उत्तर सत्य युग में राष्ट्रीय साँस्कृतिक जागरण
वर्तमान संदर्भ में मीडिया और राष्ट्रीय साँस्कृतिक जागरण
डाॕ पद्मप्रिया
असोसिएट प्रोफेसर
हिन्दी विभाग, पाँडिच्चेरी विश्वविद्यालय
आधुनिक युग में राष्ट्रों के चरित्र निर्माण में समाचार पत्र, रोडियो, टी.वी. तथा इंटरनेट का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । जनसंचार माध्यम तथा राष्ट्रों का उदय तथा विकास लगभग समानांतर चलता आ रहा है। राष्ट्रीय साँस्कृतिक जागरण निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है । भारत में इस प्रक्रिया को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है । पहला स्वतंत्रता पूर्व काल और दूसरा स्वातंत्रयोत्तर काल |
स्वतंत्रता पूर्व काल में एक तरफ उपनिवेशवादी शक्तियों से मुक्ति प्राप्त करने का संघर्ष चल रहा था तो दूसरी ओर साँस्कृतिक पहचान की स्थापना का कार्य चल रहा था । अंग्रेजों से लडाई केवल सत्ता के लिए ही नहीं थी बल्कि दो सँस्कृतियों की टकराहट भी थी । स्वातंत्र्योत्तर काल में भी भूमंडलीकरण के कारण साँस्कृतिक धरातल पर पहचान की राजनीति सक्रिय रही और आज भी विद्यमान है ।
वस्तुत: मीडिया एवं राष्ट्रवाद ऐतिहासिक रूप से एक दूसरे से अविनाभाव संबंध रखते हैं । मीडिया या जनसंचार माध्यम राजनीति को जनता तक पहुँचाने वाले सशक्त उपकरण है । राष्ट्रीय– साँस्कृतिक परिप्रेक्ष्य को प्रचार करने में ही नहीं बल्कि जनता में चेतना जागृत करने की जिम्मेदारी भी मीडिया पर है । इस संदर्भ में दो पक्ष उरते हैं ।
- मीडिया और राष्ट्रवाद
- मीडियाइ राष्ट्रवाद
उपरोक्त बिन्दुओं पर विचार करने से पहले पत्रकारिता की कुछ परिभाषाओं पर दृष्टि डालें| टाइम्स मैगज़ीन के अनुसार “पत्रकारिता इधर उधर से एकत्रित सूचनाओं का केंद्र है जो सही दृष्टि के संदेश भेजने का काम करता है जिससे घटनाओं के सहीपन को देखा जाता है ।
डॉ. अवनीश सिंह चौहान के अनुसार – “तथ्यों सूचनाओं एवं विचारों को समालोचनात्मक एवं निष्पक्ष विवेचन के साथ शब्द, ध्वनि, चित्र, चलचित्र संकेतों के माध्यम से देश–दुनिया तक पहूुँचाना ही पत्रकारिता है “। यह एक ऐसी कला है जिससे, देश, काल और स्थिति के अनुसार समाज को केंद्र में रखकर सारगर्भित एवं लोकहितकारी विवेचन प्रस्तुत किया जा सकता है ।
पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है और जनता की आवाज़ को अभिव्यक्त करने का लोकतांत्रिक उपकरण है जो सामाजिक, साँस्कृतिक, राजनैतिक, धार्मिक विषयों पर आधारित खबरों को आम जनता तक पहूुँचाता है। पत्रकार राजकिशोर के कथनानुसार – “पत्रकारिता खबरों की सौदागरी नहीं है, न उसका काम सत्ता के साथ शयन है । उसका काम जीवन की सच्चाइयों को सामने लाना है । पत्रकारिता का व्यवसाय जिम्मेदारीपूर्ण है । इसके नैतिक सिद्धांत स्पष्ट हैं । यह आंरभ में उद्योग नहीं था । आज यह एक बहुत बड़ा उद्योग बन गया है जिसका प्रमुख कार्य सूचना देना, शिक्षा और मनोरंजन के साथ–साथ लोकतंत्र की रक्षा एवं जनमत संग्रह है । संचार माध्यमों ने सूचनाओं को समाचार के द्वारा देने की प्रक्रिया में होड़ उत्पन्न कर दिया है ।
जब से दृश्य–श्रव्य माध्यमों का बोलबाला बढ़ा है तब से पत्रकारिता का स्वरूप बदलता रहा है | साथ में पत्रकारिता के नैतिक सिद्धांतों के साथ भी समझौता हुआ है । लोकतंत्र की रक्षा तथा जनमत को स्वर देना जहाँ पत्रकारिता की बुनियाद है वहाँ अब वह एजेंडा निधारण करने लगा है और सत्य, तथ्य, सटीकता, स्वतंत्रता, तटस्थता, औचित्य, निष्पक्षता, मानवीयता,आदि मूल्यों के साथ समझौता होने लगा है । इंटरनेट, निजी चैनल मोबाइल, सोशल मीडिया आदि ने अनेक परिवर्तनों को उत्पन्न किया है ।
वर्ष 2016 पत्रकारिता के क्षेत्र में विशेष महत्व रखता है । इसी साल ऑक्सफॉर्ड शब्दकोश ने पोस्ट-ट्रूथ अथवा “उत्तर–सत्य” शब्द को “वर्ड ऑफ द इयर” अर्थात “वर्ष का शब्द” घोषित किया है ।
उपरोक्त समस्त बातों को समेटकर संक्षेप में कहा जा सकता है कि –”We live in an unfinished revolutionary age of communicative abundance, networked digital machines and information flours are slowly but surely shaping practically every institution in which we live our daily lives. “
हम सूचनाओं की अधिकता के असम्पूर्ण युग में जी रहे हैं, तथा सूचना प्रवाह का संजाल धीरे–धीरे परन्तु निश्चितता के साथ समाज के उन सभी संस्थाओं को गढ़ रहा है, जिसमें हम रोज़मर्रा का जीवन जीते हैं।
इस प्रपत्र का मुद्दा राष्ट्रीय साँस्कृतिक जागरण है। राष्ट्र और संस्कृति को मीडिया निर्धारित कर रहा है। परन्तु सत्य के आधार पर नहीं बल्कि उत्तरसत्य के आधार पर जो तथ्यों पर नहीं बल्कि भावनाओं को हवा देकर झूठी खबरों पर आधारित है। पत्रकारिता की ऐसी दुरवस्था का कारण स्वयं पाठक समाज भी है। क्योंकि उसने हवाई बातों पर विश्वास करना सीख लिया है और किसी भी बात पर प्रश्न करना, संशय करना, तथ्य माँगना छोड़ दिया है। पाठक समाज सूचनाओं के बाढ़ में बह रहा है।
डिजीटल युग में राष्ट्रवाद का चेहरा भी पूर्व निर्धारित हो रहा है। भावनाओं को भड़काया जा रहा है। चैनलों पर चर्चा में शामिल होने वाले व्यक्ति विषय–विशेषज्ञ नहीं होते और कोई भी वक्ता अपनी बात को स्थिरता से , तर्कपूर्ण ढंग से प्रस्तुत नहीं कर पाता और समस्त चर्चा एक अर्थहीन शोर में बदल जाती है। इस शोर में अप्रत्यक्ष प्रतिभागी के रूप में दर्शक भी लिपट जाता है।
आज सब कुछ पर्दे पर आ गया है। दीवार से लेकर गोद और हथेली पर टी. वी, लैपटॉप, मोबाईल विराजमान है| यह उस आग की तरह है जो सही इस्तेमाल से ऊर्जा देगा और गलत प्रयोग से विस्फोट कर देगा।
आज विश्व के समस्त देश पत्रकारिता के उत्तर सत्य स्वरूप से त्रस्त है पर यह दोष मात्र पत्रकारिता का नहीं है। बल्कि राजनीति तथा भूमंडलीकरण का भी है, जहाँ सत्य की जगह वैकल्पिक सत्यों को स्थापित किया जाता है और प्रमाण की जगह भावनाओं को उछाला जाता है।
उत्तर–सत्य शब्द का प्रयोग सबसे पहले 1992 में सर्बियाई–अमरीकी लेखक स्टीन टेसिच ने अपने लेख ‘ए गवर्नमेंट ऑफ लाइस’ (झूठ की सरकार) में किया था। टेसिच ने अमरीकी जनता को बुश (वरिष्ट) के झूठ को सिर झुकाकर स्वीकार करने तथा सचेत रूप से उत्तर–सत्य स्थितियों में जीने की आलोचना की थी। 2004 में इस शब्द का प्रयोग पुन: राल्फ कीस की पुस्तक ‘उत्तर–सत्य युग’ में प्रयुक्त हुआ। 2006 में अमरीकी चुनावों के दौरान यह अधिक लोकप्रिय हुआ। परन्तु इस प्रक्रिया ने भारत में भी परिणाम उत्पन्न किए। उत्तर–सत्य युग में सत्य को नकारा नहीं जाता मतलब यह नहीं कहा जाता कि सत्य होता है, बल्कि यह माना जाता है कि सत्य जरूरी नहीं है। सत्य वही है जो बोला जा रहा है, जो दिखाया जा रहा है और जो एजेण्डा के तहत निर्धारित है। जनता को सोचने–समझने का मौका भी नहीं मिलता। जनता को निरंतर निर्धारित एजेण्डा की घुट्टी दृश्य–श्रव्य माध्यमों द्वारा अविरल पिलाकर विश्वास दिलाया जाता है और एक सामूहिक भावनाओं के पुँज का भी निर्माण हो जाता है जो आर्थिक–राजनैतिक उद्देश्यों को पूरा करता है। यह सब कुछ ब्रेकिंग न्यूज की होड़ में किया जाता है और सच–झूठ का अंतर मिट जाता है जो एक सामूहिक बल प्राप्त करता है। इसका उपयोग सत्तासीन शक्तियाँ अपनी विचार धारा के अनुसार अपने लाभ के लिए करती है। अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के साथ ही फेक न्यूज और पोस्ट–द्रूथ की प्रक्रिया सुदृढ़ हुई।
इस प्रकार वर्तमान संदर्भ में मीडिया और राष्ट्रवाद का अंत:सम्बन्ध मीडियाई राष्ट्रवाद का निर्माण करता है और विभिन्न सँस्कृतियों को वस्तु में बदल कर बिकाऊ बना देते हैं। ऐसा नहीं है कि इतिहास में पहले कभी शासकों ने झूठ को बढ़ावा नहीं दिया या किसी उद्देश्य प्राप्ति के लिए जन–संचार माध्यमों का प्रयोग नहीं किया। परन्तु अंतर यह है कि आधुनिक राष्ट्रों तथा राष्ट्रवाद के उदय से लेकर वर्तमान राष्ट्रों एवं राष्ट्रवाद की संकल्पना से लेकर स्थापना तक मीडिया के नैतिक मूल्यों में परिवर्तन हुआ है। सच को हटाकर झूठ को स्थापित कर दिया गया है और झूठ को सच कहा जा रहा है। जनता को जहाँ सूचनाएँ आसानी से उपलब्ध हैं वहीं सूचनाओं के आधिक्य ने अस्पष्टता तथा निष्क्रियता को भी बढ़ावा दिया है।
भारत में स्वतंत्रता पूर्व काल में पत्रकारिता ने सत्य, तथ्य, सुधार, प्रचार, प्रसार को नैतिक मूल्यों के साथ राष्ट्रीय सांस्कृतिक चरित्र का निर्माण किया वहीं वर्तमान संदर्भ में पत्रकारिता उत्तर–सत्य परिवेश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के व्यवसाय में डूबती–उतराती नजर आ रही है।
अॕानलाइन संदर्भ –
- नेशनलिज्म,पोप्यूलिज्म एंड पॉस्ट ट्रूथ- बाईफ्रास्ट यूनिवर्सिटी |
- मीडिया बयास/फास्ट चेक/पोस्ट ट्रूथ प्राबलम्स |
- सोल्यूशन्स फॉर पोस्ट ट्रूथ- टाॕम रेफर्टी |