1

प्रतिशोध भाग ४ : अवसान…!!!

अवसान….!!!

अंधेरे का रंग ज्यादा गाढ़ा और गहरा होता है। कुविचारों का प्रभाव भी सुविचारों पर जल्दी ही होने लगता है। अविनाश के मन की नकारात्मकता भी उस पर पूरी तरह हावी होती जा रही थी।

सुमन के बारे में जो स्वप्न उसने देखा था…उसका ह्रदय ना जाने क्यूं उसे सच मान बैठा था। अपने विचारों के इसी आपाधापी में, अविनाश बीच रास्ते में ही बस से उतर गया। जिस विश्वास से उसने अपने पापा को सुमन के भरोसे छोड़ा था, वो मात्र एक स्वप्न के कारण खत्म सा हो गया। बस से उतरते ही अविनाश ने सोचा क्यूं ना सुमन को फोन लगा के बात की जाए। लेकिन ये क्या…जल्दबाजी में वो अपना मोबाइल फोन बस में ही भूल गया। खुद की गलती का गुस्सा उसने अपने हांथों पर उतार दिया और ज़मीन पर जोर से अपना हांथ दे डाला।

रात के दस बजे होंगे। चन्द्र की रोशनी हर तरफ अपनी चांदनी फैलाए हुए थी। अविनाश एक सुनसान सी सड़क पर बैठा गोरखपुर जाने वाली बस का इंतजार कर रहा था। अविनाश को लगा कोई उस पर हंसे जा रहा है। कौन है ये?? अरे ये तो मेरी परछाई है।

“क्यूं अविनाश….!! बड़ा चालाक बनता था ना?? बदला लेगा तू सुमन से??? हा हा हा हा… देखा कैसे फंस गया सुमन के जाल में। तूने तो बस उसकी शादी तुड़वाई…फिर से हो जाएगी। वो इतनी सुंदर है। कौन उसका वरण नहीं करना चाहेगा। तेरे हृदय में भी तो फिर से प्रेम जागृत हो ही गया था…उसके लिए। लेकिन तू अपने पिता जी  को दुबारा कैसे पा सकेगा। स्वप्न नहीं था वो…सच्चाई थी। सुमन का स्वांग था वो। और तू कैसा एक बालक के समान फंस गया।”

अविनाश चिल्लाया, ” चुप हो जा। सुमन ऐसी नहीं है। वो कभी भी ऐसा नहीं कर सकती।”

“हा…हा…हा…हा….क्यूं नहीं कर सकती?? क्यूं कि वो एक स्त्री है?? अबला है?? तू एक पुरुष है तो कुछ भी कर सकता है। तुझसे बड़ा मूर्ख नहीं इस दुनिया में। इतना ही भरोसा था उसपर तो क्यूं उतर गया बस से। क्यूं बेचैन है वापस गोरखपुर जाने को।”

अविनाश को कुछ सूझ नहीं रहा था। ये क्या हो रहा था उसके साथ। उसी के मनोभाव उसे धिक्कार रहे थे। फिर कोई बस भी नहीं आ रही थी। मन के इन्हीं उहापोहों के बीच अविनाश सारी रात वहीं सड़क पर बैठा रह गया। तब जा कर सुबह उसे बस मिल पाई। गोरखपुर पहुंचते पहुंचते दोपहर हो चुकी थी। अविनाश सीधे हॉस्पिटल पहुंचा।

“अरे…ये बेड तो खाली है। पापा कहां गए?? सुमन भी कहीं दिखाई नहीं दे रही।” अविनाश के मन में हजारों सवाल उमड़ रहे थे।

एक नर्स से उसने पूछा, ” सिस्टर, पापा कहां है मेरे। मेरा मतलब है विद्याधर पांडेय यहां एडमिट थे कई दिनों से।”

” वो तो डिस्चार्ज हो गए कल शाम को ही। उनकी बेटी लिवा गई उनको।” नर्स ये कहते हुए निकल गई।

“बेटी…उनकी बेटी…लेकिन मेरे सिवा और कौन है उनका इस दुनिया में। हां ज़रूर ये सुमन के बारे में बोल रहे होंगे। कैसी मायावी है ये सुमन..! बेटी का दर्ज़ा भी ले लिया। छोड़ो…! शायद घर चले गए होंगे वो लोग।” एक क्षणिक तसल्ली लिए हुए अविनाश भागता हुआ घर पहुंचा। लेकिन घर पर लगा ताला देख कर तो वो भौचक ही रह गया। उसका धैर्य अब खोने लगा था।

“अरे कहां गए होंगे पापा..!! कहीं कुछ अनहोनी तो नहीं हो गई..!!” अविनाश समझ ही नहीं पा रहा था क्या हो रहा है। आसपास पूछने पर पता चला कि घर पर तो कई दिनों से ताला लगा हुआ है।

अविनाश को पूरा यकीन हो गया था, हो ना हो सुमन ने ही मुझसे बदला लेने के लिए कोई ना कोई स्वांग रचा है। मेरे विश्वास का फिर से फायदा उठाया है। अपना सर पीटते वो वहीं जमीन पर लेट गया। विवेकहीन और विचारशून्य हो गया था वो। कुछ समझ में नहीं आ रहा था क्या करे। कहां जाए??
“लेकिन सुमन तो उस दिन माफी मांगने आयी थी मुझसे। मैं क्यूं बेवजह शक किए जा रहा उसपर। मुझे लखनऊ ही जाना होगा। हो सकता है उसने मुझे फोन किया हो। मैंने फोन गुमा दिया। या फिर कोई मैसेज किया हो शायद।” अविनाश तर्क वितर्क में डूबा जा रहा था।

बिना किसी देरी के अविनाश निकल पड़ा वापस लखनऊ के लिए। एक एक मिनट एक एक दिन सा लग रहा था उसको। सुमन को लेकर ना जाने क्या क्या भाव उसके मन में आते जा रहे थे। फिर अपने पिता जी को लेकर भी अविनाश चिंतित हुआ जा रहा था। सुबह सुबह ही वो सुमन के घर पहुंच गया।
एक खामोशी सी व्याप्त थी सुमन के घर में। सुमन के पापा ने दरवाज़ा जैसे ही खोला,

“अरे अविनाश…कहां हो बेटा आप….आपका फोन…” अविनाश ने उनकी बात आधे में ही काटते हुए बोला,
“सुमन कहां है?? क्या वो यहां है??”
“हां…वो छत पर है। जाओ मिल लो।” सुमन के पिता जी की आधी बात ही शायद सुनी अविनाश ने और वो भागा छत की ओर।

“सुमन…पापा कहां हैं??” अविनाश ने पूछा।
“वो……………….!!!!!!” सुमन की आधी बात सुनते ही अविनाश भड़क उठा।
“क्या…??? क्या हुआ उनको?? हैं कहां वो?? सुमन अगर उन्हें कुछ हो गया ना, मैं तुम्हें कभी माफ नहीं कर पाऊंगा।”

“अरे यार अविनाश…इतना परेशान मत हो तुम। अंकल यहीं पर हैं। बिल्कुल ठीक हैं वो।” सुमन बोल ही रही थी कि अविनाश के पिता जी वहीं छत पर आ गए। उन्हें देखते ही अविनाश उनके गले से लग गया। इस तरह रोने लगा कि उसके मुंह से कुछ आवाज़ ही नहीं निकल रही थी।

“पापा…आप ठीक तो हैं?? अचानक इस तरह आप लोग यहां कैसे आ गए।”

“बेटा जी…ये तो तुम सुमन से ही पूछो। डिस्चार्ज होने के बाद सुमन मुझे लेकर सीधे यही आ गई। मुझे अकेले छोड़ आने के लिए राज़ी हो ना हुई। बहुत कोशिश करते रहे हम लोग कि तुमसे बात हो जाए लेकिन तुम्हारा फोन लगा ही नहीं।”

अविनाश शर्म के मारे अपनी आंखे नीचे किए सुनता रहा बस।
“सुमन…!! मुझे माफ़ कर दो। मैं तुम्हारा गुनहगार हूं।” अविनाश ने सुमन के सामने सर झुका लिया था।

तभी सुमन की भाभी पीछे से आयी और बोली,
“माफी तो मिलेगी अविनाश…लेकिन सज़ा भुगतनी पड़ेगी इसकी। सुमन से शादी करनी पड़ेगी तुमको।” भाभी ने अविनाश को छेड़ते हुए अंदाज़ में कहा।

सभी के ठहाकों से सारा माहौल खुशनुमा हो गया था। सुमन भी शर्म से नीचे की ओर चली गई।

सब चले गए बस अविनाश वहीं छत पर खड़ा रहा। फिर से अपने पिता जी की बातों को याद करने लग…
” बेटा जी…ये प्यार व्यार कुछ नहीं होता। मात्र क्षणिक आकर्षण ही तो होता है। किसी को देखने, साथ कुछ दिन व्यतीत कर लेने से प्रेम कभी पूर्ण नहीं होता। तीनों युगों में प्रेम तो सिर्फ कृष्ण और राधा का था। कुछ भी पाने की भावना नहीं थी वहां…सिर्फ त्याग था, वैवाहिक बंधनों से मुक्त… निष्काम..! पूज्य है वो प्रेम!”

“अरे…अविनाश ये तू क्या करने जा रहा। क्यूं सुमन के स्वप्नों में बाधक बन रहा है। सच्चे प्रेमी तो अपने प्रिय के स्वप्नों को पूरा करते हैं। तू फिर वही जिम्मेदारियों का बोझ लादने जा रहा…सुमन पर। विवाह, परिवार, समाज, इससे ज्यादा और क्या दे पाएगा तू उसे। क्या सिर्फ विवाह ही एक रास्ता है…संबंधों को निभाने का। सुमन ने भी तो बिना किसी आत्मीय रिश्ते के निः स्वार्थ ही तेरे पापा की सेवा करती रही। मत कर ऐसा। तू नहीं समझेगा सुमन को तो कौन समझेगा। भाग जा यहां से। किसी से कुछ मत बोल। चुपचाप चला जा।” अविनाश का अंतर्मन उसे एक दूसरी ही राह पर ले जाने को आतुर था।

अविनाश ने अपने मन की सुनी। जाते जाते एक पत्र छोड़ गया वो…सुमन के लिए,
“मेरी प्यारी सुमन, मैं तुम्हारे योग्य नहीं। तुम अपने स्वप्नों को पूरी करने की कोशिश करना। सिर्फ तुम्हारा…अविनाश।”

सुमन अब अविनाश के पिता के घर ही रहती है…बेटी का धर्म निभा रही है वो अब।
नौ साल हो गए…अविनाश को गए। सुमन घर की छत पर बैठी अक्सर किसी सोच में डूब जाया करती थी,
“अविनाश…आखिर निकाल ही लिया तुमने अपना प्रतिशोध। ले ही लिया तुमने अपना बदला। मैंने तुम्हारा तिरस्कार क्या किया तो तुमने भी मुझे नहीं अपनाया। कोई बात नहीं…यह जीवन अब तुम्हारा है। शायद यही पश्चाताप है मेरा।”

🙏🙏