बसंत (प्रेम गीत प्रतियोगिता)
प्रीत की प्यारी बनके,
सबकी दुलारी बन के,
मंह-मंह करती,
बसंत त्रृतु आ गई।
धानी चुनर पहने,
उससे मिलन करने,
सपने सुहाने ले के,
मधुमास को रिझा गई।
मंह-मंह करती,
बसंत त्रृतु आ गई।
कलियों ने राग छेड़,
भौरों के साथ खेले,
चूस के पराग रस,
देखो बलखा गई।
मंह-मंह करती,
बसंत ऋतु आ गई।
ताल तलैया देखो,
मन की गौरैया देखो,
फूल बन सरसो,
खेती में लहरा गई।
मंह-मंह करती,
बसंत ऋतु आ गई।
यौवन में निखार भर के,
फूलों से ऋंगार कर के,
देखते ही देखते,
धरती इठला गई।
मंह-मंह करती,
बसंत ऋतु आ गई।
मांग में सिंदूर भर के,
ऑंखों में नूर भर के,
चार दिन की चाँदनी,
धरती नहा गई।
मंह-मंह करती,
बसंत ऋत आ गई। -@अजय कुमार मिश्र “अजयश्री “