1

मत बन तू अंजान, मना!

बड़े नाम के पीछे की तू खुद सच्चाई जान, मना!
परदे के पीछे है क्या तू खुद ही पहचान, मना!
उठती लहरों की भी उल्टी हवाओं से सीना जोरी है,
ख़ुद में उठते झंझावातों को, तू खुद अब थाम, मना।

जिधर भी देखो ईर्ष्या,द्वेष का है बड़ा कद इस दुनिया में,
छोटे पौधों ने सही मार सदा जब कंटीला पौधा पनपा बगिया में,
खून से लथपथ होंगे पग, आदी हो जाएँगे काँटों में चलने के,
तुझको ही तो पाना है, फिर फूलों सा सम्मान, मना!

छीन- छीन कर खाने की इस दुनिया की फितरत है,
भद्दे को भी सजाने की कहते आज जरूरत हैं,
वक्त से हुई हाथापाई तो दोष किसे कोई अब दे,
दगेबाजों की है इक कंदरा, तू बन उसका दरबान, मना!

नीर नहीं अब बादल में फ़िर भी गड़गड़ाहट काबिज़ है,
थोथेपन की सच्चाई से कौन भला नहीं वाक़िफ़ है?
बनी बवंडर जब एक पवन तो हुए दरख़्त कई धाराशायी,
है बदलाव का तू ही पुरोधा, अब तू मत बन अंजान, मना!
– मवारी निमय 




ऐसे तो महंगा पड़ जाएगा ‘फ्री’ का हरी मिर्च और धनिया

सामयिक व्यंग्य : नफा-नुकसान – सुशील कुमार ‘नवीन’

सुबह-सुबह घर के आगे बैठ अखबार की सुर्खियां पढ़ रहा था। इसी दौरान हमारे एक पड़ोसी धनीराम जी का आना हो गया। मिलनसार प्रवृत्ति के धनीराम जी शासकीय कर्मचारी हैं। हर किसी को अपना बनाते वे देर नहीं लगाते हैं। रेहड़ी-खोमचे वाले से लेकर जिसे भी इनके घर के आगे से गुजरना हो, इनकी राम-राम और बदले में राम-राम देना बेहद टोल टैक्स अदा करने जैसा जरूरी होता है। यही वजह है कि मोहल्ले में वो धनीराम के नाम से कम और राम-राम के नाम से ज्यादा प्रसिद्ध हैं। इनकी राम-राम से जुड़ा एक मजेदार किस्सा फिर किसी लेख के संदर्भ में सुनाऊंगा। आज तो आप वतर्मान का ही मजा लें।

पास आने पर आज उनके कहने से पहले ही हमने राम-राम बोल दिया। मुस्कराकर उन्होंने भी राम-राम से जवाब दिया। घर-परिवार की कुशलक्षेम पूछने के बाद मैंने यों ही पूछ लिया कि आज सुबह-सुबह थैले में क्या भर लाए। बोले-थैले में नीरी राम-राम हैं। कहो, तो कुछ तुम्हें भी दे दूं। मैंने भी हंसकर कहा -क्या बात, आज तो मजाकिया मूड में हो।

बोले-कई बार आदमी का स्वभाव ही उसके मजे ले लेता है। मेरे मन में भी उत्सुकता जाग गई कि मिलनसार स्वभाव वाले धनीराम जी के साथ ऐसा क्या हो गया कि वो अपने इसी स्वभाव को ही मजाक का कारण मान रहे हैं। पूछने पर बोले-आज का अखबार पढ़ा है। नहीं पढा हो तो पढ़ लो। बिल्कुल आज मेरे साथ वैसा ही हुआ है। मैंने कहा-घुमाफिरा कर कहने की जगह आज तो आप सीधा समझाओ।

बोले-सुबह आज तुम्हारी भाभी ने सब्जी लाने को मंडी भेज दिया। वहां एक जानकार सब्जी वाला मिल गया। राम-राम होने के बाद अब दूसरी जगह तो जाना बनना ही नहीं था। जानकार निकला तो मोलभाव भी नहीं होना था। उसी से सौ रुपये की सब्जी ले ली। धनिया-मिर्च उसके पास नहीं था। दूसरे दुकानदार के पास गया तो बोला-सब्जी खरीदो, तभी मिलेगा। अब धनिया-मिर्ची के चक्कर में उससे भी वो सब्जी खरीदनी पड़ गई, जिसकी जरूरत ही नही थी। फ्री के धनिया-मिर्च के चक्कर में सुबह-सुबह पचास रुपये की फटाक बेवजह लग गई। मैंने कहा-कोई बात नहीं सब्जी ही है,काम आ जाएगी। बोले-बात तुम्हारी सही है, आलू,प्याज उसके पास होते तो कोई दिक्कत नहीं थी। पर उसके पास भी पालक, सरसों ही थे। जो पहले ही ले रखे थे। अब एक टाइम की सब्जी तो खराब होनी ही होनी। पहले वाले से राम-राम नहीं की होती तो दूसरे से ही सब्जी खरीद लेता। नुकसान तो नहीं होता। मैंने कहा-चलो, राम-राम वाली पालक-सरसों मेरे पास छोड़ जाओ।हंसकर बोले-आप भी राम-राम के ऑफर की चपेट में आ ही गए। मैंने कहा-मुझे तो वैसे भी आज ये लानी ही थी। आप तो ये बताओ कि अखबार की कौन सी खबर का ये उदाहरण था।

बोले-खजाना मंत्री ने कर्मचारियों को आज दो तोहफे दिए। दोनों फ्री के धनिया-मिर्च जैसे हैं। पर इन्हें लेने के लिए महंगे भाव के गोभी-कद्दू लेने पड़ेंगे। बिना इन्हें खरीदे ये नहीं मिलेंगे। मैंने कहा-आपकी बात समझ में नहीं आई। बोले-कर्मचारियों को चार साल में एक बार एलटीसी मिलती है। अब तक एक माह के वेतन के बराबर एलटीसी मिलती थी। अब कह रहे हैं तीन गुना खर्च करोगे तो पूरी राशि मिलेगी। खर्च भी जीएसटी लगे उत्पादों पर करना होगा।  अब ये बताओ ऐसा कौन होगा जो 10 हजार के फ्री ओवन के चक्कर में 40 हजार की वाशिंग मशीन खरीदेगा। या डीटीएच फ्री सर्विस के लिए 30हजार की एलईडी खरीद अपना बजट बिगाड़ेगा। जब काम 10 हजार की वाशिंग मशीन और 10 हजार की एलईडी से चल रहा है तो ऐसा ऑफर लेना तो मूर्खता ही है।

मैंने कहा-ये ऑफर का गणित मेरे समझ में नहीं आया। बोले- दो दिन रूक जाओ, सारे कर्मचारी बिलबिलाते देखोगे। महानुभाव, फेस्टिवल ऑफर का नुकसान का आकलन हमेशा खरीद के समय नहीं, बाद में होता है। पालक-सरसों के रुपये जब देने लगा तो बोले-ये भाईचारे का ऑफर है, फेस्टिवल का नहीं। यह कह हंसकर निकल लिए। मुझे भी उनकी बात में गम्भीरता लगी। ऐसे तो महंगा पड़ जाएगा, ये फ्री का मिर्च और धनिया। भला 100 रुपये की शर्त जीतने के चक्कर में पांच सौ का नोट फाड़कर थोड़े ही दिखाएंगे।

(नोट : लेख मात्र मनोरंजन के लिए है, इसे अपने किसी सन्दर्भ में न जोड़ें)

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है)  

संपर्क : 9671726237




डॉ. उर्वशी भट्ट की कविता – ‘मनुष्यता’

डॉ.उर्वशी भट्ट की यह कविता कोरोना के इस संकट के समय में ‘ मनुष्यता ‘ के विमर्श को अहम मानती हुई, मनुष्यता के वरण को ही मनुष्य का एकमात्र सरोकार मानती है। – नरेश शांडिल्य, सह संपादक – काव्य, सृजन ऑस्ट्रेलिया

मनुष्यता

दुर्दान्त होता है कभी कभी
नियति का वार
स्तब्ध कर देने की हद तक
अप्रत्याशित !
पर निष्प्रयोज्य नहीं।

वार से उपजा आघात
क्षमाप्रार्थी बना देता है
उस तुच्छता के लिए
जिसने कभी हमें
निहित अर्थ में
“मनुष्य” ना होने दिया।

मनुष्यता  की कोख से ही
प्रार्थनाओं का
जन्म होना था
“सेवा परमो धर्म ” को
अभीष्ट कर्म मानना था
उन पीड़ितों हेतु
जो जीवित तो थे किन्तु
जीवन से असहाय थे
पर हमारा कथित ज्ञान
उलझ गया
निर्रथक प्रश्नों के उत्तर देने में
बेतुके विषयों पर विवाद करने में।

अब जब बचाने योग्य
कुछ नहीं दिखता है
अपराधबोध हमें
अकथ्य पीड़ा से भर देता है।

वही पीड़ा
जिसकी दाह में
देह मनुष्यता का वरण करती है।

                   –  डॉ उर्वशी भट्ट

संपर्क : डूंगरपुर,  राजस्थान, 9950846222, ईमेल पता : [email protected]




नरेश शांडिल्य के दोहे

जागा  लाखों करवटें, भीगा अश्क हज़ार
तब जा कर मैंने किए, काग़ज काले चार।

छोटा हूँ तो क्या हुआ, जैसे आँसू एक
सागर जैसा स्वाद है, तू चखकर तो देख।

मैं खुश हूँ औज़ार बन, तू ही बन हथियार
वक़्त करेगा फ़ैसला, कौन हुआ बेकार।

तू पत्थर की ऐंठ है, मैं पानी की लोच
तेरी अपनी सोच है, मेरी अपनी सोच।

मैं ही मैं का आर है, मैं ही मैं का पार
मैं को पाना है अगर, तो इस मैं को मार।

ख़ुद में ही जब है ख़ुदा, यहाँ-वहाँ क्यों जाय
अपनी पत्तल छोड़ कर, तू जूठन क्यों खाय।

पाप न धोने जाउँगा, मैं गंगा के तीर
मजहब अगर लकीर है, मैं क्यों बनूँ फ़क़ीर।

सब-सा दिखना छोड़कर, ख़ुद-सा दिखना सीख
संभव है सब हों ग़लत, बस तू ही हो ठीक।

ख़ाक जिया तू ज़िंदगी, अगर न छानी ख़ाक
काँटे बिना गुलाब की, क्या शेखी क्या धाक।

बुझा-बुझा सीना लिए, जीना है बेकार
लोहा केवल भार है, अगर नहीं है धार।

सोने-चाँदी से मढ़ी, रख अपनी ठकुरात
मेरे देवी-देवता, काग़ज-क़लम-दवात।

अपनी-अपनी पीर का, अपना-अपना पीर
तुलसी की अपनी जगह, अपनी जगह कबीर।

वो निखरा जिसने सहा, पत्थर-पानी-घाम
वन-वन अगर न छानते, राम न बनते राम।

पिंजरे से लड़ते हुए, टूटे हैं जो पंख
यही बनेंगे एक दिन, आज़ादी के शंख।

जुगनू बोला चाँद से, उलझ न यूँ बेकार
मैंने अपनी रौशनी, पाई नहीं उधार।

बस मौला ज़्यादा नहीं, कर इतनी औक़ात
सर ऊँचा कर कह सकूँ, मैं मानुष की ज़ात।

पानी में उतरें चलो, हो जाएगी माप
किस मिट्टी के हम बने, किस मिट्टी के आप।

अपने में ज़िंदा रखो, कुछ पानी कुछ आग
बिन पानी बिन आग के, क्या जीवन का राग।

शबरी जैसी आस रख, शबरी जैसी प्यास
चल कर आएगा कुआँ, ख़ुद ही तेरे पास।

जो निकला परवाज़ पर, उस पर तनी गुलेल
यही जगत का क़ायदा, यही जगत का खेल।

कटे हुए हर पेड़ से, चीखा एक कबीर
मूरख कल को आज की, आरी से मत चीर।

भूखी-नंगी झोंपड़ी, मन ही मन हैरान
पिछवाड़े किसने लिखा, मेरा देश महान।

हर झंडा कपड़ा फ़क़त, हर नारा इक शोर
जिसको भी परखा वही, औना-पौना चोर।

सब कुछ पलड़े पर चढ़ा, क्या नाता क्या प्यार
घर का आँगन भी लगे, अब तो इक बाज़ार।

हम भी औरों की तरह, अगर रहेंगे मौन
जलते प्रश्नों के कहो, उत्तर देगा कौन।

भोगा उसको भूल जा, होगा उसे विचार
गया-गया क्या रोय है, ढूँढ नया आधार।

लौ से लौ को जोड़कर, लौ को बना मशाल
क्या होता है देख फिर, अंधियारों का हाल।

 – नरेश शांडिल्य,  9868303565

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नरेश शांडिल्य : संक्षिप्त साहित्यिक परिचय
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कवि नाम : नरेश शांडिल्य

शिक्षा : एम ए (हिंदी साहित्य)

कवि-दोहाकार-रंगकर्मी-संपादक-समीक्षक

प्रकाशन :
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7 कविता संग्रह प्रकाशित।
3 पुस्तकों का सम्पादन।

सम्मान :
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* हिंदी अकादमी , दिल्ली सरकार का साहित्यिक कृति सम्मान (1996)
* वातायन ( लंदन ) का अंतरराष्ट्रीय कविता सम्मान (2005)
* कविता का प्रतिष्ठित ‘परम्परा ऋतुराज सम्मान’ (2010)

काव्य पाठ :
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दिल्ली के प्रतिष्ठित लालकिला कवि सम्मेलन , श्रीराम कविसम्मेलन आदि में काव्यपाठ। इसके अतिरिक्त भारत के लगभग सभी प्रमुख शहरों में काव्यपाठ।

आकाशवाणी और दूरदर्शन के अनेक चैनलों पर काव्यपाठ। बी बी सी और कई विदेशी रेडियो चैनलों पर काव्यपाठ।

भोपाल में आयोजित 10वें विश्व हिंदी सम्मेलन में भागीदारी।

विदेश यात्रा :
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इंग्लैंड के सभी प्रमुख शहरों में सन् 2000 और सन् 2005 में काव्यपाठ।

जोहान्सबर्ग ( साउथ अफ्रीका ) के 9वें विश्व हिन्दी सम्मेलन में काव्यपाठ।

10 जनवरी 2017 विश्व हिंदी दिवस पर बैंकॉक ( थाईलैंड ) में मुख्य अतिथि के नाते भागीदारी।

नुक्कड़ नाटकों में फैलोशिप :
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20 नुक्कड़ नाटकों की 500 से अधिक प्रस्तुतियों में अभिनय और 100 से अधिक नुक्कड़-गीतों का लेखन।
नुक्कड़ नाटकों में भारत सरकार के संस्कृति विभाग से सीनियर फैलोशिप।

संपादन :
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साहित्य की अंतरराष्ट्रीय त्रैमासिक पत्रिका ‘अक्षरम संगोष्ठी’ का 12 वर्षों तक संपादन

सलाहकार :
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सलाहकार सदस्य : फ़िल्म सेंसर बोर्ड , सूचना व प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार।

संपर्क : सत्य सदन , ए 5 , मनसा राम पार्क, संडे बाज़ार लेन, उत्तम नगर, नई दिल्ली 110059
9711714960
9868303565 (whatsapp)
Email :
[email protected]

[email protected]




योगिता ‘ज़ीनत’ की दो ग़ज़लें

1

एक  एहसान  तुम अगर  करदो
सारे   इल्ज़ाम  मेरे   सर  कर दो।

जानवर  आ  गए   हैं  बस्ती   में
मेरा  जंगल में,  कोई घर  कर दो।

बीज सी  हूँ,  जड़ें  जमा  लूँगी
मुझको मिट्टी में  तुम अगर कर दो।

सारी ख़ुशियाँ तुम्हें  मुबारक हों
इक नज़र लुत्फ़ की इधर  कर दो।

दूर   मन्ज़िल  है  रास्ते  दुश्वार
मेरी आसान रहगुज़र  कर दो।

फ़ौज वो जुगनुओं  की ले आया
जाके सूरज को  ये ख़बर कर दो।

गुम  न  हो  जाऊँ  मैं  अँधेरों  में
मेरी  रातों  को  अब सहर कर दो।

लेके  सबकी  दुआएँ  तुम ‘ज़ीनत’
बद्दुआओं  को   बे असर  कर दो।

  *
2

अक़्स कह दें कि आइना  कह दें
सोचते हैं कि तुमको क्या कह दें।

रहनुमाओं  सी  बात   करते  हो
तुम  कहो तो  तुम्हें  ख़ुदा कह दें।

ख़्वाब आँखों  में  रख  लिए  तेरे
आ कभी करके  हौसला  कह दें।

मेरी   ख़ामोशियाँ   समझते   हो
क्या तुम्हें अपना हमनवा कह दें।

दर्द   में   भी    क़रार   देते   हो
दर्दे – दिल की  तुम्हें दवा कह दें।

बातों – बातों में  रूठना ‘ ज़ीनत ‘
क्या  इसे आपकी  अदा  कह  दें।

           – योगिता ‘ज़ीनत’

संपर्क :  प्लाट नंबर – 846, रामनगर , शास्त्री नगर, जयपुर ( राजस्थान ),  पिन कोड – 302016, दूरभाष – 9352835381, ईमेल पता : [email protected]