संपत्त का अधिकार
सम्पत्ति का अधिकार
डा. रतन कुमारी वर्मा
हमें हमारा हक चाहिए, सम्पत्ति के अधिकार में।
चल हो या अचल सम्पत्ति हो, चाहिए हमें उत्तराधिकार में।
बहुत हो चुकीं आदर्श, परम्परा और रीतिरिवाज की बातें,
इनके नाम पर सदा की गईं हमारे साथ अनन्त घातें।
बहुत सम्मान मिल चुका हमें, देवी, दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती बनाकर
हम सबसे बड़ी देवी हैं, सब हमारी पूजा करते हैं।
सबसे बड़ी देवी के नाम पर सब हमसे शक्ति अर्जित करते हैं।
पर यथार्थ की धरा पर हम सदियों से पैरों तले रौंदी जाती रही हैं।
हम नहीं बनना चाहते हैं देवी और न बनना चाहते हैं दानवी,
जैसे पुरुष मानव बनकर जीता है, वैसे हम जीना चाहते है बनकर मानवी।
हम नहीं जीना चाहते हैं बनकर पाँच पतियों वाली द्रौपदी,
चीर-हरण का दृश्य रचकर लाज बचाने की नहीं लगाना चाहते हैं गुहार।
हम श्रापग्रस्त अहिल्या बनकर उध्दार करने की नहीं करते हैं कामना।
हमें सती सावित्री, सीता, अनुसुईया भी नहीं है बनना।
कदम-कदम पर हमें गवारा नहीं है अग्निपरीक्षा से गुजरना।
समाज के नाम पर, धर्म के नाम पर हमारा किया जाता रहा परित्याग।
त्याग, सेवा, समर्पण, कर्त्तव्यनिष्ठा का सदा पढ़ाया जाता रहा पाठ।
हमने सीता बनकर अकेले ही अरण्य में जन्म दिया लव और कुश को।
राजमहल की राजकुमारी सीता के साथ उस समय कोई नही था आस-पास।
वन की बहनें ही थीं उस समय सबसे बड़ा भरोसा आस-विश्वास।
उन्होंने ही निभाकर सिखाया था मानवता का सबसे बड़ा पाठ,
दया, माया, ममता लो आज मधुरिमा का अगाध विश्वास।
श्रध्दा की ममता का अद्भुत खजाना आज भी खुला है हमारे पास।
पर अब हमको भी चाहिए दया, माया, ममता, मधुरिमा का अगाध विश्वास।
हमको भी क्या बनना है, क्या करना है, चाहिए इसके निर्णय का अधिकार।
यह अधिकार हमें तभी मिल पायेगा, जब हमारे पास होगा सम्पत्ति का अधिकार।
शोषण की चरम पराकाष्ठा की सारी जड़े स्वयं समाप्त हो जायेंगी।
जब कोई लड़की घर से निकलने पर फिर वापस घर लौटने का हक पायेगी।
कोई लड़की शादी के नाम पर, प्यार के झाँसे में क्यों फँसती है ?
पैतृक सम्पत्ति की उत्तराधिकारी न होने से बाहर के लोगों पर विश्वास कर लेती है।
घर में रूखा उपेक्षापूर्ण व्यवहार मिलने से प्यार के बहेलियों के चंगुल में फँस जाती है।
किशोरावस्था में उसके सोचने-समझने की शक्ति नहीं होती इतनी परिपक्व।
कल्पना की उड़ान में उड़कर वह पाना चाहती हैं वर्चस्व।
भावना की उत्ताल तरंगे जब होती है तरंगायित।
तब धीरे से, चुपके से, प्रेम के कंकड़ से जाती है सिहर।
स्वतंत्रता, समानता, सम्मान, प्रेम पाने की कामना में जाती है फँस।
इसके लिए वह न्यौछावर कर देना चाहती है अपना सर्वस्व।
जैसे-जैसे लड़की बड़ी होने लगती है, सबसे ज्यादा पाठ उसे ही पढ़ाया जाता है।
रोज-रोज कर्त्तव्य का पाठ पढ़ाकर बता दिया जाता है कि वह परायी है।
वह भी सोचती है माता-पिता हमारे भगवान हैं।
जो भी कहेंगे सच कहेंगे, सच के सिवा कुछ नहीं कहेंगे।
उन्हीं वाक्यों को घुट्टी में पीकर वह बड़ी होती है।
मानसिक रूप से तैयार हो जाती है कि हाँ, हमारा कोई हक नहीं है।
जो कुछ भी है, वह सब कुछ भैया लोगों का ही है।
फिर जीवन में क्रम आता है शादी का जब सौभाग्यशाली बहनों की शादी होती है।
माता-पिता अपनी सामर्थ्य के अनुसार दान-दहेज देकर पुत्री का घर बसाते हैं।
यही उसके संपूर्ण जीवन का अधिकार होता है और यही का मिलता है उसे हक।
माता-पिता, भाई-बहन खुशी-खुशी जो दे देते हैं,
वह दान, दहेज, उपहार ही उसके जीवन की संपूर्ण पूंजी है।
अब हमको दान, दहेज, उपहार नहीं चाहिए।
हमको तो बस पैतृतक सम्पत्ति पर अधिकार चाहिए।
यह हमें केवल कानूनी ही नहीं चाहिए,
हमको खुशी-खुशी अपने अधिकार पर कब्जा भी चाहिए।
हमें मालूम है हमको सम्पत्ति पर हक दिये जाने से,
सामाजिक समीकरणों की गणित गड़बड़ायेगी।
भाई-बहनों के सम्बन्धों में सबसे ज्यादा कड़ुवाहट आयेगी।
पर आज भी तो अदालतों में भाई-भाई के बीच,
सम्पत्ति के बँटवारे के मुकदमें ही सबसे ज्यादा होते हैं।
लड़ते भाई-भाई हैं पर बदनाम औरतों को किया जाता है।
पैतृक सम्पत्ति में किसी कागज के टुकड़े पर जिसका नाम ही नहीं होता है।
उसे ही बदनाम क्यों किया जाता है ? अपमान क्यों किया जाता है ?
भाई-भाई जब लड़ते हैं तब बहन किनारे खड़ी तमाशा देखती है।
भाईयों से बात जब आपस में सुलझ नहीं पाती है,
तब बहन की भूमिका न्यायधीश के रूप में आती है।
न्यायधीश की भूमिका तो सदा ही बहुत कठिन होती है
क्योंकि सच बात में बहुत कड़ुवाहट होती है।
बहन का निर्णय जिस भाई को पसन्द आ जाता है,
उसके साथ उसका सदा का व्यवहार बन जाता है।
जिस भाई को उसके मन के अनुसार लाभ नहीं मिल पाता है,
वह तब बहन को दुश्मन ही मान बैठता है।
एक झटके में सदा-सदा का सम्बन्ध खत्म हो जाता है।
जब भाई-भाई लड़ते हैं, समाज में कहीं इसकी आवाज सुनाई नहीं देती है।
वैसे ही अगर बहन-बहन या बहन-भाई सभी लड़ेंगे परस्पर।
तो यह प्रकृति के विपरीत तो कोई बात नहीं हो जायेगी।
यह समाज की सहज स्वाभाविक प्रक्रिया है, गति है।
लड़ते-लड़ते जब थक जायेंगे, तब सब आपस में मिलकर रहने लगेंगे।
याद रहे, इंसान जीवन का दाँव थककर ही हार स्वीकार करता है।
वैसे ही यह सब भी समय आने पर स्वीकार करना पड़ेगा।
समाज में जहाँ इसका नकरात्मक असर दिखाई देता है,
वहीं इसके सकारात्मक पहलू पर भी विचार होना चाहिए।
बहन को सम्पत्ति में अधिकार मिलने पर भाई अधिक सम्मान करेंगे।
तब उनके मायके आने-जाने पर भाई समान व्यवहार करेंगे।
जिस भाई को सम्पत्ति लेने की जरूरत होगी,
वह भाई स्वयं ही उसका ख्याल करेगा।
जिस भाई को जरूरत नहीं होगी,
वह वैसे भी बहन से बहुत सम्बन्ध नहीं बनायेगा।
माता-पिता अब भी पुत्री को सम्पत्ति में भागीदारी नहीं देना चाहते हैं।
सामाजिक सोच की संरचना में उनको लगता है,
अगर हम पुत्री को उत्तराधिकारी बनायेंगे तो वह यहाँ रहने नहीं आयेगी।
जिससे अधिक पैसा मिलेगा, वह चाहे हमारा पुश्तैनी दुश्मन ही क्यों न हो।
उसके हाथों में बेचकर चली जायेगी।
माता-पिता को आहत करने वाली सबसे बड़ी बात
यही समझ में आती है।
चाहते हुए भी उत्तराधिकारी बनाने से माता-पिता कतराते हैं।
पर वही काम अब पुत्र और भतीजे भी तो करते हैं।
पिता या चाचा के न रहने पर उनकी जमीन को तो वह भी बेचते हैं।
कोई गाँव की जमीन बेचकर छोटे शहर में बसने चला जाता है।
कोई छोटे शहर की जमीन बेंचकर बड़े शहर में पहुँच जाता है।
कोई बड़े शहर की भी जमीन बेचकर विदेश में चला जाता है।
परिवर्तन प्रकृति का नियम है, यह सदा होता आया है
यह इंसान के बस की बात नहीं है, वह इसे रोक नहीं पाया है।
वह भी तो अपने संतान की उन्नति ही चाहता है।
जब हम उन्नति करते करते विदेश में पहुँच जाते हैं,
तब हमें अपने देश के सुख की बात याद आती है।
तब हमें समझ में आता है कि हम इसकी क्या कीमत चुकाते हैं।
तब हमें अब भी यह क्यों नहीं समझ में आता है कि,
पुत्र-पुत्री केवल शब्द में ही नहीं बराबर है, सम्पत्ति में भी बराबर हैं।
इस मूल जड़ की शुरूआत जब भी जिस दिन होगी।
माता-पिता की पहल ही सबसे बड़ा हथियार होगी।
जिस दिन से माता-पिता पुत्री को सम्पत्ति में अधिकार देने लगेंगे।
उसी दिन से महिला सशक्तीकरण सही मायने में चरितार्थ होने लगेगा।
संपत्ति में अधिकार मिलने से शिक्षा में भी बराबर का अधिकार मिलेगा।
अभी महँगी शिक्षा पुत्रों को और सस्ती शिक्षा पुत्रियों को देने का प्रचलन है।
तब शिक्षा में बराबर का अधिकार मिलने लगेगा।
भाई-बहनों के सम्बन्धों में और सुधार दिखने लगेगा।
शिक्षा का बराबर का अधिकार मिलेगा तो,
बेटियाँ उच्च पदों पर अधिक संख्या में पहुँचेगी।
तब कोई बेटी कूड़े के ढेर पर नहीं फेंकी जायेगी।
उदरस्थ कन्या का जन्म पाना सुनिश्चित हो जायेगा।
कन्या भ्रूण हत्या का मामला भी थमने लगेगा।
अल्ट्रासाउण्ड मशीनों पर लिंग परीक्षण रोकने से,
कन्या भ्रूण हत्या का मामला नहीं रूकेगा।
समाज में जहाँ असमानता का भाव है,
वहाँ पर उसके उपचार करने की जरूरत है।
चोट सिर पर लगी है और उपचार पैर का हो रहा है।
इससे समस्या का समाधान कभी संभव नहीं है।
मनुष्य के दिमाग की मशीन को समझने की जरूरत है।
पुरूष प्रधान सामाजिक संस्कृति की अल्ट्रासाउण्ड करने की जरूरत है।
माता-पिता के दिमाग के सोच की अल्ट्रासाउण्ड करने की भी जरूरत है।
जिस दिन माता-पिता के दिमाग को अल्ट्रासाउण्ड की मशीन में,
पुत्र और पुत्रियाँ बराबर सम्पत्ति की उत्तराधिकारी बन जायेंगी।
उसी दिन से जन्म पाने का अधिकार भी सुनिश्चित हो जायेगा।
वास्तविकता के धरातल पर महिला सशक्तीकरण
खिलखिलाता हुआ नजर आयेगा।
सम्पत्ति का उत्तराधिकारी बनाये जाने से,
उसे पूर्ण मानव का दर्जा हासिल हो सकेगा।
सभी कन्याएँ चाहती है डाँक्टर, इंजीनियर, उच्च अधिकारी बनना।
पर कितनी कन्यायों को ही नसीब हो पाता है यह बनना।
सबसे पहले चिन्ता करनी होगी उन गरीब कन्याओं की,
उन कन्याओं को कैसे सशक्त बनाया जा सकता है।
जो प्यार के नाम पर, शादी के नाम पर झाँसे में आ जाती हैं।
हसीन ख्वाब लिये वेश्या बनने को मजबूर हो जाती हैं।
और जब उन्हें एहसास होता है, उनके साथ धोखा हुआ है।
देह-व्यवसाय के दल-दल में, कीचड़ में फँस गई हैं।
वह वहाँ से निकलने के लिए दिन-रात छटपटाती हैं।
निकलना चाहते हुए भी निकल नहीं पाती हैं।
और अगर किसी तरह से वहाँ से भागने में कामयाब भी हो गयीं,
तो भी घर का दरवाजा उनके लिए बन्द कर दिया जाता है।
माता-पिता, भाई-बहन सभी रिश्तेदार मुँह मोड़ लेते हैं।
सारा अपराध पुरुष करता है, सजा स्त्री को देते हैं।
उनके लिए घऱ का, परिवार का, समाज का सभी रास्ता बन्द कर देते हैं।
न ही हम उनको पुत्री बना पाते हैं, न यह समाज पत्नी बनाने को तैयार होता है।
धर्म के क्षेत्र में जाने पर जहाँ धर्म भी अशुध्द हो जाता है
पर मन्दिर में भी अगर वेश्या का नृत्य हो तो मन्दिर भी पवित्र हो जाता है।
हमको यह सब मानसिक संकीर्णता की दीवारें तोड़नी होगी।
पैतृक सम्पत्ति की मालकिन होने पर यह दीवार खुद ही ढह जायेगी।
जिस घर से निकलेगी, उस घर का दरवाजा सदा के लिए बंद नहीं होगा।
जब भी चाहेगी, वापस अपने घर में लौट पायेगी।
घर लौटने का अधिकार सुरक्षित, सुनिश्चित हो जायेगा।
तब माता-पिता, भाई-बहन, भी साथ रहने को तैयार हो जायेंगे।
यह समाज भी उनको उनके घर से नहीं निकाल पायेगा।
जैसे एक पुरूष को यह समाज उसके घर से कभी निकाल नहीं पाता है।
वह जब भी लौटना चाहता है, घर का दरवाजा सदा खुला मिलता है।
जब अपने घर का दरवाजा खुला हो तो दुनिया की राहें खुल जाती हैं।
उदारचेतना सज्जन पुरुषों को ही इसकी पहल करनी होगी।
पिता हो या भाई सबसे पहले उनको ही पहल करनी होगी।
तभी समाज में धीरे-धीरे यह रास्ता बनेगा, नजीरें बनेगी।
तब धीरे-धीरे हर महिला सशक्त होती जायेगी।
महिला सशक्तिकरण का पथ प्रशस्त होता जायेगा।
महिला सशक्तिकरण का रास्ता निकलता है सम्पत्ति के अधिकार से।
जिस दिन जिन्दगी के धरातल पर उत्तराधिकार का अधिकार मिल जायेगा।
महिलायें अपने आप सशक्त हो जायेंगी, उसी तरह जिस तरह पुरुष हैं।
समाज के रीति-रिवाज, परम्परायें, मान्यतायें भी बदल जायेंगी।
महिलाओं पर सदियों से थोपी गई दासता की भावना से मुक्ति मिलेगी।
तब हर महिला शक्तिशाली बनेगी, महिला सशक्तिकरण का सपना साकार हो जायेगा।
अन्तर्रांष्ट्रीय महिला दिवस मनाये जाने से जागरूकता जरूर आती है।
पर उत्तराधिकार में अभी सम्पत्ति का अधिकार मिलना बाकी है।
विश्वभर की महिलायें एक स्वर से कह रही हैं।
उनके मन की वीणा के तार झंकृत हो उठे हैं।
हमें हमारा हक चाहिए, सम्पत्ति के अधिकार में।
चल हो या अचल सम्पत्ति हो, चाहिए हमें उत्तराधिकार में।
एसोशिएट प्रोफेसर- हिन्दी विभाग
जगत तारन गर्ल्स पी.जी.कालेज,
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज।
मो0- 9415050933
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