कविताओं के सिरे
मेरी कविताओं के बस सिरे नहीं मिलते..
शुरुआत मिलती है क्यूँ अंत नहीं मिलते..
रंगीन पतंग सी उड़ के पहुँचती है दूर…
पीछे लौट नहीं पाती,है कैसी मजबूर..
मुरझाये फूलों सी मृत पड़ी है किताब में.
भावनाओं की ख़ाक भी होगी हिसाब में..
कितने ही शब्दों को जोड़ कर लिखी गयी..
कुछ तो छूटा है जो अधूरी सी कहीं रह गयी..
आँखों के गंगाजल से धुली पवित्र सी लगती है..
कभी मुस्कान के पैबंद में विचित्र सी लगती है..
सुनो !! तुम भी तो जानते हो ना मेरी भाषा..
पूरा करोगे इन्हे क्या मैं करूँ तुमसे ये आशा..
बस ख्याल इतना सा मायने मेरे बदल मत देना..
ना हो ना सही लौट जाओ अभी साथ मत देना..
प्रेम के बदले प्रेम, तुमसे “प्रिया ” नहीं चाहती है..
प्रेम स्वतंत्र है,ये कविता हिय से कहना चाहती है..
Priya kumaar©