तेरी गली से
तेरी गली से शब ओ रोज़ मुस्कुराते हुए
मै जा रहा था फ़क़त तित्लीयाँ उड़ाते हुए !!
तेरे हुज़ूर जो आया तो ये ज़रूर हुआ
तु रो पड़ा था मेरा क़द ज़रा बढाते हुए !!
तेरे लबों से तो कुछ ऐसी आशनाई थी
सुबह से शाम हुई उंगलीयां सजाते हुए !!
मुझे पता था कि हर ज़ख्म भर ही जाता है
हर एक ज़ख्म पे हंसता था चोट खाते हुए !!
दर – ए – सुकून तो आई नहीं कभी दुनिया
दर – ए – हबीब मगर आई ग़म मनाते हुए !!
मेरे हुक़ूक़ मुझे इस तरह से मिलते हैं
कि जैसे भीख मिले तेरे दर से जाते हुए !!