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संघर्ष : संघर्षविराम ( भाग ७ )

संघर्षविराम…!!!

दिन बीतते रहे। साल जाते रहे। अनगिनत समस्याएं आयीं , परंतु राधेश्याम के संकल्पों और दृढ़ इच्छाशक्ति के सम्मुख उन कठिनाइयों को परास्त होना पड़ा।

शिक्षा के क्षेत्र में राधेश्याम के बच्चों ने भले ही कोई अभूतपूर्व कीर्तिमान स्थापित ना कर पाया हो…परंतु उन बच्चों ने कभी उसे निराश भी नहीं किया था। दसवीं और बारहवीं में रोहन जब प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ…तो राधेश्याम ने खुशी जाहिर करते हुए और अधिक मेहनत करने की राह पर रोहन को अग्रसित किया।

अभावों के सागर से राधेश्याम एक एक मोती चुन चुन कर अपने बच्चों के भविष्य की माला को बुनता जा रहा था।

नवंबर महीने की शुरुआती ठंड थी। राधेश्याम यूं ही घर में बैठा कहीं खयालों में डूबा हुआ था। तभी अचानक फोन की घंटी बजती है।

“हैलो…पापा…प्रणाम…!!” रोहन का फोन था।

“हां…बोलो बेटा…??” राधेश्याम ने पूछा।

“पापा…नौकरी लग गई मेरी…! आशीर्वाद दीजिए।” रोहन आत्मविश्वास से भरा हुआ था।

एक सहकारी संस्थान में एक अधिकारी के पद पर रोहन चयनित हुआ था। राधेश्याम की आंखे आज सजल हो उठी थी। खुशी के आंसू थे ये।

दशकों के दुखों का ऐसा सुखद परिणाम…!! आह…!! हे ईश्वर…तेरे घर में देर है…अंधेर नहीं। आज राधेश्याम बहुत खुश था। कुसुम भी बहुत खुश थी। त्याग से भरा हुआ उसका मातृत्व आज विजयी हुआ था।

जिनकी नज़रों में राधेश्याम की कभी कोई अहमियत नहीं थी…आज अचानक से वो सभी उसके हितैषी बन बैठे थे। बधाइयों और शुभकामनाओं का दिन था। राधेश्याम और कुसुम का अंतर्मन किसी उत्सव भाव से आह्लादित हो उठा था। और हो भी क्यूं न…राधेश्याम और कुसुम के संघर्ष और सकारात्मक सोच ने ही तो आज उन्हें ये मुकाम दिया था। परिस्थितियों से लड़ कर उसने अपने वर्तमान को लिखा था।

सकारात्मकता की राह पर, राधेश्याम के संघर्षों की कहानियां, निश्चित रूप से रोहन को जीवन पर्यन्त एक शिक्षा देती रहेंगी…माता पिता के ऋण से उसे कभी विमुख नहीं होने देंगी।

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