चाय भाग १ : परिचय….!!!
परिचय…!!!
चाय…! प्रथम दृष्टया ये शब्द सुनते ही किसी देश भक्त को तो यही लगता होगा… कि अंग्रेजियत का ये फॉर्मूला आज हम भारतीय अपने मत्थे लिए ढो रहे हैं। लेकिन चाय का जो भारतीय स्वरूप मेरे मानस पटल पर उत्पन्न होता है…. वह थोड़ा भिन्न है। चाय एक ऐसा साधन है…जिसके माध्यम से लोग विचारों व स्वप्नों के सागर में गोते लगाते हैं। चाय एक ऐसा साथी है…जिसके साथ लोग मन ही मन अनगिनत यादों का सफर तय कर लेते हैं।
मानसी, सुबह सुबह करीब ६ बजे… चाय की प्याली लिए अपने बरामदे में बैठी किसी दिवा स्वप्न में खोई हुई थी। ये आज कोई पहली बार नहीं था। रोज़ तड़के उठ जाना…नित्य क्रियाओं के बाद यूं चाय ले कर स्वप्नों में कहीं खो जाना….उसकी दिनचर्या में शामिल था। लेकिन आज के चाय की चर्चा इसलिए की गई है यहां…क्यूं कि आज किसी ने इस बात को संज्ञान में लिया है…नोटिस किया है।
प्रीती, अभी अभी मानसी के पड़ोस में रहने आयी है। पच्चीस वर्ष की प्रीती, नगर निगम ऑफिस में एक सहायक के पद पर कार्यरत है। वैसे तो उसका रूप अत्यंत मोहक और आकर्षक है, किन्तु अनापेक्षित दुर्घटनाओं ने उसके चेहरे के तेज को मानो छीन सा लिया है। प्रीती, देश पर शहीद हो चुके एक वीर की नवविवाहित विधवा है।
“विधवा”…कैसा शब्द है ये??? अजीब…बहुत अजीब…! किसी स्त्री को शाब्दिक रूप से कमजोर प्रदर्शित करने के लिए शायद इससे बड़ा कोई शब्द नहीं हो सकता। स्त्री कितनी भी सबल क्यूं ना हो…कितनी भी मानसिक शक्ति से मजबूत क्यूं ना हो…ये शब्द समाज की निगाहों में उसे दया का पात्र बना ही देता है।
खैर, प्रीती तो एक वीरांगना है…जिसने कभी भी अपनी सुन्दरता और यौवन का सहारा लेकर अपने पति को देश सेवा की राह से विचलित नहीं किया। उसे याद है…जब वो नई नई शादी कर के आयी थी…पूरे गांव में सिर्फ उसकी सुंदरता के ही चर्चे थे। सशक्त इतनी कि…कभी भी पति के शहीद हो जाने का भय नहीं रहा उसको।
आज प्रीती ने जब मानसी को इस तरह चाय की प्याली लिए किसी स्वप्न में बिल्कुल उदास सा देखा तो….उसने खुद को मानसी की जगह पाया। कैसे वो खो जाया करती थी। कुछ तो समानता थी…उसमे और मानसी में। रोज़ वो दोनो चाय की प्याली लिए कुर्सी पर बैठती तो थी…चाय पीने…लेकिन दो चुस्कियों के बाद वो चाय कभी खत्म नहीं हो पाती थी…दोनों अपने अपने स्वप्नों में कहीं खो जाया करती थीं।
करीब एक महीने हो चुके थे… प्रीती रोज़ मानसी को भरी निगाहों से देखती रहती…लेकिन कोई प्रतिक्रिया ना मिल पाने के कारण कुछ बोल नहीं पाती। लेकिन आज प्रीती ने ठान ही लिया था कि बात तो हो के रहेगी। उसकी उत्सुकता के तूफ़ान रोज़ विशाल हिलोरों के साथ मानसी के बिल्कुल करीब जा कर लौट आते थे।
लेकिन आज प्रीती ने बोल ही दिया,
“दीदी…नमस्ते…! मेरा नाम प्रीती है। मैं यही नौकरी करती हूं…!”
“नमस्ते…!!!” मानसी से इतने अल्प प्रतियुत्त्तर की आशा नहीं थी प्रीति को।
“दीदी…आइए ना चाय पीते हैं…रोज़ रोज़ यूं ही अकेले अकेले चाय पीना भी कोई चाय पीना हुआ ???” प्रीती ने बात को थोड़ा आगे बढ़ाया।
चाय के आशिक़ कभी चाय को इनकार नहीं करते। बस लग गई दो कुर्सियां आज प्रीती के बरामदे में। और बन गई दो प्याली चाय। अब मानसी और प्रीती दोनों के बरामदे में…दो दो कुर्सियां थी। दोस्ती हो गई थी दोनों की। चाय की दोस्ती थी ये…भावनाओं की नहीं।
कहानी अभी जारी है…😊😊