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अद्वैत

 

अद्वैत

एक स्त्री चाहिए

मन  को समझने के लिए

जिसके समा जाऊ

जार जार रो सकूँ

पोर पोर हँस सकुँ

बता सकूँ हर वो बात

जज्बात जो मन 

में उठते हो

मैं सिर्फ़ तन से नहीं

मन से भी नग्न हो सकूँ

उतार फेंकूँ सारे मुखौटे

भूला सकूँ।

माँ की तरह

तुम फेर दो हाथ बालों पर गालों पर

पुरूष होते हुए भी

सहारा  

चाहिए कभी कभी मुझे भी

बडी बहन की तरह

जो मार्ग दिखाये

एक  ऐसी स्त्री चाहिए

जिसे प्रेम करते हुए

पूजा भी कर सकूं

श्रद्धा से

जिसके नयनों को चूम सकूँ

बेटी सा

जिसके स्पर्श मात्र से

पुलकित हो उठे रोम रोम मेरा

कर दूं पूर्ण समर्पण

विगलित हो अस्तित्व मेरा

प्रकृति सा निखर जाऊ

मैं नारी सा बन जाऊं

वो विराट पुरुष बन जाएं

उसमें मैं समा आऊँ

वो मुझमें नज़र आएं

हम शंकर का अद्वैत हो जाए

एक स्त्री चाहिए

जिसे मैं उस तरह प्रेम कर सकूँ।

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© समि