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आराध्या…एक प्रेम कहानी…!

आराध्या : एक प्रेम कहानी…!!!

जीवन में किसी से पहली बार मुलाकात हो..ये संयोग हो सकता है। लेकिन उस “किसी” से ही दुबारा मुलाकात हो जाए…और मुलाकात ऐसी कि रोज़ ही उससे रूबरू होना  पड़े…बेशक एक दिलचस्प संयोग होता है।

ये बात है २००६ की। स्नातक में प्रवेश हेतु काउंसलिंग का  दिन था। ऋषभ…अपने निर्धारित कक्ष की तलाश कर ही रहा था कि…उसके सामने अचानक ही आ गई थी सुंदरता की एक मूरत, श्वेत नील परिधान में लिपटे हुए, पूर्ण आत्मविश्वास से भरी हुई, मुस्कान ऐसी कि जैसे कोई मंझी हुई फिल्मी अदाकारा, क़दमों में इतना विश्वास कि उनका दुपट्टा, विजय पताका की तरह फेहरा रहा था। दृष्टि स्थिर हो गई….इक टक।

अभी अभी छोटे से शहर से एक बड़े शहर में कदम रखा था…ऋषभ ने। एक संकोची स्वभाव का दुबला पतला सा एक सामान्य लड़का था वो। किसी से भी स्वछंद व मुक्त भाव में बात कर पाना शायद उसके लिए संभव ना था…फिर ये तो अप्रतिम और बेहद ही खूबसूरत छवि के थे। ऋषभ का संकोच, उसकी त्वरित अभिलाषा पर भारी था। जब तक कि उसकी नज़रें, उस सुंदर अदाकारा का दीदार कर पाती…वो छवि कहीं लुप्त हो चुकी थी। हां…ये थी पहली मुलाकात… महज़ एक संयोग।

अब बारी थी…दिलचस्प संयोग की। ऋषभ को प्रवेश मिला था डी. ए. वी. कॉलेज में। अगले दिन जब ऋषभ पहुंचा था अपने कॉलेज… मन अचंभित हो उठा। वहीं अदाकारा पुनः एक बार उसके सामने थी। वहीं कॉलेज, वहीं क्लास, वहीं सेक्शन…दिलचस्प संयोग था ये तो।

इश्क़ नहीं था वो लेकिन इश्क़ से कुछ कम भी नहीं था। १८ वर्ष की उम्र लिए हुए, ऋषभ एक आकर्षण में था…उस आकर्षण में…जिसका वो अभी तक नाम भी नहीं जानता था। खैर…संयोग कुछ इस तरह दिलचस्प था कि…अब तो एक ही क्लास में बैठना था। तो ऋषभ ने भी अपनी भावनाएं व्यक्त करने में कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई।

आराध्या…! हां आराध्या नाम था उस अदाकारा का। बेहद ही शांत स्वभाव। ना किसी से बात करना, ना ही अनावश्यक का कोई क्रियाकलाप। बस तीन चार घंटे में दो या तीन बार मुस्कुरा देते थे वो। उस मुस्कान पर बरबस ही कोई आसक्त ना हो जाए…तो मेरा मानना है कि वह व्यक्ति इंसान नहीं हो सकता। ऋषभ के हृदय में जो इकतरफा प्रेम की अनुभूति थी…उसके लिए तो आराध्या की वो दो तीन मुस्कान ही काफी थी। यद्यपि उनकी मुस्कान कभी भी ऋषभ की ओर उन्मुख नहीं थी…फिर भी इश्क़ में कल्पनाएं भी तो कोई चीज होती हैं।

वैसे ऋषभ का ध्यान पढ़ाई की ओर जरूर था…लेकिन पढ़ाई के बाद कहीं ध्यान था…तो वो था आराध्या का ध्यान अपनी ओर खीच पाने में, जिसमें वो अभी तक तो पूरी तरह असफल था।

इश्क़ में कोई प्रतिद्वंदी ना हो…ऐसा भी भला हो सकता है क्या…?? तो ऋषभ के प्रतिद्वंदी थे भैया विजय धर त्रिपाठी। मुस्कुराते तो बहुत थे बंधु…लेकिन ज़रा ज़रा सी बात पर क्रोधित हो जाना भी उनके व्यक्तित्व में चार चांद लगा देता था। भावनाओं को तुरंत व्यक्त कर देने की कला में माहिर थे वो। पक्के बनारसी थे भैया विजय धर त्रिपाठी। जहां ऋषभ अपनी खामोशी को ही इश्क़ की राह बना बैठा था…वहीं भैया विजय धर त्रिपाठी ठान लिए थे कि इश्क का शोर वो इतना कर देंगे कि ऋषभ की खामोशी को हार मानना ही पड़ेगा।

आराध्या का व्यवहार शुरू शुरू में तो सभी के प्रति सामान्य ही था। लेकिन थे तो वो भी बनारसी ही। एक बनारसी, बनारसी को ज्यादा जल्दी समझ लेता है…ऐसा ऋषभ का सोचना था। तो एक भय हमेशा ऋषभ को सताता रहता था… कि सच में कहीं भैया विजय धर बाज़ी ना मार जाएं।
प्रथम वर्ष बीता  किसी तरह।

भैया विजय धर त्रिपाठी का भौकाल चरम पर था। ऋषभ से पढ़ाई में भले नहीं…लेकिन इश्क़ की राह में दो चार कदम आगे ही थे वो। शायद आराध्या के हृदय को प्रभावित करने में सफल भी हो गए थे। वैसे तो मित्र मानते थे वो ऋषभ को…लेकिन आराध्या के विषय में एक से एक बाते बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत करते थे। ऋषभ को वो पूरा यकीन दिलाना चाहते थे…अपनी विजय का।

धीरे धीरे ऋषभ को भी यकीन हो चला था कि आराध्या भी भैया विजय धर को पसंद तो करती ही हैं। लेकिन ऋषभ का ध्येय तो कभी आराध्या को पाना था ही नहीं। पहली मुलाकात से ही वो तो बस मोहित था उनकी छवि पर…उनकी एक मुस्कान पर। प्रेम में तो त्याग की भावना होनी चाहिए…कहीं पढ़ा था उसने। किसी के प्रेम को हृदय में बसा कर प्रसन्न रहना भी तो प्रेम पर विजय प्राप्त करने जैसा ही है। ऋषभ के अंतर्मन में उत्पन्न हुए यही विचार तब और भी ज्यादा मजबूत हो गए, जब एक दिन अचानक भैया विजय धर त्रिपाठी…ऋषभ को बुलाए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय स्थित वीटी टेंपल पे…अपनी विजय गाथा सुनाने और उसका प्रमाण देने। जैसे ही ऋषभ वीटी पहुंचा, आराध्या उसके सामने से निकली। देखा था उसने एक नज़र ऋषभ की ओर…लेकिन नज़रें फेर कर वो सीधे निकल गईं। और पीछे खड़े थे…भैया विजय धर अपनी चिर परिचित विजयी मुद्रा में। ऋषभ समझ गया था कि विजय धर क्या बोलने वाले हैं।

“देखा…डेट पर आए थे आज…!” आवाज़ में एक तंज़ था विजय बाबू के।
“आज के समय में सिर्फ चुपचाप देखते रहने से कुछ नहीं होता। मन की बात दिल से निकाल के सामने बोलनी पड़ती हैं। लेकिन ऋषभ भाई तुम्हारे बस की ये बात नहीं।” भैया विजय धर बोले ही जा रहे थे।

लेकिन ऋषभ एक खामोश चिंतन में डूबा रहा…जैसे कुछ सुना ही नहीं।
“क्या यही प्रेम है??? ऐसा क्या था भैया विजय धर में…जो मेरे पास नहीं??? पढ़ाई में भी तो मैं विजय से अच्छा हूं…कभी भी बुरी नज़र से देखा नहीं???” हजारों सवाल ऋषभ के अंतर्मन में युद्ध कर रहे थे। ” क्या सच में आराध्या ने विजय धर के प्रणय निवेदन को स्वीकार कर लिया था???” सोच सोच के ऋषभ व्याकुलता के सागर में डूबा जा रहा था।

“नहीं…!! आराध्या इतनी सुंदर है। अप्सरा सी सुंदर आराध्या कैसे विजय धर जैसे  लोगों की बातों में आ सकती है???” ऋषभ के विचारों ने पलटी मारी। लेकिन ऋषभ ये सब क्यूं सोच रहा था। क्या उसे भी वैसा ही प्रेम था आराध्या से…जैसा विजय धर करता था।

“नहीं…धिक्कार है…ऋषभ तुझको…! आराध्या को तू आदर्श मानता है। जिस मूरत से प्रेम करते हैं…उसकी पूजा करते हैं। तू कैसी मानसिकता से प्रेरित हो रहा है?? क्या अंतर है तुझमें और विजय धर में। धिक्कार है तुझको…!” ऋषभ का अंतर्मन उसे कोस रहा था।

“ऋषभ…!!! तू ही विजयी हुआ है। तेरा प्रेम अब निष्काम है। आराध्या तो तेरी ही आराधना का एक भाग है। कभी उसने तुझे हेय दृष्टि से देखा है क्या??? कभी तुझे नीचा दिखाया है क्या??? नहीं…!! व्यर्थ में परेशान है तू।”

ऋषभ के हृदय में आराध्या के प्रति प्रेम  और भी प्रगाढ़ होता जा रहा था। मंद मंद  मुस्कान लिए…वो चल पड़ा था अपने घर की ओर…आराध्या की उसी मुस्कान को याद करते हुए…जब उसने पहली बार उसका दीदार किया था…और आसक्त हो गया था उसके उस मोहक रूप को देखकर।

सादर,
ऋषि देव तिवारी