अर्धांग भस्म भभूत है…अर्ध मोहिनी रूप है
ईमेल पता [email protected]
-
सार
शादी के बाद लड़कियाँ, लड़के को पति और उससे ज़्यादा परमेश्वर मानने लगती हैं। हमारे समाज की बनावट-बुनावट ही कुछ ऐसी है कि लड़कों को बचपन से ऊँचा दर्जा दिया जाता है और लड़के पति बनते ही दस पायदान ऊपर चढ़ जाते हैं और अच्छी-भली लड़कियाँ शादी के बाद खुद को बीस पायदान नीचे गिरा लेती हैं तो यह जो असंतुलन होता है वह लगभग तीस पायदान का हो जाता है। तीस पायदान नीचे खड़ा व्यक्ति उससे उतने ही ऊपर खड़े व्यक्ति से कुछ कहेगा तो उसे क्या समझ आएगा और क्या दोनों में तालमेल होगा।
चलिए ईश्वर मान लिया है तो अपेक्षाएँ करना बंद कर दीजिए। मंदिर में रखे देव से नहीं कहते कि ज़रा दरवाज़ा खोल देना, बच्चों को स्कूल से लिवा लाना या बिजली का बिल ही भर देना…एक ओर पति को ईश्वर बना दिया है, दूसरी ओर उससे मानवीय अपेक्षाएँ हैं। बंद कीजिए…कोई अपेक्षा मत रखिए और चाँद-तारे तोड़कर लाने की तो बिल्कुल नहीं…जो एक कप चाय नहीं बना सकता हो, वो आपके लिए चाँद-तारे कहाँ से तोड़कर लाएगा? पति से सीधा संबंध आता है बंद कमरे में। यहाँ भी सहधर्मिता नहीं है, पति की इच्छा है और उस इच्छा के आगे नतमस्तक उसके अधिकार की कोई वस्तु है। कल तक जिन लड़कियों से कहा जाता रहा कि इस विषय पर खुलेआम कुछ कहना भी गंदी बात है, वे उस गंदगी को ही दिमाग में बैठाए अपने परमेश्वर के आगे है। खेल देखिए कितना बड़ा है, द्वंद्व कितना बड़ा है…जो किसी के साथ साझा नहीं करना वो किसी के साथ न चाहते हुए साझा किया जा रहा है। पत्नियाँ इस स्थिति का लाभ उठाती हैं, ठीक उसी समय फलाना-ढिकाना माँग करने लगती हैं, मानवीय देह में उलझा उस समय का पति हाँ बोल देता है और दूसरे दिन से उस विषय पर फिर कलह शुरू हो जाती है।
पति परमेश्वर कैसे है?
स्त्री और पुरुष दो धुरियाँ हैं जिन पर पूरी दुनिया टिकी है। कोई किसी से कमतर नहीं। यदि स्त्री खुद को दासी समझती है तो निश्चित ही वो जिसके साथ सहजीवन बिता रही है वह कोई दास ही होगा। सहजीवन बिताना तो ऐसा है जैसे आप होस्टल में किसी के साथ कोई कमरा साझा करते हैं, बस विवाह के बाद आप एक कमरे के बजाय एक घर साझा कर रहे होते हैं। पति परमेश्वर है…इसे समझे बिना, उसे परमेश्वर मान उससे इच्छा की और इच्छा भी कितनी छोटी जैसे नए कपड़े-गहने खरीदना या नया घर लेना…मायके जाना….परमेश्वर था…अपने लिए मुक्ति माँग लेती पर प्रपंच में अटकी रही।
तो पहले उसे ढूँढना होगा जो तुम्हारा पति हो…न, न वो पत्रिका, वो पंचांग, वो घर-परिवार, वो जात-बिरादरी, वो नाते-रिश्तेदार….सारी दुनियावी बातें हैं। वहाँ एक अनुबंध खोजा जा रहा है…ऐसी बातें पता लगाई जा रही हैं जिनके बूते पर कम से कम इतना तय हो जाए कि यह संबंध इस जन्म में चल जाएगा…टिका रह जाएगा और फिर उन पर व्रत-त्योहार, उपवास, कर्म-कांड का मुलम्मा (लेप) चढ़ाया जा रहा है ताकि अगले सात जन्मों की व्यवस्था हो जाए और बाकी सब इस झंझट से छुट्टी पाए। इसमें मन, आत्मा, शरीर, आपसी ऊर्जा और भाव-भावनाओं की कोई बात नहीं है, कोई स्थान नहीं है। जैसे राजनयिक या व्यावसायिक संबंध बनाने के लिए रोटी-बेटी के रिश्ते होते हैं वैसा ही ताना-बाना है। एक घर से दूसरे घर में जाना है और इतना देखा जा रहा है कि वह घर पहले के घर जैसा ही हो…ऊँच-नीच, अमीरी-गरीबी…सारी, सारी बातें देखी जा रही हैं लेकिन नहीं देखा जा रहा तो वह रिश्ता जिसमें वे पति और पत्नी हो पाएँ…
अचानक से सगाई-शादी के बाद दोनों ने ही उस अनिवार्यता को स्वीकारते हुए प्रेम मान लिया है जबकि वह तो दुनियादारी है। एक-दूसरे के बिना ‘निवाला’ न उतरने की बात यहाँ पक्के तौर पर किताबी है। जहाँ प्रेम विवाह हुआ है वहाँ भी एक अजीब शर्त आ गई है कि जीवन भर एक-दूसरे को और घर-परिवार को बताते रहना है कि दोनों एक-दूसरे के लिए कितने सही हैं। तो हँसना है ऐसे कि कोई गवाह भी हो उसका। दोनों तरह के विवाह के सफल कहलाने की शर्त है कि दुनिया के सामने ‘राम मिलाई जोड़ी’ की तरह रहना है…दुनिया के लिए शादी की थी या अपने लिए! यहाँ जो राम आया है उससे सीता को हमेशा डर है कि कहीं निर्वासन न मिल जाए…लेकिन भूल भी है कि यदि कोई राम के दंभ में आकर घर निकाला दे रहा है तो वे भी सीता हैं न…सँभाल सकती है अकेले के दम पर खुद को, बच्चों को…लेकिन पति को राम मानने वाली खुद को सीता नहीं समझ पाती….खुद की पवित्रता पर खुद ही संदेह लगाती है…देखिए फिर कितनी दूरी है, एक को मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् राम का दर्जा दिया गया है और दूसरी ने खुद को देवी सीता मानने से इनकार कर लिया है।
समीक्षा
पति परमेश्वर है तो खुद देवी नहीं हुई क्या?
शक्ति और सत्ता का संघर्ष कई बार सुना होगा…क्योंकि वही आपके आसपास घटित होता रहता है या वहीं होता है इसलिए आप उसे ही सत्य मान लेते हैं। लेकिन सत्ता और शक्ति के बीच संघर्ष नहीं, प्रेम है जिसने इस पृथ्वी को जीने लायक बनाए रखा है और वही गुम हो रहा है।
पुराण पात्र देखते हैं ब्रह्मा, विष्णु और महेश तभी भगवान् होते हैं जब उनके पास शक्ति होती है, यदि शक्तिहीन हो जाएँ तो वे केवल ब्रह्मा, केवल विष्णु, केवल महेश होंगे…भगवान् नहीं। इसे समझे बिना पुराण से उठाया कि लक्ष्मी, श्री विष्णु के चरण पखार रही है। दिया ज्ञान सभी को कि लक्ष्मी है फिर भी विष्णु जी के चरणों में बैठी है।
पर क्यों बैठी है, कुछ तर्क तो हो…कुछ सोच तो हो….लक्ष्मी धन की देवी है, धन अभिमान देता है…किसी दूसरे के चरणों में बैठने से वो अभिमान तिरोहित हो जाता है। इस बारे में पौराणिक कहानी है कि देवर्षि नारद ने एक बार धन की देवी लक्ष्मी से पूछा कि आप हमेशा श्री हरि विष्णु के चरण क्यों दबाती रहती हैं? इस पर लक्ष्मी जी ने कहा कि ग्रहों के प्रभाव से कोई अछूता नहीं रहता, वह चाहे मनुष्य हो या फिर देवी-देवता। महिला के हाथ में देवगुरु बृहस्पति वास करते हैं और पुरुष के पैरों में दैत्यगुरु शुक्राचार्य। जब महिला पुरुष के चरण दबाती है, तो देव और दानव के मिलन से धनलाभ का योग बनता है। इसलिए मैं हमेशा अपने स्वामी के चरण दबाती हूँ।*1 विष्णु को भी पता है कि लक्ष्मी है तभी तक उसका अधिष्ठापन है। रंगमंच के देवता गणेश हैं लेकिन पूजा सरस्वती की होती है…क्योंकि शक्ति का संचार उसी से होगा, लेकिन सत्ता गणपति की होगी, इसे भूल नहीं सकते।
सीधे मनुष्यों में आते हैं….यदि इस बात को संगत किया तो पुरुष देव है, मतलब उनके पास को-क्रिएटर होने की ताकत है…शक्ति स्त्री के पास है। बुद्धिमान स्त्री हुई तो वह देव से सृजन करा सकती है। लेकिन पुरुष को परमेश्वर मान केवल सिर पर बैठा लिया…न उसका उद्धार किया, न खुद का उद्धार होने दिया। बात उलझी है लेकिन समझनी होगी कि आपका विष्णु कौन है…हो सकता है आप जिसके साथ हो, वो आपका विष्णु हो ही न…इसलिए सारी उलझनें हैं…इसलिए आपकी ऊर्जा उस तक और उसकी ताकत आप तक नहीं पहुँच रही…पार्वती को भी अपना शिव ढूँढने के लिए कड़ी तपस्या करनी पड़ी थी..यदि आप पति को देवों के देव महादेव मान रही हैं तो अपनी तपस्या को उस कसौटी पर देखिए…यदि यह बिना तपस्या से मिला है तो यह वरदान नहीं, तात्कालिक फल है। इससे ज्ञानेंद्रियाँ (सेंस ऑर्गन) संतुष्ट हो जाएँगी लेकिन वो आनंद उतना ही होगा जितनी आपकी चाहना रही होगी मतलब आइस्क्रीम पिघलने तक की या वाइन-डाइन तक की…या उससे कुछ ज्यादा…फिर भूख लगेगी फिर खाना खाएँगे जैसी…लेकिन तृप्ति नहीं होगी।
तृप्ति पाने के लिए अपने काउंटर पार्ट को खोजना होगा…दोनों को। मतलब जो जैसा उसे वैसा साथी मिल सकेगा। जैसे पुरुष गर्भ धारण नहीं कर सकता यह सत्य है, वैसे ही सत्ता का अधिकार पुरुष के पास है…यह भी सत्य है..शक्ति पर निर्भर है कि उस सत्ता को वो कैसे स्वीकारती है। अनचाहे तरीके से लादी गई इच्छा की तरह या सत्ता के आनंद में खुद का आनंद देखकर…आनंद लेकर, आनंद लौटाएँगी तो आनंद द्विगुणित होकर आएगा लेकिन ‘मैं इसकी बात क्यों मानूँ?’ का दंभ और ‘मुझे तो इसकी बात माननी ही होगी’ की मजबूरी, आनंद नहीं देगी…संघर्ष ही बढ़ाएगी।
शोध विधि
चुंबक का उत्तरी ध्रुव, दूसरे चुंबक के दक्षिणी ध्रुव को खींचता है*2 इस सत्य के साथ यहाँ यह भी है कि हर चुंबक के लिए बना दूसरा चुंबक असल में उसका ही अपना वो हिस्सा है, जिसे उसे खोजना है, जिसे पाकर उसे पूर्णता का अहसास हो सकता है। लेकिन जो मिल जाता है, उसे ही अपना मान लेते हैं। इसमें कोई बुराई नहीं है, लेकिन यह मानवीय संवेदनशीलता है, संवेदना है, जिसमें एक का दु:ख दूसरे को महसूस हो सकता है लेकिन एक का दु:ख, दूसरे का तब बन जाता है, जब वह उसका ही हिस्सा हो। किसी दिन आपका सिर दुखता है तो पूरी देह उस दर्द को अनुभूत करती है…किसी दूसरे का सिर दुखेगा तो आप उसका सिर दबाएँगे, उसे दवा देंगे…सब करेंगे जो संवेदना के स्तर पर होगा, अनुभव के स्तर पर नहीं। अपने चुंबक को पाना वैसा होता है कि उसका और आपका दर्द अलग नहीं होता। जब यह समझ आ जाती है तब वह पति परमेश्वर होता है तब उसकी सत्ता चलती है, वो जो बोले वो होता है, क्योंकि उसके कहे में उसकी शक्ति का पूरा साथ होता है, विरोध या विद्रोह नहीं होता। ये प्राण और आत्मा की बात होती है। फिर पति कहे इससे बात मत कर या उस ओर न देख तो मन मसोसता नहीं है क्योंकि यह एक ही मन की एक ही मन से कही बात होती है…जो इसे नहीं पसंद, वो मुझे भी नहीं पसंद….बस
परिणाम और चर्चा
यह एक यात्रा है पुरुष और उसकी सहधर्मिणी स्त्री की। पुरुष के पास ताकत है और स्त्री के पास ऊर्जा है। ऊर्जा का इतना अबाध प्रवाह स्त्री की धमनियों में है कि उसे कोई ताकत ही रोक सकती है अन्यथा यह ऊर्जा विध्वंसक तक हो सकती है। ऊर्जा की अपार अबाधित क्षमता में देवी काली का वह स्वरूप याद कीजिए जिसमें रक्तबीज*3 जैसे असुरों को मारने के लिए नरमुंडों की माला धारण कर ली थी और असुरों का रक्त धरा पर न गिरने दिया, अपनी ही जिह्वा पर लेती गई थी…असुरों की मृत्यु के बाद ही क्रोध शांत नहीं हुआ था और स्वयं शिव को उनके मार्ग में आना पड़ा था। देवी के इस रूप को महादेव उसी तरह रोक सकते हैं जैसे तांडव करते शिव को दुर्गा लास्य कर सँभाल लेती है। यह पृथ्वी इसी संतुलन से बची रह सकती है।
लेकिन ऊर्जा को सही ताकत धारण नहीं कर पाती है और सृजन की जगह तबाही मची रहती है। यह तबाही केवल भौतिक जगत में दिखाई दे ऐसा नहीं, कई बार मानसिक, शारीरिक, भावनात्मक और सामाजिक स्तर पर भी हो जाती है। असीमित तेज, असीमित ऊर्जा की अभूतपूर्व सुंदरी द्रौपदी को पाँच पतियों में बँटना पड़ जाता है और तब भी उसके सामने शर्त रखी जाती है कि वह चिरयौवना रहे। वह चिरयौवना तभी रह सकती है जब उसका कौमार्य अखंडित रहे। स्त्री का कौमार्य सुरक्षित रहे और तब भी वह संतुष्ट रहे तो वह द्रौपदी की तरह महाभारत तक खड़ा कर देने का सामर्थ्य पा लेती है लेकिन जिन स्त्रियों का कौमार्य सुरक्षित रहते हुए वे अतृप्त रहती है, उनमें पूर्णता का अभाव होता है वे मानसिक रूप से कुंद नज़र आती है। बड़ी उम्र तक अविवाहित रह गई लड़कियों में महिला न हो पाने की अतृप्त इच्छा उन्हें कितना संकीर्ण बना देती है, देखा ही होगा।
दूसरी ओर यदि उनकी इस ऊर्जा का दोहन लगातार होने लग जाए तब भी वे निस्तेज हो जाती है। कई शादीशुदा महिलाएँ जब विवाह में रहते हुए अपने ही पति से बलात्कार झेलती हैं तब उनके चेहरे से सारा लवण जा चुका होता है। इसका और खतरनाक उदाहरण रेड लाइट एरिया की महिलाओं का है। चेहरे पर लिपा-पुती करने पर भी उनका बेरौनक होना छिपता नहीं है। वृंदावन की गलियों में भटकती विधवाओं के साथ होने वाली घटनाएँ भी कई बार चर्चा में आ जाती है। उम्र में आई लड़की को सुरक्षित रखने का मार्ग विवाह संस्था के ज़रिए ढूँढा जाता है ताकि जैसे एक सुरक्षित रक्षा कवच मिल जाए लेकिन वह रक्षा कवच सही है या नहीं…यदि रक्षा होती है तो वह विकसित हो सकती है लेकिन कई बार रक्षा उसे कैद में ले जाती है।
अब शक्ति को देखें…स्वामी विवेकानंद*4 जैसा ओज पुरुष शक्ति के संयम का उदाहरण है। विद्यार्जन के दौरान ब्रह्मचर्य का पालन इसलिए सख्ती से कहा गया है ताकि ओज का निस्तरण बेवजा न हो। यह माना जाता है कि पुरुष कुछ देकर खाली हो जाता है और स्त्री पा लेती है। लेकिन जो इसे गहरे जानते हैं, वे ये भी जानते हैं कि जो पुरुष सचेत रहकर ताकत उड़ेलता है तो वह स्त्री से ऊर्जा प्राप्त कर सकता है। तंत्र मार्ग में इस ऊर्जा का प्रयोग काली शक्तियों के रूप में होता है। उस दुनिया के लोग इस बारे में अधिक जानते हैं। लेकिन इस शक्ति का सही इस्तेमाल हो जाए तो पुरुष कुछ देकर खाली नहीं बल्कि अधिक परिपूर्ण हो सकता है। बात यह है कि ताकत को उसकी सही ऊर्जा मिलनी चाहिए और अधिकांश मामलों में ऐसा नहीं होता है।
निष्कर्ष
सवाल है कि ऐसा क्यों नहीं होता…जैसे हर स्विच के लिए खास प्लग हो तो ही स्विच ऑन होने या सही समय आने पर ऊर्जा का प्रवाह हो सकता है। पर ऐसा नहीं होता, क्यों? क्योंकि यदि सभी को सभी सही जोड़ियाँ मिल जाएँ तो धरती पर ऊर्जा का प्रवाह अपरंपार होगा और सभी मुक्ति के मार्ग पर चल पड़ेंगे। यदि सभी को मुक्ति मिल गई तो दैवीय नाटकीय खेल समाप्त हो जाएगा। इस खेल को चलाए रखने के लिए सही जोड़े नहीं मिलते और उनकी तलाश जारी रहती है।
जो बहुत सही होते हैं वे मिलते हैं तो बहुत सही कार्य भी होता है जैसा सुधा नारायण मूर्ति। लेकिन सच्चे मिलान हो नहीं पाते, सच्चे मिलान होने नहीं दिए जाते। शीरी-फरहाद, लैला-मजनूँ, रोमियो-जूलियट,ढोला-मारू, नील-दमयंती…उदाहरण देख लीजिए…जो सच्चे थे, उन्हें मिलने नहीं दिया गया, वे मिल नहीं पाए। वे मिल जाते तो गजब कर जाते…पर वे नहीं मिले तब भी एक हो गए। उनके नाम उसी तरह साथ लिए जाते रहेंगे जैसे राधेकृष्ण, सियाराम- इनमें एक प्रेम है, एक विवाह। याने या तो प्रेम सच्चा होना चाहिए या विवाह..पर दोनों ही आधा-अधूरा होता है और हम मध्यम (मिडीओकर) जीने के इतने आदी हो जाते हैं कि उस पर ही समझौता कर लेते हैं..पर हम कम पर समझौता क्यों करते हैं? हम सही की तलाश जारी क्यों नहीं रखते? हम मुक्ति का मार्ग क्यों नहीं खोजते?
—
संदर्भ
- पद्म पुराण
- Jiles, David C. (1998). Introduction to Magnetism and Magnetic Materials
- दुर्गा सप्तशती अष्टम अध्याय
- स्वामी विवेकानन्द अपनी यूरोप यात्रा के दौरान जर्मनी गये थे। वहां कील यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर पॉल डयूसन स्वामी विवेकानन्द की अद्भुत याददाश्त देखकर दंग रह गये थे।
तब स्वामी जी ने रहस्योद्घाटन करते हुए कहा थाः ‘ब्रह्मचर्य के पालन से मन की एकाग्रता हासिल की जा सकती है और मन की एकाग्रता सिद्ध हो जाये तो फिर अन्य शक्तियां भी अपने-आप विकसित होने लगती हैं।’