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मेरी मंज़िल

तुम ईंट फेंकना मैं पुल बनाऊँगी।
तुम इस पार रहना मैं उस पार जाऊँगी।

तुम बम लगाना मैं पौधे उगाऊँगी।
तुम विनाश के गीत गाना मैं पक्षियों का कलरव सुनाऊँगी।

तुम्हारी फेंकी ईंटों से मैं घबराती नहीं हूँ।
तुम्हारी फेंकी ईंटों से मैं घबराती नहीं हूँ।

सिंहनी हूँ मैं, कि गीदड़ों को मुँह लगाती नहीं हूँ।

तुम्हारी फेंकी ईंटें तुम्हारा भय बताती हैं।
मुझ से ज़्यादा ये तुम्हें भरमाती हैं।
इतिहास गवाह है,
कि हर ईंट फेंकने वाला पछताया है।
और इतिहास गवाह है,
कि हर ईंट खाने वाले ने कुछ अनोखा पाया है।

ईंट फेंकने वाले को दरकार होती है
ज़िद्दी हौसले की,
पर वो नहीं जानता
कि ईंटें, ज़िद्दी हौसले की
ख़ुराक होती हैं।
तुम फेंकते जाना,
मैं समेटती जाऊँगी।
तुम घटते जाओगे,
मैं बढ़ती जाऊँगी।

अपने भय के तुम ख़ुद शिकार हो।
और यह भय शिकार को शिकारी बताता है।

सुनो!
सुनो कि

इन ईंटों से पहले भी तोड़े होंगे तुम ने मनोबल।
और उस ध्वस्त इमारत से भी बटोरी होंगी ईंटें।
और उन ईंटों से लिखी होगी
फिर एक ध्वंस गाथा।
क्योंकि तुम यही कर सकते हो।
गढ़ना तुम ने कभी सीखा ही नहीं।
सृजन कभी तुम्हारा ध्येय नहीं रहा।
कल्पना कभी तुम्हारे स्वप्न में भी नहीं आयी।
विचारों के बीजांकुर को कभी स्वच्छ भाव-भूमि तुम दे न सके।
अपने ग़लीज़ व्यक्तित्त्व में कोई सुधार तुम कर न सके।

देखना!
देखना एक दिन
अपने भय में जीते तुम इतिहास हो जाओगे।
तुम्हारी ईंटों का हिस्सा ख़त्म हो जायेगा।
तुम्हारी ईंटों का हिस्सा ख़त्म हो जायेगा।

लेकिन!
लेकिन तब भी
ईंट खाने वाले कम न होंगे।
पुल बनाने वाले कम न होंगे।
पुल बनाने वाले कम न होंगे।

तुम अपने भय का अट्टहास करना, मैं मुक्ति का उत्सव मनाऊँगी।
तुम अपनी कारा के क़ैदी बनना, मैं उन्मुक्त गगन में उड़ान भरूँगी।

भय के इस बीहड़ में एक दिन तुम्हारे पास
केवल विभीषिकाएँ रह जायेंगी।
और पुल के उस पार मुझे मेरी मंज़िल मिल जायेगी।