विलुप्ति की कगार पर खड़ी प्राचीन नाट्य परंपरा और हमारी चिंता
विलुप्ति की कगार पर खड़ी प्राचीन लोकनाट्य परम्पराएं और हमारी चिंता ………
—————————-
हमारा देश विविध कला और संस्कृति प्रधान देश रहा है जहाँ हर पचास और सौ किलोमीटर की दूरी पर बोलचाल की भाषा बदल जाती है इन्ही भाषा और संस्कृति में रचे बसे नाटक जब हम साकार रूप में देखते हैं तो वे बरबस ही मन मोह लेते है स्थानीय प्रभाव और शैली इन्हें अलौलिक व दर्शनीय बना देती है।
पहले जब मनोरंजन के साधन सीमित थे तब अनेक नाटक मंडलियाँ देश के विभिन्न हिस्सों में घूम घूमकर कई दिनों तक नाटक व माच का मंचन करती थी । संस्कृति में रचे बसे भारत देश का इतिहास गौरवशाली रहा है प्रभु राम,कृष्ण और गौतम बुद्ध की इस धरती पर कई अलौकिक व चमत्कारी घटनाएँ घटित हुई है जिनके प्रमाण शास्त्रों पुराणों में दर्ज है , उनकी वही लीलाएँ नाटक के रूप में कलाकार मंच पर साकार करते थे । उनमें प्रमुख रूप से प्रभु राम-भरत मिलाप, कृष्ण- सुदामा मिलन, राजा हरिश्चन्द्र- तारामती संवाद, तेजाजी की कथा आदि कई पौराणिक प्रसंग है जिनका मंचन मन मोह लेता था ।
आज भी रामायण और महाभारत का मंचन देश के कई हिस्सों में होता है जिसे देखने के लिए हजारों लाखों लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती है लोक नृत्य, लोकगीत, थिएटर भी उसी परंपरा का हिस्सा है। हमारे यहां ऐसे कई कलाकार हुए है जिन्होंने नाटकों में सजीव अभिनय किया व उसके बल पर फिल्मों में प्रवेश पा गए किन्तु जबसे छोटे और बड़े पर्दे का प्रचलन चला है तबसे नाटक और कठपुतली प्रथा का चलन कमजोर होता गया जिसके चलते लोक कलाकारों के समक्ष आजीविका का संकट उपस्थित हो गया इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि फ़िल्म और टीव्ही ने नाटक कला को हांशिए पर ढकेल दिया। देश के विभिन्न हिस्सों में सरकार लोक कला उत्सव का आयोजन जरूर करती है मगर दर्शकों के अभाव में उनकी चमक भी फ़ीकी पड़ती जा रही है फलस्वरूप यह कला लुप्त होती जा रही है अब भी समय है सम्हलने का नाटक परंपरा की अभिरुचि से आमजन से जोड़ने का यदि हम अपनी परंपराओं की इसी तरह अनदेखी करते रहे तो धीरे धीरे यह कला लुप्त होती चली जाएगी सरकार भी कला उत्सव का आयोजन , इसीलिए करती है ताकि ये कलाएं जीवित रहे,लोक कलाकार अपनी कला के प्रति समर्पित रहे मगर सच यह है कि ये परम्पराएं तब जीवित रहेगी जब इसमें जन भागीदारी बढ़ेगी, दर्शकों का बढ़ा समूह इसके प्रति आकर्षित होगा लोग घर से निकल कर नाट्यस्थल पर पहुंचे क्योकि ऐतिहासिक नाट्य परंपरा को जीवित रखना हम सब की जिम्मेवारी है ।
यह कटु सत्य है कि आज देश की वर्तमान पीढ़ी वेबसिरिज , पीव्हीआर और मोबाइल में व्यस्त है उसे न देश के इतिहास की जानकारी है, न पौराणिक कथानक से जुड़े नाटक देखने मे दिलचस्पी है वह न पुराण उपनिषद के बारे में कोई जानकारी रखना चाहता है न साहित्य से उसे कोई लगाव है अब भी समय है नाट्य परंपरा पर गहन मंथन का यदि अब भी हमने हमारी प्राचीन परंपरा को नही पहचाना व उसके महत्व को स्वीकार नही किया तो वह दिन दूर नही जब, नाट्य लोक कला से सम्बद्ध हमारी प्राचीन धरोहर नाटक, माच, कठपुतली,पंडवानी,काश्मीर की भांड पाथेर, झझिया , होली, कजरी आदि समस्त लोक कलाएँ हमेशा के लिए लुप्त हो जाएगी हमे समय रहते इन लोकरंजन परम्पराओं को सहेजना होगा ।
…………..
रचना पूर्णतः मौलिक एवं अप्रकाशित है ।
सादर प्रकाशनार्थ
अनिल गुप्ता
उपाध्यक्ष- खंडेलवाल वैश्य पंचायत उज्जैन
8, कोतवाली रोड़ उज्जैन
संपर्क- 9039917912