कम से कम प्रकृति से सीखें और शपथ लें
जिस विश्व व ब्रम्हाण्ड के अन्तर्गत हमारा अस्तित्व विद्यमान है ,उसके संरचना, उसमें सतत् परिवर्तनव गति पर यदि अपना ध्यान केन्द्रित करें तो उसमें एक नियम या सिद्धान्त महसूस होता है ,जैसे कि हमारी धरती समयानुसार एक निश्चित रफतार से निर्धारित पथ पर अनादिकाल से निरन्तर गति कर रही है और धारणा है कि अनन्त काल तक करती रहेगी ।
प्रकृति प्रदत्त हमारे शरीर के सभी अंग कुछ मर्यादा /नियम/सिद्धान्त पर अपना कार्य सम्पादित करते हैं । हालांकि ये सार्वभौमिक नियम इतने गूढ और महीन होते हैं कि प्रकृति पर सारा विज्ञान जगत निरन्तर अध्ययन और खोज के बावजूद अभी तक अधूरे बने हुए हैं ।हमारा जगननियंता इतना विलक्षण तकनीशियन है कि उसकी हर कारगुजारियों का सटीक विश्लेषण किसी के वश का नहीं ।
इस विश्व से हमारा मानव समाज और उसके साथ पर्यावरण जुडा हुआ है ।हमारा,अपने समाज से और समाज का हमसे क्रिया प्रतिक्रिया करता रहता है।इस क्रम में मर्यादा है,वर्जना है जो समस्त मानव जगत के लिए अत्यंत सोचने का विषय है।इसकी अनदेखी या उपेक्षा, निश्चित रूप से विकार का प्रसार और अन्त में आत्माहन का कारण बनता है। यह दुख की बात है कि हम अपनी भोगवादी प्रवृत्ति के कारण मनमाना कार्य करते है यहाँ तक कि सारी वर्जनाओं नियमों, मर्यादाओं और सिद्धांतो का उल्लंघन या उपेक्षा करते है, प्रकृति इस बात पर समय समय पर चेतावनी भी देता रहा है । वर्तमान परिस्थिति के परिप्रेक्ष्य पर यदि ध्यान दें तो ,यह भी सार्वभौमिक सिद्धांतो के गम्भीर उल्लंघन का परिणाम है। अब भी समय है,सुधरने का, आत्म मंथन का। कम से कम अपने अस्तित्व को बचाने खातिर शपथ तो लें ।