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चाय भाग ४ : प्रणय निवेदन वाली चाय…!!

प्रणय निवेदन वाली चाय…!!!

सुबह से ही आज घने बादल थे। बस बारिश नहीं हो रही थी। मानसी अकेले ही घर में पड़ी पड़ी बार बार खिड़की से बादलों की ओर निहार रही थी। तभी घर की डोर बेल बजी। डोर बेल लगातार ही बजती जा रही थी।

“अरे…आती हूं भाई…कौन है…??? दरवाज़ा ही तोड़ दो…इससे अच्छा तो…!!”  खुद से ही बात करते मानसी ने दरवाजा खोला।

“दीदी… मैं आ गई…!!” प्रीती ने मानसी को गले से लगाते हुए बोला।

” अच्छा तो तुम हो ये…घंटी पे घंटी बजाए जा रही… मैं सोच रही कौन है ये पागल…!!” मानसी हसते हुए बोली।

“हां… मैं ही हूं वो पागल….दीदी। चलो आप बैठो…आज मैं बनाती हूं…चाय आपके लिए….चार चम्मच शक्कर वाली…!!!” प्रीती ने बड़े ही चुलबुले अंदाज़ में बोला।

“ठीक है बाबा…तुम्हीं बनाओ…लेकिन मैं एक बात बोलूं…मुझे तुम दीदी ना बुलाया करो…आंटी बोला करो।” मानसी ने प्रीती से कहा।

“अरे…क्यूं…आप आंटी लगती ही नहीं..!!! मुझसे चार पांच साल ही तो बड़ी होगी आप…??” प्रीती ने मानसी से अपने बात की सहमति मांगी।

“तुम्हारे जितना बड़ा तो मेरा बेटा है….!” मानसी , प्रीती के गालों पर स्नेह भरे हांथ फेरती हुई बोली।

” ओहो…ये तो मैं पूछना ही भूल गई… कौन कौन है आपकी फैमिली में..??” प्रीती ने रसोई से ही पूछना शुरू किया।

“फिर हाल तो मैं…यहां अकेली ही हूं। बैंगलोर में मेरे पति हैं…दिल्ली में मेरा एक बेटा है…और बेटी भी वही है। बेटी की शादी हो गई। बेटा वहां जॉब करता है…विवेक नाम है उसका।”

“अच्छा…! तभी कोई दिखाई नहीं देता यहां।” प्रीती ने हामी भरी।

“हां…लेकिन विवेक से आज मिल लोगी तुम…रास्ते में है वो…आ ही रहा होगा…मैंने बुलाया है उसे…!!!” मानसी बोली।

“अच्छा…तो तीन कप चाय बना दूं क्या…??” आज प्रीती काफी प्रसन्नचित थी।

विवेक…एक सौम्य हृदय, आज्ञाकारी व सामान्य सा लड़का था। बचपन से मानसी ने ही उसे मां और बाप दोनों का प्यार दिया। आज मानसी ने उसे प्रीती से मिलवाने के लिए ही बुलाया था।

“कैसे कहूंगी विवेक से??? कैसे प्रस्ताव रखूंगी उसके सम्मुख… प्रीती का..??? क्या विवेक मेरी बात मानेगा…??? फिर उसके पापा को कौन समझाएगा…?? सबको समझा लो…फिर प्रीती को भी तो राज़ी करना पड़ेगा।” अनगिनत सवाल थे मानसी के मन में।

दोनों चाय पी ही रहे थे कि…विवेक आ गया।

” मां…कैसी हो..??” पैर छूते हुए विवेक ने पूछा।

“मस्त…तुम कहो..?? इतनी देर कहां कर दी आने में…??” इससे मिलो….ये प्रीती है…मेरी टी पार्टनर…!!” मानसी ने प्रीती की ओर इशारा करते हुए कहा।

दोनों ने हांथ उठा कर एक दूसरे का अभिवादन किया…”हाई….!!”

“अच्छा तो मैं चलती हूं दीदी…..आ…आ…. सॉरी…आंटी..” प्रीती मुस्कुराती हुई चल दी।

रात के नौ बज रहे थे। बारिश के बादल छंट गए थे। चांदनी रात थी। विवेक और मानसी छत पर बैठे लूडो खेल रहे थे।

“विवेक…अगर मैं कहूं कि मैंने तुम्हारी शादी के लिए एक लड़की पसंद कर ली है…??” मानसी ने विवेक की ओर देख कर बोला।

“कौन…?? वो प्रीती से…??” विवेक ने मानों मानसी के मन की बात पढ़ ली थी।

“तुझे अच्छी लगी वो…???” मानसी उत्साहित हो कर विवेक की ओर उन्मुख हो गई।

” हां…लड़की जैसी है…उसमे अच्छा और बुरा क्या लगना…??” विवेक चुप हो गया। काफी देर तक दोनों चुप ही बैठे रहे।

“हां…तो शादी पक्की समझूं मैं…??” विवेक ने हंसते हुए कहा।

“विवेक… प्रीती एक विधवा है…!” मानसी की आंखे बिल्कुल विवेक के चेहरे पर ठहरी हुई थी।

“क्या…??? ये क्या कह रही हो मां…?? और तुम मेरी शादी उससे कराना चाहती हो?? पूरी दुनियां में अब लड़कियां ही नहीं बची…?? मजाक कर रही हो ना…??” विवेक का नाराज़ होना शायद स्वाभाविक भी था।

“अच्छा…तो क्या कमी है उसमें…??? विधवा होना तुम्हारी नज़र में कमी है क्या??? यही कारण है कि उससे तुम्हारा विवाह नहीं हो सकता??? फिर तो तुम्हे मुझे भी अस्वीकार कर देना चाहिए??”

“मां…!!! अब तुम्हारी और प्रीती की क्या तुलना है…??” विवेक कटाक्ष करता है।

“क्यूं…अगर… प्रीती एक विधवा है…फिर तो मैं भी एक विधवा ही हुई ना…उसके भी पति नहीं हैं??? मेरे भी नहीं हैं??? क्या अंतर है…मुझमें और उसमे…अगर सिर्फ पति का होना ना होना ही एक स्त्री को विधवा का दर्ज़ा दे सकता है तो… पिछले चार सालों से तुम्हारे पापा ने कभी मेरी खबर नहीं ली…कभी मुझसे मिलने नहीं आए…!” मानसी की आंखें भर आयी थी।

“मां…ये कैसी बात कर रही तुम…??” विवेक ने अपने हांथ मानसी के मुख पर रख दिए।

” बात तो सही है…कैसा घिनौना शब्द है ये…विधवा…!!! जब मैं अपनी मां के लिए ऐसे शब्द नहीं सुन सकता…तो उस दुखियारी प्रीती के लिए…!! उसमे उसका क्या दोष। कैसा अज्ञानी हूं मैं?? बल्कि सामान्य लड़कियों की अपेक्षा तो प्रीती को और अधिक संबल की आवश्यकता है। उसे एक ऐसे साथी कि जरूरत है…जो उसे यह विश्वास दिला सके… कि वो उम्र भर उसका साथ देगा। उसके हर दुख सुख में साथ रहेगा। फिर मां ने कहीं ना कहीं प्रीती में अपनी ही कोई ना कोई प्रतिमूर्ति देखी होगी…तभी तो मेरे लिए चुना उसको। कोई भी मां अपने बेटे के लिए बुरा क्यूं चाहेगी।” विवेक अपराधबोध में धंसा जा रहा था।

“मां…मुझे माफ़ कर दो…!!! मैं स्वार्थी हो गया था। समाज के दिखावे में खुद को भुला बैठा था। सोचा…लोग क्या कहेंगे?? मैं क्या जवाब दूंगा खुद को…ये सोच ही नहीं पाया। तुम्हारे विचारों से मेरा जरा भी विरोध नहीं। माफ़ कर दो…!” विवेक ने मानसी को गले से लगा लिया था।

हमारा समाज अपनी सुविधानुसार नियमों और सिद्धांतों को अपनाता है। उन नियमों की व्याख्या करता है। लेकिन समाज के बने बनाए दकियानूस नियमों के विरुद्ध जाकर आज सोचने की आवश्यकता है। जन मानस की भावनाओं को महसूस करने की आवश्यकता है।

शाम की चाय का वक़्त था। आज प्रीती के घर पर मानसी के साथ विवेक भी गया हुआ था।

“प्रीती…अगर तुम्हे कोई ऐतराज़ ना हो…तो मेरी ये दिली ख्वाहिश है कि तुम्हारी चाय मुझे इस जन्म में यूं ही रोज़ मिलती रहे। तुम मुझे अगर अपने योग्य समझो तो…मुझे स्वीकार करो।” विवेक ने अपना प्रणय निवेदन प्रीती के सम्मुख रख दिया था।

प्रीती की आंखों के आंसुओं ने विवेक का प्रणय निवेदन स्वीकार कर लिया था। मानसी ने उसे गले से लगा लिया।

“बैठो तुम दोनों…बातें करो… मैं सबके लिए लाती हूं…चाय बना कर…चार चम्मच शक्कर वाली खूब मीठी चाय….!!” मानसी ये कहते हुए रसोई की ओर चल दी।

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