1

अनुवाद के प्रकार

अनुवाद शब्द का संबंध ‘वद ‘धातु से है, जिसका अर्थ होता है ‘बोलना’ या ‘कहना’। वद् में  धत्र प्रत्यय लगने से वाद शब्द बनता है। अनुवाद का मूल अर्थ है पुनः कथन या   किसी के कहने के बाद कहना। प्राचीन भारत में शिक्षा के मौलिक परंपरा थी। गुरु जी कहते थे उसे दोहराते थे। इस दोहराने को भी अनुवाद या अनु वचन कहते थे। एक भाषा की किसी सामग्री का दूसरी भाषा में रूपांतरण ही अनुवाद है। इस तरह अनुवाद का कार्य है एक  भाषा में व्यक्त विचारों को दूसरी भाषा में व्यक्त करना। यह बहुत सरल कार्य नहीं है।  हर भाषा विशिष्ट परिवेश में पनपती है।एक भाषा में व्यक्त विचारों को यथा समय सहज किसी व्यक्ति द्वारा भाषा में व्यक्त करने का प्रयास अनुवाद कहलाता है।

         अनुवाद का मूल उद्देश्य भाषा की रचना के भाव या विचार तथ्य भाषा में यथा समय अपने मूल रूप में लाना। अनुवाद के लिए स्त्रोत्र भाषा में भाषा या विचारों की व्यक्त करने के लिए जिस अभिव्यक्ति का प्रयोग है उसके यथासंभव समान या अधिक से अधिक समान अभिव्यक्ति की खोज लक्ष्य भाषा में होनी चाहिए। लक्ष्य भाषा में स्त्रोत्र भाषा के यथा समय जिस अभिव्यक्ति की खोज हो लक्ष्य भाषा में सहयोग।

     अनुवाद को कला और विज्ञान दोनों ही रूपों में स्वीकारने की मानसिकता इसी कारण  पल्लवित हुई है कि संसारभर की भाषाओं के पारस्परिक अनुवाद की कोशिश अनुवाद की अनेक शैलियों और प्रविधियों की ओर इशारा करती हैं।

1

अनुवाद की एक भंगिमा तो यही है कि किसी रचना का साहित्यिक-विधा के आधार पर अनुवाद उपस्थित किया जाए। यदि किसी नाटक का नाटक के रूप में ही अनुवाद किया जाए तो ऐसे अनुवादों में अनुवादक की अपनी सर्जनात्मक प्रतिभा का वैशिष्ट्य भी अपेक्षित होता है। अनुवाद का एक आधार अनुवाद के गद्यात्मक अथवा पद्यात्मक होने पर भी आश्रित है। ऐसा पाया जाता है कि अधिकांशतः गद्य का अनुवाद गद्य में अथवा पद्य में ही उपस्थित हो, लेकिन कभी-कभी यह क्रम बदला हुआ नजर आता है। कई गद्य कृतियों के पद्यानुवाद मिलते हैं, तो कई काव्य कृतियों के गद्यानुवाद भी उपलब्ध हैं। अनुवादों को विषय के आधार पर भी वर्गीकृत किया जाता है और कई स्तरों पर अनुवाद की प्रकृति के अनुरूप उसे मूल-केंद्रित और मूल मुक्त दो वर्गों में भी बाँटा गया है। अनुवाद के जिन सार्थक और प्रचलित प्रभेदों का उल्लेख अनुवाद विज्ञानियों ने किया है, उनमें शब्दानुवाद, भावानुवाद, छायानुवाद, सारानुवाद, व्याख्यानुवाद, आशु अनुवाद और रूपांतरण को सर्वाधिक स्वीकृति मिली है।

·             अनुवाद के प्रकार :-

  1.गद्यानुवाद : गद्यानुवाद सामान्यत: गद्य में किए जानेवाले अनुवाद को कहते हैं।    किसी भी गद्य रचना का गद्य में ही किया जाने वाला अनुवाद गद्यानुवाद कहलाता है। किन्तु कुछ विशेष कृतियों का पद्य से गद्य में भी अनुवाद किया जाता है। जैसे ‘मेघदूतम्’ का हिन्दी कवि नागार्जुन द्वारा किया गद्यानुवाद।

2.पद्यानुवादपद्य का पद्य में ही किया गया अनुवाद पद्यानुवाद की श्रेणी में आता है। दुनिया भर में विभिन्न भाषाओं में लिखे गए काव्यों एवं महाकाव्यों के अनुवादों की संख्या अत्यन्त विशाल है। इलियट के ‘वेस्टलैण्ड’, कालिदास के ‘मेघदूतम्’ एवं ‘कुमारसंभवम्’ तथा टैगोर की ‘गीतांजलि’ का विभिन्न भाषाओं में पद्यानुवाद किया गया है। साधारणत: पद्यानुवाद करते समय स्रोत-भाषा में व्यवहृत छंदो का ही लक्ष्य-भाषा में व्यवहार किया जाता है।

 

3.छंद मुक्तानुवादइस प्रकार के अनुवाद में अनुवादक को स्रोत-भाषा में व्यवहार किए गए छंद को अपनाने की बाध्यता नहीं होती। अनुवादक विषय के अनुरूप लक्ष्य-भाषा का कोई भी छंद चुन सकता है। साहित्य में ऐसे अनुवाद विपुल संख्या में उपलब्ध हैं।

 4.काव्यानुवाद : स्रोत-भाषा में लिखे गए काव्य का लक्ष्य-भाषा में रूपांतरण काव्यानुवाद कहलाता है। यह आवश्यकतानुसार गद्य, पद्य एवं मुक्त छंद में किया जा सकता है। होमर के महाकाव्य ‘इलियड’ एवं कालिदास के ‘मेघदूतम्’ एवं ‘ऋतुसंहार’ इसके उदाहरण हैं।

  1. नाट्यानुवाद :किसी भी नाट्य कृति का नाटक के रूप में ही अनुवाद करना नाट्यानुवाद कहलाता है। नाटक रंगमंचीय आवश्यकताओं एवं दर्शकों को ध्यान में रखकर लिखा जाता है। अत: इसके अनुवाद के लिए अभ्यास की आवश्यकता होती है। संस्कृत के नाटकों के हिंदी अनुवाद तथा शेक्सपियर के नाटकों के अन्य भाषाओं में किए गए अनुवाद इसके उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
  2. कथा अनुवाद :कथा अनुवाद के अंतर्गत कहानियों एवं उपन्यासों का कहानियों एवं उपन्यासों के रूप में ही अनुवाद किया जाता है। विश्व प्रसिदध उपन्यासों एवं कहानियों के अनुवाद काफ़ी प्रचलित एवं लोकप्रिय हैं। मोपासाँ एवं प्रेमचंद की कहानियों का दुनिया की विभिन्न भाषाओं में अनुवाद हुआ है। रूसी उपन्यास ‘माँ’, अंग्रेजी उपन्यास ‘लैडी चैटर्ली का प्रेमी’ तथा हिंदी साहित्य के ‘गोदान’, ‘त्यागपत्र‘ तथा ‘नदी के द्वीप’ के विभिन्न भाषाओं में अनुवाद हुए हैं।

7.शब्दानुवाद : स्रोत-भाषा के शब्द एवं शब्द क्रम को उसी प्रकार लक्ष्य-भाषा में रूपांतरित  करना शब्दानुवाद कहलाता है। यहाँ अनुवादक का लक्ष्य मूल-भाषा के विचारों को रूपांतरित करने से अधिक शब्दों का यथावत् अनुवाद करने से होता है। शब्द एवं शब्द क्रम की प्रकृति हर भाषा में भिन्न होती है।

अत: यांत्रिक ढंग से उनका यथावत अनुवाद करते जाना काफ़ी कृत्रिम, दुर्बोध्य एवं निष्प्राण हो सकता है। शब्दानुवाद उच्च कोटि के अनुवाद की श्रेणी में नहीं आता।

8.भावानुवाद : साहित्यिक कृतियों के संदर्भ में भावानुवाद का विशेष महत्त्व होता है। इस प्रकार के अनुवाद में मूल-भाषा के भावों, विचारों एवं संदेशों को लक्ष्य-भाषा में रूपांतरित  किया जाता है। इस संदर्भ में भोलानाथ तिवारी का कहना है : ‘मूल सामग्री यदि सूक्ष्म भावों वाली है तो उसका भावानुवाद करते हैं।’ भावानुवाद में संप्रेषिता सबसे महत्त्वपूर्ण होती है। इसमें अनुवादक का लक्ष्य स्रोत-भाषा में अभिव्यक्त भावों, विचारों एवं अर्थों का लक्ष्य-भाषा में अंतर करना होता है। संस्कृत साहित्य में लिखे गए कुछ ललित  निबंधों के हिंदी अनुवाद बहुत ही सफल सिद्ध हुए हैं।

  1. छायानुवादअनुवाद सिद्धांत में छाया शब्द का प्रयोग अति प्राचीन है। इसमें मूल-पाठ की अर्थ छाया को ग्रहण कर अनुवाद किया जाता है। छायानुवाद में शब्दों, भावों तथा संकल्पनाओं के संकलित प्रभाव को लक्ष्य-भाषा रूपांतमेंण किया जाता है। संस्कृत में लिखे गए भास के नाटक ‘स्वप्नवासवदत्तम्’ एवं कालिदास के नाटक ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ के हिंदी अनुवाद इसके उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
  2. सारानुवाद :सारानुवाद का अर्थ होता है किसी भी विस्तृत विचार अथवा सामग्री का संक्षेप में अनुवाद प्रस्तुत करना। लंबी रचनाओं, राजनैतिक भाषणों, प्रतिवेदनों आदि व्यावहारिक कार्य के अनुवाद के लिए सारानुवाद काफ़ी उपयोगी सिद्ध होता है। इस प्रकार के अनुवाद में मूल-भाषा के कथ्य को सुरक्षित रखते हुए लक्ष्य-भाषा में उसका रूपांतरण कर दिया जाता है। सारानुवाद का प्रयोग मुख्यत: दुभाषिये, समाचार पत्रों एवं दूरदर्शन के संवाददाता तथा संसद एवं विधान मंडलो के रिकार्ड कर्ता करते हैं।
  3. व्याख्यानुवादव्याख्यानुवाद को भाष्यानुवाद भी कहते हैं। इस प्रकार के अनुवाद में अनुवादक मूल सामग्री के साथ-साथ उसकी व्याख्या भी प्रस्तुत करता है। व्याख्यानुवाद में अनुवादक का व्यक्तित्व महत्त्वपूर्ण होता है।

और कई जगहों में तो अनुवादक का व्यक्तित्व एवं विचार मूल रचना पर हावी हो जाता है।बाल गंगाधर तिलक द्वारा किया गया ‘गीता’ का अनुवाद इसका उत्कृष्ट उदाहरण है।

  1. आशु अनुवादआशु अनुवाद को वार्तानुवाद भी कहते हैं। दो भिन्न भाषाओं, भावों एवं विचारों का तात्कालिक अनुवाद आशु अनुवाद कहलाता है। आज जैसे विभिन्न देश एक दूसरे के परस्पर समीप आ रहे हैंI इस प्रकार के तात्कालिक अनुवाद का महत्त्व बढ़ रहा है। विभिन्न भाषा-भाषी प्रदेशों एवं देशों के बीच राजनैतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व के क्षेत्रों में आशु अनुवाद का सहारा लिया जाता है।
  2. आदर्श अनुवाद :- आदर्श अनुवाद को सटीक अनुवाद भी कहा जाता है। इसमें अनुवादक आचार्य की भूमिका निभाता है तथा स्रोत-भाषा की मूल सामग्री का अनुवाद अर्थ एवं अभिव्यक्ति सहित लक्ष्य-भाषा में निकटतम एवं स्वाभाविक समानार्थों द्वारा करता है। आदर्श अनुवाद में अनुवादक तटस्थ रहता है तथा उसके भावों एवं विचारों की छाया अनूदित सामग्री पर नहीं पड़ती। रामचरितमानस, भगवद्गीता, कुरान आदि धार्मिक ग्रंथ के सटीक अनुवाद इसके उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
  3. रूपांतरण :- आधुनिक युग में रूपांतरण का महत्त्व बढ़ रहा है। रूपांतरण में स्रोत-भाषा की किसी रचना का अन्य विधा(साहित्य रूप) में रूपांतरण कर दिया जाता है। संचार माध्यमों के बढ़ते हुए प्रभाव एवं उसकी लोकप्रियता को देखते हुए कविता, कहानी आदि साहित्य रूपों का नाट्यानुवाद विशेष रूप से प्रचलित हो रहा है। ऐसे अनुवादों में अनुवादक की अपनी रुचि एवं कृति की लोकप्रियता महत्त्वपूर्ण होती है। जैनेन्द्र, कमलेश्वर, अमृता प्रीतम, भीष्म साहनी आदि की कहानियों के रेडियो रूपांतरण प्रस्तुत किए जा चुके हैं। ‘कामायनी’ महाकाव्य का नाट्य रूपांतरण काफ़ी चर्चित हुआ है। 

रूपांतरण अनुवाद का पुनर्सृजित रूप के निम्नलिखित दो उदाहरण –
उदाहरण-1  मूल : लूटि सकै तौ लूटियौ, राम नाम है लूटि ।
पीछैं ही पछिताहुगे, यह तन जैहै छूटि ।।
                                                            

                                                    अनुवादRejoice O Kabir

In this great feast
of Love !
Once death
knocks at your door,
This golden moment
will be gone
For ever !
                -Translated by Sahdev Kumar

 

उदाहरण– 2 मूल One Moment in Annihilation’s Waste,
One Moment, of the Well of Life to taste
The Stars are setting and the Caravan,
Starts for the dawn of Nothing& oh, make haste!
                                                        -Rubaiyat (Fitzgerald) 

अनुवाद –  अरे, यह विस्मृति का मरु देश
        एक विस्तृत है, जिसके बीच
        खिंची लघु जीवन-जल की रेख,
        मुसाफ़िर ले होठों को सींच ।
                              एक क्षण, जल्दी कर, ले देख
                              बुझे नभ-दीप, किधर पर भोर
                 कारवाँ मानव का कर कूच
                 बढ़ चला शून्य उषा की ओर !
              उपर्युक्त दोनों अनुवाद मूल के आधार पर नई रचनाएँ बन गई हैं। ये अनुवाद नहीं बल्कि मूल का ‘अनुसृजन’ है। इसमें मूल लेखक की भाँति अनुवादक की सृजनशील प्रतिभा की स्पष्ट झलक देखने को मिल रही है। राजशेखर दास ने ठीक ही कहा है : ‘कविता का अनुवाद कितना ही सुंदर क्यों न हो वह केवल मूल विचारों पर आधृत एक नई कविता ही हो सकती है।’ यही कारण है कि साहित्यिक अनुवाद को एक कलात्मक प्रक्रिया माना गयाI               

                                 

  • निष्कर्ष : –

     अनुवाद कि विभिन्न परिभाषाएँ तथा अनुवाद संबंधी प्रस्तुत किए गए विचारों के आधार पर अनुवाद के स्वरूप को लेकर यही कहा जा सकता है कि,किसी का संदेश आशा में प्रस्तुत करना अनुवाद है।अनुवाद में मूल का अर्थ तथा सुरक्षित रहे और लक्ष्य भाषा में सरल सहज प्रतीत हो। अनुवाद के स्वरूप से संबंधित यह तथ्य कार्य के प्रमुख आधारभूत घटक निश्चित करता है। स्त्रोत भाषा और उसके स्वरूप का ज्ञान होना तथा स्रोत भाषा में प्रस्तुत संदेश और उसके स्वरूप का ज्ञान होना आवश्यक हैI
 

संदर्भग्रंथ सूची :-

 1) अनुवाद विज्ञान – डॉ भोलानाथ तिवारी, प्रकाशक – शब्दाकार 1672
 2)अनुवाद कला सिद्धांत और प्रयोग – डॉ. कैलाश चंद्र भाटिया
 3)अनुवाद सिद्धान्त और प्रयोग – भोलानाथ तिवारी 1972 : 202-14