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नारीत्व

डॉ अरुण कुमार शास्त्री //एक अबोध बालक // अरुण अतृप्त

टूट कर बिखरी थी
तभी तो निखरी थी
न टूटती न बिखरती
और न ही निखरती
नारी है वो बिना टूटे
तो कभी नहीं निखरती
मौक़ा देती है सभी को
टूटने की इन्तेहाँ तक
मौक़ा देती है प्रतीक्षा
करती है तुम्हे तुम्हारे
तुम्हारी हदों को पार
करने तक और तुम
उसकी इस उत्प्रेरणा का
अभिदान मान सम्मान
सब कुछ भूल जाते हो
तभी तो उस छद्म शक्ति
से भिड़ते चले जाते हो
छले जाने तक
उसको झुकता
और झुकता
देख झूठे दम्भ में
गर्वित अहंकार से बोझिल
तुम, हाँ हाँ तुम, कापुरुष
उसकी भावनाओ से
खिलवाड़ करते चले जाते हो
नपुंसक पौरुष को लेकर
इतराते हो
जिस पौरुष का प्रमाण
सिर्फ और सिर्फ
एकमात्र जी हाँ एकमात्र
स्त्री ही हो सकती है
जिस पौरुष का प्रमाण
सिर्फ और सिर्फ एकमात्र
जी हाँ एकमात्र
स्त्री ही हो सकती है
टूट कर बिखरी थी
तभी तो निखरी थी
न टूटती न बिखरती
और न ही निखरती
नारी है वो बिना टूटे
तो कभी नहीं निखरती
मौक़ा देती है सभी को
टूटने की इन्तेहाँ तक
मौक़ा देती है
प्रतीक्षा करती है तुम्हे तुम्हारे,
तुम्हारी हदों को
पार करने देने तक
फिर दिखाती है रौद्र
दुर्गा काली अम्बे सा रूप
और तहस नहस
कर डालती है समूल