महामारी का समय…
महामारी का समय ….
यह महामारी का
अपना समय है
समय सबका होता है
सबका ‘नितांत ‘अपना
कभी पूर्ण पाश्विकता का
कभी अदेखी मानवता का
और कभी..दोनों ही में
एक ही अनुपात में उलझा
यहाँ ‘नितांत अपना होना’
हर पंक्ति में अर्थ बदलता है
इसके समस्त ‘मापदंड’
इसकी क्रीड़ा में लीन
अपना ‘मैं ‘ खो बैठते हैं
यहाँ रात और दिन की
गिनती अपने कर्मों-सी
लेन और देन की तख़्ती
सबकी अपनी परिभाषा है
और सब अक्षरशः सत्य हैं
सुनना है सुनने की भाँति
लंबे होते चीत्कार को
थोड़ा-बहुत सहेज पाना
है अपने भीतर बहुत भीतर
यह एक संघर्ष है
शायद संघर्ष से अधिक
यह एक महायुद्ध है
और स्वयं को इस रच गए
चक्रव्यूह का अभिमन्यु बना
महाभारत के अक्षर पुनः गढ़ने हैं
समय का अंत है, भय निराधार है
एक सामंजस्य बना है
निस्तब्धता से कहकहों का
अब यही संपूर्णता का
न मिटने वाला आधार है
आओ! इस आधार को फिर समेट लें
हर कण में श्वास भर दें
और कण-कण लपेट लें….
(बीना अजय मिश्रा)