मूल निवासी – आस्ट्रेलिया के
कहा जाता है कि ऑस्ट्रेलिया में चार में से एक व्यक्ति प्रवासी है या विदेश से आकर बसा है । अगर इतिहास की घड़ी की सुइयों को १८वी शताब्दी तक पीछे घुमाया जाय तो यहाँ के अँगरेज़ भी प्रवासी हैं क्यों कि वे इंगलैंड से आ कर बसे हैं। केवल यहाँ के आदिवासी जो २.७ % हैं वे ही मूल निवासी है। पर विकासवाद के विशेषज्ञों के लिये निहित अर्थों में वे भी प्रवासी हैं। इन आदिवासियों का उद्गम वैज्ञानिकों के लिये बड़ा रूचिकर विषय रहा है। लगभग ५०,००० वर्ष पहले ऑस्ट्रेलिया में यहां के मूल निवासियों का पदार्पण हुआ था ऐसा “अफ्रीका से बाहर” वाले एक सिद्धान्त के अनुसार माना जाता है। इनके जीन प्राचीन यूरेशियन जाति से मिलते हैं। इस मामले में नये नये अध्ययन सामने आ रहे हैं।
भाषा की उत्पत्ति होने के समय से सन १७८७ के पहले तक यहाँ इन आदिवासियों में लगभग २५० भाषायें बोली जाती थी जिनमें ६०० बोलियाँ थी । आज केवल २० भाषायें बची हैं बाकी लुप्त हो चली हैं ।
इन आदिवासियों की संस्कृति में बहुत सी रोचक बातें है जिनमें ‘स्वप्न’ या ’ड्रीम’ की अवधारणा का एक विशेष स्थान है और यह स्वप्न के सामान्य अर्थ से अलग है । इसके अन्तर्गत इनके पूर्वजों की आत्मायें मानव या अन्य रूपों में आती हैं तथा वे जमीन, जानवर और पेड़-पौधों को आज के वर्तमान स्वरूप में परिवर्तित कर के दे देती हैं । ये आत्मायें विभिन्न समुदायों, व्यक्तियों व पशु आदि अन्य प्राणियो में आपस में संबन्ध स्थापित करती हैं । जहाँ जहाँ इनके पूर्वज यात्रा करते हैं या जिस स्थान पर रूकते हैं वे वहाँ पर नदी, पहाड़ इत्यादि बनाते हैं । यह काम पूरा हो जाने के बाद वे पशु , तारे या पर्वत इत्यादि में परिवर्तित हो जाते हैं । इस प्रकार यह जगह उनके लिये पवित्र बन जाती है । यहाँ के आदिवासियों के लिये यह सारा भूतकाल समाप्त नहीं हुआ है; वह वर्तमान में भी उपस्थित है और भविष्य में भी रहेगा । इनके पूर्वजों की आत्मायें व उनकी शक्तियां भी नष्ट नहीं हुई हैं बल्की ’स्वप्न’ समाप्त होने के बाद उनमें केवल रूप-परिवर्तन हुआ है । ये कहानियां पीढ़ी दर पीढ़ी सुना कर नई पीढ़ी को हस्तान्तरित की जाती हैं । अगर हम इन ’स्वप्नों’ का भारत के आदिवासियों की गाथाओं से अथवा वैदिक-रचनाओं से तुलना करने बैठें तो इस तुलनात्मक अन्तर की सतह से कितना गहरा साम्य उजागर होगा !
और क्यों न हो! एक आनुवांशिकी शोध बताती हैं कि ओज़ी आदिवासियों के डी. एन. ए. में सात जीन-समूह अन्यत्र केवल भारत की ही २६ आदिवासी जातियों में पाये गये जो बताते हैं कि उन्होने ऑस्ट्रेलिया तक का सफर एशिया के “दक्षिणी मार्ग” याने भारत से होकर तय किया था।
अब कला के विषय में बातचीत की जाय। किसी देश में एक विकसित चित्रकला के अवशेष मिलें किन्तु विकास की प्रक्रिया के कोई चिन्ह न मिलें तो इसे क्या समझा जाय? कि यह कला दूसरे देश से आयातित की गई है। ब्रॉडशॉ चित्रकारी इसी का एक ज्वलन्त उदाहरण है। इसे प्राचीन दुनिया के सात आश्चर्यों में गीना जाता है। एक ओर जहाँ वांजीना चित्रकला धार्मिक कृत्य के लिये उपयोग में आती थी वहाँ दूसरी ओर ५०,००० पुरानी ब्रॉडशॉ चित्रकला सामाजिक स्तर पर उपयोगी थी । देखा गया है कि वान्जीना एक सरल पैंटींग है जो नकल करने में भी आसान थी पर ब्राडशॉ पेन्टींग बड़ी जटील व आश्चर्यजनक रुप से विकसित थी पर जैसा कि उपर कहा गया है इसके विकास की सीड़ियां नहीं मिलती अत: यह माना जाता है कि यह कला कहीं से लाई गई है।
आधुनिक काल में चलें तो भारतीय इतिहास की तरह अंग्रेजों द्वारा आस्ट्रेलिया के मूल निवासियों के शोषण की बड़ी लम्बी कहानी है । जब यहाँ अंग्रेज व यूरोपनिवासी बस्तियां बसा रहे थे तो वे साथ में चेचक के कीटाणु भी लाये थे । माना जाता है कि इन्होने जानबूझ कर कंबल बाँट कर तथा अव्यवस्था से आदिवासियों में किटाणु फैलाये । बेचारे आदिवासी इन किटाणुओं का माजरा समझ न पाये; इलाज क्या करते? फलत: पहले तीन सालों में चेचक से स्थानिय दारुग लोगों की जनसंख्या केवल १०% रह गई जब कि पहले इनकी संख्या ५०,००० के लगभग थी ।
अंग्रेजों के आने के बाद आदिवासियों की काफ़ी जमीन छिन ली गई थी । न्यायालय तक ने १९७१ में आस्ट्रेलिया को टेरा नलिस घोषित किया जिसका अर्थ यह है कि अंग्रेजों के यहाँ आने के समय आदिवासियों में जमीन की माल्कियत की कोई अवधारणा नहीं थी अत: ब्रिटिश शासन द्वारा हथियाई गई जमीन का कोई मालिक न होने से ऐसा करने का पूरा हक था । इससे बड़ा झूठ शायद कोई हो । जरा सी सतह कुरेदने से बात साफ़ हो जाती है कि जमीन से उनका रिश्ता भौतिक तो था ही, आध्यात्मिक व सांस्कृतिक भी था व है । १९९२ में जाकर माबो केस में ’टेरानलीस’ अवैध ठहराया तथा आदिवासियों में जमीन के स्वामित्व की अवधारणा स्वीकार की गई । इस फैसले में यह भी कहा गया कि जमीन का स्वामित्व तब ही स्वीकार किया जायगा यदि विवादग्रस्त भूमि से आदिवासियों का सांस्कृतिक संबन्ध अब तक कायम हो।
इस का परिणाम यह हुआ कि अधिकांश इतिहासकार आदिवासियों के पक्ष में सामग्री ढुंढने में मशगुल हो गये। ग्राम वाल्श नामक इतिहासकार ने जो खोज की वह इस माबो की धारणा के पक्ष-विपक्ष से उपर थी पर विपक्ष में दिखाई देती थी अत: उस बेचारे को रेसिस्ट समझा गया। यदि तथ्य कहते हैं कि ब्राडशॉ पेन्टींग बाहर से लाई गई तो इसमें इतिहासकार क्या करे? यदि ये आदिवासी पहले के आदिवासियों को जीत कर बसे थे तो बसे थे। आँख मूंदने से न तो सत्य को बदला जा सकता है और न ही इससे अँगरेज़ी हूकुमत की नृशंसता को न्यायपरक ठहराया जा सकता है।
इन आदिवासियों के साथ हुये अत्याचार की दास्तान बड़ी दर्द भरी है । इतना प्रशासनिक संकेत तो केवल उपरी सतह को कुरेदता है कि १९६२ से पहले संघीय चुनावों में इन्हे वोट देने का अधिकार नहीं था व कुछ राज्यों में इनके वोट देने में जानबूझ कर अड़चन रखी गई थी । १९६७ में जाकर इनके बारे में राज्य सरकार के मनमाने कानून बदलने का केन्द्र की सरकार को अधिकार मिला और तब राष्ट्रिय-जनगणना में इन्हें जगह मिली । मूल गहराई की बात लें तो ’चुराई गई पीढ़ी ’ या स्टोलन जनरेशन – जिसकी तो चर्चा करना बड़ा दुखदाई है। आँकड़े बताते हैं कि १९१० से १९७० के बीच में लगभग एक लाख आदिवासियों के बच्चों को पुलिस व जनकल्याण अधिकारी जबरदस्ती छीन कर ले गये जिनमें से कुछ श्वेत नागरिकों को गोद दे दिये गये। उनसे निम्न स्तरीय घर के काम करवाये व अपने माता-पिता से दूर वे क्रूर यन्त्रणा के शिकार हुये । दुख और आश्चर्य इस बात का है कि यह काम नियमबद्ध हुआ क्यों कि उस समय तक ऐसे नियम थे कि इन बच्चों को, विशेष कर मिश्रित जाति के बच्चों को माताओं से दूर रखा जाय जिससे वे श्वेत-संस्कृति की मूल धारा में मिल जायं । मूल धारा में मिलाने के नाम पर माताओं से बच्चे छीन लेना और उनकी पहचान और संस्कृति को मिटा कर अपरिचित वातावरण में बर्बरता का व्यवहार करना – कितना दुखप्रद रहा होगा! १३ फरवरी २००८ को आस्ट्रेलिया के प्रधान-मन्त्री ने ’चुराई पीढ़ी’ से त्रस्त आदिवासियों एवं पूरे राष्ट्र के नाम संदेश में औपचारिक रूप से ऐतिहासिक-भूल स्वीकार की । अब देखना यह है आदिवासियों से पुन: मैत्री (reconciliation ) की दिशा में यह कदम ठोस साबित होता है या कोरी औपचारिकता बन कर रह जाता है ।