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रीनू पाल की लघुकथा “सपनों का घरौंदा”

उत्तर प्रदेश के छोटे से गाँव की रहने वाली थी मन्नत। मन्नत अपने
माता-पिता की इकलौती संतान थी। शादी के लगभग 8 वर्ष बाद ईश्वर से बहुत मन्नतें मांगने के बाद पैदा हुई थी इसलिए बाबा ने उसका नाम मन्नत रखा था। मन्नत देखने में बहुत ही खूबसूरत और स्वभाव से शांत मिजाज की थी। हमेशा सबके साथ प्यार से पेश आती थी। वह अपने मां-बाबा की बहुत लाडली थी मन्नत के माँ – बाबा गरीब थे लेकिन उसे कभी किसी चीज की कमी महसूस नहीं होने देते थे। उन्होंने उसे बड़े ही नाजों से पाला था। अच्छी पढ़ाई, ऊंचे घराने में शादी उसके लिए लाखों सपने सँजो रखे थे। बचपन से ही उसकी शादी के लिए एक – एक पैसा जुटा रहे थे। धीरे- धीरे समय बीता। अब मन्नत बड़ी हो गई थी। आज उसे कुछ लोग देखने आने वाले थे। वे बहुत पैसे वाले और ऊंचे घराने के लोग थे। बाबा उनके स्वागत- सत्कार में कोई कमी नहीं छोड़ना चाहते थे। माँ रसोईघर में तरह- तरह के पकवान बना रही थी। मन्नत भी रसोई में अपनी माँ का हाथ बँटा रही थी। बाबा दरवाजे पर उनकी राह देख रहे थे। जब वे लोग आए तो बाबा उन्हें अपने साथ अंदर ले आए। बाबा ने उन्हें पौर में बैठाया और उनका खूब स्वागत – सत्कार किया। कुछ देर बाद मन्नत धीमें कदमों से सहमते और शर्माते हुए तश्तरी में मिठाई लेकर आई। मन्नत ने सभी को नमस्ते किया। बाबा के आँखों के इशारे को समझते हुए उनके बगल में पड़ी खाली चौकी पर बैठ गयी। मन्नत सबको एक नज़र में ही पसंद आ गई। रिश्ता तय हो गया। मन्नत के माँ – बाबा बहुत खुश थे। उन्होंने बचपन से मन्नत को एक सम्पन्न परिवार में ब्याहने का जो सपना देखा था। वह सच होने जा रहा था। मन्नत के माँ – बाबा बरसों से जिस दिन का इंतजार कर रहे थे। आखिर वह घड़ी आ ही गई।
आज मन्नत की शादी का दिन था। सब तैयारियों में जुटे थे। मन्नत का छोटा सा घर रिश्तेदारों से लबालब भरा था। पूरे घर में ढोलक और गानों का स्वर गूँज रहा था। कभी मेंहदी तो कभी हल्दी की रस्में हो रही थीं। दिन ढला गाजे – बाजे के साथ बारात आयी। बारातियों की खूब आवभगत की गयी। फिर जयमाला कार्यक्रम हुआ। तत्पश्चात फेरों और कन्यादान की बेला आयी। पंडित जी मंत्र उच्चारण करते हुए वैवाहिक रस्मों को संपन्न कर रहे थे। अब वर – वधू को फेरों के लिए खड़ा किया गया। जैसे ही एक फेरा पूर्ण हुआ। दूसरा फेरा लेने के लिए मन्नत ने पग बढ़ाया ही था तभी पीछे से एक शोर मन्नत के कानों में पड़ा घबराते हुए जैसे ही मन्नत ने पीछे मुड़कर देखा। उसकी आंखे फटी रह गयी। उसके बाबा की पगड़ी उसके होने वाले ससुर के पैरों में थी। और उसके बाबा घुटनों के बल बैठ, हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हुए, “शादी ना तोड़िये समधी जी की प्रार्थना कर रहे थे।” ससुर ऊँ चे स्वर में बोल रहे थे, “ जब तक दहेज़ पूरा नहीं मिलेगा तब तक ये शादी नहीं हो सकती। एक भी पैसा कम नहीं चलेगा।” बाबा का गला भरा हुआ था। वह लड़खड़ाती जुबान में कहते जा रहे थे, “मैं पाई-पाई चुका दूंगा कृपा करके आप ये शादी मत तोड़िये।” मन्नत शादी के रस्मों रिवाज़ की परवाह ना करते हुए मंडप से बाहर कदम बढ़ाते हुए पहुँची और अपने दोनों हाथों से सहारा दते हुए अपने बाबा को उठाया और पगड़ी को सर पर रखते हुए तेज स्वर में बोली, “आपको मेरे बाबा का अपमान करने का कोई अधिकार नहीं है। आप क्या तोड़ेंगे, मैं स्वयं तोड़ती हूँ ये शादी।” बाबा पहली बार शान्त और सरल स्वाभाव वाली अपनी मन्नत को किसी से ऊंचे स्वर में बात करते देख आश्चर्यचकित थे। किंतु अन्याय के विरुद्ध मन्नत को आवाज उठाते देख गर्व भी महसूस कर रहे थे। बारात वापस चली गयी सबकी आंखे नम थी। आज माँ – बाबा का हृदय बिलख -बिलख कर रो रहा था। उन्होंने बचपन से मन्नत के लिए तिनका – तिनका जोड़ कर जो सपनों का घरौंदा बनाया था। आज वह बिखर चुका था। आज एक बार फिर दहेज़ प्रथा जैसी कु प्रथा ने एक और परिवार को तोड़ के रख दिया था।
आज भी दहेज़ प्रथा जैसी कुप्रथा हमारे समाज में वट वृक्ष के समान अपनी जड़े पसारे है। मन्नत की तरह हम सबको इसके खिलाफ आवाज उठाने की आवश्यकता है वरना हम और हमारा समाज इससे कभी उबर नहीं पाएंगे। मन्नत के परिवार की तरह ना जाने कितने परिवार इसके शिकार होते रहेंगे। अतः यदि हम सब भी मिलकर साहसी मन्नत की तरह अपने आत्मसम्मान के किए इस कु प्रथा के विरुद्ध आवाज उठायेंगे तो यक़ीनन एक दिन इससे निजात पा सकेंगे।

रीनू पाल “रूह”
शिक्षिका
जनपद- फतेहपुर, उत्तर प्रदेश