्क स्वरूप सामने आ सकता है। आवश्यकता इस बात की है कि इसके परिपक्क स्वरूप हेतु ठोस कदम उठाया जाए। इसके निमित एक राय यह भी हो सकती है कि भारत सरकार के विभिन्न संस्थाओं एवं विश्वविद्यालयों की ओर से ई-लर्निंग का अंतरसंबंधित पाठ बनाया जाए तथा भविष्य में हिन्दी के स्वरूप का निर्धारण नए-नए विकसित सोफ्टवेयरों से किया जाए। उपरयुक्त माध्यम मे सबसे बड़ा कारगर हथियार है- मौलिकता। इसके अभाव में हिन्दी भाषा का वास्तविक पुनर्मूल्यांकन कठिन हो जाएगा। चाहे लेख हो, आलेख हो, या ग्रंथ, उसकी सहज स्वाभाविक स्थिति इसी पर आधारित है। इस प्रकार हिन्दी अपने घर में, परिवार में, पड़ोस में और अंततः सम्पूर्ण विश्व में अपने यथार्थवादी नजरियों से आकर्षित करने में सक्षम होगी। यही हिन्दी का अभिष्ठ है, जिसके निमित जनभागीदारी जरूरी कदम हो सकते हैं।

संदर्भ सूची :
1) भोलानाथ तिवारी-भाषा विज्ञान, किटब्महलेजेंसी, इलाहवाद, छतीसवा संस्कारण, पृष्ठ-5
2) क्षोभकन-नागार्जुन रचनावली-6, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.,नई दिल्ली, पेपरबाइक संस्कारण,पृष्ठ-216
3) पत्रिका, डाइनिका समाचार पत्र, संपादकीय, दिनांक-14।/09/2015
4) जय श्री शुक्ला, राजेश चतुर्वेदी-हिन्दी: संघर्ष और आयाम, विकास पब्लिकेशन, कानपुर, प्रथम संस्कारण ;1996, पृष्ठ-106
5) आजकल, सितंबर 2010, प्रकाशन विभाग, सूचना भवन, लोदी रो, नई दिल्ली, पृष्ठ-10
6) ओम निश्चल-साक्षात्कार का विश्व हिन्दी सम्मेलन अंक 2015 से साभार
7) नया ज्ञानोदय, अन-सितंबर 2015, संपादक-लीलाधार मंडलोई, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, पृष्ठ-67
8) नया ज्ञानोदय, अंक-सितंबर 2015, संपादक-लीलाधार मंडलोई, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, पृष्ठ-57
9) शम्भूनाथ-संस्कृति की आत्मकथा, पृष्ठ-57
10) नयी दुनिया, दैनिक समाचार पत्र, संपादकिया, 12 सितंबर 2015, पृष्ठ-04
राजभाषा हिन्दी : दशा एवं दिशा




“शोर न करें, चुपके से दबा दें डिसलाइक का बटन”

 – सुशील कुमार ‘नवीन’ 

फिलहाल एक प्रसिद्ध आभूषण निर्माता कंपनी का विज्ञापन इन दिनों खूब चर्चा में है। हो भी न क्यों हो। सौ करोड़ से भी ज्यादा आबादी वाले हिन्दू धर्म के लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ थोड़े ही न सहन की जाएगी । तलवारें खींच जाएंगी, तलवारें…। सब कुछ सहन कर लेंगे पर ये सहन नहीं करेंगे। ये तो भला हो उन कम्पनी वालों का जिन्होंने तथाकथित धर्म ठेकेदारों से भयभीत होकर विज्ञापन वापस लेने के साथ-साथ माफी भी मांग ली। अन्यथा न जाने क्या से क्या हो जाता।आप भी सोच रहे होंगे कि आज व्यंग्य में आक्रमकता कहां से आ गई। नदी उलटी दिशा में क्यों बहने लगी। सुप्तप्राय रहने वाली भावनाओं का समुन्द्र क्यों उफान लेने लगा। ऐसा कोई पहली बार थोड़े ही न हुआ है। फिर उबाल क्यों। तो सुनें मनोस्थिति के विकराल रूप धरने की वजह।

     सुबह-सुबह हमारे एक धर्मप्रेमी मित्र रामखिलावन जी का फोन आ गया। हर धार्मिक पर्व पर उनके सन्देश स्वभाविक रूप से हमारे पास आते रहते हैं। एक बड़ी धार्मिक संस्था में पदाधिकारी भी हैं। सम्बोधन भी सदा जय सियाराम से ही करते हैं। घर-परिवार की कुशलक्षेम के बाद बोले- जी,एक बात आपसे कहनी थी। मेरे बोले बिना ही फिर शुरू हो गए। बोले-इस बार धनतेरस पर…..ज्वेलर्स से कोई खरीदी मत करना।

मैंने कहा-इस बार तो पत्नी को कंगन की हामी भरी हुई है। ये तो मुश्किल हो जाएगा। खैर आपका मान रख भी लेंगे पर वजह तो बताओ। बड़ा ब्रांड है, विश्वसनीयता है। अचानक ये विरोध क्यों। बोले-बड़ा ब्रांड है इसका मतलब ये थोड़े ही है कि वो हमारी भावनाओं से खेलें। राम जी की कसम, उसका ये कदम कईयों को सीख दे जाएगा। देखना इस बार उनके वर्कर मक्खियां उड़ाते नजर आएंगे।

पूरा मामला जान आदतन मुझसे भी रहा न गया। मैं बोला-बुरा न मानें तो मैं भी कुछ कहूं। धर्म के प्रति हम खुद कितने ही समर्पित हैं। बोले-हम तो पूरा समर्पित हैं। मैंने कहा-खाक समर्पित है। धर्म के नाम का बस खाली चोला लिए फिरते हैं। न जाने कितनी बार देवताओं की प्रतिमाओं पर प्रहार किया गया है। पेंटिंग के बहाने अंग वस्त्रों के साथ हमारे दैवीय स्वरूप दिखा कलाकारी की वाहवाही लूटी गई है। फिल्मों में हमारी आस्था को ढोंग रूप में दिखा हमसे ही ताली बजवाई गई।

   मुझे आक्रमक होते देख बोले- बात तो आपकी सही है पर विरोध न करें तो कल कोई और ऐसा करेगा। मैं फिर शुरू हो गया। हमारे साथ ऐसा कोई पहली बार थोड़े ही न हुआ है। न जाने कितनी बार हमारे देवी-देवताओं की तस्वीरें शराब की बोतलों पर चिपकी दिखाई दी हैं। गणेश जी को मांस की टेबल पर बैठे दिखाया गया। सारे देवी-देवता एक सैलून का प्रचार करते तक दिखाए जा चुके हैं। महादेव को (शिव) बीड़ी का ब्रांड बना रखा हैं। गजानन को (गणेश) जर्दा खैनी की जिम्मेदारी दी रखी है। ऑनलाइन वेबसाइटों पर देवताओं के चित्र वाले सोफ़ा कवर, टॉयलेट शीट तक बेची जा चुकी हैं। रामजी, चाट भंडार,पशु आहार खोले बैठे हैं।

दुर्गा पूजा, गणेश चतुर्थी पर गाजे-बाजे के साथ देव प्रतिमा घर लाते हैं। पूजन के बाद बाकायदा उनका विसर्जन भी करते हैं। बाद में वे ही प्रतिमाएं खंडित रूप में समुन्द्र, नदी, नहर किनारे पड़ीं मिलती हैं। घर पर कोई पूजन सामग्री, धार्मिक कलेंडर,खंडित मूर्ति हो तो उसे बहते पानी में बहा अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। बाद में सफाई के दौरान वही सब चीजें नहर-नदी किनारे बिखरी नजर आती है। खुशियों के पर्व दिवाली पर पटाखे छोड़ें तो प्रदूषण का स्तर बढ़ जाता है। होली पर औरों के साथ साथ हम भी पानी बचाने की अपील करने लग जाते हैं। तब कहां होता है हमारा धर्म। 

वो बोले- तो क्या करें? मैने कहा- सिस्टम को सुधारना है तो पहले खुद सुधरें फिर दूसरों से उम्मीद करें। किसी को मौका ही न दें ऐसे माहौल को क्रिएट करने का। उन्हें तो प्रचार चाहिए होता है और वो हम फ्री में कर देते है। लाइक के साथ डिसलाइक का बटन भी होता है जनाब। खामोशी के साथ उसका प्रयोग करें और देखें। अपने आप मुहंतोड़ जवाब मिल जाएगा।

अब रामखिलावन जी सहमत से दिखे। बोले- जी धन्य हैं प्रभु आप। पूरा गीता ज्ञान दे दिया। जरूर विचार करेंगे। कहकर फोन काट दिया। मेरी भावनाओं का वेग अभी भी चरम पर था। अचानक आंख खुल गई। पत्नी चाय लिए खड़ी थी। बोलीं- उठ जाओ, धर्म के ठेकेदार। नींद में भी दो-दो करेक्टर निभाना कोई आपसे सीखे। दिन के साथ अब रात को भी जनता की अदालत लगने लगी हैं। अब तो चाय पीकर चुप रहने को सर्वोपरि धर्म मानने में ही मेरी भलाई थी।

(नोट:लेख मात्र मनोरंजन के लिए है, इसे किसी सन्दर्भ में न जोड़ें)

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है।

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