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ड्रामेबाजी छोड़ें, मन से स्वीकारें हिंदी – सुशील कुमार ‘नवीन’

         

रात से सोच रहा था कि आज क्या लिखूं। कंगना-रिया प्रकरण ‘ पानी के बुलबुले’ ज्यों अब शून्यता की ओर हैं। चीन विवाद ‘ जो होगा सो देखा जाएगा’ की सीमा रेखा के पार होने को है। कोरोना ‘तेरा मुझसे पहले का नाता है कोई’ की तरह माहौल में ऐसा रम सा गया है, जैसे कोई अपना ही हमें ढूंढता फिर रहा हो। वैक्सीन बनेगी या नहीं यह यक्ष प्रश्न ‘जीना यहां मरना यहां’ का गाना जबरदस्ती गुनगुनवा रहा है। घरों को लौटे मजदूरों ने अब ‘ आ अब लौट चलें’ की राहें फिर से पकड़ ली हैं। राजनीति ‘ न कोई था, न कोई है जिंदगी में तुम्हारे सिवा’ की तरह कुछ भी नया मुद्दा खड़ा करने की विरामावस्था में है। आईपीएल ‘साजन मेरा उस पार है’ जैसे विरह वेदना को और बढ़ा कुछ भी सोचने का मौका ही नहीं दे रहा। रही सही कसर धोनी के सन्यास ने ‘तुम बिन जाऊं कहां’ की तरह छोड़कर रख दी है। 

ध्यान आया सोमवार को देवत्व रूप धारी हमारी मातृभाषा हिंदी का जन्मदिन है। विचार आया कि उन्हीं के जन्मदिवस पर आज लिखा जाए। तो दोस्तों, यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि हिंदी की वर्तमान दशा और दिशा बिगाड़ने में हम सब का कितना योगदान है।कहने को हम हिंदुस्तानी है और हिंदी हमारी मातृभाषा। इस कथन को हम अपने जीवन में कितना धारण किए बहुए हैं, यह आप और हम भलीभांति जानते हैं। सितम्बर में हिंदी पखवाड़ा का आयोजन कर हम अपने हिंदी प्रेम की इतिश्री कर लेते हैं। सभी ‘हिंदी अपनाएं’ हिंदी का प्रयोग करें ‘ की तख्तियां अपने गले में तब तक ही लटकाए रखते हैं, जब तक कोई पत्रकार भाई हमारी फ़ोटो न खींच लें। या फिर सोशल मीडिया पर जब तक एक फोटो न डाल दी जाए। फ़ोटो डालते ही पत्नी से ‘आज तो कोई ऐसा डेलिशियस फ़ूड बनाओ, मूड फ्रेश हो जाए’ सम्बोधन हिंदी प्रेम को उसी समय विलुप्त कर देता है। आफिस में हुए तो बॉस का ‘स्टुपिड’ टाइप सम्बोधन रही सही कसर पूरी कर देता है। 

हमारी सुबह की चाय ‘बेड-टी’ का नाम ले चुकी है। शौचादिनिवृत ‘फ्रेश हो लो’ के सम्बोधन में रम चुके हैं। कलेवा(नाश्ता) ब्रेकफास्ट बन चुका है। दही ‘कर्ड’ तो अंकुरित मूंग-मोठ ‘सपराउड्स’ का रूप धर चुके हैं। पौष्टिक दलिये का स्थान ‘ ओट्स’ ने ले लिया है। सुबह की राम राम ‘ गुड मॉर्निंग’ तो शुभरात्रि ‘गुड नाईट’ में बदल गई है। नमस्कार ‘हेलो हाय’ में तो अच्छा चलते हैं का ‘ बाय’ में रूपांतरण हो चुका है। माता ‘मॉम’ तो पिता ‘पॉप’ में बदल चुके हैं। मामा-फूफी के सम्बंध ‘कजन’ बन चुके हैं। गुरुजी ‘ सर’ गुरुमाता ‘मैडम’ हैं। भाई ‘ब्रदर’ बहन ‘सिस्टर’,दोस्त -सखा ‘फ्रेंड’ हैं। लेख ‘आर्टिकल’ तो कविता ‘पोएम’ निबन्ध ‘ऐसए’ ,पत्र ‘लेटर’ बन चुके है। चालक’ ड्राइवर’ परिचालक ‘ कंडक्टर’, वैद्य” डॉक्टर’ हंसी ‘लाफ्टर’ बन चुकी हैं। कलम ‘पेन’ पत्रिका ‘मैग्जीन’ बन चुकी हैं। क्रेडिट ‘उधार’ तो पेमेंट ‘भुगतान का रूप ले चुकी हैं। कहने की सीधी सी बात है कि ‘हिंदी है वतन हैं.. हिन्दोस्तां हमारा’ गाना गुनगुनाना आसान है पर इसे पूर्ण रूप से जीवन में अपनाना सहज नहीं है तो फिर बन्द करो हिंदी प्रेम का ये ड्रामा।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है।

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रेलवे का निजीकरण एक विमर्श

*रेलवे का निजीकरण एक विमर्श*
कोई भी राष्ट्र मात्र भौगलिक इकाई नहीं है। राष्ट्र एक जीवंत इकाई है, जहां करोड़ों लोग वास करते हैं । जी हां आज हम ट्रेन की निजीकरण के बारे में बात करेंगे। भारत एक ऐसा देश है जहां करोड़ों लोग रहते हैं और देश के विकास के लिए बहुत बड़ी धनराशि की जरूरत होती है। क्योंकि भारत में विभिन्न कारणों से आर्थिक मंदी छाई हुई है और इससे निजात पाने के लिए भारत सरकार ने विनिवेश करने का निर्णय लिया है। चूकिं जीएसटी से भी अनुमान के मुताबिक पैसे नहीं आ रहा है तो इस मामले में सरकार अपनी कुछ कंपनियां और जमीन को पूरी तरह से या फिर उनके कुछ शेयर बेचेगी ताकि अर्थव्यवस्था की मंदी को दूर कर सके और विकास का काम कर सके। इसी को विनिवेश कहते हैं। सरकार सभी से अपील भी कर रही है कि समय पर टैक्स भर दे और सब्सिडी भी छोड़े, क्योंकि इससे सरकार को भारी नुकसान उठाना पड़ता है। इसीलिए भारत सरकार ने एक नया वित्त मंत्रालय विभाग बनाया है,जिसका नाम है – निवेश एवं संपत्ति प्रबंधन विभाग, ( Department of investment and public asset Management) । इसे संक्षिप्त में ‘दीपम’ भी कहा जाता है । यह विभाग ही यह सब देखता है और परिस्थिति के अनुसार विशेष निर्णय लेता है। बढ़ती विभिन्न समस्या एवं प्रयोजनों के कारण मात्र टैक्स लगाकर भारत में विकास का काम करना नामुमकिन हो गया है। भारत जैसे विशाल देश को चलाने के लिए बड़ी मात्रा में पैसों का सख्त जरूरत है। यह तय करेगा कि सरकार के हाथ 51% में मालिकाना हक रहे या उससे कम। निजीकरण के इस प्रयास के तहत रेलवे 109 रूटों पर अतिरिक्त 151 रेलगाड़ियां शुरू करेगी। रेलवे ने कहा है कि प्रत्येक ट्रेन में कम से कम 16 कोच होंगे। निजी क्षेत्र की कंपनियां इस के वित्तपोषण, संचालन और रख-रखाव के लिए जिम्मेदार होंगे।
भारत में हमेशा से रेल किसी व्यवसाय संगठन नहीं,बल्कि एक सार्वजनिक सेवा की तरह चलती रही है। सब्सिडी के जरिए सस्ती यात्रा की व्यवस्था हमेशा से रेलवे की पहचान रही है। इसका नुकसान यह हुआ कि रेलवे की गुणवत्ता पर बहुत ज्यादा ध्यान देने की जरूरत भी नहीं समझी गई। जबकि, इसका बड़ा फायदा यह हुआकि इसने बड़े पैमाने पर श्रमिकों के आवागमन को सहज और सुलभ बनाया। खासकर उन कृषि मजदूरों के मामले में जो हर साल धान की रोपाई और फसल की कटाई के मौसम में बड़ी संख्या में पंजाब, हरियाणा जैसे राज्यों का रुख करते हैं। अर्थव्यवस्था और खाद्य सुरक्षा के मामले में रेलवे के इस योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
गौर करने की बात यह है कि 151 अतिरिक्त आधुनिक ट्रेन चलने से रेलवे पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, बल्कि ट्रेनों के आने से रोजगार का सृजन होगा। साथ ही साथ मॉडर्न टेक्नोलॉजी के जरिए रेलवे का इंफ्रस्ट्रक्चर में सुधार आएगा। यह जो प्राइवेट ट्रेन चलेगी इसकी अधिकतम रफ्तार प्रति घंटा 107 किलोमीटर होगी। निजी ट्रेन वहां चलाई जाएगी, जहां इसकी डिमांड ज्यादा है। इसमें सरकार को मुनाफा होगा और देश का विकास नहीं रुकेगा। देश की अर्थव्यवस्था को देखकर ही यह तय किया गया है। परंतु ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि रेलवे ने कुछ कदम भी उठाए हैं, जैसे- निजीकरण में पहले बहुत सारे लोगों की सरकारी नौकरीयां खत्म होंगी। रेलवे ने सभी मंडल रेल प्रबंधक को पत्र जारी कर कहा है कि उन कर्मचारियों की सूची तैयार करें, जो 2020 की पहली तिमाही में 55 साल के हो गए या उनकी सेवा अवधि के 30 साल पूरे हो गए। उन सभी को समय पूर्व सेवानिवृत्त का ऑफर दिया जाएगा। इसकी संख्या पूरे रेलवे में कम से कम तीन लाख है। सुनने में अटपटा लगने से भी प्रतीत होता है कि रेलवे के निजीकरण से युवा पीढ़ी में नौकरी की संभावना खत्म नहीं बल्कि बढ़ेगी। किसी ने सच ही कहा था कि नवीन पर्व के लिए नवीन प्राण चाहिए। लगता है भारत सरकार इसी फार्मूले को अपना रही है।
रेलवे जैसे बड़े विभाग को चलाने के लिए जितने लोगों की जरूरत है उतनी नौकरी जरूर निकलेगी और देश के नौजवानों को हमेशा की तरह नियुक्ति मिलेगी। उन्हें निराश नहीं होना पड़ेगा।
हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। अभी देखने की बात यह होगी कि सरकार किसकी बनेगी और भारतवर्ष के लोग इस निर्णय को किस तरह लेंगे और रेलवे की निजीकरण फैसले को कितना सहयोग मिलता है।
मंजूरी डेका
सहायक शिक्षिका
असम
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कुंडलिया

 

कुण्डलिया

हिन्दी को अपनाइए, जनता की यह मांग ।
यही राष्ट्र भाषा बने,नही अड़ायें टांग ।
नही अड़ायें टांग, देश हित में यह भाषा, ।
बचे मान सम्मान, राष्ट्र हित में है आशा ।
करिये इस पर गौर, न हो अब छल जयचन्दी।
लाकर अध्यादेश, अभी अपनाये हिन्दी।

 

 सहमत हो सब राज्य ।– कुण्डलिया

सहमत हो सब राज्य मिल, आवश्यक यह कार्य ।
पूर्ण राष्ट्र भाषा बने, हिन्दी ही स्वीकार्य ।
हिंदी ही स्वीकार्य, राष्ट्र अपना ये माने ।
प्रजातंत्र आधार, इसी को दिल से जाने ।
कह प्रवीण कविराय, बने संसद में जनमत ।
हिंदी को दे मान, राज्य सारे हों सहमत ।

डा प्रवीण कुमार श्रीवास्तव ।

मित्रों सादर समर्पित है कुण्डलिया

भाषा चुनिए वोट से,लोक तंत्र दरबार ।
डाले मत अपना सभी, प्रजातंत्र आधार ।
प्रजातंत्र आधार, अधूरी सबकी आशा।
हिंदी भाषा बने, राष्ट्र भारत की भाषा ।
कह प्रवीण कविराय, लोक नायक से आशा।
हिंदी चुनकर बने, आज भारत की भाषा

डा प्रवीण कुमार श्रीवास्तव, सीतापुर




पुरातन शिक्षा संस्कृति व संस्कार

 

भारतीय संस्कृति में संस्कारों का महत्वपूर्ण स्थान है ।समाज में पुरुष प्रधान व्यवस्था होने के उपरांत भी, महिलाओं को बराबरी का दर्जा एवं बराबर का सम्मान देने की प्रथा है। तथाकथित आधुनिक समाज, आधुनिकता का हवाला देकर पुरातन संस्कारों को दकियानूसी बताकर, दुत्कार रहा है, और अंग्रेजी सभ्यता को अपना रहा है। हमारी मातृभाषा, मातृभूमि की उपेक्षा होने के कारण संस्कारों के अभाव में आधुनिक समाज का चारित्रिक पतन, अपराधीकरण ,व धन लोलुप होना है। जो ,उन्हें कुप्रवृत्तियों की तरफ धकेल कर नशा आदि का आदी बना देता है। इससे हमारे देश का भविष्य चिंतनीय हो सकता है ।यह अत्यंत चिंता का विषय है, कि, रोजगार की तलाश में ,सुंदर भविष्य का सपना संजोए ग्रामीण भारत ,कर्मठ भारत शहरों और विदेशों को पलायन कर रहा है। यहां यह बात ध्यान देने की है कि ,पुरातन संस्कारों की नींव अत्यंत गहरी है ,अन्यथा ,भारतीय समाज अपनी वास्तविक पहचान कब का खो चुका होता ।हमारे माता-पिता पुरातन संस्कारों और रीति-रिवाजों का निर्वाहन करते हैं ।धार्मिक स्थलों का भ्रमण कर उन पर आस्था प्रकट करते हैं ।यह बच्चों के कोमल हृदय पर अचूक छाप छोड़ता है ।

800 वर्षों की परतंत्रता के पश्चात हमारा देश और हमारी पुरातन सनातन सभ्यता और संस्कृति जीवित है । विषम परिस्थितियों में आक्रांता और लुटेरों द्वारा हिंसा, धर्म परिवर्तन लोभ- लिप्सा स्त्रियों पर हिंसा, बलात्कार ,मंदिरों में लूट हमारी संस्कृति को मटिया मेट करने के लिए काफी था। विदेशियों ने, हमारे संस्कारों रीति-रिवाजों पर प्रश्न खड़े किए। उनका हास्य व्यंग के माध्यम से खुला मजाक उड़ाया। जिससे हमारी मानसिकता आत्मग्लानि और उपेक्षा से भर गई, और ,तथाकथित आधुनिक समाज ने पुरातन संस्कारों को तिलांजलि देना प्रारंभ कर कर दिया। हम स्वयं ही हास्य के पात्र बन गए।
शिक्षा-
पुरातन समाज में भारतवर्ष अत्यंत समृद्धशाली था। भारतीय सौ प्रतिशत साक्षर होते थे ।उन्हें वेदों शास्त्रों का, धर्म -अधर्म का संपूर्ण ज्ञान था। गुरुकुल शिक्षा पद्धति निशुल्क थी। प्रत्येक ग्राम में आचार्य व विद्वानों द्वारा शिक्षा प्रदान की जाती थी ।संस्कृत एक वैज्ञानिक भाषा है। इस भाषा ने आर्यभट, नागार्जुन वराह मिहिर जैसे बड़े बड़े शोधकर्ताओं को जन्म दिया है ।किंतु, परतंत्रता की बेड़ियों ने समाज में मदरसा शिक्षा पद्धति व विद्यालयों को जन्म दिया ।उर्दू- अंग्रेजी भाषा प्रधान षड्यंत्रों ने देश की संस्कृति व भाषा को मिटाने हेतु कुत्सित प्रयास आरंभ कर दिए ।हिंदी व संस्कृत भाषा गूढ़ व दकियानूसी घोषित की गई ।अंग्रेजी व उर्दू शिक्षित वर्ग की भाषा मानी जाने लगी ।शिक्षित वर्ग लॉर्ड मैकाले के षड्यंत्र से बुरी तरह प्रभावित हुआ ,और शिक्षा जीविकोपार्जन का माध्यम बन गई। 6तथाकथित अंग्रेजी बाबू धन उपार्जन हेतु नौकरी करने लगे ,और, चाटुकारिता से युक्त होकर अंग्रेजी उर्दू का पोषण करने लगे। देश की शिक्षा का माध्यम मातृभाषा ना होकर आँग्ल भाषा हो गया ।अंग्रेजी में संभाषण कर देशवासी गर्व महसूस करने लगे। शिक्षा के बड़े-बड़े महाविद्यालय विश्वविद्यालय अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्रदान करने लगे ।जिससे धन उपार्जन कर विशिष्ट वर्ग में शामिल हो सकें यह हमारे देश का दुर्भाग्य था ।अब हमें जागृत होना चाहिए और शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होनी चाहिए। जिससे देशवासियों का मानसिक विकास, आत्मबल की उन्नति हो सके। विद्यार्थियों की जिज्ञासा व संवेदना का समाधान पूर्ण रूप से हो सके ।
संस्कार-
वास्तव में संस्कार उस विधि को कहते हैं ।जिसके द्वारा हमारी चित् वृत्ति शांत होती है ,और ,हमारी मानसिक उन्नति व जीवनशैली परिष्कृत होती है। सुसंस्कार हमें सच्चरित्र और सम्मान से आजीविका प्राप्त करने की कला सिखाते हैं।। भारतीय सनातन सभ्यता में जन्म से लेकर मृत्यु तक षोडश संस्कार की विधियां वर्णित है। जिन्हें, विधि विधान से संपन्न किया जाता है। जो निम्न वत हैं-
(1) गर्भाधान संस्कार
(2)पुंसवन संस्कार
(३)सीमांतोन्नयन संस्कार
(4) जात कर्म संस्कार
(5)नामकरण संस्कार
(6)निष्क्रमण संस्कार
(7) अन्नप्राशन संस्कार
(8) चूड़ाकर्म संस्कार
(9) कर्णवेध संस्कार
(10) विद्यारंभ संस्कार
(11)उपनयन संस्कार
(12) वेद आरंभ संस्कार
(13) केशांत संस्कार
(14)समावर्तन संस्कार
(15) विवाह संस्कार
(16) अंत्येष्टि संस्कार

भारतीय सनातन संस्कार सुशिक्षित आचार्य द्वारा संपन्न कराए जाते हैं ।घर में एक उत्सव का वातावरण होता है। हमारे समाज में अपनी आर्थिक क्षमता के अनुसार समस्त संस्कारों का पालन पूर्ण रूप से ना करके ,संक्षेप में मात्र 8 संस्कारों का पालन किया जाने लगा है।

सदियों की लूटमार ,हिंसा व सांस्कृतिक आक्रमण के कारण भारतवासी गरीब होते गए ।कभी कपास व मसालों की खेती करने वाला अग्रणी भारत नील की खेती करने पर विवश हो गया। लगान, जजिया कर ,संक्रामक रोगों के विस्तार ने हमारे प्राचीन भारत की कमर तोड़ दी। हमारे समाज में धनी और निर्धन के बीच या शोषक और शोषित वर्ग के बीच गहरी खाई बन गई। तब संस्कारों का अनुष्ठान व आचार्य सहित ब्रह्मभोज बेमानी हो गया। पाप पुण्य की परिभाषा बेमानी हो गई, और, संस्कारिक अनुष्ठान मात्र औपचारिकता निभाने तक सीमित रह गया ।आस्था बेमानी होती गई, और, संस्कारों का निर्वाहन ना केवल धन उपार्जन का माध्यम बन गया ,बल्कि, अतिव्यय व सामाजिक प्रदर्शन ,समाज में सामाजिक स्तर को ऊंच-नीच दिखाने हेतु प्रयोग किया जाने लगा। संस्कारों का निर्वाहन मात्र औपचारिक महत्व का रह गया। जिन संस्कारों से बालपन में मानसिक शांति, परिष्कृत जीवन शैली के नींव पड़ती थी ।वह मात्र औपचारिकता रह गई ।आजकल आचार्यों का सम्मान कठिन हो गया है, व उनके परिवारों तक की सीमित रह गया है ।आचार्य को लोभी लालची मानकर अनुष्ठान किए जाते हैं ।आस्था व विश्वास का पतन इस आर्थिक युग में हो रहा है। समाज का दृष्टिकोण अर्थ परक हो गया है ।अतः ,यह कहना सरासर गलत है ,संस्कारों का उपयोग मात्र धन उपार्जन हेतु किया जा रहा है । वर्तमान अर्थपरक युग, और वैज्ञानिक पद्धति ने हमारी वैज्ञानिक संस्कृति को ठेस पहुंचाया है, और सामाजिक आस्था व सकारात्मक विचारों का स्वस्थ जीवन शैली का अभाव परिलक्षित होने लगा है। समाज सांस्कृतिक, धार्मिक कार्य हेतु मितव्ययी व संकीर्ण विचारों से ग्रस्त हो गया है ।अतः हमें पुनः सत्य सनातन वैज्ञानिक पद्धति को अपनाकर ,सनातन संस्कारों को अपनाकर परिष्कृत शुद्ध जीवनशैली अपनानी चाहिए। जिससे समाज का चारित्रिक उन्नयन व मनोबल बढ़ सके। इसे हमें आर्थिक दृष्टिकोण से नहीं देखना चाहिए।
धन्यवाद।

डॉ प्रवीण कुमार श्रीवास्तव




ओज़ी स्टाइल में विनोद – हरिहर झा 

ऑस्ट्रेलिया के लोगों का हास्य और विनोद इतना अज़ीब और अनोखा  है जिसका जवाब नहीं । बील लीक को जब पता चला कि उसका दोस्त किसी दुर्घटना में जख़्मी हो गया है और उसका दाहिने पैर का अंगुठा कट गया है तो सामान्यतया वह फूलों का गुलदस्ता व  “जल्दी अच्छे हो जाओ” का कार्ड दे सकता था । पर नहीं, उसने चमड़ी की पट्टी पर एक नकली अंगूठा लगाया और वहाँ पर लिख दिया “यहाँ से चिपकाईये” । अन्दाज़ लगाइये दोनो में कितनी गहरी दोस्ती होगी और यहाँ विनोद की कौनसी सीमा होगी जिसे  भद्दा मज़ाक नहीं माना जाता । आप इसे क्या समझेंगे? कि यह अपने मित्र को  दुख में चिढ़ाने की कोई तरकीब है या कि दोनो  के अचेतन मन में दुश्मनी का भाव है? या फिर क्या इनका रिश्ता दोस्ती और खलनायकी  की गुत्थमगुत्थी में उलझा हुआ है? आप अर्थ लगाते रहिये पर  ऑस्ट्रेलिया में दोस्ती की ऐसी कईं वारदातों में पाया गया है कि विनोद में बड़ी ईमानदारी होती है। इसमें ईर्ष्या या व्यंग्य का पुट नहीं होता बल्कि कोई कड़वी लगने  वाली मजाक यह साबित करती है  कि मज़ाक करने वाला दोस्ती के बन्धन को तगड़ा करना चाहता है।

शायद यहाँ ऐसा इसलिये होता है कि  ऐतिहासिक तौर पर निर्दयी प्राकृतिक वातावरण के आघात सहने के लिये क्रूर मज़ाक के तरीके जैसे लोगों के ज़हन में घुस गये हैं। आप इसे क्या कहेंगे कि यहाँ का प्रधान मन्त्री किसी समुद्र में तैरते हुये सदा के लिये गुम हो जाता है कुछ पता नहीं चलता; यह १९६७ की बात है और बाद में वहाँ पर बनाये गये एक स्विमींग पूल का नाम उसके नाम पर रखा जाता है ! जीवन की सच्चाइयों से मुँह न फेरने  की जैसे कसम खा ली हो।  मजे की बात यह है कि यहाँ नैतिकता की खोखली और  उँची उँची बात करने वालों की बहुत ‘उड़ाई जाती है‘। १८३२ में तास्मानियां राज्य के राजप्रमुख ने स्त्री-अपराधियों को एक सभा में आदर्श और अच्छाइयों की बात की तो कुछ लम्बी चल गई। इस पर लगभग तीन सौ स्त्रियों ने उठ कर अपने अपने  वस्त्र निकाल दिये और नग्न देह में ही हाथ उठा उठा कर नैतिकता के धरातल से निकली बातों की मिट्टी पलिद कर डाली। स्टेज पर बैठी स्त्रियां भी अपनी हँसी न रोक पाई।

पश्चिमी समाज में ऑस्ट्रेलिया की मज़ाक बहुत उड़ाई जाती है और  इसका उल्टा भी बहुत होता है।  किवी ( न्यूज़ीलेंड का व्यक्ति ) और  पोमी  (याने ब्रिटेन का व्यक्ति)  की मज़ाक करना यहॉ फ़ैशन सा है। यह बात भारत में सरदार के चुटकुलों के समकक्ष है । न्यूज़ीलेंड में भेड़ों की बहुतायत होने से भेड़ें कहीं न कहीं मज़ाक में आ घुसती हैं  और किसी पोमी का अभिवादन करने के बाद सभा में  परिचय दे कर हिदायत दी जाती है कि अपना पॉकिट संभाल कर रखें क्यों कि यहाँ एक पोमी प्रविष्ट हो चुका है !  बीयर मांगने के लिये कहा जाता है कि मेरा गला एक पोमी के टॉवेल की तरह सूख गया है और कहने का अर्थ यह कि पोमी को नहाना अच्छा नहीं लगता । यहाँ की प्रसिद्ध फ़िल्म “क्रोकोडाईल डंडी” में अमेरिकन  कल्चर का अच्छा मज़ाक उडाया है और  साथ ही इस पर कि वे  ऑस्टेलिया को कैसी नज़र से देखते हैं।

यहाँ की हर फिल्म में  एक  गवांर विदूषक होता है और रेडियो  स्टेशन पर विनोदपूर्ण कार्यक्रमों की भरमार होती है – ऑफीस आने-जाने वाले कार-चालकों  को रिझाने के लिए |  शायद ऐसे कार्यक्रमों से कोई परिचित न हों –  आप किसी चीज या किसी पालतू जानवर के दीवाने हैं तो रेडीयो स्टेशन का विदूषक आप को प्रेंक-कॉल करता है – आपके  ही भाई-बहन या परिवार के किसी सदस्य के आवेदन पर। अज़ीब से हालात में  आपके जवाबों पर उस चैनल के श्रोता हँसी के ठहाके लगाते हैं और आपको पता भी अंत में ही चलता है। ऐसे कार्यक्रमों में ओज़ी विनोद की विशिष्ट छाप द्रष्टिगोचर होती है। कहना न होगा कुछ वर्ष पहले ब्रिटेन के एडिन्बर्ग फ्रिन्ज के कार्यक्रम में ऑस्ट्रेलिया के चुटकुले “श्रेष्ठ  विनोद” की लिस्ट में पाये गये जिसमें  टिम वाईन का यह कथन बहुत प्रशंसित हुआ  “मैं अपने जीवन के  सबसे बड़े और अद्वितिय अवकाश पर गया हुआ था। अब क्या बोलूं, फिर से ऐसा नहीं करूंगा।“

पहली अप्रेल के आसपास से तीन सप्ताह तक “मेलबर्न अंतरराष्ट्रीय कॉमेडी उत्सव” मनाया जाता है जो  विश्व के कॉमेडी उत्सवों  में तीसरे स्थान पर गीना जाता है।  इस भव्य और विशाल उत्सव का स्थानीय उत्सव जो पूरे साल चलते रहते हैं उस पर दुष्प्रभाव यह पड़ता है कि दर्शक इन छोटे उत्सवों की ओर ध्यान नहीं दे पाते फिर भी बहुत कम स्थानीय उत्सव होंगे जो बन्द होने की स्थिति में आगये।

खुद पर ही मज़ाक करने का यहाँ फ़ैशन है;  इसका कारण है –  यहाँ ब्रिटेन से आये पहली बार बसने वाले अपराधी जिस पीड़ा से गुजरे इसके कारण  वे पुलिस को भी हँसा पाने में समर्थ थे क्योंकि जेलर की एक हँसी कैदी को फांसी के फन्दे से बचा सकती थी। एक हास्य अभिनेता प्राय: अपनी विकलांगता को ही मज़ाक का निशाना बनाता है। वह किसी बहुत ही सुन्दर स्त्री के प्रेम में पड़ जाता है पर करे क्या? फिर वह उस स्त्री का ही  दोष निकालता है कि उसकी चाल में  लड़खड़ाहट जैसा कुछ नहीं है ! यह कथ्य हास्य के साथ साथ हृदय में टीस भी पैदा करता है और यह सोंचने को मजबूर करता है कि कभी कभार हमें विकलांगो के नजरिये से भी दुनिया देख लेनी चाहिये।

आगे चल कर मज़ाक बड़े सूखे और  रौब जताने के विरोध में चलते रहे। सूखे मज़ाक इस तौर पर कि शायद आप आशय न समझ पायें और समझ गये तो हँसी के बदले  मुस्कान ही दे पाये पर उसकी गहराई अन्दरूनी होगी  जैसे  किसी टूरिस्ट ने ऑस्ट्रेलिया के अधिकारियों को पूछा कि क्या यहाँ पर मैं  हर जगह अँगरेज़ी में बात कर सकता हूँ तो जवाब मिला कि हाँ;  पर उसके लिये आपको अँगरेज़ी सीखनी होगी। इसके बाद कईं ऐसे कईं सवालों के मज़ाकिया जवाब उन अधिकारियों ने अपनी टूरिस्ट वेब-साईट पर लगाये । जैसे कि

“क्या यहाँ  पर क्रिसमस मनाई जाती है?”

“हाँ;  पर केवल क्रिसमस आने पर”

“क्या ऑस्ट्रेलिया में सड़क पर कंगारू देखे जा सकते है?”

“इस बात पर निर्भर करता है कि आपने कितनी पी रखी है।“

“क्या ऑस्ट्रेलिया में इत्र मिलती है?”

“नहीं; हमारे शरीर से बदबू निकलती है।“

“मैं पर्थ से सीडनी तक चलना चाहता हूँ इसके लिये क्या मैं रेल की पटरी पर चल  सकता हूँ?”

“हाँ क्यों नहीं ! अपने साथ ढेर सारा पानी लीजिये । बस यह केवल तीन हजार मील दूर है।“

“टी. वी पर ऑस्ट्रेलिया में कभी बरसात नहीं देखी जाती तो वहाँ पेड़ कैसे उगते है?”

“हम सभी पेड़ों का आयात करते हैं और बाद में  उसके चारों तरफ़ बैठ कर उन्हें मरते हुये देखते हैं।“

टी. वी. और बीयर की लत से घिरे आधुनिक समाज के आलसी जीवन पर यह व्यंग्य देखिये – एक पति ने अपनी पत्नी से कहा “प्रिये, कभी तुझे लगे कि मैं  इतना बीमार हूँ कि बस मशीन के सहारे ज़िन्दा रह पाता हूँ तो तू झटपट  मशीन का प्लग निकाल लेना और आस पास की जो बोतले मुझे चढ़ाई जाने वाली हों उन्हे उठा कर फैंक देना ।“

पत्नी ने उठ कर टी. वी. का प्लग निकाल लिया और बीयर की सभी बोतले फैंक दी।

जीवन की गंभीरता को सहज द्रष्टि से नया आयाम दे देना यहाँ  की विशेषता है जिसका एक उदाहरण काफ़ी होगा – एक मनोवैज्ञानिक ने  पूछा कि “जब आपकी पत्नी रसोईघर से गुस्से में  आकर चिल्लाती है तो आप कौनसी बड़ी गलती कर बैठते हैं?”

उसके बीमार का जवाब था “उसकी गोल सोने की चेन को बहुत लम्बी कर देता हूँ।“

बार-क्लब के चुटकुलों में यहाँ के उन्मुक्त समाज का प्रतिबिम्ब मिलता है पर सेक्स की तरफ़ इशारा भर करके हँसने का रिवाज़ नहीं है। मेरे एक नवागंतुक मित्र ने “बनाना इन पायजामा” टी. वी. फ़िल्म के नाम पर विरोध प्रकट किया। मैंने समझाया “रोष की कोई आवश्यकता नहीं है। यह बच्चों के लिये बनाई गई रोचक और ज्ञानवर्धक फ़िल्म है जिसे अंतरराष्ट्रिय सम्मान मिल चुका है। आप ऊटपटांग अर्थ निकालना बन्द कीजिये और पहले यह फ़िल्म देख लीजिये।“

यह कथन ऑस्ट्रेलिया में प्रसिद्ध है कि यह देश अपने आप में बहुत बड़ा मज़ाक है कि आप जिस बीच पर जाकर  समुद्र की तरंगों पर सर्फ़िंग कर रहे हों वहाँ पर  बड़े बड़े शार्क मौजूद हों और उसके बाद जब आप अपने घर जायं तो देखें कि आपका घर बुश फ़ायर में स्वाहा हो  चुका है। बार-बार यहाँ जो “नो वरीज़” ( कोई चिन्ता नहीं ! ) कहा जाता है उसका संदर्भ इस बात से निकलता है !




गोधूलि – राकेश रंजन

हाथों में माई ले आँचल का कोर
तुलसी चौरे की वो दीपक बाती तेल सराबोर
नारंगी साँझ की सिन्दूरी सी नभ में
घर लौटती चिड़ियों के झुण्डों का शोर
पैरों में चपलता स्वर समवेत
भक्ति कुछ ऐसी की मुट्ठी में रेत
चित कान्हा कंठ महादेव
भुजा मारुति लव पे राम
ओ… बाँसों की फुनगी से उतर रही शाम

स्नातकोत्तर, भूगोल विभाग
ल. ना. मिथिला विश्वविद्यालय
दरभंगा, बिहार
मो8678018584,  ईमेल –   [email protected]