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जमीन…!

गोधुलि बेला का वक़्त। आकाश की लालिमा किसी अशुभ घटना का संकेत लिए हुए रात्रि के अंधेरे में डूबने को व्याकुल हो रही थी। एक वृद्धा अपने पति के सिरहाने बैठ, असहाय सी बस उस वृद्ध पुरुष के सर पर हांथ फेरे जा रही थी।

“अब सांस नहीं बची…कमलावती…! भगवान का बुलावा आ गया है अब। सोचे थे कमली की शादी कर लेते तो कितना अच्छा होता। अरे ओ बेटा गोपाल…ज़रा प्रधान जी को बुला ला..! जल्दी कर बेटा…!” खटिया पर पड़ा हुआ दशरथ, एक जर्जर शरीर लिए हुए अपनी आखिरी सांसे गिन रहा था।

“बाबू जी ऐसा मत बोलिए। कुछ नहीं होगा आपको।” पास में ही बैठी उसकी इकलौती बेटी कमली ने रोते हुए अपना सर उसके सीने पर रख दिया। गोपाल अपने पिता जी के पैरों को घीसे जा रहा था।

मृत्यु का भी कैसा स्वरूप है…! जीवन का एक अटल सत्य होने के बाद भी जीवन जीने की एक अप्रतिम भावना से परिपूर्ण। मृत्यु के द्वार पर खड़ा व्यक्ति कभी भी उस द्वार को सहर्ष पार नहीं करना चाहता। उसके चाहने वाले भी आखिरी सांस तक उसे रोक लेने का प्रयास करते हैं। और उसके विरोधी…रोज़ ईश्वर से कामनाएं करते हैं कि… हे ईश्वर…! कब बुलाओगे इसको अपने पास।

उन्हीं विरोधियों में था…दशरथ का बड़ा बेटा… शिव और उसकी बहू विमला। सुबह से ही विमला का ध्यान बगल के झोपड़े में पड़े अपने ससुर की गतिविधियों पर लगा हुआ था।

“अजी सुनते हो…?? बाबू जी ने परधान जी को बुलवाया है। वसीयत बाटेंगे…ऐसा लग रहा है। और तुम यहां बैठे बैठे बस चारपाई तोड़ो। वो तुम्हारा छोटा भाई…गोपाल सब हड़प लेगा…फिर हांथ मलते रहना। मेरी तो कोई सुनता ही नहीं यहां। अरे जाओ वहां…ज़रा देखो तो क्या हो रहा है। अपने हक की बात करना कोई गुनाह है क्या…??” विमला ने फुसफुसाते हुए कहा।

गोपाल वैद्य जी को बुलाने के लिए भागा। तब तक प्रधान जी भी आ पहुंचे थे।

“परधान जी…अब मेरा जीवन ज्यादा बचा नहीं। मेरे ना रहने पर कोई विवाद ना हो…इसलिए आपको बुलवाया मैंने।” दशरथ बड़ी मुश्किल से कराहते हुए बोल पा रहा था।

” बेटा गोपाल…तुझे जिम्मेदारियों के अलावा कुछ और नहीं दे सका मैं। एक आखिरी जिम्मेदारी है ये कमली…इसका ध्यान रखना। ये झोपड़ी और इसके सामने जो नीचे की जमीन है…वो तुम्हारी है।” गोपाल सर झुकाए बस रोता ही जा रहा था।

“वो ऊपर वाली जमीन और दो जोड़ी बैल…शिव के लिए हैं। वैसे तो तिनके भर का साथ नहीं दिया उस जोरू के गुलाम ने…लेकिन बेटा उसे कुछ ना दिया तो वो तुम लोगों को चैन से ना सोने देगा।” इतना कहते कहते उसने गोपाल को अपने पास आने का इशारा किया और उसके कानों में धीरे से बोला..” बेटा…कमली की शादी के लिए थोड़े से…..!!!!”

आवाज़ नहीं बची थी दशरथ की जुबान में। प्राण निकल चुके थे उसके। कमली और गोपाल उस निष्प्राण शरीर से लिपट कर रोए जा रहे थे। कमलावती, उसकी पत्नी…एक टक बस उसे देखे जा रही थी।

विमला की खुशी का ठिकाना नहीं था आज। बिन मांगे ही काफी कुछ दे दिया था…दशरथ ने उन्हें। अच्छी जमीन…दो जोड़ी बैल…और क्या चाहिए।

“कैसा मूर्ख है ना गोपाल..!! अपने अधिकारों के लिए लड़ नहीं सकता…कह नहीं सकता। वो क्या करेगा अपने जीवन में। क्यूं जी…ठीक कहा ना मैंने??” विमला ने शिव से सहमति मांगी। लेकिन शिव खामोशी से बस सुनता रहा।

रात्रि का दूसरा प्रहर प्रारंभ हो चुका था। चांदनी रात में गोपाल आकाश के नीचे बैठ अपनी ही किसी चिंता में डूबा हुआ था।

“इस बार गेहूं कि फसल अच्छी हो जाती…तो कम से कम खाने के लिए अनाज ना खरीदना पड़ता। और होगी क्यूं नहीं…ये लहलहाती फसल क्या इतना भी ना दे कर जाएगी।” अपनी मेहनत और सामने दिख रही गेहूं की फसल पर गोपाल को पूरा विश्वास था।

तभी अचानक तेज हवाएं चलने लगीं। काले बादल के एक समूह ने चन्द्र की रोशनी को पूरी तरह ढंक लिया था। चांदनी रात एक अंधेरी रात में बदल चुकी थी। गोपाल का अंतर्मन एक दृश्य भय से पूर्ण था।

“हे भगवान… रहम करो। ये बिना मौसम की बारिश। कम से कम इस गड्ढे जमीन में लगे मेरी मेहनत की तो फिक्र करो भगवान।” गोपाल का अंतर्मन ईश्वर को कोस रहा था।

मानव का स्वभाव भी अजीब है। एक तो बुरे वक़्त में ही पूर्ण श्रद्धा से वो ईश्वर को याद करता है…दूसरे कुछ ऊंच नीच हो जाए तो जिम्मेदार भी वही…ईश्वर…भगवान। लेकिन गोपाल ऐसा नहीं था। उसे तो पूर्ण आस्था थी भगवान में। भगवान शिव का अनन्य भक्त था वो। फिर क्यूं उसके साथ ऐसा हो रहा था। कठिन परीक्षा का समय आने वाला था गोपाल के लिए।

देखते ही देखते, मूसलाधार बारिश। खेतों में पानी भरने लगा। शिव रात में अपना फरसा लिए मेड़ बनाने में जुट गया। मेड़ की राह भी उसने गोपाल के खेतों की ओर कर दी। गोपाल और कमली दोनों बाल्टी लिए अपने खेत से पानी निकालने का प्रयास कर रहे थे। लेकिन कुछ मिनटों में ही बरसात के पानी ने एक तालाब का रूप ले लिया था। गोपाल की आंखों से आसुओं की धारा बह निकली थी। खड़ी फसल डूब चुकी थी उस जल भराव में। और इसी के साथ डूब गई थी उसकी उम्मीदें, उसके स्वप्न, उसकी मेहनत और कुछ हद तक उसका आत्मविश्वास भी।

“कैसा चुकाऊंगा साहूकार का कर्ज..?? फिर से उधार लेना पड़ेगा। दो वक़्त की रोटी भी उधार से ही आ पाएगी अब तो। ये कैसा न्याय कर गए पिता जी मेरे साथ..?? छोटा होने का ये कैसा अभिशाप है…भगवान??” सर पर हांथ रखे वहीं उस तालाब के सामने गोपाल खड़ा रहा।

उधर शिव और विमला की खुशी का ठिकाना नहीं था। गोपाल पर आयी इस विपदा ने उन्हें प्रसन्न होने का एक बहाना दे दिया था। विमला रोज़ रास्ते में गोपाल के जलाशय रूपी खेत को देख कर उनका परिहास करती…उनका मजाक उड़ाती।

जहां एक ओर शिव ने गेहूं की एक अच्छी खासी फसल पैदा की थी…वहीं दूसरी ओर गोपाल की सारी फसल पानी की वजह से बर्बाद हो चुकी थी। जमीन के नाम पर एक गड्ढा ही तो मिला था उसको। आखिर क्या कर सकता था वो…सिवाय अपने भाग्य को कोसने के अलावा..!!

अभाव एक ऐसी परिस्थिति है, जो किसी भी व्यक्ति को नए रास्ते ढूंढने की ओर प्रेरित करती है। सुख में पड़ा हुआ व्यक्ति कभी जीवन के नए रास्तों की तलाश नहीं करता। अपितु दुख और अभाव में पड़ा हुआ व्यक्ति एक प्रयास अवश्य करता है…कैसे पार किया जाय कष्टों से भरे जीवन को।

गोपाल के सकारात्मक विचारों ने भी उसे प्रेरित किया…जीविकोपार्जन के नए आयामों की खोज करने के लिए। अंततः उसने निर्णय किया कि अब वो इस गड्ढे रूपी जमीन को और गहरा करेगा। मछली पालन का कार्य करेगा वो उसमें। और फिर क्या था…लग गया वो रोज़ उसी गड्ढे को और गहरा करने में।

मध्य दुपहरी का समय था। सूर्य बिल्कुल गोपाल के सर के ऊपर चमक रहा था। गर्मी की मारे गोपाल का शरीर पसीने से तर हो रखा था। लेकिन गोपाल तो बस अपना फावड़ा लिए अपने काम में मगन था। खोदता ही जा रहा था जमीन। तभी अचानक उसके फावड़े से एक आवाज़ आयी। किसी ठोस धातु से टकराने की आवाज़ थी वो। उसके कौतूहल ने ऊर्जा का संचार किया और गोपाल ने दोगुनी ऊर्जा के साथ उसी स्थान पर खोदना शुरू किया।

“अरे…ये तो कोई घड़ा है…पीतल का..!!” गोपाल विस्मित सा देखता रहा। पीतल के घड़े को जब गोपाल ने खोला तो उसकी आंखे ही चौंधिया गईं। सोने की करीब दस एक मुहरों के अलावा कुछ गहने भी थे उसमें। उसके आश्चर्य और खुशी का ठिकाना नहीं था। अपने पिता जी के आखिरी शब्दों को याद करके गोपाल की आंखे सजल हो उठी। “कमली की शादी के लिए थोड़े से….” यही तो कह रहे थे वो।

गोपाल ने अपनी जमीन को एक तालाब का रूप दे दिया। मछली पालन का उसका कार्य भी बहुत अच्छे ढंग से चलने लगा। पानी से भरा हुआ वो जलाशय, जिसने कभी उसके आत्मविश्वास को कमजोर कर दिया था…आज वही उसके रोज़गार का प्रमुख कारण था। रोज़ गोपाल उस तालाब के किनारे खड़ा होकर अपने पिता जी की यादों में खो जाया करता था।

“पिता जी…क्षमा कर दीजिए मुझको। आज आपके आशीर्वाद से ही मैं इतना कुछ कर पाया। आपने कभी भी मेरा बुरा नहीं चाहा।” आसमान की ओर देखता हुआ गोपाल मानों साक्षात अपने पिता जी से बातें कर रहा था।

©ऋषि देव तिवारी