महिला दिवस काव्य प्रतियोगिता हेतु कविता – “औ” से औरत
“औ” से औरत
और भी बहुत कुछ है “औरत”
जीवन की वर्णमाला में
माँ, बहन, बेटी
बहु,पत्नी, सखी के
रिश्तों से परे भी है औरत
वो जो सुबह उठते ही
परिवार की भूख मिटाने के लिए
रसोई में जुट जाती है
घर चलाने के लिए
नौकरी पर भी जाती है
लात-घूसे ,गालियाँ खाकर भी
पति की सलामती के लिए
निर्जला व्रत करती है
देखा है मैंने औरतों को
जो अनपढ़ होकर भी
अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए
मजूरी करती हैं
दूसरों के घरों में बर्तन माँजती हैं
अपनी इज्ज़त और अमानत
गिरवी रख देती हैं
आँसुओं को पी लेती हैं
औरतें केवल रोती ही नहीं
शेरनी की तरह दहाड़ती भी हैं
अपने हक के लिए
चीखती-चिल्लाती भी हैं
अपने पंजों से नोंचती हैं
हँसुआ, कुदाल से राक्षसों का
सीना भी फाड़ देती हैं
आबरू पर बन पड़े तो
भरी भीड़ में थप्पड़ भी मार देती है
औरत केवल अपने लिए नहीं जी सकती
उसके सपने भी अपनों से जुड़े होते हैं
उसकी जीत दुनिया की जीत होती है
और इसी दुनिया के लिए
कई बार वह हार भी जाती है।
औरत में बहुत कुछ भरा होता है
फ़िर भी वह रिक्त होती है
और उसी रिक्तता में
सृष्टि की नई रचना को
असीम जगह मिलती है
पुरूष को सुख,
और प्रकृति को निरंतरता।
पुरूष के साथ बराबरी की
इच्छा रखने वाली औरत को
समझना होगा कि
वही जन्म देती है पुरूष को भी!
औरत अबूझ रहस्य है
मंदिर में स्थापित ईश्वर की तरह
जिसे देखा, छुआ जा सकता है
पर …
“औरत” के सीमित पर्यायवाची शब्द
हो सकते हैं
लेकिन उसका अर्थ अपरिमित है…
गीता टण्डन
20.1.2021